एक समय वृन्दावन केवल एक वन मात्र था। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ब्रज भूमि में कुल १२ वन थे। वृन्दावन उनमें से एक है। यमुना नदी के तीर स्थित इस वन में श्री कृष्ण ने गोपिकाओं के संग अनेक बाल लीलाएं रचाई हैं। यहीं चीर घाट पर स्नान के लिए आयी गोपियों के वस्त्र चुराकर वे वृक्ष पर चढ़ गए थे। यहीं समीप ही उन्होंने कालिया नाग का वध भी किया था।
इसी वन में उन्होंने रास लीला रचाई थी। आपको विश्वास नहीं होगा किन्तु ऐसा माना जाता है की कृष्ण अब भी प्रत्येक रात्रि एक अन्य छोटे वन में गोपियों संग रास रचाते हैं।
वृन्दावन का संक्षिप्त इतिहास
वृन्दावन का शब्दशः अर्थ है पवित्र तुलसी का वन। किवदंतियों के अनुसार श्री कृष्ण की एक गोपिका सखी का नाम वृंदा था।
यह क्षेत्र वास्तव में विस्मृति में लुप्त एक वन था। चैतन्य महाप्रभु १६ वी. सदी में श्री कृष्ण से संबंधित स्थलों की खोज करते यहाँ आए थे। जैसे जैसे शास्त्रों में उल्लेख किया गया था, वैसे वैसे वे स्थलों से तादाम्य स्थापित कर रहे थे। उसी समय वृन्दावन नगरी की उत्पत्ति हुई थी। आज यह छोटे-बड़े मंदिरों तथा वानरों से भरी एक देवनगरी है। इसके वर्तमान स्वरूप को देख इसे वन मानने के लिए आपकी अपार कल्पना शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी।
मेड़ता एवं मेवाढ की १६ वीं. सदी की भक्ति कवियित्री मीराबाई ने भी इस स्थान में पर्याप्त समय व्यतीत किया था। उनकी स्मृति में यहाँ एक मंदिर भी है जो उन्हे समर्पित है। यद्यपि भूलोक में उन्होंने अंतिम श्वास गुजरात में द्वारका के समीप बेट द्वारका में लिया था जब चिरकाल के लिए अपने परम प्रिय श्री कृष्ण से उनका मिलन हो गया था।
औरंगजेब के शासनकाल में इन क्षेत्र के मंदिरों पर आतताईयों ने भरपूर आक्रमण किया था। कल्पना कीजिए, दिल्ली एवं आगरा जैसी मुगलों की राजधानियाँ एवं उनके मध्य स्थित मंदिरों से भरा यह क्षेत्र। यहाँ के अनेक मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था। देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियों को यहाँ से अन्यत्र स्थानांतरित करना पड़ा था।
वृन्दावन के महत्वपूर्ण मंदिर
वृन्दावन का पावन क्षेत्र मंदिरों से भरा हुआ है। इन सब के दर्शन करना तभी संभव है जब आप यहाँ निवास कर रहे हों। अधिकतर तीर्थयात्री उन्ही मंदिरों के दर्शन करते हैं जिनसे वे अथवा उनके गुरु संबंधित हों। इन के साथ वे कुछ लोकप्रिय अथवा प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन करते हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर – श्री बाँके बिहारी मंदिर
श्री बाँके बिहारी मंदिर इस पावन नगरी का सर्वाधिक लोकप्रिय तथा इसी कारण सर्वाधिक भीड़भाड़ भरा मंदिर है। आप यहाँ किसी भी समय आयें, मंदिर में भक्तों व दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। मंदिर में स्थित बाँके बिहारी जी की मूर्ति स्वामी हरीदास को समीप स्थित निधिवन में प्राप्त हुई थी। १८ वीं. सदी में इसी मूर्ति के चारों ओर मंदिर की संरचना की गई। मंदिर के बाहर स्थित मार्ग पर स्वामीजी का स्वयं का मंदिर भी है।
