रेशमी साड़ियाँ स्त्रियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी कोमलता, सौम्य कांति तथा विविधता सदियों से स्त्रियों को आकर्षित करती रही हैं। उन पर किया गया ज़री का काम उनकी शोभा को द्विगुणीत कर देता है और इन साड़ियों को अधिक मूल्यवान बना देती है। सुनहरी एवं रुपहली बुनकरी साड़ियों की प्राकृतिक शोभा में भव्यता का एक नवीन आयाम जोड़ देती हैं।
प्राचीन काल में सुनहरी एवं रुपहली ज़री शुद्ध सोने एवं चाँदी धातु से निर्मित तंतुओं द्वारा तैयार की जाती थीं जिससे ज़री को सोने से सुनहरा तथा चाँदी से श्वेत सा रंग प्राप्त होता है। अतः काल के साथ साड़ियाँ जीर्ण होने के पश्चात भी उनमें उपस्थित सोने एवं चाँदी मौल्यवान रहते थे। कांचीपुरम जैसे नगरों में अनेक साड़ी भण्डार ऐसी पुरानी साड़ियाँ क्रय करते हैं ताकि उनमें से सोना अथवा चाँदी पुनः प्राप्त कर सकें।
काल के साथ सोने एवं चाँदी के मूल्यों में इतनी वृद्धि हो गयी है कि शुद्ध सोने अथवा चाँदी की ज़री अधिकतर ग्राहकों की पहुँच से बाहर हो गयी है। अतः साड़ियों की शोभा एवं अलंकरण से समझौता ना हो तथा साड़ियों की सुनहरी एवं रुपहली ज़री में उसी प्रकार की कान्ति प्राप्त हो, इस उद्देश्य से अन्य धातुओं पर अनेक शोध कार्य किये गए जिनके मूल्य अधिक नहीं हैं। इसमें ताम्बे के तंतुओं पर चाँदी का लेप लगाना अथवा सोने की परत चढ़ाना, सूती घागे पर चाँदी के महीन तंतु को लपेटना आदि सम्मिलित हैं। अब अनेक प्रकार के कृत्रिम ज़री का भी प्रयोग होने लगा है। उस प्रकार की साड़ियों का अपना भिन्न ग्राहक समूह है।
आईये मैं आपको असली ज़री की कार्यशाला में ले जाती हूँ जहां चाँदी द्वारा महीन केश-सदृश तंतु तैयार किये जाते हैं तथा उन्हें कोमल रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है।
सोना-रूपा (सुनहरी एवं रुपहली ज़री)
पारंपरिक रूप से बुनकरों की भाषा में सोने की ज़री को सोना तथा चाँदी वाली को रूपा कहते हैं। वस्तुतः, भारत के अनेक क्षेत्रीय भाषा में चाँदी को रूपा ही कहा जाता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘रौप्य’ से हुई है जिसका अर्थ चाँदी होता है। इसी से हमारी भारतीय मुद्रा को रुपैय्या या रूपया नाम प्राप्त हुआ है। दूसरी ओर, ज़री शब्द की व्युत्पत्ति पारसी शब्द ज़र से हुई है जिसका अर्थ है सोना। भारत में पारंपरिक रूप से इसे कलाबत्तू या कलाबस्त्र कहा जाता था, किन्तु इस नाम का प्रयोग अब क्वचित ही होता है।
सुनहरी एवं रुपहली, दोनों प्रकार की ज़री में प्राथमिक सामग्री चाँदी ही है। सोने की ज़री बनाते समय चाँदी के तंतु पर सोने के पानी चढ़ाया जाता है।
पुरातन काल में कारीगर चाँदी की ज़री को हल्दी के गर्म जल में डुबोकर रखते थे जिससे चाँदी के तंतु हल्दी के प्राकृतिक पीले रंग को सोख लेते थे। कुछ समय पश्चात वे सोने की ज़री का आभास देते थे। इस प्रकार की ‘हल्दी’ ज़री प्राकृतिक होने के पश्चात भी स्थाई नहीं होती थी। कुछ समय पश्चात पीला रंग धूमिल होने लगता था।
