गुजरात में तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें बहुचरा जी एक हैं। अन्य दो शक्तिपीठ हैं, आबू पर्वत के निकट अम्बा जी तथा पावागढ़ पर्वत के ऊपर कालिका देवी। मैं इससे पूर्व चंपानेर पावागढ़ की यात्रा कर चुकी हूँ। अब जैसे ही मुझे अहमदाबाद भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने त्वरित ही एक विमार्ग लेकर बहुचरा जी के दर्शन करने का निर्णय लिया।
बहुचरा माँ कौन हैं?
बहुचरा माँ गुजरात के मेहसाणा क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे अपने दर्शनार्थियों एवं भक्तों पर आशीषों का वर्षाव करती हैं। अनेक भक्तगण विशेष रूप से पुत्रप्राप्ति की मनोकामना लिए उनके दर्शन करने आते हैं। स्त्रियाँ अपने घरेलू समस्याओं एवं कष्टों के निवारण की आस लेकर उनके दर्शन करने आती हैं तथा उनके आशीष की कामना करती हैं।
इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ किन्नर समुदाय भी बहुचरा देवी के दर्शन के लिए आता है। देवी माँ के भक्तों में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। आप उन्हे मंदिर में स्थित वृक्ष के नीचे बैठे देख सकते हैं।
कुलदेवी
बहुचरा देवी कई समुदायों की कुलदेवी हैं जिनमें सोलंकी राजपूत, कोली, भील, किन्नर आदि सम्मिलित हैं। सोलंकी राजपूतों ने इस क्षेत्र में दीर्घ काल तक राज किया था। बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट अथवा मुर्गा है। सोलंकी राजाओं ने अपने राजध्वज में देवी के वाहन कुक्कुट की छवि भी प्रदर्शित की थी। वे अपनी संतानों के मुंडन समारोह के लिए देवी के मंदिर आते थे। यह प्रथा वर्तमान में भी अनवरत जारी है। आप जब मंदिर में दर्शन के लिए आयेंगे, आप यहाँ मुंडन किये हुए कई शिशुओं को देखेंगे। उनके शीष पर लाल कुमकुम से स्वस्तिक भी बना होगा।
बहुचरा माता को सिंध की हिंगलज माता का स्वरूप माना जाता है। उन्हे बाला त्रिपुरसुंदरी का भी स्वरूप माना जाता है जो रंगकर्मियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। आपको स्मरण होगा, कुचीपुड़ी में भी एक मंदिर है जो त्रिपुरसुंदरी को समर्पित है। इंटरनेट से मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इस मंदिर के गर्भगृह में स्फटिक का एक बाला यंत्र स्थापित है किन्तु मैं उसे देख नहीं पायी।
चढ़ावा
बहुचरा देवी को अर्पित किये जाने वाले चढ़ावे में एक रोचक चढ़ावा है, धातु का चौकोर पतरा, जिस पर सम्पूर्ण शरीर अथवा शरीर का कोई अंग उत्कीर्णित होता है। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व ही आप चारों ओर विक्रेताओं को देखेंगे जो इन पतरों की विक्री करते हैं। शरीर के जिस अंग में कष्ट है अथवा रोग है, भक्त वही पतरा देवी को अर्पित करता है। देवी उसके उस अंग को रोगमुक्त कर देती हैं।
मंदिर के भीतर हमने अनेक भक्तों को देखा जो ऐसे पतरे देवी को अर्पित कर रहे थे। विशेषतः आदि बहुचरा मंदिर में ऐसे भक्तों की संख्या अधिक थी। संतान प्राप्ति की कामना लिये अनेक स्त्रियाँ अथवा सम्पूर्ण परिवार भी ऐसा चढ़ावा देवी को अर्पित करता है।
बहुचरा माता का इतिहास
