बोरोबुदुर के दर्शन करने की इच्छा मुझे बहुत समय से थी। जब मैं डॉ. विद्या देहेजिया द्वारा ‘बुद्ध के आख्यान’ पर लिए अधिवेशन में भाग ले रही थी, तब हमें इस बौद्ध मंदिर की भी कई तस्वीरें दिखाई गईं थीं। उसके सुंदर उभारदार फलक और ज्यामितीय अभिकल्प देख मन ही मन इस मंदिर के दर्शन का निश्चय कर लिया था। इसके दर्शन करने की इच्छा के पीछे एक और कारण यह भी था कि यह यूनेस्को द्वारा घोषित वैश्विक विरासत भी है। और तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने अपनी इंडोनेशिया यात्रा की कार्यक्रम सूची में पहला नाम बोरोबुदुर मंदिर देखा। सोने पर सुहागा तब हुआ जब मुझे यह अवसर अपने जन्मदिन पर प्राप्त हुआ। इस दिन मुझे यूनेस्को द्वारा घोषित दो वैश्विक विरासत स्थल देखने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ – बोरोबुदुर मंदिर और प्रमबनन मंदिर।
बोरोबुदुर मंदिर की पहली झलक
बोरोबुदुर के सूर्योदय दर्शन की योजना निश्चित की गयी थी। इस स्थल के दर्शन का यह समय सर्वाधिक लोकप्रिय है।छायाचित्रण की दृष्टी से भी और इसलिए भी कि सूर्योदय से पहले का ठंडा मौसम इस स्मारक की चढ़ाई को थोड़ा आसान बना देता है। हमारी बस इस स्मारक के खूबसूरत बगीचे में सूर्योदय से पहले ही पहुँच गयी। वहां का दृश्य मुझे रोमांचित कर रहा था। जिस स्थल के दर्शन करने का स्वप्न अब तक देखा, वह आज सच होने जा रहा था। मैं उस समय जो महसूस कर रही थी उसे शब्दों में बयान करना आसन नहीं!
स्वागत कक्ष में प्रवेश कर हमने दर्शनार्थ टिकट खरीदे। अँधेरा अभी छंटा नहीं था। मार्ग दर्शन हेतु हम सब के हाथ एक एक टार्च थमा दी गयी थी। इस मंदिर की पहली झलक मुझे हलकी पृष्टभूमि लिए धूमिल रूपरेखा के रूप में मिली। जैसे जैसे मैं ऊंची ऊंची सीड़ियाँ चड़ने लगी बुद्ध की प्रतिमाएं धीरे धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगी। बुद्ध की मूर्तियों को अपने अन्दर समेटे कई स्तूप दिखे। अंततः केंद्रीय विशाल स्तूप मेरी आँखों के सामने आया।
वह बादलों से ढका व कोहरे से धुंधला हुआ दिन था। मेरे आसपास की सारी संरचनाएं व मूर्तियाँ अत्यंत रहस्यमयी प्रतीत हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सूर्य की किरणे धीरे धीरे इस रहस्य पर से पर्दा उठायेंगीं, वास्तविकता हमारे समक्ष उभर कर आएगी और एक एक पत्थर अपने द्वारा गुजारे १२०० वर्षों के अतीत की कहानियां धीरे धीरे हमें सुनायेंगे।
बोरोबुदुर का भ्रमण
चूंकि अभी सूर्योदय में किंचित समय शेष था, मैंने मुख्य केंद्रीय स्तूप के चारों ओर थोड़ा भ्रमण किया। सूर्योदय से पूर्व यह स्थल अति अवास्तविक व स्वप्निल सा प्रतीत हो रहा था जहाँ धुंध व अँधेरे में स्वयं को छुपाईं सारी प्रतिमाएं विचित्र आकृतियों सी प्रतीत हो रहीं थीं। जैसे जैसे सूर्य की किरणे मंदिर पर गिरने लगीं, धुंध व अँधकार छंटने लगा। मैंने मंदिर का अन्वेषण आरम्भ किया। दक्षिणावर्त भ्रमण करते हुए मैंने हर स्तूप व मंदिर के कोने कोने व परत दर परत का बारीकी से अध्ययन किया। मैं कुछ इस तरह मंदिर की परिक्रमा कर रही थी जैसे एक साधु प्रार्थना के उपरांत मंदिर की परिक्रमा करते समय एक एक प्रतिमा के दर्शन करता है।