ऐसी मान्यता है कि इस मूर्ति के भीतर राधा एवं कृष्ण दोनों बसते हैं। इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है कि यह पूर्वान्ह ९ बजे के पश्चात ही खुलता है। यहाँ किसी भी सामान्य मंदिर के समान प्रातःकाल की मंगल सेवा नहीं होती।
इस मंदिर की वास्तुकला एक हवेली के समरूप है। मध्य में एक खुला प्रांगण है जहां खड़े होकर आप भगवान के दर्शन करते हैं। एक स्तंभ पर पीतल में निर्मित कामधेनु एवं उसके शावक की अप्रतिम प्रतिमा है।
आप इस मंदिर का माखन मिश्री प्रसाद खाना ना भूलें। यह अत्यंत ही स्वादिष्ट होता है। इस प्रकार का प्रसाद इस मंदिर के अतिरिक्त केवल द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर में ही दिया जाता है।
यूँ तो वृन्दावन, मथुरा एवं ब्रज के सभी मंदिरों में होली मनाई जाती है, तथापि यह मंदिर होली का उत्सव मनाने के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। अधिक जानकारी के लिए मंदिर का वेबस्थल देखें।
गोविंद देव मंदिर
१६ वीं. सदी में जयपुर के राजा मान सिंह द्वारा निर्मित यह मंदिर कभी एक भव्य मंदिर रहा होगा। लाल बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित यह मंदिर एक समय सात तलों का मंदिर था। इसके ऊपरी ३ से ४ तलों को औरंगजेब ने ध्वस्त कर दिया था। वर्तमान में यह मंदिर शिखर रहित है। शिखर के बिना भी यह मंदिर अत्यंत विशाल प्रतीत होता है। अपने स्वर्णिम काल में यह अखंडित मंदिर कितना भव्य रहा होगा, आज हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं। गलियों में भ्रमण करते समय अपने लाल रंग के साथ यह मंदिर आसपास की दुकानों के समूह में पृथक छवि प्रस्तुत करता है।
१८ वीं. सदी में जब इस मंदिर पर आक्रमण किया गया था तब भगवान की प्रतिमा को जयपुर स्थानांतरित किया गया था। उसी विग्रह अर्थात प्रतिमा की अब जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में प्रतिदिन ७ बार पूजा-अर्चना की जाती है।
श्री रंगनाथजी मंदिर – एक दक्षिण भारतीय मंदिर
१९ वीं. सदी के मध्य काल में निर्मित यह मंदिर भारत भर के कृष्ण भक्तों के संगम का द्योतक है। चटक रंगों का ऊंचा गोपुरम आपको तुरंत तमिल नाडु का स्मरण करा देगा। यद्यपि गोपुरम पर स्थित झरोखे एवं अलंकृत मुंडेर स्थानीय वास्तुशिल्प की झलक दिखाते हैं तथापि मंदिर परिसर का अंतरंग आपको वस्तुतः दक्षिण भारत पहुँचा देता है।
इस मंदिर में भी दक्षिण भारत के मंदिरों के समान रथ जात्रा का उत्सव मनाया जाता है। इस मंदिर के पुजारी भी तमिल नाडु के मंदिरों के पुजारियों के समान रूखा व्यवहार करते हैं।
इस मंदिर का निर्माण मथुरा के तीन प्रतिष्ठित सेठों ने करवाया था। वे हैं, लक्ष्मीचंद सेठ, राधाकृष्ण सेठ तथा गोविंददास सेठ।
श्री राधा वल्लभ मंदिर
इस मंदिर का निर्माण श्री राधावल्लभ संप्रदाय के संस्थापक गोस्वामी हरिवंश महाप्रभू ने करवाया था जिन्हे भगवान कृष्ण की बाँसुरी का अवतार माना जाता है। यह मंदिर मेरे अब तक के देखे सबसे जीवंत मंदिरों में से एक है। कुछ लोग संगीत वाद्य बजा रहे थे जिसकी तान पर भक्तगण नाच रहे थे तथा होली खेल रहे थे।
गर्भगृह के भीतर मुरली बजाते कृष्ण की प्रतिमा है जबकि राधा की उपस्थति केवल उनके मुकुट द्वारा दर्शाई गई है। है ना यह मंदिर की अनोखी विशेषता?
