तमिल नाडु Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/तमिल-नाडु/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 20 Dec 2023 04:51:02 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन https://inditales.com/hindi/prachin-chennai-ke-mandir/ https://inditales.com/hindi/prachin-chennai-ke-mandir/#respond Wed, 24 Apr 2024 02:30:49 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3577

मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन करा रहे हैं श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी, जोThanjavur: A Cultural History नामक पुस्तक के लेखक हैं। श्री प्रदीप चक्रवर्ती द्वारा लिखित अनेक ऐसी पुस्तकें हैं जिनके द्वारा पाठकों को भारतीय इतिहास एवं दर्शन जैसे विषयों पर जीवन का पाठ प्रदान करने का उत्तम प्रयास किया गया है। […]

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मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन करा रहे हैं श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी, जोThanjavur: A Cultural History नामक पुस्तक के लेखक हैं। श्री प्रदीप चक्रवर्ती द्वारा लिखित अनेक ऐसी पुस्तकें हैं जिनके द्वारा पाठकों को भारतीय इतिहास एवं दर्शन जैसे विषयों पर जीवन का पाठ प्रदान करने का उत्तम प्रयास किया गया है। आज के पॉडकास्ट में प्रदीपजी हमारे समक्ष प्राचीन चेन्नई के इतिहास का पुनरावलोकन कर रहे हैं जिसके माध्यम से वे चेन्नई के मंदिर, किवदंतियाँ एवं लोककथाएं से हमारा परिचय करा रहे हैं जो अद्भुत एवं अविस्मरणीय हैं।

चेन्नई शब्द की व्युत्पत्ति

प्राचीन काल में चेन्नई क्षेत्र चेन्नापटना कहलाता था। तेलुगु भाषा में चेन्नापटना का अर्थ होता है, सुंदर। चेन्नापटना व्यापारियों की भूमि थी। यहाँ स्थित पल्लव कालीन प्राचीन बंदरगाह बड़ी संख्या में तेलुगु भाषी कपास व्यापारियों को अपनी ओर आकर्षित करता था। चेन्नापटना नाम किस प्रकार मद्रास में परिवर्तित हो गया, इसके विषय में यद्यपि अनेक कथाएं प्रचलित हैं, तथापि उनके कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

ऐसा कहा जाता है कि एक काल में आर्कोट के नवाब को अपने राज्य के वित्तीय भार का निर्वाह करने के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यता पड़ी। धन जुटाने के लिए उसने अपनी भूमि के छोटे छोटे भूखंडों को अंग्रेजों को विक्री करना आरंभ कर दिया। शनैः शनैः अंग्रेजों ने सभी गांवों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया तथा बंदरगाह नगरी चेन्नई अथवा मद्रास का निर्माण किया।

चेन्नई का प्राचीन इतिहास

मानवीय वसाहत के आरंभिक चिन्ह चेन्नई के पल्लावरम क्षेत्र में प्राप्त हुए थे। प्राचीन इतिहास शोधकर्ता रॉबर्ट ब्रूस फूट को २० वीं सदी के आरंभ में इस क्षेत्र में पुरापाषाण युगीन शैल औजार प्राप्त हुए थे। ये औजार लगभग ४००० वर्ष अथवा उससे भी अधिक प्राचीन माने जाते हैं। इसका यह निष्कर्ष निकलता है कि चेन्नई अनवरत रूप से वसाहती क्षेत्र रहा है।

दक्षिण भारत का एक अन्य पुरातात्विक स्थल है, प्राचीन ताम्रपर्णी नदी। पुराणों  तथा रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार दक्षिण भारत में किसी देवी की प्राचीनतम कांस्य प्रतिमा इसी नदी के तल से प्राप्त हुई थी।

मध्यकालीन युग

पल्लव एवं चोल वंश के शासन काल में मंदिर राज्य के विविध पारंपरिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र होते थे। मंदिर के अधिष्ठात्र देव को राज्य का सम्राट तथा मंदिर को राजभवन माना जाता था। यह प्रथा गाँव के निवासियों में एक सामुदायिक भावना उत्पन्न करती थी। उदाहरण के लिए, चोल वंश के काल में कोडंबक्कम शिव मंदिर राज्य का जिला मुख्यालय था।

चेन्नई का प्राचीनतम जीवंत मंदिर वेलाचेरी का सप्तमातृका मंदिर है जिसका काल-निर्धारण पाँचवीं सदी माना जाता है।

दुर्भाग्य से मंदिरों के अतिरिक्त ऐसी कोई भी संरचना अब शेष नहीं है जिसका निर्माण पल्लव, चोल अथवा पंड्या वंश के राजाओं ने करवाया था। उस काल के राजा अस्थायी काष्ठ भवनों में निवास करते थे। इसके लिखित प्रमाण के रूप में अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं, जैसे मायलापुर मंदिर की भित्तियों पर उपस्थित शिलालेख जिन्हे १००० वर्ष प्राचीन माना जाता है। एक शिलालेख के अनुसार चोल वंश के काल में चेन्नई में व्यापारी समितियाँ एवं सभाएं आयोजित की जाती थीं।

औपनिवेशिक काल

चेन्नई में तीन उपनिवेशवादियों का नियंत्रण रहा है, पुर्तगाली, फ्रांसीसी एवं अंग्रेज।

पुर्तगाली प्रथम उपनिवेशवादी थे जिन्होंने चेन्नई के निकट बंदरगाह का निर्माण किया था। उन्होंने १५ वीं शताब्दी के अंतिम खंड में यह निर्माण कराया था। कालांतर में इस बंदरगाह क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए फ्रांसीसी एवं अंग्रेजों के मध्य संघर्ष हुआ। सन् १७४४-१७६३ में हुए इस संघर्ष में पराजित होने के पश्चात फ्रांसीसी चेन्नई को अंग्रेजों को सुपुर्द करने के लिए बाध्य हो गये।

जब अंग्रेजों ने सर्वप्रथम भारत में उपनिवेश स्थापित किया, तब विश्व के अन्य देशों के संग स्थापित वस्त्र व्यापार पर अपना सर्वस्व नियंत्रण पाने के लिए भारत के पूर्वी तट पर उन्हे एक बंदरगाह की आवश्यकता प्रतीत हुई। वे मुख्यतः कपास एवं नील का व्यापार कर रहे थे। इस व्यापार के लिए चेन्नई सर्वोत्तम क्षेत्र था।

चंद्रगिरी के विजयनगर राजवंश के राजा ने उन्हे इस व्यापार को आरंभ करने के लिए ३०० वर्ग किलोमीटर का छोटा सा भूखंड प्रदान किया। अंग्रेजों ने इस भूखंड पर अपने दुर्ग का निर्माण किया तथा यहाँ से अपना व्यापार आरंभ किया। यह क्षेत्र अब लोकप्रिय मरीना समुद्रतट है।

तमिल साहित्य एवं संगीत

तमिल साहित्यों एवं संगीत में उन सभी गाँवों का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है जिनसे चेन्नई का सृजन हुआ था। मायलापुर कपालीश्वर स्वामी मंदिर लगभग १००० वर्ष प्राचीन है। इस मंदिर के अप्पर स्वामी ने पुम्बाबाई, समथर के प्रति उनके प्रेम तथा कालांतर में उनकी मृत्यु पर आधारित अनेक कविताओं की रचना की है। तत्पश्चात इन कविताओं के माध्यम से वे पुम्बाबाई को मृत्यु की गोद से उठने का आव्हान करते हैं तथा उन्हे नश्वर प्रेम का त्याग कर शिव के अमर प्रेम में लीन होने के लिए प्रेरित करते हैं। वे उनसे शैव धर्म के आदर्शों को दूर-सुदूर तक पहुँचाने का निवेदन करते हैं।

कपालीश्वर मंदिर - चेन्नई
कपालीश्वर मंदिर – चेन्नई

एक रोचक कविता में मायलापुर क्षेत्र की समृद्ध वनस्पतियों, उत्सवों तथा विविध अवसरों पर बने भिन्न भिन्न व्यंजनों का विवरण है। आज भी ये सभी उत्सव उतने ही उत्साह से मनाए जाते हैं। इससे संबंधित एक रोचक तथ्य यह है कि पुम्बाबाई पार्वती का ही प्राचीन नाम है जिनकी मूर्ति की मंदिर में प्रतिष्ठापना की गयी है।

यात्रा साहित्य

चेन्नई के इतिहास का एक अन्य साहित्यिक स्रोत है, वेंकटाध्वरी कवि की रचना, विश्वगुणादर्शचंपू। १७ वीं सदी में रचित यह रचना चंपू छंद से संबंधित है। चम्पू एक भारतीय साहित्यिक शैली है जिसमें गद्य एवं कविताओं का संगम होता है। चंपू छंद का प्रयोग कर लिखे गये लेख संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु तथा अनेक अन्य भारतीय भाषाओं में प्राप्त होते हैं।

इन साहित्यों में क्रिशानु एवं विश्ववासु नामक दो गन्धर्वों की दृष्टि से चेन्नई एवं अन्य भारतीय नगरों का वर्णन किया गया है। इन दोनों गन्धर्वों में एक आशावादी तथा दूसरा निराशावादी है। ये दोनों गंधर्व भारत वर्ष की यात्रा करते हुए दक्षिण क्षेत्र से उत्तर क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं। वे भारत पर अंग्रेजों के प्रभाव के विषय में चर्चा कर रहे हैं। वे राजनीति, संस्कृति, इतिहास, आधारभूत संरचनाओं के विकास एवं संभावित भविष्य की भी चर्चा कर रहे हैं। आशावादी क्रिसानु नगर का वर्णन करते हुए सदैव अपनी चर्चा को सकारात्मक आशाजनक अंत प्रदान करता है। इन रचनाओं के माध्यम से हमें १७ वीं शताब्दी तक चेन्नई पर अंग्रेजों के प्रभाव की जानकारी प्राप्त होती है।

चेन्नई एक प्राचीन नगरी है जो अब तक जीवंत है। इसके प्रत्येक कोने में प्राचीन काल के चिन्ह हैं जो प्राचीन विश्व को वर्तमान से जोड़ते हैं। चेन्नई एवं उसके इतिहास के विषय में अधिक शोध अब भी शेष है। प्राचीन चेन्नई के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए Podcast by Pradeep Chakravarthy अवश्य सुनें। इस लिखित संस्करण में श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी से प्राचीन चेन्नई के विषय में की गयी विस्तृत चर्चा का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान – दारासुरम https://inditales.com/hindi/darasuram-airateshwar-mandir-tamil-nadu/ https://inditales.com/hindi/darasuram-airateshwar-mandir-tamil-nadu/#respond Wed, 03 Jan 2024 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3355

एक गोधूलि बेला में कच्चे मार्ग से होते हुए तिपहिया वाहन द्वारा मैं दारासुरम पहुँची। गंतव्य पर अग्रसर होते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मार्ग मुझे कहीं नहीं पहुँचायेगा। अकस्मात् ही एक विशाल मंदिर मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट हो गया। वह ऐरावतेश्वर मंदिर था। इस मंदिर का एक अन्य लोक-व्यापी […]

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एक गोधूलि बेला में कच्चे मार्ग से होते हुए तिपहिया वाहन द्वारा मैं दारासुरम पहुँची। गंतव्य पर अग्रसर होते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मार्ग मुझे कहीं नहीं पहुँचायेगा। अकस्मात् ही एक विशाल मंदिर मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट हो गया। वह ऐरावतेश्वर मंदिर था। इस मंदिर का एक अन्य लोक-व्यापी नाम है, दारासुरम मंदिर।

मंदिर पहुँचते ही मेरी प्रथम दृष्टि मंदिर के खंडित गोपुरम एवं उसकी भंजित बाह्य भित्तियों पर पड़ी। तदनंतर मंदिर के प्रवेश द्वार पर मुझे एक छोटा जलमग्न मंदिर दृष्टिगोचर हुआ। मेरी इस यात्रा से कुछ ही दिवस पूर्व नीलम चक्रवात ने इस मंदिर में भेंट दी थी जिसके कारण मंदिर के चारों ओर जल एकत्र हो गया था।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर

कुछ क्षणों पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि सामान्यतः वर्षा के पश्चात मंदिर के चारों ओर की भूमि जलमग्न हो ही जाती है। काल के साथ मंदिर के आसपास की भूमि ऊँची हो गयी है जिसके कारण मंदिर का भूतल अपेक्षाकृत नीचे हो गया है। इसके कारण वर्षा का जल चारों ओर से मंदिर की ओर आता है तथा मंदिर को चहुँ ओर से घेर लेता है।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के आकर्षण

जल के मध्य स्थित मंदिर को देख मन में कुतूहल जन्म ले रहा था। हृदय में सम्मिश्रित भावनाएं उत्पन्न होने लगी थीं। मुझे इस तथ्य का पूर्ण रुप से भान था कि यह एकत्रित जल मंदिर की संरचना के लिए अहितकारी सिद्ध हो सकता है। इस आभास के पश्चात भी मैं जल से घिरे मंदिर की सुन्दरता को देख मंत्रमुग्ध सी हो रही थी। सूर्य की किरणें जल की सतह पर मंदिर के प्रत्येक अवयव का प्रतिबिम्ब चित्रित कर रही थीं। जैसे जैसे सूर्य अस्त की ओर उन्मुख हो रहा था, मंदिर का प्रतिबिम्ब सूर्य की किरणों के संग आँख-मिचौली खेल रहा था।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान

एक गाँववासी ने मुझे कहा कि मंदिर के भीतर जाने के लिए मुझे इस जल का सामना करना पड़ेगा। मैं सोच में पड़ गयी कि किस प्रकार सामना करना पड़ेगा! मुझे विश्वास था कि ऊँची जगती अथवा चबूतरे पर निर्मित स्तंभ युक्त गलियारे से घिरे इस मंदिर तक पहुँचने का कोई मार्ग अवश्य होगा जिसके लिए मुझे जल में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। लेकिन वहाँ ऐसा कोई मार्ग नहीं था। मुझे जल में प्रवेश करना ही पड़ा। किन्तु जैसे ही मैंने जल में प्रवेश किया, मुझमें चारों ओर के जल का कोई आभास शेष नहीं रहा। मुझे जल की उपस्थिति का भी भान नहीं था। मैं व मेरा कैमरा, हम दोनों प्रसन्नता से मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हुए अपने अपने कार्य में मग्न हो गए थे।

चोल मंदिर की स्थापत्य शैली

ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण सन् ११६६ में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था।

यह एक वर्गाकार संरचना है। अन्य चोल मंदिरों के विपरीत इस मंदिर का परिक्रमा पथ मुख्य मंदिर के भीतर ना होकर मंदिर के बाह्य क्षेत्र में है।

मुख मंडप एवं अर्ध मंडप पार कर हम गर्भगृह पहुँचते हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो विशालकाय द्वारपालों के शिल्प हैं। महामंडप स्तंभों से भरा हुआ है। मंदिर के लिंग की स्थापना महाराज राजराजा ने स्वयं करवाई थी। इसलिए इस लिंग को राज-राजेश्वर उदयनार भी कहते हैं।

मुख्य मंदिर के पार्श्वभाग में स्थित मंडप को अग्र-मंडप कहते हैं। इस मंडप का नामकरण चोल राजा के नाम पर किया गया है। इस मंडप की संरचना एक विशाल रथ के समान है। इसके प्रवेश पर स्थित सोपानों की यह विशेषता बताई जाती है कि ये संगीतमय सोपान हैं। इन पर चढ़ते ही भिन्न भिन्न सोपानों से संगीत के भिन्न भिन्न सुर निकलते हैं। यह जानकारी मुझे हमारे परिदर्शक ने प्रदान की थी। किन्तु मैं इसका अनुभव नहीं ले पायी क्योंकि वह स्थल जलमग्न था।