“बोरोबुदुर इंडोनेशियाई पर्यटकों का मुख्य आकर्षण है”
मैंने अब स्तूपों की अगली पंक्ति का अध्ययन प्रारंभ किया। जालीदार छिद्रों वाले इन प्रत्येक स्तूप में भगवान बुद्ध की धर्म चक्र परिवर्तन मुद्रा में मूर्ति स्थापित की गयी है। यह मुद्रा गतिशील धर्म चक्र को दर्शाता है। यह, वाराणसी के निकट स्थित सारनाथ में, भगवान् बुद्ध द्वारा दिए गए सर्वप्रथम प्रवचन का प्रतीक है। दुर्भाग्यवश बुद्ध की ज्यादातर प्रतिमाएं शीष रहित हैं, केवल धड़ ही शेष हैं। बुद्ध की प्रतिमाओं के शीष अमूल्य धरोहर स्वरुप सम्पूर्ण विश्व में कई संग्रहालयों व व्यक्तिगत संग्रह का हिस्सा बन चुके हैं।
“हर स्तूप का आधार कमल पुष्प के आकार में है”
यहाँ इन स्तूपों की रचना, ज्यामिति व समरूपता विस्मयकारी है। आश्चर्य होता है कि इनके वास्तुविद व रचनाकारों ने इनकी कल्पना भी कैसे की होगी! इसकी संपूर्ण संरचना पत्थरों को आपस में फंसा कर की गयी है। किसी गारे, चूने व कीलों का उपयोग इनके निर्माण में नहीं किया गया है। इन स्तूपों पर उपस्थित छिद्रों द्वारा इनके अन्दर झाँका जा सकता है। शिथिलता से फंसाए इन पत्थरों के पास आकर, किसी अकल्पनीय आशंका से मन दहल जाता है।
बोरोबुदुर की परिक्रमा
स्तूपों की ऊपरी तीन परतों के पश्चात् मंदिर की निचली छह परतों में परिक्रमा पथ उपलब्ध है। मैंने हर परिक्रमा पूर्ण की। परिक्रमा पथ के दोनों ओर की तक्षित दीवारें बुद्ध व बोधिसत्व की जीवनी बखान करतीं हैं। बुद्ध की जीवनी के कुछ अंशों की पहचान करने में मुझे भी सफलता मिली। कुछ शिल्पकारी व उच्चावचों का रखरखाव संतोषप्रद नहीं है। दीवारों के कुछ बेमेल खण्ड मरम्मत के दौरान की गयी दुर्लाक्षता का नतीजा हो सकतें हैं। आखिरकार बोरोबुदुर कई सदियों तक ज्वालामुखीय राख से ढंका विस्मृत सा स्मारक था।
सरदल व शहतीर युक्त, सोहावटी अंदाज में बनाए गए मेहराबदार द्वारों पर कीर्तिमुख की शिल्पकारी की हुई है। हर मंजिल के प्रवेशद्वारों के दोनों तरफ द्वारपाल स्वरुप शेर की मूर्ति बिठाई है।
जब मैं इस मंदिर के निम्नतम तल तक पहुंची, सूर्य पूर्ण तीव्रता से अपनी किरणे बिखेर रहा था। इसकी आभा में सम्पूर्ण मंदिर का चित्रण करने हेतु मुझे बहुत दूर जाना पड़ा। तब मुझे इस मंदिर की विशालता का अहसास हुआ। मंदिर की संरचना की परतें कमल के पुष्प का आभास करतीं हैं, निचली परतों को आधी ढंकी आधी खोलती हुई! स्तूपों का ऊँचा गुंबद ऐसा प्रतीत होता है मानो एक बड़े घंटे को उस पर रख दिया हो।
इस मंदिर के निर्माण में बड़ी तादाद में पत्थरों का इस्तेमाल हुआ है। उस काल में इतने पत्थरों को एक स्थान पर किस तरह एकत्रित किया गया था, यह मेरी समझ के परे है। मैं बस वास्तुशिल्प व वास्तुनिर्माण के इस सुन्दर नमूने की मन ही मन प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाई। इसके वास्तुविद व निर्माता की प्रतिभा अप्रतिम है। सम्पूर्ण विश्व के लिए यह मंदिर महायान बौद्ध धर्म का केंद्र है। मेरे लिए यह एक अत्यधिक विकसित सौंदर्य-वाद का जीवित उदहारण है, विज्ञान और कला का ऐसा अभूतपूर्व संगम है जो आपकी हर समझ को प्रभावित करता है। इसके एक एक पत्थर आपसे संवाद साधने की शक्ति रखते प्रतीत होते हैं।