इस मंदिर का दैनिक श्रृंगार आप इस फेसबुक पन्ने पर देख सकते हैं।
श्री मदन मोहन मंदिर
इस क्षेत्र के अनेक मध्यकालीन मंदिरों की भांति यह मंदिर लाल बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित है। यह ऊंचा मंदिर कलिदाह घाट के समीप द्वादशादित्य टीला नामक पहाड़ी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए आपको कुछ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ेंगी। इस मंदिर का निर्माण मुल्तान के एक सेठ ने करवाया था। इस मंदिर की मूल प्रतिमा को राजस्थान के एक सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित किया गया था। अब उसी प्रतिमा के प्रतिरूप की यहाँ आराधना की जाती है।
मुख्य मंदिर ऊंचा एवं संकरा है। इसके एक ओर एक छोटा मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ, लाल बलुआ पत्थर में ही निर्मित एक मंडप भी है जो मंदिर से जुड़ा हुआ नहीं है।
श्री राधा रमण मंदिर
गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा निर्मित १६वीं. सदी का यह मंदिर अत्यंत मनभावन है। वे ७ शिलाओं अथवा शालिग्रामों के साथ यहाँ आए थे। शालिग्राम नेपाल के गण्डकी नदी में पाया जाने वाला एक पत्थर है जिसे विष्णु का स्वरूप माना जाता है। गोस्वामीजी उनकी नित्य पूजा अर्चना करते थे तथा रात्री के समय उन्हे सींक की टोकरी से ढँक देते थे। एक दिन प्रातः जब उन्होंने टोकरी उठाई, एक शालिग्राम पत्थर कृष्ण की मूर्ति में परिवर्तित हो गई थी। इस मंदिर में कृष्ण की उसी मूर्ति की पूजा की जाती है। चूंकि यह मूर्ति स्वयं प्रकट हुई थी, इसे जीवंत अथवा जाग्रत मूर्ति माना जाता है।
राधा रमण का शाब्दिक अर्थ है राधा को रमने वाला अर्थात राधा का मन मोहने वाला, जो कोई और नहीं, अपितु कृष्ण हैं। मंदिर के विषय में अधिक जानकारी आपको मंदिर के वेबस्थल पर प्राप्त हो सकती है।
राधा दामोदर मंदिर
यह भी १६वीं. सदी में निर्मित मंदिर है जिसे गोस्वामी श्रीला जीवा ने बनवाया था। मंदिर की मूर्तियाँ उन्हे अपने काका श्रीला रूप गोस्वामी से प्राप्त हुई थी। यह मंदिर भी यहाँ से जयपुर स्थानांतरित किया गया था। १८वीं. सदी में यह मंदिर जयपुर से वापिस यहाँ लाया गया। यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जिसे अपना मूल स्थान पुनः प्राप्त हुआ है।
यह मंदिर गिरिराज चरण शिला के लिए प्रसिद्ध है। यह शिलाखंड, जिस पर श्री कृष्णजी के पदचिन्हों की छाप है, गिरिराज पर्वत से लाया गया है। इस पर गौमाता के पदचिन्हों की भी छाप है। इस मंदिर के विषय में अधिक जानकारी आप मंदिर के वेबस्थल से प्राप्त कर सकते हैं।
गरुड़ गोविंद मंदिर
यह मंदिर छटीकरा में गरुड़ गोविंद कुंड के समीप स्थित है। इस मंदिर की विशेषता है कि इस मंदिर के प्रमुख देव को गरुड़ की सवारी करते दर्शाया गया है। गरुड़ की सवारी करते भगवान विष्णु को आप सामान्यतः किसी मंदिर में नहीं देखेंगे। विग्रह अर्थात प्रतिमा को देखने के लिए आपको पुजारीजी से निवेदन करना पड़ेगा, अन्यथा उनका मूल रूप भव्य शृंगार से ढँका रहता है।