मंदिर की भित्तियों पर कई शिल्प पट्टिकाएं एवं शिलालेख हैं जिन पर शैव नयनार संतों की कथाएं प्रदर्शित हैं। अनेक पौराणिक गाथाओं का भी चित्रण है।

मंदिर परिसर में कुछ छोटे देवालय भी है। जैसे गणेश मंदिर, यम मंदिर, सप्तमातृका मंदिर आदि।

मंदिर परिसर अत्यंत विस्तृत है। इसे सप्त-वीथी भी कहते हैं। इसका अर्थ है, मंदिर जिसमें सात वीथिकाएँ अथवा गलियारे एवं सात मार्ग हैं। ठीक उसी प्रकार जैसा तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम मंदिर में है। वर्तमान में उन सातों में से केवल एक ही शेष है। मंदिर के गोपुरम एवं स्वयं मंदिर के भंगित अवशेष परिसर में चारों ओर बिखरे हुए हैं।  मेरे अनुमान से १४वीं शताब्दी में इस मंदिर पर आततायियों ने आक्रमण किया था एवं मंदिर को इस स्थिति में पहुँचाया था।

मंदिर से सम्बंधित लोककथा

किवदंतियों एवं मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण उस चरवाहिन की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए किया गया था जिसने तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के शिखर के लिए शिला का दान किया था। उसकी अभिलाषा थी कि ऐसा ही एक विशाल मंदिर का निर्माण उसके ग्राम में भी किया जाए।

मुझे इस विनिमय ने अचंभित कर दिया। एक सामान्य स्त्री राजा के प्रिय मंदिर के निर्माण के लिए शिला का दान कर रही है। इसके प्रतिफल के रूप में वह स्वयं के लिए किसी भी वस्तु की माँग रख सकती थी। लेकिन उसने क्या माँगा! उसने माँग रखी कि ऐसा ही एक मंदिर उसके ग्राम में भी हो। क्या इससे प्राचीन काल के भारतीयों के नैतिक मूल्यों एवं उनकी प्राथमिकताओं की छवि नहीं प्राप्त होती? उस काल में कला एवं संस्कृति का महत्त्व सर्वोपरि था।

ऐरावतेश्वर मंदिर के गज शिल्प

ऐरावतेश्वर मंदिर का नामकरण इंद्र के गज ऐरावत के नाम पर किया गया है। ऐसी मान्यता है कि इंद्र के गज ऐरावत ने पवित्र कावेरी नदी से पोषित इस मंदिर के जलकुण्ड में स्नान किया था। इसके पश्चात उसकी त्वचा दैदीप्यमान हो गयी थी। यह दंतकथा मंदिर की शिला पर भी उत्कीर्णित है।

सोपानों के दोनों ओर गज प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो ये गज मंदिर को अपनी पीठ पर उठाये हुए हैं। समीप ही जगती की भित्ति पर दो पैरों पर खड़े दौड़ती हुई मुद्रा में अश्व उत्कीर्णित हैं। उनके पृष्ठ भाग में रथ के चक्र उत्कीर्णित हैं। भित्तियों पर भी रथ के चक्र इस प्रकार उत्कीर्णित हैं कि वे इस मंदिर को एक रथ की छवि प्रदान करते हैं।

ऐसी मान्यता है कि रथ के ये चक्र वास्तव में सौर घड़ियाँ हैं। इनका प्रयोग प्रातःकाल एवं संध्याकाल में समय आंकने के लिए किया जाता है। रथ के आकार के ऐसे मंदिरों को करक्कोइल कहा जाता है। इनकी प्रेरणा मंदिर में देवों की शोभायात्रा में प्रयुक्त विशाल रथों से प्राप्त की गयी है। एक तत्व जो मुझे भ्रामक प्रतीत हुई वह यह कि गज एवं अश्व एक दिशा में ना जाते हुए एक दूसरे से लम्बवत दिशा में जाते दर्शाए गए हैं।

अन्य दो मंदिर जो चक्र युक्त रथ के आकार के प्रतीत होते हैं, वे हैं, ओडिशा का कोणार्क सूर्य मंदिर एवं हम्पी का विट्ठल मंदिर

मुख्य मंदिर के चारों ओर नंदी की अनेक लघु प्रतिमाएं हैं। दो प्रतिमाओं के मध्य कमल पुष्प उत्कीर्णित है। साहित्यों के अनुसार कदाचित ये कम ऊँचाई की भित्तियाँ थीं जिनका उद्देश्य मंदिर के चारों ओर कुण्ड का आभास प्रदान करना था। उसके अनुसार कदाचित यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने मंदिर को उसी रूप में देखा जैसा की यह पूर्व में नियोजित था।

भगवान शिव एवं चोल मंदिर

सभी चोल मंदिरों की विशेषता है कि उनके पृष्ठ भाग की बाह्य भित्ति पर शिवलिंग होता है जिसके मध्य से भगवान शिव प्रकट होते दर्शाए जाते हैं। इस मंदिर में भी ऐसा ही एक लिंग है। इसे लिंगोद्भव कहते हैं। इसका अर्थ है, लिंग से शिव का उद्भव। मंदिर के स्तंभों पर विस्तृत उत्कीर्णन हैं। उन पर इतिहास पुराण की कथाएं एवं विभिन्न नृत्य मुद्राएँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर स्थापत्य शैली एवं वास्तुकला के विद्यार्थियों के लिए यह मंदिर ज्ञान अर्जन का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है।

लिंगोद्भव मूर्ति
लिंगोद्भव मूर्ति

मुख्य मंदिर से अभिषेक के जल को बाह्य दिशा की ओर संचालित करते व्याल मुखों पर भी विस्तृत उत्कीर्णन है। उन पर सिंह मुख की आकृति बनाई गयी है।

मेरी इस यात्रा में अवलोकित मंदिरों में से यह इकलौता ऐसा मंदिर है जिनके जाली युक्त झरोखों पर विलोम स्वस्तिक आकृतियाँ एवं वर्गाकार आकृतियाँ क्रम से उकेरी गयी हैं। कुछ स्थानों पर लाल एवं हरित रंग पुते हुए हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित अनुत्कीर्णित भागों पर रंगाई की गयी थी। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि ऐसे मंदिरों को इनके पूर्ववत भव्य अवस्था में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। मंदिरों का नवीनीकरण इसी दिशा में होना चाहिए।

नंदी मंडप

इस मंदिर का नंदी मंडप मुख्य गोपुरम के बाह्य भाग में है। यह एक लघु मंडप है। जिस जगती पर शिवलिंग स्थापित है, उस जगती के तल से यह मंडप कहीं अधिक निचले तल पर है। मुझे बताया गया कि पूर्वकाल में वर्तमान गोपुरम के स्थान पर यहाँ उससे अधिक विशाल गोपुरम था। अब उनके केवल अवशेष ही शेष रह गए हैं।

इस मंदिर का एक अन्य विशेष तत्व है, स्तंभों के आधार याली के आकार में उत्कीर्णित हैं। इस प्रकार के स्तम्भ हमें महाबलीपुरम एवं कांचीपुरम के मंदिरों में भी दृष्टिगोचर होते हैं। याली एक पौराणिक पशु है जिसका शरीर विभिन्न पशुओं का सम्मिश्रित रूप होता है। उसका मुख गज का, धड़ सिंह का, कर्ण सूकर का, सींग बकरी के एवं पूँछ गौमाता का होता है।

देवी मंदिर

मुख्य मंदिर के एक ओर देवी मंदिर है जो ऐरावतेश्वर मंदिर के समकालीन है। यह पेरिया नायकी अम्मा का मंदिर है। दुर्भाग्य से यहाँ जल संचयन मुख्य मंदिर से भी अधिक था जिसके कारण मैं मंदिर के भीतर नहीं जा सकी।

दारासुरम मंदिर के स्तम्भ
दारासुरम मंदिर के स्तम्भ

हो सकता है कि किसी काल में यह मुख्य मंदिर संकुल का अभिन्न अंग रहा होगा किन्तु अब यह मुख्य मंदिर से असंलग्न है।

दारासुरम

दरासुरम, यह नाम कदाचित दारुका-वन, इस शब्द से व्युत्पन्न है। कनकल एवं ऋषि पत्नी के अनेक चित्र हैं जो इस ओर संकेत करते हैं।

यह कोल्लीडम नदी के निकट स्थित है जो कावेरी नदी के मुहाने का भाग है।

उत्सव

यह एक शिव मंदिर होने के नाते यहाँ का प्रमुख उत्सव शिवरात्रि है।

मंदिर का वार्षिक उत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार यह काल लगभग जनवरी मास में पड़ता है।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर – यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल

यह मंदिर भारत के दक्षिणी राज्य तमिल नाडु में स्थित है। कुम्भकोणम के निकट दारासुरम नामक नगर में स्थित होने के कारण इस मंदिर को दारासुरम मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माण लगभग १२वीं सदी में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान शिव के ऐरावतेश्वर रूप की आराधना की जाती है।

ऐरावतेश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। सन् २००४ में इस मंदिर को यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थलों की सूची में सम्मिलित किया गया था। उस सूची में इस मंदिर को महान जीवंत चोल मंदिरों के उप-वर्ग के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।

दारासुरम यात्रा से सम्बंधित कुछ सुझाव

दारासुरम तंजावुर से लगभग ४० किलोमीटर दूर है। आप तंजावुर में अपना पड़ाव रखते हुए बृहदीश्वर का बड़ा मंदिर, गंगईकोंडा चोलपुरम तथा आसपास के अन्य आकर्षणों का अवलोकन कर सकते हैं।

मंदिर नगरी चिदंबरम से तंजावुर की मंदिर नगरी जाते हुए भी आप मध्य में विमार्ग लेते हुए ऐरावतेश्वर मंदिर जा सकते हैं।

सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं।

ऐरावतेश्वर मंदिर पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल तिरुचिरापल्ली है जो लगभग ९० किलोमीटर दूर स्थित है। यदि आप तिरुचिरापल्ली की ओर से यहाँ आ रहे हैं तो आप श्रीरंगम के भी दर्शन कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर https://inditales.com/hindi/gangaikonda-cholapuram-brihdeeswara-temple/ https://inditales.com/hindi/gangaikonda-cholapuram-brihdeeswara-temple/#respond Wed, 02 Aug 2023 02:30:54 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3128

तमिलनाडु के तंजावूर से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी नगरी है – गंगईकोंड चोलपुरम। यह गाँव, अरियलूर जिले में जयनकोंडम नगरी के समीप स्थित है। चोल सम्राट राजेंद्र प्रथम ने सन् १०२५ में इसे अपनी राजधानी बनाई थी। यह लगभग २५० वर्षों तक चोल राजवंश की राजधानी थी। मैं दक्षिण भारत के […]

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तमिलनाडु के तंजावूर से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी नगरी है – गंगईकोंड चोलपुरम। यह गाँव, अरियलूर जिले में जयनकोंडम नगरी के समीप स्थित है। चोल सम्राट राजेंद्र प्रथम ने सन् १०२५ में इसे अपनी राजधानी बनाई थी। यह लगभग २५० वर्षों तक चोल राजवंश की राजधानी थी।

मैं दक्षिण भारत के मंदिरों की यात्रा के अंतर्गत चोल मंदिरों का भ्रमण रही थी। इसके अंतर्गत मैं चिदंबरम, तंजावुर, गंगईकोंड चोलपुरम, दारासुरम तथा तिरुचिरापल्ली के मंदिरों के दर्शन कर रही थी। एक ओर तमिलनाडु की सड़कों पर एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाते हुए चारों ओर के हरियाली से समृद्ध परिवेश मेरे नेत्रों द्वारा मेरे मनमस्तिष्क को सुख पहुँचा रहे थे तो दूसरी ओर तमिलनाडु की लोकप्रिय एवं मेरी प्रिय फिल्टर कॉफी मेरी जिव्हा के द्वारा मेरे शरीर को स्फूर्ति प्रदान कर रही थी।

गंगईकोंड राजेंद्र चोल (प्रथम)

गंगईकोंड नगरी की स्थापना चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) ने की थी जो सुप्रसिद्ध चोल सम्राट राजराजा (प्रथम) के पुत्र थे। उनकी माता चेर राजकुमारी त्रिभुवन महादेवी थी। चोल साम्राज्य की वंशावली रेखांकित की जाए तो चोल सम्राट सूर्य वंश के वंशज हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अयोध्या के श्री राम।

राजेंद्र चोल प्रथम को आशीष देते शिव एवं पार्वती
राजेंद्र चोल प्रथम को आशीष देते शिव एवं पार्वती

चोल सम्राट राजेंद्र (प्रथम) का राजतिलक सन् १०१६ में हुआ था। वर्तमान भौगोलिक अवस्थिति के अनुसार तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक के कुछ क्षेत्र एवं श्री लंका उनके साम्राज्य के भाग थे। उन्होंने सन् १०५४ तक अर्थात् अपने मृत्युकाल तक शासन किया था।

अपने राज्यकाल में उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए तुंगभद्र, केरल, मालदीव व सुमात्रा को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया तथा अनेक गौरवशाली उपाधियाँ अर्जित कीं। अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से महासागरों को पार करते हुए दूर-सुदूर के अनेक राज्यों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए। उन्होंने अपने साम्राज्य को दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था।

गंगईकोंड चोलपुरम

गंगईकोंड चोलपुरम, इस नाम की पृष्ठभूमि में एक रोचक कथा है। एक समय राजेन्द्र चोल की विजय यात्रा पवित्र नदी गंगा तक पहुँची। उन्होंने बंगाल राजाओं को परास्त किया तथा अपनी मातृभूमि को पवित्र करने के लिए वहाँ से गंगा का पावन जल लेकर वापिस आये। उनके इस पराक्रम के उपरांत उन्होंने ‘गंगईकोंड चोल’ की उपाधि अर्जित की तथा इसी नाम से एक नवीन नगरी की स्थापना की। उसका नाम पड़ा, गंगईकोंड चोलपुरम।

अपने पराक्रमी विजयों के पश्चात् उनके द्वारा अर्जित अन्य उपाधियाँ हैं, मधुरान्तक, उत्तम चोल, वीर चोल, मुदिगोंडा चोल, पंडित चोल तथा कदरम कोंडन।

गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर
गंगईकोंड चोलपुरम का भव्य बृहदीश्वर मंदिर

सन् १०२५ से लगभग २५० वर्षों तक गंगईकोंड चोलवंश की राजधानी रही। इस सम्राज्यकाल में तुंगभद्र के तटों से लेकर श्री लंका तक, सम्पूर्ण दक्षिण भारत चोल सम्राटों के अधिपत्य में था। सम्राट राजेन्द्र चोल के पश्चात भी अधिकाँश चोल राजाओं का राजतिलक इसी धरती पर हुआ तथा यहीं से उन्होंने राज्य किया। १३वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर पांड्य साम्राज्य ने अधिपत्य स्थापित कर लिया।

गंगईकोंड नगरी की स्थापना एक राजधानी के रूप में हुई थी। इसी कारण दो सुदृढ़ भित्तियों द्वारा इसकी किलेबंदी की गयी थी। तमिल साहित्यों के अनुसार सम्पूर्ण नगरी में सड़कों व मार्गों की उत्तम व्यवस्था थी। राजा का भव्य बहुतलीय आवास स्वयं में एक उत्कर्ष स्थापत्य का उदहारण था। इसके निर्माण में पकी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया था। इसमें काष्ठ के उत्कीर्णित स्तंभ थे तथा तलों पर ग्रेनाईट की शिलाएं बिछाई गयी थीं।

सम्राट राजेन्द्र ने यहाँ चोल गंगम नामक एक सरोवर का भी निर्माण कराया था। इस सरोवर को अब पोंन्नेरी सरोवर कहते हैं। यह सरोवर कावेरी नदी द्वारा पोषित था। सम्राट राजेन्द्र ने इस सरोवर में गंगा नदी का जल भी मिलाया था।