शनैः शनैः आधुनिक विद्युतलेपन तकनीक (electroplating techniques) ने वाराणसी जैसे पारंपरिक रेशम समूहों की गलियों में प्रवेश करना आरम्भ किया। वर्तमान में सुनहरी ज़री बनाने के लिए इस तकनीक का विपुलता से प्रयोग किया जाता है। सोने के चढ़ते भाव के कारण शुद्ध सुनहरे रंग की ज़री का प्रयोग शीघ्रता से घट रहा है। वर्तमान में सुनहरी ज़री रोगन तकनीक द्वारा निर्मित की जा रही है। इसमें सोने की ज़री का आभास देने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह सोने जैसा प्रतीत होता है किन्तु यथार्थ में सोना नहीं होता है। वर्तमान में रसायनों का प्रयोग सुनहरे रंग की चमक में भिन्नता लाने के लिए भी किया जाता है जिसके द्वारा इसे उज्वल चमकीले रंग से मंद चमकरहित रंग तक परिवर्तित किया जा सकता है।
ज़री के विभिन्न प्रकार
वर्तमान में सर्वाधिक शुद्ध ज़री केवल चाँदी में ही बनाई जाती है। उसका मूल्य भी उसके अनुसार ही होता है।
दूसरे प्रकार की ज़री में ताम्बे के तंतु पर चाँदी की परत होती है। अतः आप जो देखते हैं तथा जो आपकी त्वचा अनुभव करती है, वह चाँदी है किन्तु उसके भीतर वास्तव में ताम्बा होता है।
तीसरे प्रकार की ज़री में रेशम अथवा सूती धागे पर चाँदी का वर्क होता है जिसे बादला कहते हैं।
अंत में, कृत्रिम ज़री होती है जिसे रसायन, राल, प्लास्टिक आदि के प्रयोग से निर्मित किया जाता है।
शुद्ध ज़री एवं अन्य प्रकार की ज़री के मूल्यों में दस से बारह गुना अंतर होता है। शुद्ध ज़री का मूल्य उस समय प्रचलित चाँदी के दर पर निर्भर करता है।
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तकनीकी रूप से ज़री का स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है:
- शुद्ध ज़री कसब – चाँदी, ताम्बा, सोना, रेशम/सूती
- कृत्रिम ज़री कसब – तम्बा/पीतल, चाँदी( सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ), विस्कोस/ पॉलिएस्टर/ सूती/ रेशम तथा मुलम्मा चढ़ाना( सोना /रसायन)
- धातुई ज़री कसब – सुनहरी पीली धातुई चादर से तंतु अथवा धागे खींचे जाते हैं जिनका अन्तर्भाग पॉलिएस्टर/विस्कोस/नायलॉन/सूती होता है।
- कढ़ाई करने के लिए असली ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें सीधे चाँदी के तंतु अथवा शुद्ध सोने का मुलम्मा चढ़े चाँदी के तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्भाग में अन्य कोई धागा नहीं होता है।
- कढ़ाई करने के लिए कृत्रिम ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें ताम्बे पर चाँदी तथा अन्य रसायन का मुलम्मा चढ़ाया जाता है।
- कढ़ाई करने के लिए धातुई ज़री के उत्पाद – जरदोजी अथवा सुनहरी पीली धातुई चादर से खिंचे तंतु
एक साड़ी में कितना ज़री प्रयुक्त होता है?