परिसर में एक अन्य छोटे से मंदिर के भीतर गरुड़ की पत्थर की मूर्ति है जिसमें वे हाथ जोड़कर बैठे हुए हैं। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की यह मूर्ति सम्भवतः किसी स्तंभ के ऊपर स्थापित थी। किन्तु इसके विषय में विस्तृत जानकारी देने के लिए वहाँ कोई जानकार उपलब्ध नहीं था।
बनखंडी महादेव मंदिर
यह प्राचीन शिव मंदिर नगर के प्रमुख बाजार की एक गली में स्थित है। ऐसा माना जाता है कि यह वही स्थान है जहां श्रीला सनातन गोस्वामी को शिव का वरदान प्राप्त हुआ था। मंदिर के भीतर काली की एक विशाल मूर्ति है। राधा कृष्ण तो इस पावन नगरी के प्रत्येक मंदिर में उपस्थित होते हैं।
वंशीवट तथा गोपेश्वर महादेव मंदिर
वंशीवट वह स्थान है जहां श्री कृष्ण शरद पूर्णिमा के दिन बंसी बजाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि बंसी की तान सुनते ही राधाजी एवं अन्य गोपिकाएं अपने सभी कार्य वहीं छोड़कर इस स्थान की ओर दौड़ पड़ती थीं। वे कृष्ण की रासलीला का भाग बन जाती थीं तथा घर वापिस जाने के लिए कतई इच्छुक नहीं रहती थीं।
इसी परिसर में एक छोटा शिव मंदिर भी है जो शिव के गोपेश्वर महादेव स्वरूप को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि कृष्ण की रासलीला में सम्मिलित होने के लिए महादेव ने स्वयं एक गोपिका का रूप धरा था। जैसे ही कृष्ण की दृष्टि उन पर पड़ी, उन्होंने उन्हे उनके नाम योगेश्वर के स्थान पर गोपेश्वर कहकर पुकारा था।
कात्यायनी देवी मंदिर
यह मंदिर देवी के कात्यायनी रूप को समर्पित है। मुझे बताया गया कि यहाँ नवरात्रि का उत्सव अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। इस मंदिर में देवी की अष्टधातु में निर्मित मूर्ति स्थापित है। मुझे स्मरण है, अत्यधिक तादात में उपस्थित वानर मुझे भयभीत कर रहे थे तथा मैं देवी का छायाचित्र भी नहीं ले पा रही थी। तब पुजारीजी वानरों को डराने के लिए एक लकड़ी ले कर आए तथा मुझे निर्भय होकर चित्र लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि, मैं साथ हूँ, तुम बिना भय के चित्र ले लो। एक आनंदित स्थल पर रहने की निडरता!
इस्कॉन वृन्दावन – कृष्ण बलराम मंदिर
इस्कॉन मंदिर सभी हिन्दू मंदिरों में सर्वाधिक उत्तम रखरखाव युक्त मंदिर है। यद्यपि इसके अनुयायी अधिकतर गैर-भारतीय हैं। १९७५ में निर्मित यह मंदिर इस माटी के दोनों भ्राताओं का उत्सव मनाता है, अर्थात कृष्ण एवं बलराम।
इस्कॉन का इस नगरी में एक अक्षय पात्र इकाई भी है जिसमें तीर्थ यात्रियों के ठहरने की भी व्यवस्था है। अपनी पिछली यात्रा के समय मैंने यहाँ का रसोईघर देखा था जहां हजारों शालेय विद्यार्थियों के लिए मध्यान्ह आहार बनाया जाता है। किस प्रकार वे भाप एवं स्वचालित मशीनीकरण द्वारा पोषक एवं स्वास्थ्यवर्धक भोजन बनाते हैं, यह देखना अत्यंत मनोरंजक होता है।
वृन्दावन प्रेम मंदिर
यह इस नगरी का नवीनतम तथा अत्यंत लोकप्रिय मंदिर है। मैंने जब कुछ वर्षों पूर्व इसके दर्शन किए थे, तब संगमरमर द्वारा निर्मित यह मंदिर निर्माणाधीन था। कृपालु महाराज द्वारा बनाये गए इस मंदिर में दो गर्भगृह हैं। एक गर्भगृह राधा कृष्ण को तथा दूसरा गर्भगृह राम सीता को समर्पित है। यह एक विशाल मंदिर है जिसमें श्वेत संगमरमर पर राधा कृष्ण की रंगबिरंगी छवियाँ रची हुई हैं। यह मंदिर वैष्णव समाज के अनेक संतों को भी सम्मानित करता है।