ऐसी मान्यता है कि बहुचरा माता एक वास्तविक स्त्री थी जिसका जीवनकाल १४ वीं सदी में माना जाता है। ठीक वैसे ही जैसे देशनोक की करणी माता को एक वास्तविक व्यक्तित्व माना जाता है। उनका मूल स्थान मरु क्षेत्र है जो वर्तमान के जैसलमेर में आता है। उनके पिता को सौराष्ट्र में एक जागीर प्रदान की गयी थी। एक समय की घटना है, सौराष्ट्र की ओर यात्रा करते हुए उन पर तथा उनकी भगिनियों पर एक डाकू ने आक्रमण किया था। आत्मरक्षा करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए किन्तु मृत्यु से पूर्व उन्होंने उस डाकू को किन्नर होने का श्राप दे दिया।
जब उस दस्यु को अपनी भूल का आभास हुआ, वह हृदय से क्षमाप्रार्थी हो गया। तब बहुचरा जी ने उससे उसी स्थान पर उनकी स्मृति में एक मंदिर का निर्माण करने की आज्ञा दी। उस काल में उसे चुनावल कहा जाता था किन्तु अब देवी के नाम पर उसे बेचारजी कहा जाता है। देवी ने वरदान दिया कि यदि किन्नर स्त्री की वेशभूषा धारण कर उनके दर्शन करने के लिए आयेंगे तो वे उन्हे आशीर्वाद देंगी तथा मरणोपरांत अपने चरणों में स्थान देंगी।
उस डाकू ने एक शमी वृक्ष के नीचे देवी के लिए एक मंदिर का निर्माण किया। आप आज भी यहाँ वह मंदिर देख सकते हैं।
वडोदरा के गायकवाड
१८ वीं शताब्दी में इस मंदिर में आराधना करने के पश्चात एक गायकवाड राजा को अपने रोग से मुक्ति प्राप्त हुई थी। उसके पश्चात उन्होंने यहाँ नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। १९ वीं शताब्दी में गायकवाड राजाओं ने दक्षिण भारत के एक पुरोहित को इस मंदिर में पूजा-अनुष्ठान करने के लिए यहाँ आमंत्रित किया था। वर्तमान में उसी दक्षिण भारतीय पुरोहित के वंशज मंदिर की पूजा-आर्चना आदि सभी अनुष्ठानों का नेतृत्व करते हैं।
जब बड़ौदा के गायकवाड राजाओं ने गुजरात में बड़ौदा राज्य रेलसेवा आरंभ की थी, तब वे प्रत्येक यात्री के एवज में मंदिर न्यास को ५० पैसे दान में देते थे। वे तालुका राजस्व से मंदिर के रखरखाव के लिए आवश्यक निधि भी प्रदान करते थे। स्वतंत्रता के पश्चात यह व्यवहार अब भी जीवित है अथवा नहीं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है।
मूर्ति विज्ञान – देवी बहुचरा जी की प्रतिमा की विशेषताएँ
बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट है। मंदिर के समक्ष अनेक सुंदर रंगों से अलंकृत एक कुक्कुट की प्रतिमा स्थापित है।
देवी की चार भुजायें हैं। दाहिनी ओर की ऊपरी भुजा में देवी ने दुर्गा की भांति एक तलवार धारण की हुई है। वहीं बायीं ओर के ऊपरी हाथ में उन्होंने देवी सरस्वती की भांति एक धर्मग्रंथ पकड़ा हुआ है। बाईं ओर के निचले हाथ में माहेश्वरी की भांति त्रिशूल धारण किया है तथा दाहिनी ओर की निचली भुजा लक्ष्मी की भांति अभय मुद्रा में स्थित है।
इस प्रकार बहुचरा जी देवी के चारों प्रमुख स्वरूपों के लक्षणों को अंगीकार करती प्रतीत होती हैं।
बहुचरा जी से संबंधित किवदंतियाँ
शमी वृक्ष के नीचे स्थित आदि बहुचरा जी के मंदिर के पुजारी जी ने मुझे बहुचरा देवी से संबंधित दो रोचक लोक-कथाएं सुनाईं।
मुसलमान आक्रमणकारी
सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के लिए जा रहे मुसलमान आक्रमणकारी मार्ग में स्थित सभी मंदिरों को नष्ट कर रहे थे. आक्रमण करते हुए वो सिद्धपुर पहुँचे जहाँ सिद्धपुर का प्रसिद्ध रुद्र महालय स्थित था। एक ब्राह्मण ने आक्रमणकारियों चुनौती दी कि वे बहुचरा देवी के मंदिर को ध्वस्त कर दिखाएं। उस ब्राह्मण पुजारी का असीम विश्वास था कि बहुचरा जी एक जागृत देवी हैं। वे मंदिर का एवं अपने भक्तों का सदा रक्षण करेंगी।