एक रेशमी साड़ी में कुछ ग्राम से ले कर एक किलोग्राम से भी अधिक ज़री का प्रयोग किया जा सकता है। सुनहरी अथवा रुपहली बूटियों से भरी तथा भारी जालीदार जरी वाली साड़ियों में १२०० ग्राम ज़री तक का प्रयोग होता है। इसमें कदापि आश्चर्य नहीं है कि ऐसी साड़ियों को ‘भारी साड़ियाँ’ कहते हैं।
शुद्ध ज़री का प्रयोग अधिकांशतः हथकरघे में बुनी साड़ियों में होता है। बिजली चालित करघे अधिकतर ‘फेकुआ’ तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसमें ताने से लगे बाने के धागों का बड़ी मात्रा में अपव्यय होता है। अतः शुद्ध ज़री का प्रयोग बिजली चालित करघों में नहीं किया जाता है।
प्लास्टिक द्वारा निर्मित सस्ते कृत्रिम ज़री के विभिन्न प्रकारों के अविष्कारों के पश्चात वाराणसी जैसे ज़री निर्माताओं के समूहों में भरी कटौती हुई है। वर्तमान में कुछ गिने-चुने जरी निर्माता बच गए हैं जो काशी एवं कांचीपुरम जैसे रेशम समूहों में अब भी ज़री का उत्पादन करते हैं। वर्तमान में अधिकाँश ज़री ज्ञ्जारत के सूरत नगर से आती है।
शुद्ध एवं कृत्रिम ज़री के मूल्यों में निहित विशाल भिन्नता के कारण इन दोनों के विभिन्न ग्राहक समूह हैं। इसके कारण ज़री के दोनों प्रकारों का सह-अस्तित्व बना रहेगा। शुद्ध जरी युक्त रेशम की साड़ियों को क्रय कर पाना सभी स्तर के लोगों के लिए संभव नहीं है। कम से कम सभी साड़ियाँ शुद्ध ज़री की रखना तो अधिकाँश के लिए कदापि संभव नहीं है। साथ ही ऐसे भी पारखी ग्राहक अवश्य हैं जिन्हें शुद्ध जरी की जानकारी भी है तथा वे शुद्ध ज़री द्वारा निर्मित वस्त्र क्रय करने की अभिलाषा भी रखते हैं। अतः शुद्ध ज़री की मांग बनी रहती है। ऐसे पारखी शुद्ध ज़री के उद्योग को सदा संरक्षण देते रहेंगे।
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चाँदी पर विभिन्न प्रक्रियाएं
यदि ज़री उत्पादन प्रक्रिया पर दृष्टि डाली जाए तो इसका आरम्भ शुद्ध चाँदी के ठोस पिंड से होता है जिसे निर्माता धातु बाजार से क्रय करते हैं। इस ठोस पिंड को व्यापारी ‘चाँदी की बटिया’ कहते हैं। इस ठोस पिंड पर अनेक प्रक्रियाएं की जाती हैं तथा उसे ०.३ मिलीमीटर व्यास के तंतु तक बेला जाता है। यद्यपि ये प्रक्रियाएं सरल है, तथापि इन्हें अनेक चरणों में किया जाता है।
प्रथम चरण में चाँदी की बटिया को पिघला कर उसमें किंचित मात्रा में ताम्बा मिलाया जाता है, ताकि उसका लचीलापन कम हो जाए, क्योंकि चाँदी स्वभाव से अत्यंत लचीली होती है। तत्पश्चात उसे लम्बी छड़ के रूप में ढाला जाता है जिसका अनुप्रस्थ काट आयताकार होता है। चाँदी की इस लम्बी छड़ को अग्नि की भट्टियों के ऊपर से ले जाते हुए खींच कर पतला किया जाता है। यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराते हुए अंततः उसे ३० मिलीमीटर मोटाई तक लाया जाता है। इस अवस्था में यह ‘पासा’ कहलाता है। जैसे ही इसकी मोटाई कम होती है, उसे अटेरन पर लपेटा जाता है। उस अटेरन को गुछली कहते हैं जो ठीक वैसी ही होती है जैसी कच्चे धागे अथवा ऊन की अटेरन होती है।