वैष्णो देवी मंदिर
यह अपेक्षाकृत नवीन मंदिर है जिसमें अपने सिंह की पीठ पर विराजमान दुर्गा माँ की विशाल प्रतिमा है। उनके नीचे एक गुफा के भीतर देवी के नौ रूपों के विग्रह हैं।
वृन्दावन के अन्य दर्शनीय स्थल
वृन्दावन की पावन नगरी में मंदिरों के अतिरिक्त भी अनेक दर्शनीय स्थल हैं जहां आप जा सकते हैं।
निधि वन
एक पवित्र वन जहां आप पैदल सैर कर सकते हैं तथा राधा को समर्पित मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। यह मंदिर चूड़ियों एवं श्रंगार की अन्य वस्तुओं से भरा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि आज भी यहाँ प्रत्येक रात्रि राधा एवं कृष्ण का मिलन होता है। संध्या के समय पुजारीजी रंग महल के भीतर उनका बिछौना सजाते हैं तत्पश्चात वहाँ से दूर चले जाते हैं। अंधकार होते ही भीतर किसी को भी ठहरने की अनुमति नहीं है। प्रचलित किवदंतियों के अनुसार जिसने भी इस नियम का पालन नहीं किया तथा जानबूझकर वहीं ठहर गए, वे प्रातः मृत पाए गए।
निधि वन के परिसर में कवि एवं संगीतज्ञ स्वामी हरिदासजी की समाधि है। उन्हे ललिता सखी का अवतार माना जाता है। वे यहीं अपनी साधना करते थे। अकबर के दरबार के एक सदस्य, सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन यहीं स्वामी हरिदासजी से भेंट करने आए थे। उनकी कुछ रचनाएं यहाँ शिलाओं पर भी उत्कीर्णित हैं।
श्री बाँके बिहारी मंदिर के भीतर स्थापित मूर्ति, जिसका मैंने उपरोक्त उल्लेख किया था, यहीं प्राप्त हुई थी।
आप जब आसपास घूमेंगे, तब आपको कुंज बिहारी को समर्पित एक मंदिर दिखायी देगा। निधि वन में ललित कुंड नामक एक बावड़ी भी है। यहाँ कई वृक्षों को सिंदूर अर्पण करने की प्रथा है। उन्हे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे लाल विवाह-वस्त्रों में सजी वधुएं हैं।
कालियादेह
यह एक अत्यंत मनोहारी मंदिर है जो आपको श्री कृष्ण द्वारा कालिया नाग के वध की कथा का स्मरण कराएगा। यह मंदिर यमुना के कलियादेह घाट के समीप है। लाल बलुआ पत्थर में निर्मित यह एक छोटा सा पुराना मंदिर है जो कालिया वध की कथा का आधुनिक प्रस्तुतीकरण करता है।
इसके एक ओर कदंब का वृक्ष है। ऐसा बताया जाता है कि जब कालिया के जहर से यमुना का सम्पूर्ण जल विषैला हो गया था तब यही एक वृक्ष था जो सकुशल जीवित बचा था। आज इसकी इच्छापूर्ति वरदायिनी वृक्ष के रूप में पूजा की जाती है।
सेवा कुंज
निधि वन के समान यह भी कदाचित निकुंज नामक एक वनीय क्षेत्र था। यह वही स्थल है जिसे रासलीला के स्थान के रूप में जाना जाता है।
वृन्दावन शोध संस्थान संग्रहालय
वृन्दावन शोध संस्थान के परिसर में स्थित यह एक सुंदर संग्रहालय है। आप यहाँ स्थानीय कलाकृतियाँ, राधा कृष्ण का विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रदर्शन तथा अनेक पांडुलिपियाँ देख सकते हैं। यहाँ अनेक मनमोहक चित्रकलाएँ, सचित्र पांडुलिपियाँ तथा अनेक कलाकृतियाँ प्रदर्शित किए गए हैं, जैसे बाँके बिहारी मंदिर से लाई गई प्राचीन बाँसुरी तथा ब्रज के विभिन्न उत्सवों का विस्तृत वर्णन इत्यादि।
मेरा सुझाव है कि आप इस संग्रहालय में पर्याप्त समय बिताएं ताकि आप कला के माध्यम से वृन्दावन नगरी को भली भांति समझ पाएंगे। संग्रहालय की दुकान से आप शोध पुस्तकें खरीद भी सकते हैं।