वर्तमान में गंगईकोंड नगरी में केवल गंगईकोंड चोलपुरम बृहदीश्वरमंदिर ही शेष है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी संरचनाओं के ध्वंसावशेष ही रह गए हैं।

गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर के बड़े मंदिर अथवा तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल था। गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर गंगईकोंड नगरी के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित था, वहीं राजा का शाही निवास नगर के मधोमध स्थित था। ऐसा माना जाता है कि नगर के पश्चिमी भाग में एक विष्णु मंदिर था किन्तु अब वह अस्तित्वहीन है।

गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर का प्रांगन
गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर का प्रांगन

जैसे ही आप गंगईकोंड चोलपुरम के बृहदीश्वर मंदिर पहुँचेंगे, वहाँ से दूर दूर तक दृष्टि दौड़ाने पर आप पायेंगे कि यह मंदिर वहाँ स्थित लगभग इकलौती संरचना शेष है।

उत्तर दिशा में स्थित एक संकरे मार्ग से हम इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। तत्क्षण आपकी दृष्टि मंदिर के विशाल विमान पर पड़ेगी जिसे शिखर भी कहते हैं। इसका आकार लगभग शुण्डाकार है। इसकी ऊँचाई १६० फीट है जो तंजावुर के बड़े मंदिर के विमान से अपेक्षाकृत किंचित लघु है।

गोपुरम

मंदिर के गोपुरम एवं प्राकार भित्तियाँ अब अस्तित्व में नहीं हैं। सन् १८३६ में, जब यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधिपत्य में था, तब अंग्रेजों ने मंदिर की भित्तियों एवं गोपुरम को गिरा कर उसके शिलाखंडों से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक बाँध का निर्माण किया था। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का गोपुरम ठीक वैसा ही था जैसा तंजावुर के बड़े मंदिर का है। यहाँ के गोपुरम का आधारभाग साधारण था जिसके समीप केवल द्वारपाल की प्रतिमाएं रखीं थी। जहाँ अन्य चोल मंदिरों में दो गोपुरम होते थे, इस मंदिर में केवल एक गोपुरम था जो परिसर के पूर्व दिशा में स्थित था।

प्रवेश द्वार पर द्वारपाल
प्रवेश द्वार पर द्वारपाल

प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो द्वारपालों की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख पूर्वकाल के प्रवेश द्वार का अनुमान लगाया जा सकता है। गर्भगृह के पार्श्वद्वारों के दोनों ओर भी द्वारपालों के विशाल शिल्प हैं। इन पार्श्वद्वारों के समक्ष कुछ सोपान हैं जो चोल शैली के मंदिरों की विशिष्टता है।

मुख्य मंदिर के चारों ओर कुछ लघु मंदिर हैं। ये मंदिर देवी, सिंह सहित दुर्गा, चंडिकेश्वर, गणेश तथा नंदी के हैं। परिसर में आप एक क्षतिग्रस्त मंडप देखेंगे जिसका नाम अलंकार मंडप है।

मंदिर के आलों में दक्षिणमूर्ति, लिंगोद्भव, गणेश, नटराज, भिक्षान्तक, कार्तिकेय, दुर्गा, अर्धनारीश्वर तथा भैरवों के शिल्प हैं।

श्री विमान

मुख्य मंदिर के तीन भाग हैं, श्री विमान, मंडप तथा मुखमंडप अथवा ड्योढ़ी।

विशेषज्ञों ने इस विमान के ९ भाग स्पष्ट रूप से दर्शायें हैं। वे इस प्रकार हैं:

  • उप पीठ अथवा भू-गृह
  • अधिष्ठान अथवा आधार
  • भित्ति
  • प्रस्तर
  • हर अथवा देवकुलिका
  • तल
  • ग्रीवा
  • शिखर
  • स्तुपिका अथवा कलश

उप पीठ पर सिंह तथा पौराणिक जीव-जंतुओं की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। अधिष्ठान कमल के आकार में निर्मित है। मुख्य भित्ति दो अनुप्रस्थ भागों में विभाजित है। इसके तीन पार्श्व भागों में आले निर्मित हैं। लम्बवत खांचों द्वारा भित्तियों की सतहों को चौकोर भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार भित्तियों की सतहों पर अनेक देवकुलिकाएं अथवा अतिलघु मंदिर बन गए हैं जिनके भीतर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं रखी हैं।

मंदिर के पृष्ठ भाग में लिंगोद्वभ मूर्ति
मंदिर के पृष्ठ भाग में लिंगोद्वभ मूर्ति

भित्ति के निचले अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती प्रतिमाएं हैं। साथ ही गणेश, विष्णु, सुब्रमन्य, ब्रह्मा, भैरव, लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गा की प्रतिमाएं भी हैं। ऊपरी अनुप्रस्थ पर स्थित देवकुलिकाओं में भी शिव की प्रतिमाओं की प्राधान्यता है। शिव अपने ११ रुद्रों तथा अष्टदिशाओं के अधिष्ठात्र दिकपालों के साथ विराजमान हैं। सभी रूद्र अपने चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं जिनके ऊपरी दो हाथों में परशु तथा मृग हैं। वहीं निचले दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में हैं।

मुक्तांगन में नंदी
मुक्तांगन में नंदी

इनके ऊपर शिखर के ९ तल हैं। शिखर का आकर एवं उस पर की गयी शिल्पकारी उसे शुण्डाकार रूप प्रदान करते हैं। ग्रीवा के चारों दिशाओं में आले हैं जिनके भीतर वृषभ की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। शिखर के शीर्ष पर एक विशाल शिलाखंड है जिसके ऊपर कमल की कली के आकार का सुनहरा कलश स्थापित है। यह कलश कदाचित स्वर्णकलश रहा होगा।

गर्भगृह

मंदिर के भीतर गर्भगृह की परिक्रमा करने के लिए दो पथ हैं, एक प्रथम तल पर तथा एक दूसरे तल पर। तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के विपरीत इस मंदिर में परिक्रमा पथ की भित्तियों पर किसी भी प्रकार के चित्र नहीं हैं।

गर्भगृह के भीतर १३ फीट ऊँचा एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। ऐसा माना जाता है कि यह शिवलिंग दक्षिण भारत का विशालतम शिवलिंग है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर संरक्षण करते दो द्वारपाल हैं।

मुखमंडप

मुखमंडप के भीतर शिव पुराण में उल्लेखित इन प्रसंगों के दृश्य चित्रित हैं।

  • कैलाश पर्वत को हिलाता रावण (यह दृश्य एल्लोरा की गुफाओं में भी चित्रित है।)
  • १००८ पुष्पों द्वारा शिव की आराधना करते विष्णु जब एक पुष्प की कमी रह गयी थी।
  • शिव-पार्वती विवाह
  • किरात – अर्जुन संवाद जब भगवान शिव ने अर्जुन को पशुपति अस्त्र प्रदान किया था।
  • मार्कंडेय ऋषि की कथा
  • चंडिकेश्वर की कथा

महामंडप क्षतिग्रस्त है। उसे देख ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उन्नत काल में यह एक दो-तलीय मंडप रहा होगा। यह एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है जिस पर पहुँचने के लिए उत्तर एवं दक्षिण दिशा में सोपान हैं। ऐसी मान्यता है कि इस मंडप के भूतल के नीचे एक गुप्त मार्ग है। कुछ मान्यताओं के अनुसार यह मार्ग राजमहल की ओर जाता है तो कुछ का मानना है कि यह मार्ग नदी की ओर जाता है, तो कुछ मानते हैं कि यह मार्ग मंदिर के कोषागार तक जाता है जहाँ कदाचित मंदिर की मूल्यवान वस्तुएँ रखी जाती थीं।

यहाँ नंदी की एक अतिविशाल प्रतिमा स्थापित है। तंजावुर के मंदिर के विपरीत नंदी की यह प्रतिमा मोनोलिथिक अथवा एकल शिला की नहीं है। किसी मंडप के भीतर अथवा किसी पीठ पर विराजमान होने के स्थान पर यह एक मुक्ताकाश भूमि पर स्थित है। समीप ही बलि पीठ है।

सिंहकेनी

सिंहकेनी
सिंहकेनी

इस मंदिर की एक अनूठी विशेषता है, सिंह की एक विशाल प्रतिमा जिसके भीतर स्थित सोपान हमें एक गोलाकार कुँए तक ले जाते हैं। इस कुँए को सिंहकेनी कहते हैं। इस कुँए के जल को गंगा के जल द्वारा पवित्र किया गया था। मंदिर के देवों के अभिषेक हेतु इसी कुँए के जल का प्रयोग किया जाता था।

मंदिर की काँस्य वस्तुएँ

बृहदीश्वर मंदिर में चोलकाल की कुछ दुर्लभ वस्तुओं का अनुपम संग्रह है। उनमें से कुछ राजा राजेन्द्र (प्रथम) के शासनकाल से भी संबंधित हैं। इसका अर्थ है कि वे उतने ही पुरातन हैं जितना कि यह मंदिर! उन चोल काँस्य वस्तुओं में निम्न मूर्तियाँ प्रमुख हैं।

  • भोगशक्ति
  • दुर्गा
  • अधिकारनंदी
  • सोमस्कन्द
  • सुब्रमन्य
  • वृषवाहन

चोल काल का विशालतम मंदिर

गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर को चोल वंश द्वारा निर्मित विशालतम मंदिरों में से एक माना जाता है। यह तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर से साम्य रखता है। इसकी आयु तंजावुर के मंदिर से एक पीढ़ी कम है। मेरे अनुमान से एक पीढ़ी पश्चात उनका विचार अवश्य तंजावुर मंदिर की तुलना में अधिक विशाल एवं अधिक शक्तिशाली मंदिर के निर्माण का रहा होगा। बहुधा यह विचार नवीन राजा की भव्यता एवं शक्ति को गत पीढ़ी की तुलना में श्रेष्ठ दर्शाने की मंशा से उत्पन्न होता है।

तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में जो उर्जा एवं भाव अनुभव में आते हैं, वो कहीं ना कहीं इस मंदिर में अनुभव में नहीं आते हैं। संग्रहालयविद्, कला इतिहासकार एवं पुरालेखविद् श्री शिवराममूर्ती लिखते हैं, यह मंदिर अत्यंत पुरुषप्रधान है वहीं तंजावुर का मंदिर अपने उत्तम अनुपातों के चलते स्त्रीसुलभ प्रतीत होता है।

गगईकोंड चोलपुरम मंदिर परिसर के भीतर अन्य मंदिरों के स्थान भी वही हैं जैसे कि तंजावुर मंदिर परिसर के भीतर हैं। मंदिर का परिसर अत्यंत विशाल व विस्तृत है जिससे ना केवल संरक्षणदाता सम्राट के मान-प्रतिष्ठा का अनुमान लगाया जा सकता है अपितु यह भी जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में सामान्य जन-जीवन भी मंदिर के चारों ओर ही केन्द्रित रहता था।

मंदिर प्रांगन में पाषाण मूर्तियाँ
मंदिर प्रांगन में पाषाण मूर्तियाँ

भित्तियों पर उत्कीर्णित छवियों में भगवान शिव के अनेक अवतार हैं जिन्हें भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है। भित्तियों के रिक्त भाग अपूर्ण कार्य की ओर संकेत करते हैं तथा अन्य चोल मंदिरों की तुलना में उत्कीर्णित शिल्पों की सूक्षमता को किंचित निम्न स्तर पर लाते हैं। एक मंडप की भीतरी छत पर खाँचें हैं जिनमें कुछ खांचों में चित्रकारी के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो अन्य खाँचों के चित्रों को काल ने निगल लिया है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत आने के कारण यहाँ के पुरोहितों की नियुक्ति भी उन्होंने ही की है। इन पुरोहितों ने यह पद पारंपरिक वंशानुगत रीति से नहीं प्राप्त किया है।

मंदिर परिसर में सुन्दर उद्यान एवं घास के मैदान हैं।

यह मंदिर दैन्दिनी पूजा-अनुष्ठानों के साथ एक जीवंत मंदिर है। किन्तु मंदिर के आसपास सामान्य जन-जीवन का अभाव खटकता है। जैसी उर्जा एवं भक्ति की तरंगें तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में अनुभव में आती हैं, वैसा अनुभव यहाँ प्राप्त नहीं होता है। इससे मेरे मन में यह विचार आया कि मंदिर को कौन सजीव बनाता है? मंदिर के भीतर विराजमान भगवान अथवा भक्ति एवं श्रद्धा से ओतप्रोत भक्तगण?

शिलालेख

इस मंदिर से १२ सम्पूर्ण एवं अनेक भंगित शिलालेख प्राप्त हुए हैं। एक शिलालेख में उन गाँवों से प्राप्त वित्तीय अनुदानों का उल्लेख है जिन पर इस मंदिर के कार्यभार का उत्तरदायित्व था। इन शिलालेखों से चोलवंश के शासनकाल में पालित प्रशासनिक एवं राजस्व प्रणाली का भी अनुमान प्राप्त होता है।

शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का नाम गंगईकोंड चोलेश्वरम था। इन शिलालेखों के विषय में अधिक जानकारी के लिए डॉ. आर. नागस्वमी द्वारा लिखित यह पुस्तक पढ़ें।

यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल

गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। यह चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में से एक है। इसी कारण यह मंदिर तमिलनाडु के प्रमुख पर्यटन आकर्षणों में सम्मिलित है। चोल वंश के राजाओं द्वारा निर्मित महान जीवंत चोल मंदिरों में अन्य प्रमुख मंदिर हैं, तंजावुर का बड़ा मंदिर अर्थात् तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर तथा दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर

गंगईकोंड चोलपुरम के लिए यात्रा सुझाव

  • गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर तंजावुर से लगभग ७५ किलोमीटर तथा पुदुचेरी से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर है।
  • तंजावुर अथवा पुदुचेरी में ठहरने एवं भोजन की सुविधाएं अधिक सुलभ व उत्तम हैं। अतः आप तंजावुर अथवा पुदुचेरी से एक दिवसीय यात्रा के रूप में यहाँ आ सकते हैं।
  • पत्तदकल के मंदिर के पश्चात् यह भारत का दूसरा ऐसा विश्व धरोहर स्थल है जहाँ मंदिर स्थल के आसपास कोई भी जीवन संबंधी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। आप अपने साथ भोजन एवं पेयजल अवश्य ले जाएँ।
  • आप यहाँ मंदिर एवं आसपास के परिदृश्यों का अवलोकन करते हुए कुछ घंटों का समय आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अरुणाचलेश्वर अथवा आरुल्मिगु का मंदिर तमिल नाडू के पावन नगर तिरुवन्नमलई में स्थित है। शैवों अर्थात् शिव भक्तों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। इसे विश्व के विशालतम शिव मंदिरों में से एक माना जाता है। अरुणाचल पर्वत की तलहटी पर स्थित इस मंदिर की भव्य संरचना तथा अद्भुत वास्तुकला किसी विशाल गढ़ के […]

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अरुणाचलेश्वर अथवा आरुल्मिगु का मंदिर तमिल नाडू के पावन नगर तिरुवन्नमलई में स्थित है। शैवों अर्थात् शिव भक्तों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। इसे विश्व के विशालतम शिव मंदिरों में से एक माना जाता है। अरुणाचल पर्वत की तलहटी पर स्थित इस मंदिर की भव्य संरचना तथा अद्भुत वास्तुकला किसी विशाल गढ़ के समान है।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर भगवान शिव के पंचभूत क्षेत्रों अथवा स्थलों में से एक है। जीवन के पंचभूत तत्व इस प्रकार हैं, , आकाश, वायु, ,अग्नि, जल तथा पृथ्वी । ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव स्वयं अग्नि तत्व के रूप में इस मंदिर में विराजमान हैं। जीवन के अन्य तत्वों से सम्बंधित मंदिर इस प्रकार हैं:

पंचभूत स्थल – जीवन के पंच तत्वों से सम्बंधित मंदिर

जीवन के पंच तत्वों से सम्बंधित भगवान शिव के पांच मंदिर हैं। वे हैं,

  • श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर, तिरुवन्नमलई, तमिल नाडू – अग्नि लिंग
  • नटराज मंदिर, चिदंबरम, तमिल नाडू – आकाश लिंग
  • कालाहस्ती मंदिर, कालाहस्ती, आन्ध्र प्रदेश – वायु लिंग
  • जम्बुकेश्वर मंदिर, तिरुवनैकवल, तमिल नाडू – अप्पु लिंग/जम्बु लिंग (जल)
  • एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम, तमिल नाडू – पृथ्वी लिंग

तिरुवन्नमलई का श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर – अग्नि लिंग

इस मंदिर का इतिहास लगभग सहस्त्र वर्ष प्राचीन है। पुराणों में तथा थेवरम एवं थिरुवासगम जैसे तमिल साहित्यों में भी इस मंदिर का गुणगान किया गया है।

तिरुवन्नमलई की इस देवभूमि में आठ दिशाओं में आठ प्रसिद्ध लिंग हैं जिन्हें अष्ट लिंग कहा जाता है। ये लिंग हैं, इन्द्रलिंग, अग्निलिंग, यमलिंग, निरुतिलिंग(नैऋत्य), वरुणलिंग, वायुलिंग, कुबेरलिंग तथा ईशान्यलिंग। ये आठों लिंग पृथ्वी के आठ दिशाओं के द्योतक हैं। ऐसी मान्यता है कि ये आठों शिवलिंग गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कर रहे भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा को गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कहा जाता है। अनेक भक्तगण यह परिक्रमा करते हैं।

अरुणाचलेश्वर मंदिर की कथा

एक समय सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा तथा सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु के मध्य उनकी श्रेष्ठता के विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया। इस विवाद पर निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए वे भगवान शिव के समक्ष उपस्थित हुए तथा उनसे निर्णय प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। वे दोनों के मध्य एक विशाल अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हो गए जिसके दोनों छोर दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मा एवं विष्णु से कहा कि जो उस अग्नि स्तम्भ का छोर सर्वप्रथम खोज निकलेगा, वही सर्वश्रेष्ठ होगा। विष्णु ने वराह का रूप लिया तथा स्तम्भ का छोर ढूँढने के उद्देश्य से धरती के भीतर प्रवेश किया। धरती के भीतर दीर्घ काल तक जाने के पश्चात भी उन्हें उस अग्नि रूपी लिंग का छोर नहीं दिखा। तब भगवान शिव के समक्ष उपस्थित होकर उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

अरुणाचलेश्वर मंदिर और अरुणाचलेश्वर पर्वत
अरुणाचलेश्वर मंदिर और अरुणाचलेश्वर पर्वत

वहीं ब्रह्मा ने हंस का रूप धरा तथा स्तम्भ के ऊपरी छोर तक पहुँचने के उद्देश्य से आकाश में ऊपर उड़ गए। दीर्घ काल तक ऊपर की ओर जाने के पश्चात भी उन्हें लिंग का ऊपरी छोर  दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वे थक कर चूर हो गए थे किन्तु पराजय स्वीकार करने की मनस्थिति में नहीं थे। तभी अनायास उन्होंने ऊपर से गिरते केतकी पुष्प को देखा। तुरंत उन्होंने उससे स्तम्भ के छोर के विषय में जानना चाहा। केतकी पुष्प ने कहा कि वह चालीस हजार वर्षों से नीचे की ओर गिर रहा है किन्तु उसे स्तम्भ का छोर दिखाई नहीं दिया है। इस पर ब्रह्मा ने केतकी को अपने छल में सम्मिलित करते हुए उसे झूठा साक्षी बनने की आज्ञा दी। ब्रह्मा ने शिव के समक्ष अग्नि लिंग के छोर का दर्शन करने का दावा किया तथा केतकी को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। ब्रह्मा के असत्य कथन पर शिव अत्यंत क्रोधित हो गए तथा ब्रह्मा का एक सिर काट दिया। विष्णु के निवेदन पर उन्होंने ब्रह्मा के अन्य सिरों पर प्रहार नहीं किया किन्तु किसी भी मंदिर पर उनकी आराधना पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उन्होंने केतकी पुष्प को भी श्राप दिया कि अब शिव आराधना में उसका उपयोग कभी नहीं किया जाएगा। जिस स्थान पर ब्रह्मा व विष्णु के अहंकार को नष्ट करने के लिए यह अग्नि लिंग प्रकट हुआ था, उस स्थान को तिरुवन्नमलई कहते हैं।

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अन्य कथाएं

एक अन्य कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने एक क्षण के लिए भगवान शिव के नेत्रों को बंद किया। इससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अन्धकार छा गया। अपनी भूल का आभास होते ही वे पश्चात्ताप करने के उद्देश्य से अरुणाचल पर्वत के समीप अपने अनेक भक्तों के साथ बैठकर कठोर तपस्या में लीन हो गयीं। उस समय भगवान शिव पर्वत के ऊपर एक अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए तथा देवी पार्वती में विलीन हो गए जिससे उनका अर्धनारीश्वर रूप उत्पन्न हुआ। अतः यह पर्वत अत्यंत पावन है तथा इसे भी एक लिंग ही माना जाता है।

इतिहास

इस देवनगरी पर भिन्न भिन्न काल में अनेक राजवंशों का शासन रहा है।  उनमें प्रमुख थे, चोल वंश, होयसल वंश, संगमा वंश, सलवा वंश, तुलु वंश तथा विजयनगर शासन। अधिकाँश शासकों ने इस मंदिर में अनेक प्रकार के चढ़ावे चढ़ाए, जैसे भूदान, धन, गौदान तथा अन्य उपयोगी वस्तुएं। मंदिर में स्थित शिलालेखों पर उन राजवंशों की गौरवगाथाएं आलेखित हैं।

१७वीं सदी में यह मंदिर मुगल शासन के अंतर्गत कर्णाटक के नवाब के आधीन आ गया। अल्प समयावधि के लिए यह टीपू सुलतान के शासन के आधीन भी था। कालांतर में इस पर फ्रांसीसियों तथा उसके कुछ वर्ष उपरान्त अंग्रेजों का अधिपत्य स्थापित हो गया।

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अरुणाचलेश्वर मंदिर की वास्तुकला

यह मंदिर २५ एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। वर्तमान में जिस विस्तीर्णता व भव्यता से यह मंदिर खड़ा है, वह अनेक सदियों से की जा रही संरचना, विस्तार एवं नवीनीकरण का परिणाम है। अरुणाचल पर्वत की पृष्ठभूमि में स्थित इस मंदिर की संरचना द्रविड़ शैली में की गयी है। मंदिर के सभी भागों में आप हमारे पूर्वजों की अद्भुत कला व कारीगरी प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

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अरुणाचलेश्वर मंदिर के प्रमुख तत्व

अरुणाचलेश्वर मंदिर के दर्शन करते समय इन प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखें ताकि आप इस मंदिर की अद्भुत वास्तु एवं संरचना की सूक्ष्मता को जान सकें तथा उनका आनंद ले सकें।

गोपुरम

अरुणाचलेश्वर मंदिर का गोपुरम
अरुणाचलेश्वर मंदिर का गोपुरम

मंदिर का मुख पूर्व की ओर है तथा इसके चार प्रमुख दिशाओं में चार गोपुरम हैं। पूर्व दिशा में स्थित गोपुरम सर्वाधिक विशाल है। इसे राज गोपुरम कहते हैं। ग्रेनाईट द्वारा निर्मित इस गोपुरम की ऊँचाई लगभग २१७ फीट है। इसमें ग्यारह तल हैं। अन्य गोपुरमों के नाम हैं, थिरुमंजन गोपुरम ( दक्षिण दिशा), पैगोपुरम(पश्चिम दिशा) तथा अम्मनी अम्मन गोपुरम(उत्तर दिशा)। सभी गोपुरम विभिन्न शिल्पों द्वारा अलंकृत हैं।

प्राकारम

प्राकारम अथवा प्राकार मंदिर के बाहरी क्षेत्र को कहा जाता है जो खुला अथवा ढंका हुआ हो सकता है। यह मंदिर के चारों ओर बनाया जाता है जहां भक्तगण मंदिर की परिक्रमा करते हैं। इस मंदिर में सात प्राकार हैं। उनमें पांच प्राकार मंदिर परिसर के भीतर हैं। मंदिर के परिसर को चारों ओर से घेरती सड़क छठा प्राकार है तथा सम्पूर्ण अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा करते पथ को सातवाँ प्राकार माना जाता है।

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मंदिर का जलकुंड

मंदिर परिसर के भीतर दो जलकुंड हैं। राजगोपुरम के निकट शिवगंगई तीर्थम है तथा दक्षिणी गोपुरम की ओर ब्रह्म तीर्थम है।

सहस्त्र स्तम्भ मंडप

मंदिर के मंडप का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराया के शासनकाल में किया गया था। इस मंडप में सहस्त्र स्तम्भ हैं। राजगोपुरम से प्रवेश करते समय यह मंडप दायीं दिशा में स्थित है। इन स्तंभों पर भिन्न भिन्न देवी-देवताओं के सुन्दर शिल्प हैं। इस मंडप का प्रयोग विशेष रूप से थिरुमंजनम के समय किया जाता है। थिरुमंजनम के आयोजन में अर्ध-नक्षत्र के अवसर पर भगवान का अभिषेक किया जाता है। इस दिन श्री अरुणाचलेश्वर के अभिषेक के दर्शन हेतु सहस्त्रों भक्तगण इस मंडप में एक साथ बैठते हैं।

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पाथाल लिंगम

पाथाल लिंगम अथवा पाताल लिंग एक भूमिगत कक्ष है। ऐसा कहा जाता है कि रमण महर्षि ने यहाँ ध्यान साधना की थी। रमण महर्षि एक प्रख्यात संत थे जिन्होंने अल्प वय में मृत्यु को पराजित किया था।

कम्बत्तु इल्लैयनार सन्निधि

राजा कृष्णदेवराया द्वारा निर्मित यह सन्निधि अथवा मंदिर सहस्त्र स्तम्भ मंडप के समक्ष स्थित है। इसके भीतर चार कक्ष हैं। सबसे भीतरी कक्ष मूलस्थान है जहां श्री मुरुगन की प्रतिमा स्थापित है। तीसरे कक्ष का प्रयोग पूजा आराधना के लिए किया जाता है। प्रथम एवं द्वितीय कक्ष में ग्रेनाईट पर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित संरचनाएं हैं।

शिव गंगा विनायक संनाथी

शिव गंगा सन्निधि
शिव गंगा सन्निधि

विनायक अथवा गणपति को समर्पित यह मंदिर इल्लैयनार संनाथी के पृष्ठभाग में स्थित है। इस मंदिर के ऊपर एक भव्य व विशाल विमान है जिस पर देवी-देवताओं की रंगबिरंगी छवियाँ हैं।

अरुणगिरीनाथर मंडपम

अरुणगिरीनाथर मंडपम अथवा अरुणगिरीनाथ मंडप तमिल संत अरुणगिरीनाथ को समर्पित है। उन्हें सामान्यतः भगवान मुरुगन के समक्ष हाथ जोड़कर नतमस्तक मुद्रा में खड़े हुए दर्शाया जाता है।

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कल्याण सुदर्शन सन्निधि

इस सन्निधि में एक शिवलिंग है। साथ ही देवी पार्वती एवं नंदी के विग्रह भी हैं। इसमें एक विवाह मंडप भी है जहां अनेक भक्तगण विवाह समारोह आयोजित करते हैं।

वल्लला महाराज गोपुरम

इस गोपुरम का निर्माण होयसल राजा वीर वल्लला अथवा वीर बल्लाल ने किया था। इस अटारी में उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गयी है। इसी कारण इसका नामकरण वल्लला महाराज गोपुरम हुआ। यहाँ श्री अरुणाचलेश्वर स्वयं वीर वल्लला का श्राद्ध करते हैं क्योंकि राजा की कोई संतान नहीं थी।

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किल्ली गोपुरम

किल्ली गोपुरम का अर्थ है, तोता अटारी। यह गोपुरम श्री अरुणाचलेश्वर की भीतरी गर्भगृह से जुड़ा हुआ है। इस गोपुरम के ऊपर, एक आले के भीतर, गारे में निर्मित तोते का शिल्प है। ऐसी मान्यता है कि संत अरुणगिरीनाथ स्वयं एक तोते के रूप में इस गोपुरम पर विश्राम कर रहे हैं। इस गोपुरम पर राजा राजेन्द्र चोल तथा इस गोपुरम के निर्माता भास्करमूर्ती व उनकी पत्नी की भी प्रतिमाएं हैं। मंदिर में आयोजित शोभायात्राओं के समय सभी उत्सव मूर्तियों को इसी गोपुरम से बाहर लाया जाता है।

कत्ती मंडपम

किल्ली गोपुरम को पार कर सोलह स्तम्भ युक्त एक विस्तृत कक्ष में पहुँचते हैं जिसे कत्ती मंडपम कहते हैं। प्रमुख उत्सवों के समय यहाँ से सभी देवों के दर्शन होते हैं। कार्तिकई दीपम उत्सव पर पावन अरुणाचल पर्वत के शिखर पर दीप स्तम्भ प्रज्ज्वलित किया जाता है। भक्तगण इसी मंडप से उस प्रकाश पुंज के दर्शन करते हैं। इसी मंडप से ध्वज स्तम्भ एवं श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के समक्ष विराजमान एक छोटे नंदी के भी दर्शन होते हैं।

श्री सम्बन्ध विनायक मंदिर

यह मंदिर कत्ती मंडपम के समीप स्थित है। मंदिर के भीतर चटक लाल रंग में भगवान गणेश अथवा विनायक की बैठी मुद्रा में विग्रह है। यह प्रतिमा सम्पूर्ण तमिल नाडू के मंदिरों में स्थापित विशालतम गणेश प्रतिमाओं में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान् गणेश ने एक दानव का वध किया था तथा उसके रक्त से अपने शरीर का लेप किया था। इसी कारण उनकी देह रक्तवर्ण है.