एक धातुई सांचे के गोलाकार छिद्र में पासा को पिरोया जाता है। इस सांचे को ‘बारा’ कहते हैं। इस सांचे से पासा को खींचा जाता है। शनैः शनैः कम व्यास के छिद्रों से युक्त सांचों का प्रयोग किया जाता है। कम से कम २० बार इस प्रक्रिया को दोहराते हुए इसे तब तक पतला किया जाता है जब तक आवश्यकतानुसार आकार ना प्राप्त हो जाए। इस अवस्था में चाँदी के तंतु की मोटाई एक रेशम के धागे अथवा मानवी केश की मोटाई के समान हो जाती है। अब यह रेशम के साथ बुनकर विभिन्न आकृतियाँ बनाने के लिए सज्ज हो गयी है। इस तंतु को ‘तारकशी’, यह नाम दिया गया है क्योंकि यह एक अत्यंत महीन तार के समान प्रतीत होती है।
बादला
चाँदी के इस महीन तार को चपटा किया जाता है जिसे ‘बादला’ कहते हैं। इसे मूल धागे पर लपेटा जाता है जो रेशम, सूत या पॉलिएस्टर अथवा ताम्बे का तंतु हो सकता है। इसका सीधा प्रयोग अलंकरण अथवा कढ़ाई करने के धागे के रूप में भी किया जाता है। इस चाँदी का ज़री के रूप में प्रयोग करने से पूर्व इस पर कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं भी की जाती हैं।
मैंने स्वयं अपने आँखों से ३२ मिलीमीटर के चाँदी की छड़ को विभिन्न सांचों को पार करते हुए ०.३ मिलीमीटर के महीन ज़री में परिवर्तित होते देखा। इन दिनों यह लगभग पूर्ण रूप से यंत्रों द्वारा की जाती है। केवल मूलभूत मानवी निरिक्षण की आवश्यकता होती है।
वाराणसी के जरी उद्योजक
वाराणसी में मैंने विमलेश मौर्याजी की कार्यशाला का अवलोकन किया था। उन्होंने मुझे बताया कि प्राचीन काल में यह सम्पूर्ण प्रक्रियाएं हाथों द्वारा की जाती थीं। कारीगर हाथों द्वारा चाँदी को पीट पीटकर पतला करते थे तथा उसे पतली पट्टियों में काटते थे। शनैः शनैः यंत्रीकरण ने पदार्पण किया। किन्तु इन यंत्रों को हाथों द्वारा ही चलाया जाता था। अब अधिकतर यन्त्र विद्युत् संचालित हो गए हैं।
ज़री उत्पादन अब भी एक कुटीर उद्योग के ही स्तर पर है जिसका संचालन ऐसे परिवार करते हैं जो पारंपरिक रूप से इसी व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। उनकी बहुतलीय हवेली एक साथ निवासस्थान, कार्यालय तथा कार्यशाला, तीनों रूपों में प्रयोग में लाई जाती है। बुनकरों के घरों से करघों की ध्सुवनि सुनाई पड़ती रहती है। किन्तु ज़री उद्योजक पीछे ही रह जाते हैं। यह तो उनके उत्पाद हैं जो साड़ियों में गर्व से अपना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते हैं।
उनकी आपूर्ति श्रंखला घड़ी के समान कार्य करती है। यह व्यवसाय से व्यवसाय (B2B – business to business enterprise) प्रकार का उद्यम है। वाराणसी एक रेशम बुनाई समूह है। अतः यह प्राकृतिक रूप से ज़री निर्माताओं का केंद्र बन गया है। प्राचीन काल में उन्होंने भारत के अन्य रेशम समूहों को भी माल की आपूर्ति की थी, जैसे कांचीपुरम एवं धर्मावरम आदि। यह दर्शाता है कि उस समय व्यापार मार्ग सम्पूर्ण भारत में कितने सुव्यवस्थित रूप से स्थापित थे तथा व्यापार समुदाय कितने उत्तम रीति से एक दूसरे से सम्बद्ध थे। वस्तुतः, वर्तमान में सूरत नगरी ज़री उत्पादन का विशालतम केंद्र है।
अपनी ज़री को परखिये
अपनी ज़री को परखने का सर्वोत्तम उपाय है, इसके एक टुकड़े को अग्नि में जलाना। यदि इस ज्वलन के अवशेष श्वेत भस्म हो तो ज़री शुद्ध है, अन्यथा नहीं। कृत्रिम ज़री का भस्मावशेष काले रंग का होगा। यदि यह प्लास्टिक से निर्मित हो तो वह प्लास्टिक के समान जलेगी जिसकी ज्वाला पीछे की दिशा में जाती है।