खण्डेलवाल ग्रंथालय
यह पुस्तक की दुकान ब्रज पर लिखी अनेक पुस्तकों का भंडार है जिसमें ब्रज का इतिहास तथा ब्रज के मंदिरों में गायी जाने वाली होली गीतों का संकलन प्रमुख हैं। वैसे भी मुझे स्थानीय पुस्तकों की दुकानों में जाना अत्यंत भाता है। ऐसी दुकानें बहुधा अब भी अपनी पुरानी पद्धति से चलती हैं जो मुझे बीते दिनों का स्मरण कराती हैं। इन दुकानों के मालिक एवं कर्मचारियों से पुस्तकों के विषय में चर्चा करना मुझे विशेष भाता है। उन्हे अपनी दुकान की प्रत्येक पुस्तक के विषय में सम्पूर्ण जानकारी होती है। वे केवल आप से आपकी इच्छित पुस्तक अथवा विषय पूछते हैं, तत्पश्चात उस विषय में सर्वोत्तम पुस्तक आपके समक्ष लाकर रख देते हैं। यदि उनके पास उस विषय में पुस्तक ना हो तो वे आपको अन्य दुकानों के सुझाव देने में भी पीछे नहीं हटते।
यमुना नदी में नौका विहार
आप यहाँ कुछ समय यमुना के घाट पर व्यतीत कर सकते हैं। यदि वातावरण सुहाना हो तो नौका सवारी का भी आनंद उठा सकते हैं।
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वृन्दावन परिक्रमा
वृन्दावन के चारों ओर एक पंचक्रोशी (पाँच कोस की ) परिक्रमा आयोजित की जाती है। यह यात्रा लगभग १० की.मी. लंबी है जिसे लगभग तीन घंटों में आसानी से पूर्ण किया जा सकता है। परिक्रमा पथ की सम्पूर्ण जानकारी आप इस वेबस्थल से प्राप्त कर सकते हैं।
यह परिक्रमा आप किसी भी दिन, किसी भी समय कर सकते हैं। यह परिक्रमा आप किसी भी स्थान से आरंभ कर सकते हैं, किन्तु इसका समापन उसी स्थान पर होना चाहिए जहां से आपने आरंभ किया था। कई भक्तगण यह परिक्रमा एकादशी के पावन दिवस पर करते हैं। परिक्रमा करते समय आप किसी मंत्र का उच्चारण करते रहें तो उत्तम होगा। यह आपका ध्यान अपने लक्ष पर केंद्रित रखने में सहायक होगा। कुछ भक्त परिक्रमा के लिए उपवास भी रखते हैं। उपवास रखना आपका निजी विकल्प व निर्णय होगा। यह आवश्यक नियम नहीं है।
परिक्रमा में पैदल चलना कठिन कदापि नहीं है। आप बिना जूते-चप्पलों के भी आसानी से चल सकते हैं, जैसा कि सामान्यतः किया जाता है।
वृन्दावन के मंदिरों में आयोजित विभिन्न उत्सव
- वृन्दावन के विषय में प्रचलित कहावत है, ७ वार, ९ त्यौहार। अर्थात ब्रज में एक सप्ताह में सात वार एवं ९ त्यौहार होते हैं। जो स्थल कृष्ण के बालपन में उनका क्रीड़ास्थल था, वहाँ प्रत्येक दिवस एक उत्सव के समान है।
- होली यहाँ का सर्वाधिक लोकप्रिय उत्सव तथा पर्व है जिसे देखने दूर-सुदूर से पर्यटक ब्रजभूमि आते हैं। ‘मथुरा के वृन्दावन में होली’ मेरा यह संस्मरण आपको इस होली की विस्तृत जानकारी देगा एवं प्रत्यक्ष ब्रज की होली के दर्शन कराएगा।
- कृष्ण जन्माष्टमी अर्थात कृष्ण का जन्मदिवस इस नगरी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशालतम उत्सव है। इसके १५ दिवस पश्चात राधाष्टमी अर्थात राधा के जन्म का उत्सव मनाया जाता है।
- प्रत्येक एकादशी के दिन मंदिरों में उत्सव का आयोजन किया जाता है।
- कुछ उत्सव अत्यंत स्थानीय हैं, जैसे कृष्ण द्वारा कसं के वध का उत्सव अथवा कसं वध मेला। अन्य उत्सवों में लट्ठे का मेला, रथ का मेला इत्यादि सम्मिलित हैं।