बोरोबुदुर मंदिर का इतिहास व वास्तुशिल्प
बोरोबुदुर विश्व का विशालतम बोद्ध मंदिर है।
बोरोबुदुर की शब्द व्युत्पत्ती
बोरोबुदुर यह शब्द दो शब्दों के जोड़ से उत्पन्न हुआ है। बोरो अर्थात् बड़ा और बुदुर अर्थात् बुद्ध, यानि बड़ा बुद्ध। जावा प्रदेश की भाषा में बुदुर का एक अर्थ पर्वत भी है। बड़े पर्वत का आभास कराता बोरोबुदुर मंदिर इस नामकरण पर खरा उतरता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि बोरो शब्द बौद्ध मठ अथवा बौद्ध विहार का अपभ्रंश है। मेरे ध्यानानुसार बोरोबुदुर के आसपास कोई बौद्ध मठ नहीं है और ना किसी साहित्य में इसका जिक्र!
बोरोबुदुर दो ज्वालामुखियों व दो नदियों के बीच स्थित है, इस कारण इसकी जमीन अत्यधिक उपजाऊ है।
बोरोबुदुर की वास्तुकला
ऐसा कहा जाता है कि गुणधर्म इस शिल्प के वास्तुविद हैं, परन्तु इसके अलावा उनके बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। मूल वर्गाकार आधार युक्त यह मंदिर ९ मंजिलों में बना हुआ है। निचले ६ मंजिल वर्गाकार व ऊपरी ३ मंजिल वृत्ताकार हैं।ऊपरी मंजिल पर मध्य में एक बड़े स्तूप के चारों ओर ७२ छोटे स्तूप हैं। प्रत्येक स्तूप घंटाकर होकर कई सजावटी छिद्रों से सहित है। बुद्ध की प्रतिमाएं इस छिद्र युक्त स्तूपों के अन्दर स्थापित हैं।
बोरोबुदुर की बौद्ध प्रतिमाएं
बोरोबुदुर में ५०० से अधिक बौद्ध प्रतिमाएं हैं जिनमें अधिकांश में बुद्ध पद्मासनरत हैं। अधिकांश प्रतिमाएं निचले मंजिलों की परिधि पर स्थित हैं व कुछ दीवारों के आलों पर बिठाये गए हैं। दुर्भाग्यवश वर्त्तमान में अधिकांश प्रतिमाएं शीषरहित हैं। बुद्ध से सम्बंधित मुद्राएँ जो यहाँ देखी जा सकतीं हैं वे कुछ इस प्रकार हैं-
- भूमिस्पर्श मुद्रा – अर्थात् “पृथ्वी साक्षी है”, यह उनके महाज्ञान प्राप्ति का प्रतीक है।
- वरद मुद्रा – अर्थात् “ दान व परोपकार”, दानवीर बुद्ध का प्रतीक है।
- अभय मुद्रा – अर्थात् “साहस व निर्भयता”, दर्शाता है कि बुद्ध हमारी रक्षा कर रहे हैं।
- ध्यान मुद्रा – अर्थात् “एकाग्रता व ध्यान”, ध्यानमग्न बुद्ध।
- धर्म चक्र परिवर्तन मुद्रा – अर्थात् “ गतिमान धर्म चक्र”, प्रतीक है भगवन बुद्ध के सारनाथ में दिए पहले प्रवचन का।
- वितर्क मुद्रा – अर्थात् “तर्क और पुण्य”, तर्क का दूसरा पहलू जो बुद्ध आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
मंदिर की संरचना का ब्रम्हांडीय परिपेक्ष्य
स्मारक के तीन भाग प्रतीकात्मक रूप से तीन लोकों को निरुपित करते हैं। यह साधक के तीन चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- कामधातु – (इच्छाओं की दुनिया), यह निम्नतर जीवनस्तर है जिसमें भिक्षु इच्छाओं की दुनिया में रहता है। बोरोबुदुर की इस स्तर की दीवारों पर लगे खण्ड बोधिसत्व की जातक कथाएं कहतीं हैं। यह बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं दर्शाती हैं।