सोना रूपा को जांचने का एक अन्य मार्ग है, जैसे एक टुकड़ा लेकर उसे पत्थर पर रगड़ना। पत्थर पर उत्पन्न चमक का रंग आपको यह जानकारी प्रदान करेगा कि यह किस धातु से निर्मित है। यदि चमक कुछ लाल रंग लिए हुए हो तो ताम्बा धातु सन्निहित है। यदि चमक श्वेत रंग की हो तो चाँदी है। कृत्रिम ज़री पत्थर पर किसी भी रंग की छाप नहीं छोड़ती है। किन्तु जांचने के ये उपाय वास्तव में पूर्णतः विश्वसनीय नहीं हैं। नकली धातु भी इसी प्रकार के परिणाम दे सकते हैं। अतः शुद्धता को जांचने के लिए सर्वोत्तम उपाय है, प्रयोगशाला परिक्षण।
ज़री उत्पादन को अब मानकीकृत कर दिया गया है। आगे आने वाले संस्करणों में हम इस विषय पर विस्तार में चर्चा करेंगे।
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कलाबत्तू – हमारी धरोहर
सांस्कृतिक रूप से भारत में शुद्धता का सम्बन्ध सोना एवं चाँदी से लगाया जाता है। अतः, जब उसी सोना तथा चाँदी का प्रयोग हमारे परिधानों में किया जाता है तो वह उन परिधानों पर शुद्धता की एक परत चढ़ा देता है। विशेष रूप से जब ऐसे परिधान किसी महत्वपूर्ण संस्कार अथवा जीवन के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर प्रयोग में लाये जाने वाले हों। झिलमिलाते रेशम पर शुद्ध चाँदी की चमचमाती ज़री सम्पन्नता की झलक बन कर उभरती है।
यदि कलाबत्तू एवं रेशम विश्वसनीय हों तो शुद्ध रेशमी साड़ियों का क्रय करते समय उनका मूल्य चुकाते हुए झिझकिये नहीं। ऐसी साड़ियों पर धन व्यय करना पूर्णतः योग्य है।
जरी अथवा कलाबत्तू की निर्मिती एवं बुनाई भारत की जीवंत धरोहर है। आइये उसे इसी प्रकार संरक्षित करने का लक्ष्य रखते हैं।
यह संस्करण Silk Mark Organization of India के सहचर्य से लिखा गया है।
अनुराधा जी, वाराणसी की प्रसिद्ध ज़री बुनाई की जानकारी देता सुंदर आलेख। ज़री बुनाई में प्रयुक्त होने वाले चांदी और स्वर्ण धागों को बनाने की प्रक्रिया को वीडियो के माध्यम से बहुत ही सुंदरता से समझाया गया है।
संयोग से हम लोग पिछले पाँच दिनों से वाराणसी में ही थे। इस दौरान वहाँ की प्रसिद्ध बनारसी साड़ियों के थोक विक्रेता से भी ज़री की बुनाई के बारे में जानकारी मिली। आजकल बुनाई मशीनों से की जाने लगी है फिर भी ज़री की बुनाई अधिकांशतः स्थानीय बुनकरों द्वारा ही हाथ से की जाती हैं। वाराणसी की छोटी छोटी गलियों में बुनकरों द्वारा सधे हाथों से बुनाई का काम बड़ी ही सुंदरता से किया जाता है। एक और नई जानकारी प्राप्त हुई,ताने-बाने के लिये आवश्यक ज़री के धागे आजकाल चीन से आयात किए जाते हैं। इसका मुख्य कारण वहाँ के धागों की मोटाई का एक समान होना ! यह जानकारी हमारे लिए कम आश्चर्यजनक नहीं थी।
धन्यवाद।
आपका कलाबत्तू या कलावस्त्र पर यह आलेख बहुमुल्य व ज्ञानवर्धक है, जैसे जरी, सोना, चांदी व रुपये जैसे शब्दो की व्युत्पत्ति कहां से हुई, जरी के अनेक प्रकार व निर्माण की प्रक्रिया। यह सुनहरी व रुपहली जरी, सामान्य व रेशमी धागे के साथ आलिंगन कर वस्त्रों में चार चांद लगा देती है। शुद्ध जरी की साड़ियां हमारे भी घर मे मैने देखी है, लेकिन यह सत्तर के दशक की बात है, लेकिन वह पहनने योग्य नही थी तो उन्हें बाजार में जाकर जब बेचते थे तो वह उन्हें हमारे सामने ही जलाकर जो चांदी के तार निकलते थे उनका वजन कर बाजार मूल्य पर हमें वह कीमत प्राप्त होती थी। आपका वीडियो भी शानदार रहा।
साधुवाद, सारगर्भित जानकारी के लिए। 🙏🙏🙏