- कवि सम्मेलन ब्रज का अत्यंत प्रचलित आयोजन है। यदि आप ब्रज बोली समझ सकते हैं तो यह कवि सम्मेलन अत्यंत मनोरंजक व रोचक होता है।
- वृन्दावन परिक्रमा वर्ष भर आयोजित की जाती है।
वृन्दावन के स्वादिष्ट व्यंजन अवश्य चखें
मथुरा के पेड़े मथुरा वृन्दावन के मंदिरों का विशेष एवं प्रिय चढ़ावा है। आप इन्हे अवश्य चखें। मथुरा में ये पेड़े कैसे बनाए जाते हैं इस पर मैंने एक संस्करण लिखा है। इसे भी अवश्य पढ़ें।
ब्रज भूमि में मेरा प्रिय व्यंजन है कचोड़ी, तत्पश्चात बेड़मी पूरी जो केवल सुबह के समय ही उपलब्ध होती है।
यहाँ की लस्सी भी अत्यंत स्वादिष्ट होती है। गर्मियों में जलजीरा भी अत्यंत प्रचलित है। आप जब भी वृन्दावन आयें मौसम के अनुसार वहाँ के प्रत्येक व्यंजन का आस्वाद लें। भले ही ये वस्तुएं आपके नगरों में भी मिलती हों किन्तु प्रत्येक स्थान का अपना एक विशेष स्वाद होता है।
वानरों का उत्पात
आपकी वृन्दावन यात्रा में वानर अवश्य खलल डाल सकते हैं। ये वानर आपको प्रत्येक मंदिर, प्रत्येक गली तथा प्रत्येक घाट पर मिलेंगे। ये आप पर किसी भी वस्तु के लिए हमला कर सकते हैं। उनकी प्रिय वस्तुएं हैं, मोबाईल फोन, कैमरा, चश्मे तथा हाथ में पकड़े अथवा लटके पर्स। बाँके बिहारी मंदिर की गलियों में मैंने स्वयं उन्हे मार्ग पर चश्मा पहनकर चलते लोगों के ऊपर छलांग लगाते, चश्मा छीनते तथा उन्हे तोड़कर मजा करते देखा है। यदि आपके पास खाने-पीने की कुछ वस्तु हो तो उनसे बचकर यहाँ से जाना लगभग असंभव है।
कुछ वानरों की विशेष रुचि होती है जैसे फ्रूटी। यदि उन्होंने आपकी कोई वस्तु छीन ली हो तो उन्हे फ्रूटी खरीदकर दे दें। वे आपकी वस्तु वापिस कर देंगे। वहाँ के स्थानीय लोगों अथवा पुजारी को उनकी प्रिय वस्तु की जानकारी अवश्य होती है।
मुझ पर भी वानरों ने राधा वल्लभ मंदिर में हमला किया था। एक वानर मेरा कैमरा छीन कर ले गया तो दूसरा मेरे गले में लटका मेरा पर्स छीनने लगा था। उसने लगभग मेरा दम घोंट दिया था। यूँ तो आपको ब्रज भूमि में लगभग सभी स्थानों पर वानरों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होगा, वह चाहे मथुरा हो या गोवर्धन, बरसाना हो अथवा गोकुल, किन्तु वृन्दावन में पाए जाने वाले वानरों से अधिक उपद्रवी कदाचित ही कहीं होंगे।
अतः नगर में कहीं भी जाते समय इस तथ्य के प्रति जागरूक रहें।
वृन्दावन कैसे पहुँचें?
वृन्दावन मथुरा से १० किलोमीटर उत्तर में, आगरा से ५० किलोमीटर तथा दिल्ली से लगभग १५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यदि आप दिल्ली से सड़क मार्ग द्वारा पहुंचना चाहते हैं तो आप प्रथम वृन्दावन पहुंचेंगे, तत्पश्चात मथुरा। वर्तमान में ये दोनों लगभग जुड़वा नगरों में परिवर्तित हो चुके हैं।
वृन्दावन सड़क तथा रेल मार्ग द्वारा भारत के सभी प्रमुख स्थलों से जुड़ा हुआ है। निकटतम विमानतल नई दिल्ली है।
वृन्दावन में भ्रमण करने के लिए ई-रिक्शा सर्वोत्तम साधन है। आप उपरोक्त उल्लेखित तीर्थ मार्ग पर पैदल भी भ्रमण कर सकते हैं।
नगर में ठहरने के लिए सभी श्रेणी के अतिथिगृह उपलब्ध हैं। कई यात्री यहाँ उपलब्ध आश्रमों में भी ठहर सकते हैं जैसे इस्कॉन मंदिर का आश्रम।