- रूपधातु – (रूपों की दुनिया), अपनी इच्छाओं पर काबू पाने की क्षमता अर्जित करने के उपरांत भिक्षु इस स्तर पर पहुंचते हैं जहाँ रूपों के द्वारा इच्छारहित अंतर्मन में देख सकते हैं। यह हिंदुत्व का सगुन स्तर है। इस स्तर की दीवारों के खण्डों पर अंकित कथाएं बुद्ध की इस इच्छा से अनिच्छा तक पहुँचने की यात्रा को दर्शाते हैं।
- अरूप धातु – (रूपरहित दुनिया), इस सबसे मूलभूत व विशुद्ध स्तर पर भिक्षु पूर्ण बुद्ध व्यवहारिक वास्तविकता से ऊपर उठ कर रूपरहित निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यह संत कबीर की तरह निर्गुण दार्शनिकता का प्रतीक है। और इसलिए ही इस स्तर के खण्डों पर ना किसी रूप की आवश्यकता है, ना ही किसी शिल्प की।
बोरोबुदुर के राहत उच्चावच
स्मारक की दीवारों व कटघरे के अंदरूनी भागों पर कथाशिल्प खंड लगे हुए हैं। यह शिल्प उस काल की झलक दिखाते हैं जब इस मंदिर का निर्माण किया गया था। इस पर सभी मानव आकृति त्रिभंग रूप में दर्शित है अर्थात् अंग तीन भागों में मुड़ा हुआ है। इन पर उनके वस्त्र, केशशैली, आभूषण, साथ ही साथ पशुओं का भी अध्ययन किया जा सकता है। आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी का भी चित्रण इस शिल्पकारी में नजर आता है। बुद्ध की जीवनी के कई महत्वपूर्ण पलों को इन शिल्पों द्वारा पुनर्जीवित किया गया है जैसे उनका जन्म स्थल, उनका घोडा, बोधिवृक्ष जिस के छाँव तले उन्होंने ध्यान किया, तुषित स्वर्ग से उनका अवतरण इत्यादि। इन शिल्पों के ऊपर हम समृद्धि की भी झलक देख सकतें हैं जैसे पूर्ण घटक, छलकती गगरी इत्यादि। २६०० से अधिक उच्चावच प्रतिमाएं हैं इस सम्पूर्ण मंदिर के अन्दर। संभवतः इन शिल्पों पर भी भारत के एलोरा की तरह चटक रंगों से रंगाई की गयी हो!
बोरोबुदुर का शीर्ष दृश्य
ऊंचाई से देखने पर सम्पूर्ण बोरोबुदुर सिर्फ एक स्तूप की तरह प्रतीत होता है। इसकी ज्यामितीय आकृतियाँ बुद्ध मंडल या हिन्दू श्री यन्त्र की तरह दिखाई पड़ती हैं। कुछ लोगों को इसमें जीनायुक्त पिरामिड का आभास होता है। संयोग से इस सम्पूर्ण पिरामिड की संरचना व उसका उभार ४:६:९ के सामान अनुपात में रचित है। माप की बुनियादी इकाई थी ताला जो लगभग मानवीय चेहरे की लम्बाई या फैले हुए हाथ की लम्बाई के बराबर होता है। हिंदी व पंजाबी में इस इकाई को गिठ कहा जाता है। हालांकि इकाई की परिभाषा व्यक्तिगत रूप से किंचित भिन्न हो सकते हैं परन्तु व्यापक परिपेक्ष में यह बहुत हद तक सामान है।
बोरोबुदुर झील का अस्तित्व
ऐसा अनुमान है कि किसी काल में बोरोबुदुर मंदिर एक झील के मध्य पानी पर स्थित था और उस पर तैरता प्रतीत होता था। परन्तु वर्तमान खोज के अनुसार संभवतः मंदिर के समीप प्रारंभिक दौर में कभी झील का अस्तित्व रहा होगा परन्तु मंदिर कभी भी पानी में तैरता नहीं था।
ऐसा भी अनुमान है कि मंदिर का वास्तविक आधार शिलाओं की एक तख्तबन्दी के नीचे स्थित है। इसके कई कारण बताये जाते हैं जैसे वास्तुदोष, संरचना को दिया गया अतिरिक्त आधार इत्यादि।
इस निर्माण के दौरान शिलाओं का आयात पास की पत्थर की खदानों से किया गया था। उच्चावचों का निर्माण भी यहीं निर्माणस्थल पर किया गया था। पानी के निकास के लिए मगरमच्छ के अकार का उत्कृष्ट निकासद्वार भी बनाया गया है।