जब तक आक्रमणकारी मंदिर के निकट पहुँचे, संध्या हो चुकी थी। मंदिर के चारों ओर अनेक कुक्कुट विचरण करने लगे थे जो संयोग से देवी के वाहन भी हैं। उन्हे देख आक्रमणकारियों को लालच आने लगा। उन्होंने भरपूर कुक्कुटों का शिकार किया तथा उसे अपने रात्रि के भोजन में सम्मिलित किया। प्रातः होते ही मंदिर के एक कुक्कुट ने बाँग दी। आक्रमणकारियों के उदर में स्थित कुक्कुटों ने उस बाँग की प्रतिक्रिया दी एवं उनके उदार फाड़कर बाहर आ गए। इस प्रकार उन्होंने आक्रमणकारियों की सम्पूर्ण सेना को समाप्त कर दिया।
तब से देवी को धर्म के अनुयायियों का रक्षक माना जाता है।
सोलंकी एवं चावडा सम्राट
यह दंतकथा १८ वीं सदी की किसी कालावधी के दो घनिष्ठ मित्रों की है। एक कालरी ग्राम का सोलंकी राजा था तो दूसरा पाटन का चावडा राजा। उनके मध्य परम घनिष्ठता थी। उन्होंने एक दूसरे से प्रतिज्ञा की थी कि भविष्य में यदि एक मित्र को कन्यारत्न की प्राप्ति होगी तथा दूसरे को पुत्ररत्न प्राप्त हो तो वे उनका आपस में विवाह संपन्न करायेंगे। इससे उनकी घनिष्ठ मित्रता पारिवारिक संबंध में परिवर्तित हो जाएगी। भाग्य ने ऐसी कृपा की कि कालांतर में दोनों ही मित्रों को कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। सोलंकी राजा ने कन्या के स्थान पर पुत्र के जन्म की घोषणा कर दी।
यह ऐसा सत्य है जिसे कोई भी अधिक दिवसों तक गोपनीय नहीं रख सकता। सोलंकी राजा के असत्य घोषणा की सूचना शीघ्र ही पाटन के राजा तक भी पहुँच गयी। सत्य सबके समक्ष उजागर करने की मंशा से पाटन के राजा ने किसी अनुष्ठान के नाम पर अपने भावी जमाई के लिए निमंत्रण भेजा।
इससे सोलंकी राजकुमारी भयभीत हो गयी तथा अपनी घोड़ी दौड़ाते हुए बहुचराजी के पास पहुँची। यदि उसका भेद उजागर हो गया तो दोनों राजवंशों के मध्य युद्ध हो जाएगा तथा असंख्य निर्दोषों के प्राण न्योछावर हो जाएंगे। राजकुमारी ने बहुचराजी से निवेदन किया कि वे बिना किसी हिंसा एवं रक्तपात के इस विकट समस्या का हल निकालें।
यहाँ मानसरोवर नामक एक विशाल सरोवर था। बहुचरा देवी से प्रार्थना करने के पश्चात राजकुमारी उस सरोवर के तट पर बैठ गयी। उसने देखा कि एक मादा श्वान ने सरोवर के जल में प्रवेश किया तथा कुछ क्षण पश्चात वह नर श्वान के रूप में जल से बाहर आ गयी। राजकुमारी ने इसे देवी का संकेत माना तथा वह स्वयं भी सरोवर के जल में प्रवेश कर गयी। एक डुबकी लगाने के पश्चात उसने देखा कि वह एक रूपवान नवयुवक के रूप में परिवर्तित हो गयी है।
हर्षित हो कर उसने पाटन की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उसका भव्य स्वागत किया गया। कालांतर में पाटन की राजकुमारी से उसका विवाह भी संपन्न हो गया।
अन्य किवदंतियाँ
एक अन्य किवदंती के अनुसार देवी बहुचरा जी ने दण्डासुर का वध किया था। दण्डासुर दैत्यराजपुर पर शासन करता था जिसे अब दैत्रो कहा जाता है। यह घटना सभी देवी क्षेत्रों में घटी घटनाओं के अनुरूप है जहाँ देवी ने किसी ना किसी असुर का वध किया है। दृष्टांत के लिए, चामुण्डेश्वरी देवी ने मैसूर में महिषासुर का वध किया था, महालक्ष्मी ने कोल्हापूर में कोलासुर का वध किया था।
एक लोककथा के अनुसार एक राजा ने पुत्र प्राप्ति की कामना से यहाँ प्रार्थना की थी। उसे पुत्र की प्राप्ति अवश्य हुई किन्तु वह पुत्र नपुंसक था। देवी ने पुत्र को उसके स्वप्न में दर्शन दिए तथा स्त्री के भेस में उसकी पूजा-आराधना करने का निर्देश दिया। तभी से यहाँ पुरुषों द्वारा स्त्री का रूप धर कर देवी की आराधना की प्रथा चली आ रही है।