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उन्नमलाई अम्मन मंदिर

इस मंदिर में देवी उन्नमलाईअम्मन के रूप में देवी पार्वती की आराधना की जाती है। यह मंदिर श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर संकुल के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित है। इस मंदिर में नवग्रह मंदिर, कोडेमरा मंडपम, अष्टलक्ष्मी मंडपम तथा गर्भगृह हैं।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर इस संकुल का सर्वाधिक भीतरी मंदिर है जो पूर्व मुखी है। वे इस मंदिर के प्रमुख देव हैं। इसके गर्भगृह में शिवलिंग है। मंदिर की चारों ओर स्थित भित्तियों पर लिंगोद्भव, नटराज,  दुर्गा तथा अन्य देव-देवताओं के शिल्प हैं। मंदिर के दूसरे प्राकारम में पल्लियारै नामक एक लघु कक्ष है। यह कक्ष शिव-पार्वती का विश्राम कक्ष है। मंदिर में दिवस भर के सभी अनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात, रात्रि के समय देवी पार्वती की प्रतिमा को पालकी में बैठाकर इस कक्ष में लाया जाता है। श्री अरुणाचलेश्वर का प्रतिनिधित्व करती एक प्रतिमा को भी इस कक्ष में लाया जाता है। तत्पश्चात दोनों विग्रहों को एक झूले पर विराजमान किया जाता है। कुछ अतिरिक्त अनुष्ठानों के पश्चात कक्ष को बंद कर दिया जाता है। भगवान् शिव एवं देवी पार्वती प्रातःकाल तक कक्ष में विश्राम करते हैं।

आप यहाँ सुन्देरश्वर, अर्धनारीश्वर तथा अन्य उत्सव मूर्तियों को भी देख सकते हैं जिन्हें विभिन्न उत्सवों में शोभायात्रा के लिए लिया जाता है। दूसरी प्राकारम में ६३ नेयनर तथा शिवलिंग के विभिन्न रूपों के शिल्प हैं। गणपति का एक लघु मंदिर, स्थल विनायक, भी यहाँ स्थित है।

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समयसारिणी

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के पट प्रातः ५:३० बजे खुलते हैं तथा रात्रि ९:३० बजे बंद होते हैं।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के उत्सव

महाशिवरात्रि, नवरात्रि, वैकुण्ठ एकादशी आदि ऐसे उत्सव हैं जो अन्य मंदिरों के समान इस मंदिर में भी मनाये जाते हैं। किन्तु अनेक ऐसे महत्वपूर्ण उत्सव हैं जो विशेष रूप से श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर में आयोजित किये जाते हैं। वे हैं:

  • ब्रह्मोत्सवम – यह उत्सव नवम्बर व दिसंबर मास के मध्य, तमिल पंचांग के कार्तिकई मास में मनाया जाता है। इस दस-दिवसीय उत्सव का समापन कार्तिकई दीपम उत्सव से किया जाता है। कार्तिकई दीपम उत्सव पर पावन अरुणाचल पर्वत के शिखर पर दीप स्तम्भ प्रज्ज्वलित किया जाता है। श्री अरुणाचलेश्वर की उत्सव मूर्ति को लकड़ी के रथ पर विराजमान कर अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा की जाती है। शिलालेख दर्शाते हैं कि यह उत्सव चोलवंश के काल से मनाया जा रहा है।
  • गिरिवलम – प्रत्येक पूर्णिमा के दिन भक्तगण नंगे पैर अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा करते हैं। इस परिक्रमा को गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कहते हैं। यह परिक्रमा में १४ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। ऐसी मान्यता है कि इस परिक्रमा के द्वारा भक्तगणों के पाप धुल जाते हैं तथा उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है। परिक्रमा पथ पर अनेक छोटे-बड़े मंदिर, गुफाएं तथा जलकुंड हैं जहां भक्त भेंट चढ़ाते हैं। परिक्रमा पथ के आठ दिशाओं में अष्टलिंग स्थापित हैं।
  • तिरुवूदल – यह उत्सव तमिल पंचांग के थाई मास में मनाया जाता है जो अंग्रेजी पंचांग के जनवरी मास में आता है। इस दिन नंदी को फलों, भाजियों एवं मिष्ठान से बने पुष्पहार से अलंकृत किया जाता है। मंदिर के विभिन्न उत्सव मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती है। भगवान शिव एवं देवी पार्वती के मध्य हुए दिव्य विवाद को अभिनीत किया जाता है। विवाद के पश्चात देवी अकेली ही कक्ष के भीतर जाती हैं तथा कक्ष का द्वार बंद कर देती हैं। भगवान शिव समीप स्थित मुरुगन मंदिर में रात्रि व्यतीत करते हैं।

यात्रा सुझाव

  • श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर में पारंपरिक परिधान की अपेक्षा की जाती है। अतः आप इस पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करें। छोटे वस्त्रों की अनुमति पुरुष एवं स्त्रियों दोनों को नहीं है।
  • चेन्नई एवं बंगलुरु से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है।
  • ठहरने के लिए भरपूर्ण संख्या में उत्तम सुविधाएं उपलब्ध हैं। किन्तु उत्सवों के समय पूर्व नियोजन आवश्यक है।
  • भक्तगण यदि गिरिवलम करना चाहें तो मंदिर संस्थान एवं नगर प्रशासन द्वारा विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
  • मंदिर संस्थान द्वारा भी मंदिर के विश्राम गृह में नाममात्र शुल्क पर ठहरने की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
  • मंदिर परिसर के भीतर सभी सूचनाएं तमिल भाषा में हैं। अतः आप आवश्यक जानकारियाँ एवं सूचनाएं गोपुरम के सुरक्षाकर्मियों से अथवा मंदिर के कार्यालय से प्राप्त कर सकते हैं।
  • उन्नमलाईअम्मन मंदिर के समीप स्थित प्रसाद खिड़की पर मंदिर का प्रसाद उपलब्ध होता है।

अन्य निकटवर्ती पर्यटन स्थल

रमण महर्षि आश्रम

रमण महर्षि आश्रम
रमण महर्षि आश्रम

रमण महर्षि एक महान संत थे जिन्होंने १६ वर्ष की अल्पायु में मृत्यु को चुनौती दी थी। रमण महर्षि का आश्रम गिरिवलम पथ पर स्थित है। आश्रम में उनकी समाधि है। रमण महर्षि द्वारा दी गयी शिक्षा का उनके अनुयायी पूर्ण श्रद्धा से पालन करते हैं। वे उनका आशीष प्राप्त करने के लिए इस आश्रम में आते हैं। आश्रम में विश्राम गृह की सुविधा उपलब्ध है। आश्रम में पुस्तकालय, भोजन कक्ष, गौशाला तथा एक विक्री केंद्र भी हैं। इस आश्रम में मातृभाषेश्वर मंदिर भी है। रमण महर्षी आश्रम अत्यंत रम्य व मनोरम है। यहाँ आप एक दिव्यात्मा की उपस्थिति एवं शान्ति का अनुभव करेंगे।

स्कंदाश्रम

यह आश्रम मंदिर के समक्ष एक पहाड़ी पर स्थित है। रमण महर्षी ने सन् १९१६ से सन् १९२२ तक इस आश्रम में निवास किया था। स्कंदाश्रम जाते समय आप ऊंचाई से श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर का भव्य परिदृश्य देख सकते हैं।

विरूपाक्ष गुफा

ऐसी मान्यता है कि यह गुफा ऋषि विरूपाक्ष की समाधि स्थल है। यह गुफा ॐ के आकार की है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कांचीपुरम की प्रसिद्ध कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ से खरीदें? https://inditales.com/hindi/kanchipuram-kanjivaram-sari-kahan-khariden/ https://inditales.com/hindi/kanchipuram-kanjivaram-sari-kahan-khariden/#respond Wed, 15 Sep 2021 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2416

कांचीपुरम, यह नाम लेते ही विविध रंगों में चित्तरंजक कांजीवरम साड़ियों का स्मरण हो आता है। कांजीवरम साड़ियों का नाम लेते ही मेरी सभी सखियों की आँखें चमक गयी होंगीं। कांचीपुरम भले ही सुन्दर प्राचीन मंदिरों का स्थल हो, परन्तु यह कांजीवरम की रेशमी शान में आपको सराबोर होने से रोक नहीं पाते। जब मैं […]

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कांचीपुरम, यह नाम लेते ही विविध रंगों में चित्तरंजक कांजीवरम साड़ियों का स्मरण हो आता है। कांजीवरम साड़ियों का नाम लेते ही मेरी सभी सखियों की आँखें चमक गयी होंगीं। कांचीपुरम भले ही सुन्दर प्राचीन मंदिरों का स्थल हो, परन्तु यह कांजीवरम की रेशमी शान में आपको सराबोर होने से रोक नहीं पाते। जब मैं कांचीपुरम की यात्रा पर थी, मैंने लगभग सभी से यह जानने का प्रयत्न किया कि कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ के खरीदूं? सबने मुझे एक ही उत्तर दिया, कांचीपुरम में कहीं भी!

कांचीपुरम की प्रसिद्द रेशमी साड़ियाँ
कांचीपुरम की प्रसिद्द रेशमी साड़ियाँ

चेन्नई में कुछ लोगों ने मुझे सावधान करने का प्रयत्न किया था कि मैं कांचीपुरम से ये साड़ियों ना खरीदूं।  उनका कहना था कि वहां अधिकतर विक्रेता मुझसे छल कर सकते हैं। परन्तु यहाँ आकर मैंने अपने अतिथिगृह के कुछ कर्मचारियों से इस विषय में चर्चा की। तब मुझे अनुमान लगा कि कई यात्री परिवार यहाँ  विवाह हेतु कांजीवरम रेशमी साड़ियाँ खरीदने ही आते हैं।

कांचीपुरम में आप कहीं भी खड़े हो जाएँ, आपको हर ओर बड़े बड़े विज्ञापन दिखाई देंगे। ये विज्ञापन आपको जानकारी देते हैं कि कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ कहाँ से खरीद सकते हैं। परन्तु कभी कभी अधिक उपलब्धता भी समस्या बन जाती है। कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियों की इतनी सारी दुकानें हैं कि कहाँ जाएँ, कहाँ ना जाएँ, यह बड़ा प्रश्न उत्पन्न हो जाता है। प्रत्येक दुकान के अग्रभाग में कांच की खिड़कियों के भीतर सजाकर रखी गयीं ये रंगबिरंगी रेशमी साड़ियाँ आपको रिझाती हैं, लुभाती हैं, कि आप दुकान में प्रवेश करे व लुभावनी रेशमी साड़ियों के विश्व में खो जाएँ।

कांचीपुरम की प्रसिद्ध कांजीवरम साड़ियों की खरीदी

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए दो प्रकार की दुकानें हैं, एक है बुनकर सहकार तथा दूसरा प्रकार है विशाल शोरूम अर्थात् बड़ी बड़ी दुकानें।

बुनकर सहकारी संगठन

कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए पहला विकल्प है बुनकर सहकार जो छोटी छोटी दुकानों से इन साड़ियाँ को बेचते हैं। यहाँ की साड़ियाँ रेशम चिन्हित होती हैं। रेशम चिन्हित होने का अर्थ है कि इन्हें शुद्ध रेशम से बने होने का प्रमाण प्राप्त है। गाँधी मार्ग पर ऐसी अनेक दुकानें हैं जहां बुनकर सहकार द्वारा शुद्ध रेशम से बनी साड़ियाँ आप खरीद सकते हैं।

बड़े बड़े शोरूम

मनमोहक कांजीवरम साड़ियाँ
मनमोहक कांजीवरम साड़ियाँ

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए दूसरा विकल्प हैं, बड़े बड़े शोरूम अर्थात् विशाल दुकानें जहां साड़ियों के प्रकार एवं मूल्य की कोई सीमा नहीं। इस प्रकार की दुकानों में प्रवेश से पूर्व जूते-चप्पल दुकान के बाहर उतारना अनिवार्य है। दुकान के भीतर जाते ही दुकानदार द्वारा सर्वप्रथम आपसे साड़ियों की इच्छित मूल्य-सीमा पूछी जायेगी। मूल्य-सीमा के आधार पर आपको उस विशाल बहुमंजिली दुकान के नियत मंजिल पर भेजा जाएगा। आपके लिए एक विक्रेता सहायक निर्धारित कर दिया जाएगा। वह विक्रेता सहायक आपको उस विशाल तल में नियत स्थान पर ले जाएगा। वह अपने तीनों ओर समुद्री हरे रंग की तीन सूती चादरें बिछाकर उस पर कांजीवरम साड़ियाँ आपके समक्ष प्रस्तुत करेगा। यूँ तो आपसे भूमि पर बिछे गद्दों पर बैठने की आशा की जायेगी, किन्तु ना बैठने की स्थिति में आपके लिए तुरंत प्लास्टिक की कुर्सी की भी सुविधा उपलब्ध करा दी जायेगी।

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विक्रेता सहायक

इन दुकानों के विक्रेता सहायक साड़ियों के साथ साथ खरीददारों को पहचानने में भी भलीभांति प्रशिक्षित होते हैं। वे आपके परिधानों, आभूषणों एवं शरीर के हावभाव से आपको आँकते हुए तदनुसार आपको साड़ियाँ दिखाना आरम्भ करते हैं। आप अपनी रूचि के अनुसार मूल्य-सीमा, रंग, कपड़ा इत्यादि उन्हें बता सकते हैं जिससे उन्हें आपके पसंद की साड़ियाँ प्रस्तुत करने में आसानी होगी। आप जितनी अधिक निश्चित आवश्यकताएं स्पष्ट रूप से उल्लेख करेंगे उतनी शीघ्रता से आपको मनपसंद साड़ियाँ प्राप्त हो सकती हैं। अन्यथा साड़ियों के इस अथाह सागर में आप स्वयं तो अवश्य खो जायेंगे, आपका समय भी व्यर्थ होगा। मेरे समान यदि आप निश्चित आवश्यकता के बजाय खुले मन से जायेंगे कि ‘जो भा जाये वो खरीद लेंगे’ तो भरपूर समय हाथों में लेकर ही आपको इन दुकानों में प्रवेश करना पडेगा। साथ ही यह आशा करनी पड़ेगी कि विक्रेता सहायक संयम खोकर दूसरे ग्राहकों की ओर ध्यान देना आरम्भ ना कर दे।

शुद्ध रेशमी साड़ियाँ

मेरे स्थानीय परिचितों के अनुसार, सभी कांजीवरम साड़ियाँ सदैव शुद्ध रेशमी साड़ियाँ नहीं होतीं। शुद्ध रेशमी साड़ियों पर रेशम चिन्ह (silk mark) अंकित होता है। अतः आप इस रेशम चिन्ह को अपना मापदंड बना सकते हैं। रेशमी कांजीवरम साड़ियों के अलावा आप रेशमी सूती तथा शुद्ध सूती साड़ियाँ भी खरीद सकते हैं। इनके अलावा एक और प्रकार की साड़ियाँ भी उपलब्ध हैं जिन्हें वे बचे-खुचे रेशमी धागों से बुनते हैं।

सोने के तार और रेशम की जुगलबंदी
सोने के तार और रेशम की जुगलबंदी

चूंकि मैं कांचीपुरम की यात्रा अकेले ही कर रही थी, मेरे साथ इन दुकानों में एक मनोरंजन घटना बार बार होती थी। इन दुकानों में साड़ियाँ खरीदने बहुधा बड़े परिवार अथवा स्त्रियों के समूह आते हैं। यहाँ के अधिकतर सहायक ऐसे ग्राहकों से ही अभ्यस्त होते हैं। मैं तो अकेले ही दुकानों में प्रवेश करती थी, वह भी साड़ी पहनने के बजाय अन्य परिधान धारण किये हुए होती थी। दुकानदार मेरी उपेक्षा कर मेरे आसपास मेरे साथ आये लोगों को खोजने लगते थे। अकेले खरीददारी करते देख उनकी साड़ियाँ दिखाने की रूचि में कमी आने लगती थी। एक स्थान पर तो मैं यह कहने को विवश हो गयी कि मैं अपना क्रेडिट कार्ड लेकर आयी हूँ, अतः वे मुझे साड़ियाँ दिखा सकते हैं! इसे आप सांस्कृतिक भेदभाव ही कहेंगे ना?

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कांजीवरम रेशमी साड़ियों के पर्यायवाची शब्द

कांजीवरम रेशमी साड़ियों को तमिल नाडू में पट्टू कहा जाता है। इन्हें कांचीपुरम या कोंजिवरम जैसे नामों से भी जाना जाता है। जी हाँ! कांजीवरम साड़ियों तथा कांचीपुरम साड़ियों में कोई अंतर नहीं है।

बुनकर सहकार तथा विशाल शोरूम के अलावा तीसरे प्रकार की भी दुकानें हैं जहां आप अपनी पुरानी कांजीवरम साड़ियाँ बेच सकती हैं। उन साड़ियों में कितनी सुनहरी जरी बुनी हुई है, इसके अनुसार वे आपको उन साड़ियों का मूल्य देते हैं। तत्पश्चात दुकानदार उन साड़ियों को जलाकर उससे सोना निकालते हैं तथा उसे पुनः प्रयोग में लाते हैं। है ना अनोखी बात!

अपने कांजीवरम साड़ियों के रेशम की शुद्धता कैसे पहचानें?

सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो रेशम की शुद्धता उसके एक धागे को जलाकर देखा जा सकता है। यदि जलने पर वह राख में परिवर्तित होता है तो वह शुद्ध रेशम है। अन्यथा वह रेशम का धागा नहीं है। जरी जांचने के लिए जरी धागे के एक छोर पर भीतर का धागा देखा जाता है। यदि भीतरी धागा लाल है तो वह जरी धागा है। परन्तु यह पक्की एवं विश्वसनीय जांच नहीं है। व्यवहारिक रूप से आपको अपने सहज ज्ञान एवं दुकानदार के शब्दों पर विश्वास रखना होगा। प्राप्त उपायों में से रेशम चिन्ह जांचना ही सर्वाधिक उत्तम समाधान है। अंततः यह विश्वास का खेल ही तो है।

कांचीपुरम में साड़ियों की दुकानें

यूं तो मैं कांचीपुरम आयी थी यहाँ के प्राचीन मंदिरों के दर्शन करने तथा उनके विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए। कांची कामाक्षी मंदिर में मेरी विशेष रूचि थी। परन्तु यहाँ प्रचलित प्रथा के अनुसार सब मंदिरों के कपाट मध्यान्ह भोजन से पूर्व बंद हो जाते हैं। ये कपाट संध्या ४.३० बजे के पश्चात ही पुनः खोले जाते हैं। यह प्रथा मेरे लिए विडम्बना कम, वरदान अधिक सिद्ध हुआ। मैंने इस समय का भी भरपूर सदुपयोग किया। यह समय मैंने कांचीपुरम के साड़ियों की दुकानों में व्यतीत किया। कांचीपुरम में मेरा आश्रय गाँधी मार्ग पर था। इसलिए इस मार्ग की सब दुकानों को छानने का मुझे भरपूर अवसर प्राप्त हुआ।

कांचीपुरम में मेरे द्वारा खंगाली गयी कुछ साड़ी की दुकानें:

  • एएस बाबु साह – यह कांचीपुरम का सबसे बड़ा ब्रांड है। आपको इस ब्रांड के बड़े बड़े विज्ञापन कांचीपुरम के कोने कोने में दिख जायेंगे। इन विज्ञापनों के देखकर मन में एक हूक उठती है कि यदि जगह जगह पर इसी प्रकार के फलक यहाँ के मंदिरों के विषय में भी लगाए जाते तो उन्हें ढूँढते हुए हर बार मैं राह नहीं भटकती। जाने दीजिये। इन फलकों को देख आप आसानी से इस दुकान तक पहुँच सकते हैं। इस दुकान के भीतर पहुंचकर मुझे खरीददारों की प्रचंड भीड़ दिखाई दी। अधिकतर लोग विवाह समारोह के लिए खरीददारी करते दिखाई दिए। इस दुकान में साड़ियों का संग्रह भी अधिकांशतः विवाहोपयोगी ही प्रतीत हुआ। अतः यदि आप सामान्य खरीददारी के लिए यहाँ आयें हैं तो इस दुकान को छोड़ सकते हैं।
  • एसएसके हैंडलूम सिल्क – मुझे इस दुकान की कीमतें सर्वोत्तम लगीं। यहाँ साड़ियों के दाम इतने संगत प्रतीत हुए कि यहाँ मोलभाव करना भी मुझे उचित नहीं लगा। यहाँ का संग्रह भी मुझे बहुत भाया। यह और बात है कि यहाँ से मैंने मुख्यतः सूती साड़ियाँ ही खरीदी थीं।
  • प्रकाश सिल्क्स – यहाँ भी साड़ियों का अच्छा संग्रह है। एक सम्पूर्ण तल केवल विवाह साड़ियों के लिए ही निश्चित किया गया है।
  • पचैयाप्पास सिल्क – मुझे इस दुकान का संग्रह भी भाया। यहाँ साड़ियों के मूल्य भी सामान्य थे।
  • कोमथी सिल्क्स – यद्यपि इस दुकान की साड़ियाँ अधिक मूल्यवान थीं, तथापि यहाँ आधुनिक व समकालीन रूपरेखाओं युक्त कुछ साड़ियाँ अत्यंत मनमोहक प्रतीत हुईं।
  • टेम्पल –एएस बाबु साह दुकान के समीप स्थित यह आधुनिक डिज़ाइनर साड़ियों की अच्छी सी दुकान है। यहाँ सीमित, तथापि आकर्षक समकालीन साड़ियों का संग्रह है।

यदि निकट भविष्य में आपकी कांचीपुरम यात्रा की कोई योजना नहीं है तो आप वेबस्थल अमेज़न से भी साड़ियाँ मंगवा सकते हैं।

कांचीपुरम का बुनकर सहकारी संगठन

कांचीपुरम के कुछ बुनकर सहकारी संगठन इस प्रकार हैं:

  • कांचीपुरम कामाक्षी अम्मा रेशम बुनकर सहकारी संस्था
  • कांचीपुरम मुरुगन रेशम सहकारी संस्था
  • वेंकटेश्वरा बुनकर सहकारी संस्था
  • अन्ना हथकरघा रेशम बुनकर संस्था

को-औपटेक्स वेबस्थल से भी आप इस संस्थाओं की साड़ियाँ खरीद सकते हैं।

कांचीपुरम नगरी की स्मारिका स्वरूप कांजीवरम रेशमी साड़ियाँ ही सर्वोत्तम खरीदी है।

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियों का इतिहास

मौखिक इतिहास के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ये रेशम बुनकर ऋषि मार्कंडेय के वंशज हैं जो स्वयं एक कुशल बुनकर थे। वहीं अभिलिखित इतिहास के अनुसार लगभग ४०० वर्षों पूर्व, विजयनगर राज्य के राजा कृष्णदेवराय के शासन में, देवंगर एवं सलीगर समुदाय के बुनकर आंध्र प्रदेश से कांचीपुरम आकर बस गए थे।

खड्डी पर हाथ से बुनी कांजीवरम साड़ियाँ
खड्डी पर हाथ से बुनी कांजीवरम साड़ियाँ

इन बुनकरों की विशेषता है कि ये पत्थरों पर उत्कीर्णित नक्काशियों को रेशम व जरी द्वारा साड़ियों पर बुनते हैं।

इन साड़ियों में प्रयुक्त मलबरी रेशम तमिल नाडू का ही उत्पाद है। वहीं जरी के लिए सोने के धागे गुजरात जैसे स्थानों से लाये जाते हैं।

सर्वोत्कृष्ट कांजीवरम साड़ी

एक सर्वोत्कृष्ट कांजीवरम साड़ी में किनार एवं पल्लू पृथक पृथक बुने जाते हैं। तत्पश्चात इन्हें मुख्य साड़ी में जोड़ा जाता है। इस जोड़ को पिटनी कहा जाता है। साड़ी के पीछे की ओर पर आप इस जोड़ को देख सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह जोड़ अत्यंत मजबूत होता है। समय के साथ आपकी साड़ी कट-फट सकती है पर यह जोड़ टस से मस नहीं होगा।

कांचीपुरम अथवा कांजीवरम साड़ियाँ दो लम्बाईयों में उपलब्ध हैं – सामान्य ६ गज साड़ियाँ तथा पारंपरिक ९ गज साड़ियाँ।

कांजीवरम साड़ियों को भौगोलिक संकेत प्राप्त है। अर्थात् यह एक धरोहर बुनाई है। इसका अर्थ है कि कांजीवरम साड़ियाँ केवल कांचीपुरम में ही बनकर बाहर आयेंगी।

कांजीवरम साड़ियों पर बने नमूने

कांचीपुरम साड़ियों की रंगीन छटा
कांचीपुरम साड़ियों की रंगीन छटा

कांजीवरम साड़ियों पर बना सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्वाधिक पसंदीदा नमूना है, मंदिर। इन साड़ियों पर मंदिर के नमूने किनार पर बने होते हैं। रेशम एवं जरी का प्रयोग कर मंदिरों के शिखर ज्यों का त्यों इन किनारों पर बुने जाते हैं। कुछ अन्य नमूने हैं पुष्प, पत्तियाँ, गज, हंस, तोते, रुद्राक्ष इत्यादि। भारतीय संस्कृति के इन पवित्र चिन्हों को आप भिन्न भिन्न संयोजनों में इन साड़ियों पर देख सकते हैं।

कुछ भारी एवं महंगी कांजीवरम साड़ियों की बुनाई में आप देवी-देवताओं एवं इनकी कथाओं को भी देख सकते हैं।

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कांजीवरम साड़ियों के पिटारे में एक और विशेषता है। यदि आप अपने लिए विशेष साड़ी बनवाना चाहें जिसमें आप अपनी चुनी कहानी एवं नमूने अपने इच्छित रंग में बुनाई करवाना चाहें तो यह संभव है। परन्तु सावधान! इसके लिए मुँह माँगा दाम चुकाने के लिए भी तत्पर रहें।

तो बताईये क्या आपने अपने विवाह में कांजीवरम साड़ी पहनी थी, या पहनने वाली हैं? मैंने अपने विवाह में कांजीवरम साड़ी ही पहनी थी।

 अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कन्याकुमारी का भ्रमण मेरा बहुत पुराना स्वप्न था। कदाचित उस समय से जब मैंने भारत के संदर्भ में ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक’ यह उक्ति सुनी थी। जहाँ तक कश्मीर का प्रश्न है, तो मैं भाग्यशाली हूँ कि अपने बालपन का कुछ भाग मुझे कश्मीर में व्यतीत करने मिला था। किन्तु कन्याकुमारी मेरे लिए सदैव एक […]

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कन्याकुमारी का भ्रमण मेरा बहुत पुराना स्वप्न था। कदाचित उस समय से जब मैंने भारत के संदर्भ में ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक’ यह उक्ति सुनी थी। जहाँ तक कश्मीर का प्रश्न है, तो मैं भाग्यशाली हूँ कि अपने बालपन का कुछ भाग मुझे कश्मीर में व्यतीत करने मिला था। किन्तु कन्याकुमारी मेरे लिए सदैव एक दूर-सुदूर स्थल ही रहा था। मेरी सदैव यह चाह थी कि मैं भारत के दक्षिणी छोर तक जाऊँ जहाँ से मैं एक ही स्थान से सूर्योदय एवं सूर्यास्त दोनों के दर्शन कर पाऊँ। साथ ही किसी पूर्णिमा के दिन डूबते सूर्य के साथ उगते चंद्रमा को भी देखूँ। और हाँ, विवेकानंद स्मारक शिला अर्थात विवेकानंद रॉक मेमोरियल तथा कन्याकुमारी के अन्य प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों के दर्शन की भी तीव्र इच्छा थी।

विवेकानंद समरक शिला - कन्याकुमारी
विवेकानंद समरक शिला – कन्याकुमारी

कन्याकुमारी भ्रमण के अनेक असफल नियोजनों के पश्चात अंततः मैं जब गोवा से केरल भ्रमण के लिए निकली थी तब मैंने कन्याकुमारी भ्रमण करने की भी ठान ली थी। उस समय भी कन्याकुमारी भ्रमण लगभग असंभव प्रतीत हो रहा था। जब हम त्रिवेंद्रम पहुंचे, हिन्द महासागर में आए तूफान के कारण वहाँ अनवरत भारी वर्षा हो रही थी। इस वर्षा के कारण त्रिवेंद्रम से बाहर निकलना कठिन हो रहा था। सभी मुझे सलाह दे रहे थे कि मैं विवेकानंद रॉक मेमोरियल के दर्शन करने ना जाऊँ। किन्तु हमने अपने नियोजित कार्यक्रम के अनुसार ही आगे बढ़ने का निश्चय किया।

विवेकानंद शिला एवं थिरुवलुवर प्रतिमा
विवेकानंद शिला एवं थिरुवलुवर प्रतिमा

कन्याकुमारी नगरी में प्रवेश करते ही हम तुरंत नौका घाट पर पहुंचे किन्तु वहाँ हमारे उत्साह पर पानी फिर गया। खराब मौसम के कारण नौका सेवाएँ अनिश्चित समय के लिए रद्द की गई थीं। मैं किनारे पर खड़ी होकर बड़ी आस से उन दो विशाल शिलाओं तो ताक रही थी जिनमें एक शिला पर दो मंदिर हैं तथा दूसरी शिला पर थिरुवलुवर की विशाल प्रतिमा है। वे दोनों द्वीप रूपी शिलाएं अत्यंत समीप प्रतीत हो रही थीं। उनके एवं मेरे मध्य किसी अनहोनी की आशंका का आभास भी नहीं हो रहा था। वह इसलिए क्योंकि मेरे भीतर का यात्री मुझसे वार्तालाप कर रहा था, ना कि कोई तर्कवादी। एक विशेषज्ञ तो कदापि नहीं। एक हाथ में छतरी उठाए तथा दूसरे हाथ में केमेरा से जूझते हुए मैं जितने चित्र ले सकती थी, मैंने लिए।

उसी समय हमारे गाइड के रूप में मानो एक देवदूत हमारी ओर दौड़ता हुआ आया तथा हमें आनंददायी समाचार देने लगा। अपने मुख से दिव्य वाणी निकालते हुए उसने हमें सूचना दी कि नौका सेवाएँ आरंभ हो गई हैं तथा हम शीघ्र वहाँ जाएँ। हम नौकाओं की ओर दौड़ पड़े।

कन्याकुमारी के दर्शनीय स्थल

भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित कन्याकुमारी सदैव से एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल होने के साथ साथ एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी रहा है। यहाँ का नमी युक्त ऊष्ण वातावरण तथा असमय वर्षा भी तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों  के उत्साह को नम नहीं कर पाता।

विवेकानंद स्मारक शिला अर्थात विवेकानंद रॉक मेमोरियल

विवेकानंद ध्यान मंदिर
विवेकानंद ध्यान मंदिर

स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल समुद्र के मध्य खड़ी एक विशाल शिला है। यह शिला उस स्थान पर है जहाँ भारतीय प्रायद्वीप का अंत होता है। यह भारत के सर्वाधिक आकर्षक पर्यटक क्षेत्रों में से एक है। समुद्र में नौका सवारी करते हुए १० मिनट ही व्यतीत हुए थे कि हमने अपने पाँव उस शिला पर रखे।  तीन समुद्रों के संगम पर खड़ी यह स्थिर शिला एक अत्यंत पवित्र शिला मानी जाती है। यहाँ स्थित एक मंदिर में देवी कन्याकुमारी के पदचिन्हों की पूजा की जाती है, वहीं दूसरे मंदिर में स्वामी विनेकानंद के आगमन का उत्सव मनाया जाता है।  दोनों मंदिर छोटे होते हुए भी अत्यंत भव्य एवं आकर्षक हैं।

सूर्योदय एवं सूर्यास्त

कन्याकुमारी का सूर्योदय एवं सूर्यास्त
कन्याकुमारी का सूर्योदय एवं सूर्यास्त

कन्याकुमारी से संबंधित अनेक मिथ्याएं, किवदंतियाँ एवं रोचक ऐतिहासिक तथ्य हैं। किन्तु कन्याकुमारी से संबंधित जो तथ्य सर्वाधिक लोकप्रिय है, वह है यहाँ की अभूतपूर्व प्रकृति। यह विश्व के उन दो स्थलों में से एक है जहाँ आप एक ही स्थान से सूर्योदय एवं सूर्यास्त दोनों का अवलोकन कर सकते हैं। जब समुद्र की शक्तिशाली लहरें इस शिला से टकराती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो विरह से तड़पती प्रेमिका अपने प्रेमी से भेंट कर रही हो। तीन समुद्रों का संगम आपके लगभग चारों ओर अथाह अनंत की खरी अनुभूति प्रस्तुत करता है। धरती के अंत पर खड़े होने की सही परिभाषा का अनुभव केवल यहीं प्राप्त हो सकता है।