माना जाता है कि बोरोबुदुर तीन मंदिरों की कतारबद्ध शृंखला में से एक मंदिर है। दूसरे मंदिरों के नाम हैं- पवन और मेंदुत।
बोरोबुदुर का इतिहास
बोरोबुदुर मंदिर संभवतः ८०० ई के लगभग स्थापित हुआ था। अर्थात् यह मंदिर करीब १२०० वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।इस समय मध्य जावा में शैलेन्द्र राजवंश के तहत श्रीविजय का साम्राज्य था। इसके निर्माण का अनुमानित समय ७५ वर्ष है।हालांकि इसके निर्माण व इसके पीछे उद्देश्य की ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है।
कहा जाता है कि लगभग १५वीं ई में इस स्मारक का परित्याग कर दिया गया था जब इस्लाम ने हिन्दूराज्य पर अधिपत्य स्थापित किया और मंदिरों को उजाड़ना आरंभ किया।
ज्ञात नहीं है कि स्मारक का उपयोग तीर्थ यात्रियों के लिए वास्तव में क्यों और कब बंद किया गया। इसके परित्याग के पीछे भिन्न भिन्न मत हैं। परित्याग उपरांत बोरोबुदुर को कई सदियों तक ज्वालामुखी राख और जंगल विकास ने छुपाये रखा।इसका प्रभाव स्मारक के अवशेषों पर सर्वविदित है।
बोरोबुदुर का पुनराविष्कार
भारत की अजंता की गुफाओं की तरह, बोरोबुदुर का पुनराविष्कार सन १८१४ ई में लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स ने किया जो यहाँ अंग्रेज शासन के दौरान जावा का कार्यभार संभाल रहे थे। उन्होंने डच अभियंता एच. सी. कोर्नेलिअस की मदद से करीब २० वर्षों में जमीन खोदकर स्मारक को पूर्णतः बाहर निकाला। इन खंडहरों की खोज के उपरांत इसके पुनरुद्धार पर लगातार प्रयास होता रहा। रैफल्स को इसके पुनरुद्धार का श्रेय जाता है।
सन १९७३ में बोरोबुदुर के जीर्णोद्धार का महाभियान चालु किया गया। इंडोनेशिया सरकार व यूनेस्को ने मिलकर बड़ी नवीनीकरण परियोजना के तहत स्मारक का जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण किया। नवीनीकरण की समाप्ति पर यूनेस्को ने १९९१ में बोरोबुदुर को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल किया। जीर्णोद्धार के पश्चात् यह महायान बौद्ध धर्मं के अनुयायियों के लिए प्रमुख तीर्थ स्थान व पर्यटकों के लिये मुख्य आकर्षण का केंद्र बना।
संयोग से बोरोबुदुर नाम भी रैफल्स से जुड़ा है क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी में लिखा था – “ बोर गाँव के निकटवर्ती बुदुर का मंदिर”। हालांकि प्राचीन जावा तालपत्र इस ओर संकेत करते हैं कि स्मारक का नाम, बुदुर, पवित्र बौद्ध पूजा स्थल नगरकरेतागमा को कहा जाता है। यह तालपत्र मजापहित राजदरबारी व बौद्ध भिक्षुकों द्वारा १४ई में लिखा गया था।
इस स्मारक के जीर्णोद्धार ने विश्व को एक अमूल्य धरोहर प्रदान की। साथ ही साथ बढ़ती लोकप्रियता ने अधिक यात्रियों को आकर्षित किया। आगंतुकों की बर्बरता, मिट्टी का कटाव, अनेक भूकम्पों व बारिश झेलती यह स्मारक पहले ही कमजोर हो चुकी थी। यात्रियों व पर्यटकों द्वारा उच्चावाचों व मूर्तियों पर की गयी छेड़खानी ने इसका और ह्रास किया। अधिकांश मूर्तियों के सर निकाल कर बेच दिए गए। आश्चर्य होता है कि बुद्ध का शीष आध्यात्मिक दृष्टी से अधिक कीमती है या आर्थिक दृष्टी से! या सिर्फ शीष की तस्करी आसान है बनिस्पत पूर्ण मूर्ति के!