बहुचरा जी का मंदिर
हम प्रातःकाल मंदिर पहुँच गए थे। वाहन को वाहन स्थानक पर रखकर हम मंदिर की ओर चल दिए। मार्ग के दोनों ओर विक्रेता देवी को अर्पण करने की विविध वस्तुएं विक्री कर रहे थे। जिस वस्तु ने हमें सर्वाधिक आकर्षित किया, वह था धातु का पतरा। अनेक विक्रेता धातु के छोटे छोटे चौकोर पतरे विक्री कर रहे थे जिन पर शरीर के भिन्न भिन्न भाग उत्कीर्णित थे।
एक विशाल अर्धगोलाकार तोरण के नीचे से हम परिसर की ओर अग्रसर हुए। तोरण के एक ओर गणेश जी का एक छोटा मंदिर था। मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग अत्यंत अस्तव्यस्त एवं भीड़भाड़ भरा था। किन्तु जैसे ही हमने मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश किया, एक शुभ्र श्वेत विशाल संरचना को देख हमारी आँखें चुँधिया गईं। वह संरचना पवित्र एवं सशक्त ऊर्जा उत्सर्जित कर रही थी। वह देवी बहुचरा जी का मंदिर था।
मंदिर की ओर जाते हुए आपको अपने दोनों ओर दो लघु मंदिर दृष्टिगोचर होंगे। उनमें से एक शिव मंदिर है तथा दूसरा गणपती मंदिर है। बहुचरा जी के मंदिर के ठीक अग्र दिशा में देवी के वाहन, कुक्कुट की बहुरंगी प्रतिमा स्थापित है। परिसर में चारों ओर की श्वेत शुभ्र संरचनाओं के मध्य इस कुक्कुट के रंग अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं।
मंदिर के अग्रभाग में श्वेत रंग के आकर्षक तोरण हैं। उसके नीचे से जाते हुए आप एक विशाल मंडप में पहुँचेंगे। समक्ष ही गर्भगृह स्थित है जिसके भीतर बहुचरा देवी का सुंदर विग्रह स्थित है। चित्रों में बहुचरा देवी का जैसा आयुधों एवं वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्रतिम रूप दर्शाया जाता है, देवी का विग्रह उसी के अनुरूप है।
देवी के समक्ष नतमस्तक होकर हमने उनकी आराधना की। तत्पश्चात मंदिर के मंडप में बैठ गए। कुछ क्षणों पश्चात मंदिर के बाह्य भाग में स्थित यज्ञ मंडप की ओर से हमें संगीत के स्वर सुनाई देने लगे। उसे सुनने हम मंडप से बाहर आ गए।
मंदिर का परिसर
यज्ञ मंडप में किसी प्रकार का अनुष्ठानिक यज्ञ किया जा रहा था। अनेक भक्तगण गुजराती भाषा में दुर्गा सप्तशती का जाप कर रहे थे।
मंदिर के दूसरी ओर छोटे मंदिर हैं जो नरसिंह वीर को समर्पित हैं। नरसिंह वीर अपने वाहन अश्व पर आरूढ़ हैं। आपको स्मरण होगा, कुमाऊँ के गोलू देवता एवं महाराष्ट्र के खंडोबा, दोनों के वाहन भी अश्व हैं।
मंदिर परिसर में, मंदिर के समक्ष, मंदिर के ही अनुरूप, श्वेत रंग में तीन तलों का एक दीपस्तंभ है।
परिसर में कुछ भक्त अन्य भक्तों को प्रसाद के रूप में सुखड़ी वितरित कर रहे थे। सुखड़ी एक प्रकार का मिष्टान्न है जिसे दूध एवं गुड़ से बनाया जाता है।
मंदिर से बाहर आकर हमने परिक्रमा आरंभ की। परिक्रमा करते हुए हमने एक सुंदर व्यालमुख जलप्रणाली देखी जिसका मुख हाथी के मुख के अनुरूप था। इस गजमुख से जल एक पात्र में गिर रहा था। एक स्त्री की सुंदर शैलप्रतिमा उस पात्र को अपने हाथों में धारण किये हुए थी।
हमने अनेक स्तंभों से सज्ज एक सभा मंडप देखा जिसके भीतर बहुरंगी आधारों पर मिट्टी के घड़े रखे हुए थे। ऐसे ही एक अन्य सभामंडप में एक पालना रखा हुआ था। उस पालने के समक्ष स्त्रियाँ पुत्र प्राप्ति की कामना करती हैं। इस मंडप में बहुचरा जी के अनेक विशाल चित्र हैं। उनमें से एक चित्र में वे एक सुंदर रथ में सवार हैं जिसे कुक्कुटों का समूह हाँक रहा है।