विवेकानंद शिला पर जाने के लिए उठाए गए सम्पूर्ण कष्ट का फल है वहाँ से दृष्टिगोचर विहंगम परिदृश्य। वहाँ से जब आप भारत की धरती की ओर देखेंगे तो आपके समक्ष पहाड़ियों एवं समुद्र से उठते मेघों के पृष्ठभूमि में कन्याकुमारी नगरी का क्षितिज आपको मंत्रमुग्ध कर देगा। वहीं जब आप समुद्र की ओर निहारेंगे तो आप सहसा दो सागरों एवं एक महासागर को ढूंढने लगेंगे जिनका यहाँ मिलन एवं संगम होता है।

धरती के अंत पर खड़े होकर अपने पीछे धरती माता, समक्ष अथाह जल तथा चारों ओर आकाश को अनुभव करना एक विलक्षण अनुभूति है।

धूपघड़ी एवं उत्तरायण के गणना यंत्र

शिला की सतह पर एक दिशा सूचक यंत्र है। इसकी सहायता से आप त्रिवेणी की दिशा देख सकते हैं।

धुप घडी
धुप घडी

शिला सतह के एक अन्य भाग पर धूपघड़ी उत्कीर्णित है। विवेकानंद मंदिर के सर्वोच्च तल से यह स्पष्ट दिखायी देती है। वर्षा के कारण हम यहाँ अधिक समय व्यतीत नहीं कर सके। किन्तु हमें बताया गया कि इस धूपघड़ी के द्वारा उत्तरायण के समय की गणना की जा सकती है।

विवेकानंद मंडपम् तथा केंद्र

धूसर एवं लाल रंग में सज्ज, स्वामी विवेकानंद को समर्पित यह मंदिर विवेकानंद मंडपम् कहलाता है। स्वामी विनेकानंद को इसी स्थान में परम ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उसी घटना की स्मृति में सन् १९७० में इस मंदिर का निर्माण किया गया था। विवेकानंद ने १८९२ में कन्याकुमारी का भ्रमण किया था, अर्थात उनके प्रसिद्ध शिकागों यात्रा से पूर्व।

विवेकानंद मंडपम
विवेकानंद मंडपम

विवेकानंद मंडपम् की वास्तुकला में बेलूर के रामकृष्ण मठ के कुछ तत्वों का समावेश है। इसके प्रवेश द्वार पर चोल शैली की झलक दिखायी देती है। झरोखों पर आप चैत्य के बौद्ध चिन्ह देख सकते हैं। इसके शीर्ष पर केसरिया रंग का ध्वज है जिस पर ॐ अंकित है। मंडपम् के भीतर स्वामी विवेकानंद की कांस्य में गढ़ी एक आदमकद मूर्ति है। उसमें वे अपनी सुप्रसिद्ध मुद्रा में खड़े हैं। मंदिर तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है।

क्या आप जानते हैं कि स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल की निर्माण निधि भारत की जनता ने स्वयं एकत्र की थी? 

ध्यान कक्ष

विवेकानंद मंदिर के निचले तल में ध्यान कक्ष है। इस अंधेरे कक्ष में केवल एक ॐ का चिन्ह जगमगाता रहता है तथा ॐ की ध्वनि गूँजती रहती है। आप यहाँ बैठकर ध्यान कर सकते हैं। मैं यहाँ बैठकर ध्यानमग्न होने का प्रयत्न करने लगी। ३ दिन यहीं बैठकर अनवरत ध्यान करते समय स्वामी विवेकानंद को कैसा अनुभव प्राप्त हुआ होगा, इस कल्पना ने मुझे घेर लिया। किन्तु उनके ३ दिनों की तुलना में मुझे ३ मिनट भी प्राप्त नहीं हुए।

बाहर एक पुस्तक की दुकान में विवेकानंद केंद्र द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की विक्री की जाती है। किन्तु अनवरत वर्षा के कारण मैं कोई भी पुस्तक नहीं ले पायी। अंततः घर वापिस आकार मैंने उनकी एक पुस्तक इंटरनेट से डाउनलोड की, ‘Complete Works of Vivekananda’।

ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद समुद्र में तैर कर यहाँ पहुंचे थे। उन्हे देवी ने दर्शन दिए थे। जब वे यहाँ ध्यानमग्न थे, उस समय वे इस शिला पर कदाचित अकेले रहे होंगे। आज यह शिला हर प्रकार के लोगों से भरी हुई है, जैसे पर्यटक, यात्री, भक्त तथा यहाँ के कर्मचारी।

श्रीपाद मंडप

विवेकानंद मंडप के समक्ष श्रीपाद मंडप है जिसके भीतर एक शिला पर देवी के पदचिन्ह हैं। इसे देवी का आशीर्वाद माना जाता है। इस शिला को एक मंदिर सदृश संरचना के भीतर एक पीठिका के ऊपर स्थापित किया गया है। गर्भगृह के ऊपर चौकोर शिखर है। इसके चारों ओर एक गलियारा है जो स्तंभों पर खड़ा है। यह एक छोटा किन्तु अत्यंत शांतिपूर्ण मंदिर है।

कन्याकुमारी नगरी का परिदृश्य

कन्याकुमारी नगरी
कन्याकुमारी नगरी

विवेकानंद रॉक मेमोरियल से मेघ से भरे आकाश की पृष्ठभूमि में कन्याकुमारी नगरी का अद्भुत विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

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थिरुवलुवर की विशाल मूर्ति

थिरुवलुवर की प्रतिमा इतनी विशाल है कि वो आपकी दृष्टि से चूक ही नहीं सकती। ऐसा माना जाता है कि थिरुवलुवर तमिल नाडु के प्राचीन कवि एवं दार्शनिक थे जो इस स्थान में निवास करते थे। इस प्रतिमा की स्थापना २१ वीं. सदी के उदय के समय, १ जनवरी २००० में की गई थी। अतः इसे एक आधुनिक भारतीय अचंभा माना जा सकता है।

थिरुवलुवर की प्रतिमा
थिरुवलुवर की प्रतिमा

इस प्रतिमा से संबंधित साहित्यों के अनुसार यह प्रतिमा ३८ फीट के मंच पर खड़ी है जो उनके साहित्य थिरुकुर्रल में संकलित सदाचार के ३८ अध्यायों का द्योतक है। यह शैल प्रतिमा १३३ फीट ऊंची है जिसका केवल मुख ही २० फीट ऊंचा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रतिमा एक कुशल स्थापति की निगरानी में हाथों से गढ़ी गई है तथा वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित है।

यह एक विडंबना है कि इस प्रतिमा के विषय में यहाँ कोई भी आलेख उपलब्ध नहीं है। इसके विषय में जानकारी प्रदान करने के लिए यहाँ कोई गाइड भी नहीं है। आशा है प्रशासन ऐसा प्रयत्न करे कि भविष्य में थिरुवलुवर की रचनाएं एवं उनसे संबंधित साहित्य एवं आलेख उनकी प्रतिमा के समीप ही हमें उपलब्ध हो जाएँ।

कलात्मकता

सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से थिरुवलुवर की प्रतिमा में मुझे सर्वाधिक विशेष तत्व उसकी ऊंचाई प्रतीत हुई। समुद्र के मध्य यह अतिविशाल प्रतिमा अत्यंत भव्य है। दो मंदिरों वाली शिला के ऊपर से ये नगरी की निगरानी रखते प्रतीत होते हैं। इस प्रतिमा को ध्यान से देखेंगे तो आप जान पाएंगे कि किस प्रकार शिलाखंडों को आपस में गूँथकर यह प्रतिमा गढ़ी गई है। मेरे मस्तिष्क में एक विचार अवश्य कौंधा कि हमारे प्राचीन मंदिरों के विपरीत, क्या आज हम जोड़ों को छुपाने की हमारी प्राचीन कला को भुला चुके हैं? क्या हम अखंड मूर्तिकला की शैली को खो चुके हैं? और तो और, एलोरा में तो सम्पूर्ण विशाल मंदिर एक अखंड शिला को उत्कीर्णित कर बनाया गया था।

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फेरी नौका इस द्वीप पर ठहरती नहीं है। अपितु इसके पास से आगे निकल जाती है। किन्तु विवेकानंद रॉक मेमोरियल से आप थिरुवलुवर की प्रतिमा स्पष्ट देख सकते हैं।

विवेकानंद रॉक मेमोरियल व थिरुवलुवर की प्रतिमा के सौन्दर्य तथा वास्तविक वर्षा की फुहारों, दोनों से पूर्णतः भीग कर हम वापिस मुख्य भूभाग पर पहुंचे। भोजन किया तथा अन्य दर्शनीय स्थल देखने निकल पड़े, जैसे पत्थरों वाले समुद्र तट पर स्थित अन्य शिला संरचनाएं जहाँ ऊंची ऊंची तरंगें उठकर धरती पर प्रहार करती प्रतीत होती हैं।

कन्याकुमारी देवी का मंदिर

मुख्य भूभाग के तट पर पहुंचते ही हम कन्याकुमारी देवी के मंदिर की ओर बढ़े। वहाँ लंबी पंक्ति में अनेक दर्शनार्थी प्रतीक्षारत खड़े थे। मैं भी अधीरता से पंक्ति में खड़ी हो गई। लगभग २० मिनट प्रतीक्षा करने के पश्चात मुझे मंदिर के भीतर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मंदिर के भीतर के अंधकार में जगमगाते तेल के दिये एक स्वप्निल व रहस्यमयी वातावरण प्रस्तुत कर रहे थे। द्वार की चौखट पर प्रज्ज्वलित दिये के प्रकाश में प्रकाशमान देवी की सुंदर प्रतिमा मंत्रमुग्ध कर रही थी।

कन्याकुमारी मंदिर
कन्याकुमारी मंदिर

मुझे देवी का स्वरूप ठीक वैसा प्रतीत हुआ जैसा साधारणतः उत्तर भारत में दृष्टिगोचर होता है। यूँ तो कन्याकुमारी देवी का दिव्य चरित्र सम्पूर्ण भारत में श्रद्धास्पद है, किन्तु मैंने दक्षिण भारत की देवियों के अलंकरण एवं सज्जा कभी  भी उत्तर भारतीय शैली में नहीं देखा था। मेरे भीतर देवी के इस रूप के विषय में और जानने की तीव्र इच्छा उठने लगी।

कांची कामकोटी पीठ

भूभाग के तट पर आदि शंकराचार्य को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है। आदि शंकराचार्य के कन्याकुमारी आगमन की पुण्य स्मृति में अद्वैत दर्शन की शिक्षा प्रदान करने के लिए इस मंदिर का निर्माण किया गया था। भारत के कोने कोने में जहाँ भी आदि शंकराचार्य ने भ्रमण किया था वहाँ वहाँ उनके ऐसे मंदिर देखे जा सकते हैं।

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गांधी स्मारक अथवा गांधी मंडपम

गाँधी मंडपम
गाँधी मंडपम

गांधी मंडप एक आधुनिक इमारत है जहाँ गांधीजी की अस्थि अवशेषों का एक भाग रखा हुआ है। गांधी स्मारक की आंतरिक संरचना ७९ फीट ऊंची है जो महात्मा गांधी की मृत्यु के समय की आयु का प्रतीक है। इस स्मारक को इस तकनीक के साथ निर्मित किया गया कि प्रत्येक वर्ष २ अक्टूबर के दिन दोपहर के समय सूर्य की किरणें उसी स्थान पर पड़ती हैं जहाँ पर विसर्जन से पूर्व उनकी अस्थियाँ रखी गई थीं। मेरे अनुमान से इस मंडपम की संरचना मोढेरा के सूर्य मंदिर जैसे मंदिरों से प्रेरित है जहाँ किसी विशेष दिवस पर सूर्य की प्रथम किरण भगवान के चरणों पर पड़ती हैं।

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कामराज स्मारक

गांधी स्मारक के समीप कामराज स्मारक है जो तमिल नाडु के पूर्व मुख्य मंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी श्री कामराज को समर्पित है। यह एक विशाल कक्ष है जहाँ कामराज के अनेक चित्र हैं। यह स्मारक वहीं निर्मित किया गया है जहाँ पर विसर्जन से पूर्व, जनता के दर्शनों के लिए उनकी अस्थियाँ रखी गई थीं।

त्रिवेणी संगम – संगम में पवित्र स्नान

गांधी स्मारक के समीप त्रिवेणी संगम है जहाँ तीन समुद्रों का संगम है। इस तट पर आप यदि दक्षिण की ओर मुख कर खड़े हो जाएँ तो आपके बाईं ओर बंगाल की खाड़ी, दाईं ओर अरब महासागर तथा समक्ष हिन्द महासागर है। इस संगम में स्नान करना पापों से मुक्ति दिलाने वाला अत्यंत पवित्र स्नान माना जाता है। यहाँ का समुद्र तल चट्टान युक्त है, अतः अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए गहरे समुद्र में ना जाएँ।

कन्याकुमारी के समुद्र को वास्तव में लक्षद्वीप समुद्र कहा जाता है।

अंतर्क्षेत्र के परिदृश्य

वर्षा ऋतु के पश्चात किसी उजले दिवस में यदि आप कन्याकुमारी में हैं तो वहाँ के हरे-भरे खेत तथा नारियल के वृक्षों एवं अप्रवाही जल से युक्त समुद्र तट के भीतरी क्षेत्रों के परिदृश्यों को देखना ना भूलें।

ताड़ के फल एवं कोमल नारियल का पानी

ताड़ के फल
ताड़ के फल

कन्याकुमारी आर्द्रता से परिपूर्ण, अत्यंत उष्ण प्रदेश है। इस वातावरण में स्थानीय ताड़ के ताजे फलों एवं कोमल नारियल का पानी शामक व शांतिदायक होता है। ये अत्यंत स्वादिष्ट, रसदार एवं पौष्टिक फल होते हैं।

कन्याकुमारी के आस-पास एक-दिवसीय दर्शनीय स्थल

इस स्थलों को आप कन्याकुमारी में ठहरते हुए एक-दिवसीय यात्रा के रूप में अथवा त्रिवेंद्रम जैसे अन्य पर्यटक स्थलों की ओर जाते समय विमार्ग लेते हुए कर सकते हैं। अपने चयनित स्थलों के अनुसार अपनी यात्रा नियोजित करें।

पद्मनाभपुरम महल एवं दुर्ग

पद्मनाभपुरम का पद्मनाभपुरम महल एशिया का विशालतम काष्ठी संरचना है। यह विशेष महल त्रावणकोर के भूतपूर्व राजाओं का है जिन्होंने सन् १५५२-१७९० तक यहाँ शासन किया था। इस में इस वंश के प्रसिद्ध राजा मार्तंड वर्मा का शासन भी सम्मिलित है।

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सुचिन्द्रम मंदिर अथवा श्री थानुमलायन मंदिर

सुचिन्द्रम मंदिर त्रिवेंद्रम – कन्याकुमारी मार्ग पर है। इस मंदिर की विशेषता है इसके प्रमुख देव जो ब्रह्म, विष्णु एवं शिव का सम्मिलित रूप है। तीनों त्रिदेवों को एक ही प्रतिमा में प्रदर्शित किया गया है।

सुचिन्द्रम मंदिर
सुचिन्द्रम मंदिर

इस मंदिर का संबंध कन्याकुमारी की कथा से भी है। किवदंतियों के अनुसार कन्याकुमारी देवी वधू के वेश में समुद्र में स्थित शिला के ऊपर बैठी भगवान शिव की प्रतीक्षा कर रही थी। मुहूर्त के अनुसार उनका विवाह उसी दिन सम्पन्न होना था। भगवान शिव को किसी कार्य हेतु अन्यत्र जाना पड़ा। शिला तक पहुँचने से पूर्व वे इस मंदिर में पहुंचे। स्वभाव के अनुसार नारद मुनि को उपहास सूझा तथा उन्होंने सर्वत्र दिवस सम्पूर्ण होने का आभास दिलाया। अतः देवी अविवाहित ही रह गई तथा कन्याकुमारी कहलायी। आज भी शिव की प्रतीक्षा में खड़ी वधू के रूप में उन्हे पूजा जाता है।