केंद्रीय मुख्य स्तूप के भीतर बुद्ध की प्रतिमा या चित्र था या नहीं, किसी को ज्ञात नहीं। मंदिर का छत्र निकाल कर एक संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। बोरोबुदुर के बारे में और जानकारी इस विकिपीडिया पृष्ठ से प्राप्त की जा सकती है।
बोरोबुदुर – मंदिर या स्तूप?
हमेशा से यह तर्क का विषय रहा है कि बोरोबुदुर स्तूप है या एक मंदिर। निष्कर्ष यही निकला कि यह एक मंदिर है, आराधना स्थल या तीर्थ स्थल है।
परित्याग व इतिहास में लुप्त होने के बावजूद भी इस स्मारक की गाथाएं व किवदंतियां जीवित रहीं व इस स्मारक को पूर्णतया भुलाया नहीं जा सका। परन्तु धीरे धीरे इसका महिमापूर्ण इतिहास असफलता व दुर्गति के साथ साथ अंधविश्वास से जुड़ गया। लोगों ने इस स्मारक को दुर्भाग्य का अग्रदूत कहा। इतिहास में हुए कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए इस स्मारक को कारण ठहराया। अन्यथा इस अभूतपूर्व स्मारक का परित्याग ऐसे ही नहीं किया जाता।
एशिया में कई स्मारक इन्ही कारणों से खँडहर में तब्दील हुए है। संयोग से तीव्र भूकंप के कारण निकट के क्षेत्रों में गंभीर क्षति के बावजूद बोरोबुदुर इससे अप्रभावित रहा।
यूनेस्को द्वारा नवीनीकरण के पश्चात् बोरोबुदुर को पुनः तीर्थयात्रा और पूजा स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। वर्ष में एक बार मई अथवा जून मास में पूर्णिमा के दिन इंडोनेशिया में बौद्ध धर्म के लोग सिद्धार्थ गौतम के जन्म, निधन व बुद्ध शाक्यमुनि के रूप में ज्ञान प्राप्ति के उपलक्ष्य में उत्सव “वैशाख” मनाते हैं।
बोरोबुदुर यात्रा के लिए कुछ सुझाव
- यह संस्मरण लिखते समय तक, बोरोबुदुर भ्रमण शुल्क इंडोनेशिया मुद्रा के तहत ४००००० इंडो. रु. था, जो तकरीबन २०००/- रु. के बराबर है। इसमें कॉफ़ी व एक छोटी स्मारिका भी शामिल है।
- इसके दर्शन का सर्वोत्तम समय सूर्योदय का है। परन्तु इसके लिए पिछली रात्रि की निद्रा का परित्याग करना पड़ता है।बोरोबुदुर योग्यकर्ता शहर से लगभग ४०कि.मी. व सुरकर्ता से ८६कि.मी.दूर स्थित है।
- पानी की बोतल ले जाना अति आवश्यक है। यहाँ का वातावरण गर्म व आर्द्र होने के कारण स्मारक भ्रमण के दौरान पानी की आवश्यकता रहती है और पानी सिर्फ स्वागत कक्ष में ही उपलब्ध है।
- स्मारक के शीर्ष पर परिदर्शक उपलब्ध हैं। हालांकि मैंने इनकी सुविधा नहीं ली थी।
- स्मारक पर मनोहर नामक उपहार गृह है जहाँ जलपान की सुविधा उपलब्ध है।
- एक छोटी स्मारिका की दुकान है जहाँ तरह तरह की स्मारिकाएं विक्रय हेतु रखीं गईं हैं। दुकानदार इन स्मारिकाओं को खरीदने के लिए जोर डालते है, पर मुस्कुराकर नकारात्मक शब्दों में इनसे पीछा छुड़ाना बेहतर विकल्प है।
बोरोबुदुर विरासत पर्यटन हेतु व इंडोनेशिया के प्रथम दर्शन हेतु पधारे पर्यटकों के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय स्थल है।