परिक्रमा करते हुए हम मंदिर के पृष्ठभाग में पहुँचे। वहाँ हमने संगमरमर में उत्कीर्णित चरणों की आकृति देखी जिस पर सिंदूर का ढेर रखा हुआ था। भक्तगण उस सिंदूर को अपनी माथे पर लगाते हैं तथा समक्ष स्थित भित्ति पर स्वास्तिक का चिन्ह अंकित करते हैं। ऐसी ही प्रथा मैंने इससे पूर्व मथुरा के मंदिरों में भी देखी थी।
मंदिर के चारों ओर उसकी बाह्य भित्तियों पर आकर्षक उत्कीर्णन किये हुए हैं।
आद्यस्थान
यह एक लघु मंदिर है जो मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित है। यह वह मूल स्थान है जहाँ एक शमी अथवा वरखड़ी वृक्ष के नीचे देवी सर्वप्रथम प्रकट हुई थीं।
प्रत्येक दर्शनार्थी इस मंदिर में देवी के दर्शन अवश्य करता है। वे देवी को धातु के पतरे अर्पित करते हैं। इसी मंदिर में मुझे पण्डितजी ने बहुचरा जी से संबंधित दंतकथाएं सुनाई थीं।
मंदिर का जलकुण्ड
मंदिर के पीछे एक पगडंडी है जो एक जलकुण्ड की ओर ले जाती है। इस जलकुण्ड के चारों ओर अनेक लघु मंदिर स्थित हैं। जलकुण्ड के जल का प्रयोग मंदिर के विविध अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। हमने यहाँ अनेक मुंडन संस्कार भी होते देखा।
मैंने महाभारत में पढ़ा था कि अज्ञातवास की अवधि में अपना परिचय गुप्त रखने की मंशा से अर्जुन ने इस सरोवर में डुबकी लगाई थी जिसके पश्चात उसे बृहन्नला का रूप प्राप्त हुआ था। ऐसा भी उल्लेख किया जाता है कि शिखंडी ने भी द्रोणाचार्य से युद्ध करने से पूर्व यहाँ पूजा-अर्चना की थी। आपको स्मरण ही होगा कि महाभारत महाकाव्य के अनुसार अम्बा ने मृत्यु पश्चात शिखंडी के रूप में जन्म लिया था। उसका जन्म एक कन्या के रूप में हुआ था। कालांतर में उसने लिंग परिवर्तन कराकर पुरुष रूप धारण किया था तथा भीष्म की मृत्यु का कारण बनकर अपना प्रतिशोध लिया था।
किन्नरों से भेंट
मंदिर परिसर में विचरण करते हुए हमारी दृष्टि किन्नरों के एक समूह पर पड़ी जो उजले चटक रंगों की साड़ियाँ धारण कर तथा स्वर्णाभूषणों से सज्जित होकर एक वृक्ष के नीचे बैठी थीं। जो भी भक्तगण अपनी संतानों के मुंडन संस्कार के लिए यहाँ आए थे, वे आशीष ग्रहण करने के लिए अपनी संतानों को इन किन्नरों के पास ले जा रहे थे। यदा-कदा वे उठकर गरबा नृत्य भी करने लगती थीं।
कुछ क्षण उनको निहारने के पश्चात मुझसे रहा नहीं गया। मैं उठकर उनके समीप पहुँची तथा उनसे वार्तालाप करने लगी। उन्होंने मुझे उनके वरिष्ठतम सदस्य सोनू मासी के पास भेजा। सोनू मासी ने भरपूर स्वर्णाभूषण धारण किया हुआ था। यहाँ तक कि उनके सभी दाँतों पर स्वर्ण का आवरण था। मैंने वहाँ बैठकर उनके विषय में तथा मंदिर के विषय में चर्चा की। उन्होंने मुझे उनके विविध वार्षिक उत्सवों के विषय में भी जानकारी दी, जैसे दीपावली के पाँच दिवस उपरांत लाभ पंचमी का उत्सव आयोजित किया जाता है जो ८ से ९ दिवसों तक चलता है। उन्होंने मुझे कई विडिओ भी दिखाए जिनमें वे इन उत्सवों में नृत्य करती दिखाई पड़ रही थीं।
मैंने उनसे बहुचरा जी एवं इस मंदिर से उनके संबंध के विषय में प्रश्न किये। उन्होंने बताया कि वे बहुचरा माँ के नामों का जप करते हैं तथा देवी उनका रक्षण करती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि अनेक पालक अपनी किन्नर संतानों को यहाँ छोड़ जाते हैं। यहाँ का किन्नर समुदाय उनको गोद ले लेता है तथा उनका पालन-पोषण करता है। इंटरनेट के द्वारा मुझे यह जानकारी भी प्राप्त हुई कि अनेक वयस्क भी इस मंदिर में आकार इस समुदाय से संयुक्त होते हैं।
सोनू मासी ने मुझे आशीर्वाद के रूप में एक सिक्का दिया। देने से पूर्व उन्होंने उस सिक्के को अपनी चूड़ियों से स्पर्श कराया। ऐसी मान्यता है कि उनके आशीष में अपार शक्ति होती है। उनके आशीष ने मुझे कृतार्थ कर दिया। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे उनका आशीष प्राप्त हुआ, वह भी बहुचरा जी के शक्तिपीठ में। मानो देवी स्वयं अपने विशेष भक्तों के माध्यम से मुझे आशीर्वाद प्रदान कर रही हों।
मंदिर के विविध उत्सव
प्रत्येक पूर्णिमा के दिवस बहुचरा जी को पालकी में बिठाकर मंदिर के चारों ओर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है।
चैत्र एवं आश्विन मासों की पूर्णिमा के दिवसों में बहुचरा जी का उत्सव आयोजित किया जाता है। ये पूर्णिमाएँ ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु के आरंभ में आयोजित नवरात्रि उत्सवों के पश्चात आती हैं। इस उत्सव में बहुचरा जी अपनी पालकी में बैठकर शंखलपुर गाँव जाती हैं जो उनके मंदिर से लगभग ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
दशहरा के दिवस शमी वृक्ष की पूजा-अर्चना की जाती है।
वल्लभ भट्ट नी वाव
वल्लभ भट्ट नी वाव एक बावड़ी है जो बहुचरा जी के मंदिर से लगभग १-२ किलोमीटकर की दूरी पर है। लोककथाओं के अनुसार वल्लभ भट्ट देवी के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन अन्न-जल ग्रहण करने से पूर्व देवी के दर्शन करने के लिए आते थे। एक दिवस देवी के मंदिर जाते हुए मार्ग में उन्हे प्यास लगी। गहन तृष्णा के पश्चात भी उन्होंने जल ग्रहण करना अस्वीकार किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने वहीं उन्हे दर्शन दिए। एक वाव अथवा बावड़ी खोदकर उन्हे जल पिलाया। तब से इस बावड़ी को उस परम भक्त का नाम प्राप्त हुआ।
वर्तमान में यह स्थान एक भक्ति स्थल की अपेक्षा एक पर्यटन स्थल के रूप में अधिक लोकप्रिय है। यहाँ बहुचरा जी का एक छोटा मंदिर है। बावड़ी जाने का द्वार बंद रहता है। एक जाली के मध्य से आप बावड़ी का दर्शन कर सकते हैं।
यात्रा सुझाव
बेचारजी अथवा बहुचर माता मंदिर अहमदाबाद से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
अहमदाबाद से आप एक दिवसीय यात्रा के रूप में इस मंदिर का भ्रमण कर सकते हैं। अहमदाबाद देश के सभी प्रमुख स्थानों से आकाश मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा संयुक्त है।
मंदिर के बाह्य क्षेत्र में मंदिर का वाहन स्थानक है।
नवरात्रि, पूर्णिमा तथा अन्य विशेष उत्सवों में मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है। मैंने गुरुवार के दिवस मंदिर का भ्रमण किया था। उस दिन भक्तों की भीड़ अपेक्षाकृत कम थी।
मंदिर में भ्रमण तथा अवलोकन के लिए ३० मिनट से अधिक समय लग सकता है। दर्शन समय भक्तों की संख्या पर निर्भर है।
मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण निषिद्ध है। मंदिर के परिसर में आप छायाचित्र ले सकते हैं।
आप इस एक दिवसीय यात्रा में मोढेरा सूर्य मंदिर, पाटन की बावड़ी रानी की वाव, सिद्धपुर तथा उंझा जा सकते हैं जहाँ उमिया माता का मंदिर है।
यह गुजरात का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। आप इसके दर्शन अवश्य करें।
बहुचराजी नगरी अथवा मेहसाणा में भी विश्राम गृह उपलब्ध हैं।