ठेठ चोल शैली में निर्मित सुचिन्द्रम मंदिर में लंबे गलियारे हैं जिनमें दोनों ओर उत्कीर्णित स्तंभ हैं तथा चित्रित छत है। मंदिर के बाहर विशाल अलंकृत रथ हैं जो मेरे जैसे भक्तों के साथ वर्षा में भीग रहे थे।

कन्याकुमारी में मेरी इच्छा-सूची के अन्य दर्शनीय स्थल

कन्याकुमारी नगरी अनेक अप्रतिम पर्यटन एवं आध्यात्मिक स्थलों से परिपूर्ण है। इच्छा होते हुए भी समय की कमी के कारण मैं वहाँ के कुछ स्थलों के अवलोकन नहीं कर पायी। उन स्थलों का यहाँ उल्लेख करना चाहती हूँ ताकि आप अपने कन्याकुमारी भ्रमण की योजना बनाते समय इन स्थलों पर भी विचार कर सकते हैं।

विवेकानंद केंद्र

विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी
विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी

यह केंद्र स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों को प्रसारित करने के उद्देश्य से स्थापित एक संस्था है जो महान विचारक विवेकानंद को आदर्श मानकर उनके बताए मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है। उनके कार्यक्षेत्र में योग, उपनिषदों का अध्ययन, संस्कारों द्वारा व्यक्तित्व का विकास इत्यादि सम्मिलित हैं। रामायण दर्शनम्-भारतमाता सदनम् उनकी नवीनतम परियोजना है जिसमें भित्तिचित्रों द्वारा रामायण के महत्वपूर्ण दृश्यों को चित्रित करना, भारतमाता का मंदिर तथा हनुमान की विशाल प्रतिमा प्रमुख योजनाएं हैं।

भटकते भिक्षु का संग्रहालय

समुद्र तट से पैदल दूरी पर एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण संग्रहालय स्थित है जो स्वामी विवेकानंद की जीवनी पर आधारित है। यह संग्रहालय विवेकानंद के कार्यों एवं उपलब्धियों से भेंटकर्ताओं का परिचय कराता है।

थिरुप्परप्पु जल प्रपात

यह लगभग ३०० फीट ऊंचा एवं ५० फीट गहरा जल प्रपात है। थिरुप्परप्पु जलप्रपात नगर से लगभग ५५ किलोमीटर दूर स्थित है। इस प्रपात के समीप एक प्राचीन शिव मंदिर भी है जिसे महादेव कोविल कहते हैं। इस मंदिर में ९ वीं. सदी के पाण्ड्या वंश के अभिलेख हैं।

थिरुप्परप्पु जल प्रपात कोथायर नदी पर है। कोथायर नदी की ढलान थिरुप्परप्पु से आरंभ होती है। यहाँ से ढलान की ओर १३ किलोमीटर की दूरी पर पेचिपरै बांध है। यह वर्षा से पोषित मौसमी जल प्रपात है। अतः वर्षा ऋतु से आगामी ६ मास तक यह एक अत्यंत रोमांचक एवं सुंदर पर्यटन स्थल रहता है।

मरून्थुवाड मलय पहाड़ी

पश्चिमी घाट का सर्वाधिक दक्षिणी भाग इस जिले में है। इसे मरून्थु वाडम् भी कहते हैं जिसका अर्थ है औषधिक जड़ी-बूटियों का स्थल। पौराणिक कथाओं के अनुसार मरून्थुवाड मलय पहाड़ी उस द्रोणगिरी पर्वत का टूटकर गिरा हुआ एक टुकड़ा है जिसे हनुमान हिमालय से उठाकर श्री लंका ले जा रहे थे। श्रीलंका से युद्ध के समय मूर्छित हुए भगवान राम के भ्राता लक्ष्मण की मूर्छा भंग करने के लिए जिस जड़ी-बूटी की आवश्यकता थी वह द्रोणगिरी पर्वत पर ही उपलब्ध थी। किन्तु जड़ी-बूटी को पहचानने में असमर्थ हनुमान सम्पूर्ण पर्वत ही उठाकर लंका की ओर उड़ चले थे।

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मरून्थुवाड मलय पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँचने के लिए शिलाओं की सीढ़ियाँ हैं। इस पहाड़ी की ऊंचाई ८०० फीट तथा चौड़ाई लगभग एक किलोमीटर है।

चितरल का प्राचीन जैन मंदि

थिरुप्परप्पु जल प्रपात की ओर जाते मार्ग पर शैलकर्तित गुफ़ाएं हैं जिनके भीतर दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इन्हे मलई कोविल कहा जाता है। यहाँ जैन तीर्थंकरों के अनेक शिल्प हैं। ९ वीं. सदी में राजा महेंद्रवर्मा-१ के शासनकाल में किये गए उत्खनन में ये गुफ़ाएं प्राप्त हुई थीं।  मेरे अनुमान से ये भारत के सर्वाधिक दक्षिणी जैन मंदिर हैं।

पेचिपरै बांध

थिरुप्परप्पु जल प्रपात से कुछ ही दूर, कोथायर नदी पर यह पेचिपरै बांध है। त्रावणकोर राज्य के शासनकाल में निर्मित यह बांध अत्यंत दर्शनीय है।

वट्टकोट्टई दुर्ग

वट्टकोट्टई का शाब्दिक अर्थ है गोलाकार दुर्ग। यह लघु दुर्ग भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित है। इस दुर्ग के विषय में एक विचित्र किन्तु विशेष तथ्य यह है कि इसका निर्माण त्रावणकोर के प्रसिद्ध राजा मार्तंड वर्मा के शासनकाल में हुआ था किन्तु इसका निर्माण एक डच नौसेना अधिकारी की निगरानी में हुआ था जो त्रावणकोर सेना का सेनाध्यक्ष था।

कन्याकुमारी के कुछ अन्य दर्शनीय स्थल भी हैं जिन्हे आप समय के अनुसार देख सकते हैं:

  • मट्टम समुद्र तट
  • नागरकोइल समुद्र तट
  • केप कोमॉरिन
  • पवनचक्की बगीचा
  • मथु जलसेतु
  • मनकुडी सेतु
  • फ्लेमिंगो पक्षी के दर्शन

व्यक्तिगत रूप से विवेकानंद स्मारक शिला के दर्शन करना मेरे लिए एक ऐसे अवरोध के समान था जिसे मैं अनेक वर्षों से पार करना चाह रही थी। मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ कि अंततः मैंने अपने एक स्वप्निल गंतव्य के दर्शन कर ही लिए।

कन्याकुमारी के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों के विषय में कुछ यात्रा सुझाव

  • कन्याकुमारी में इन लोकप्रिय पर्यटन स्थलों के दर्शन हेतु ३-४ दिनों का समय आवश्यक है।
  • यहाँ कभी भी मेघ छा जाते हैं तथा अकस्मात वर्षा हो जाती है। अतः यथोचित तैयारी रखें।
  • धूप के दिन अत्यंत उष्ण एवं नमी पूर्ण होते हैं।

आप जब भी कन्याकुमारी के भ्रमण के लिए जाएँ तो इन पर्यटक स्थलों के दर्शन के पश्चात अपने अनुभव हमसे बाँटना ना भूलें। प्रतीक्षारत।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चिदंबरम का नटराज मंदिर – शिव के आनंद तांडव का स्थल https://inditales.com/hindi/natraj-mandir-chidambaram/ https://inditales.com/hindi/natraj-mandir-chidambaram/#comments Wed, 06 Jan 2021 02:30:44 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2118

चिदंबरम, अधिकांश उत्तर भारतीयों के लिए यह केवल एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ का नाम है। अधिक से अधिक यह उस गाँव का नाम होगा जहां के वे निवासी हैं। चिदंबरम का महत्व आप तभी जान पाएंगे जब आप दक्षिण भारत एवं वहाँ के मंदिरों को जानने का प्रयास करेंगे। तभी आप जानेंगे कि सुप्रसिद्ध नटराज मंदिर […]

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चिदंबरम, अधिकांश उत्तर भारतीयों के लिए यह केवल एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ का नाम है। अधिक से अधिक यह उस गाँव का नाम होगा जहां के वे निवासी हैं। चिदंबरम का महत्व आप तभी जान पाएंगे जब आप दक्षिण भारत एवं वहाँ के मंदिरों को जानने का प्रयास करेंगे। तभी आप जानेंगे कि सुप्रसिद्ध नटराज मंदिर चिदंबरम में ही है। उसे चिदंबरम मंदिर भी कहते हैं। चेन्नई से दक्षिण की ओर लगभग २४० किलोमीटर तथा पुद्दुचेरी से लगभग ६० किलोमीटर दूर स्थित इस नगर में अनेक बड़े-छोटे अप्रतिम मंदिर हैं।

चिदंबरम का नटराज मंदिर
चिदंबरम का नटराज मंदिर

नटराज मंदिर से संबंधित इतिहास एवं किवदंतियाँ

यहाँ मंदिर की स्थापना से कई वर्ष पूर्व यह भूभाग एक विशाल वनीय प्रदेश था। तिल्लई मैंग्रोव के नाम पर इस वन का नाम तिल्लई वन पड़ा। इस वन में ऋषियों का वास था जो सदा विभिन्न अनुष्ठानों का आयोजन करते रहते थे। समयोपरांत उन्हे ऐसा भ्रम होने लगा था कि शक्तिशाली मंत्रों द्वारा वे भगवान शिव को भी नियंत्रित कर सकते हैं। फलतः भगवान शिव ने उन्हे यथार्थ से अवगत कराने का निश्चय किया। एक दिवस उन्होंने एक भिक्षु का रूप धारण किया तथा मोहिनी रूप में भगवान विष्णु को साथ लेकर उन ऋषियों से भेंट करने यहाँ आए। भगवान शिव का वो स्वरूप देख ऋषि पत्नियाँ उन पर मुग्ध हो गईं। इससे कुपित होकर, ऋषियों ने शिव पर सर्पों का वर्षाव किया । भगवान शिव ने उन सर्पों को आदर पूर्वक स्वीकारा तथा उन्हे आभूषण के रूप में अपनी देह पर धारण किया। उन्होंने शिव पर बाघ को छोड़ा। भगवान शिव ने बाघ को मुक्ति प्रदान की तथा बाघचर्म को अपने कटि पर धारण कर लिया। यह देख ऋषियों ने अपनी समस्त आध्यात्मिक शक्तियां एकत्रित की तथा मुयलकन असुर अर्थात् अपस्मर का आव्हान किया जो अज्ञानता एवं निरर्थक भाषण का प्रतीक है। भगवान शिव ने अपस्मर पर खड़े होकर उसे गतिहीन कर दिया। तत्पश्चात वे आनंद तांडव नृत्य करने लगे तथा अपना वास्तविक रूप ऋषियों के समक्ष प्रकट किया। ऋषियों को अपनी अज्ञानता का पूर्ण आभास हुआ तथा वे भगवान शिव के समक्ष नतमस्तक हो गए।

तभी से भगवान शिव यहाँ नटराज के रूप में पूजे जाने लगे।

चिदंबरम् नटराज मंदिर का एक प्राचीन चित्र
चिदंबरम् नटराज मंदिर का एक प्राचीन चित्र

एक अन्य किवदंती के अनुसार भगवान शिव के आनंद तांडव का दर्शन करने के लिए भगवान विष्णु आदिशेष के रूप में यहाँ आए थे। वे अब भी इस मंदिर में गोविन्दराज के रूप में विराजमान हैं।

तिल्लई नटराज मंदिर से संबंधित सभी ऐतिहासिक संदर्भ यह दर्शाते हैं कि कम से कम ६वीं सदी से यह मंदिर व्यवहार में है। संगम साहित्य से प्राप्त जानकारी के अनुसार मंदिर के पुनरुद्धार में प्रमुख वास्तुविद के रूप में विडुवेलविडुगु पेरुंटक्कन का योगदान है जो पारंपरिक विश्वकर्मा समुदाय के वंशज हैं। अप्पर एवं सम्बन्द की कविताओं में भी चिदंबरम के नृत्य मुद्रा में विराजमान भगवान का उल्लेख है। १०वीं सदी के आसपास चिदंबरम चोलवंश की राजधानी थी तथा नटराज उनके कुलदेवता थे। कालांतर में उन्होंने अपनी राजधानी तंजावुर में स्थानांतरित कर दी थी।

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किन्तु इस मंदिर के अस्तित्व के विषय में तात्विक साक्ष्य १२वीं सदी से आगे के ही है। दक्षिण भारत के पल्लव, पंड्या, चोल, चेर एवं विजयनगर जैसे अनेक राजवंशों ने अपनी कालावधि में इस मंदिर के रखरखाव एवं विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आप प्रत्येक राजवंश की शैली के चिन्ह मंदिर के विभिन्न भागों में देख सकते हैं।

१४वीं सदी के आरंभ में मलिक काफ़ुर ने इस मंदिर पर आक्रमण किया तथा अपार मात्रा में मंदिर की संपत्ति लूट कर ले गया था। अनेक प्रतिमाएं भूमिगत गड़ी हुई थीं जिन्हे गतकाल में उत्खनित किया गया है। पुर्तगलियों, अंग्रेजों एवं फ़्रांसीसियों ने भी इस मंदिर पर कोई दया नहीं दिखायी थी।

नटराज मंदिर के विभिन्न शिव स्वरूप

मंदिर में पूजे जाने वाला भगवान शिव का प्राथमिक स्वरूप नृत्य देव एवं लौकिक नर्तक नटराज का है। मंदिर के पूर्वी गोपुरम पर आप उनकी नृत्य की विभिन्न मुद्राएं देख सकते हैं। वास्तव में ये केवल नृत्य मुद्राएं नहीं हैं, अपितु १०८ कारण अथवा गतियाँ हैं जिनका शास्त्रीय नृत्य में प्रयोग किया जाता है।

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भगवान शिव यहाँ उनके निर्गुण स्वरूप अर्थात् शिवलिंग के रूप में भी उपस्थित हैं।

चिदंबरम मंदिर के गलियारे
चिदंबरम मंदिर के गलियारे

चिदंबरम रहस्य – चिदंबरम मंदिर दक्षिण भारत के ५ पंचभूत मंदिरों में से एक है। यह पंच महाभूतों में से एक, आकाश का प्रतिनिधित्व करता है। गर्भगृह में एक रिक्त स्थान है। यहां ५१ स्वर्ण बिल्व पत्रों से बना एक हार है जिसकी पूजा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ शिव एवं पार्वती का वास है किन्तु वे मानवी नेत्रों के समक्ष अदृश्य रहते हैं। इस स्थान को सदैव लाल व काले वस्त्र के आवरण से ढँक कर रखा जाता है। यह आवरण माया का प्रतिनिधित्व करता है। यह आवरण केवल विशेष पूजा अर्चना के समय ही खोला जाता है। तब आप इन स्वर्ण बिल्व पत्रों को देख सकते हैं। यह इस मंदिर को अद्वितीय बनाता है।

दक्षिण भारत के ५ पंचभूत मंदिर हैं-
• चिदंबरम का चिदंबरम मंदिर – आकाश का प्रतिनिधित्व करता है।
कांचीपुरम का एकंबरेश्वर मंदिर – पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करता है।
• तिरुचिरापल्ली का जंबुकेश्वर मंदिर – जल का प्रतिनिधित्व करता है।
• थिरुवन्नमलाई का अरुणाचलेश्वर मंदिर – अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है।
• कालाहस्ती का कालाहस्तीश्वर मंदिर – वायु का प्रतिनिधित्व करता है।

चिदंबरम मंदिर के उत्सव एवं दैनिक पूजा अनुष्ठान

एक पालकी में भगवान की पादुकाओं को लाने की प्रक्रिया द्वारा चिदंबरम मंदिर की दैनिक पूजा अनुष्ठान का आरंभ किया जाता है। सम्पूर्ण दिवस में उनके ६ विभिन्न अनुष्ठान किए जाते हैं। इन सभी अनुष्ठानों में शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। तत्पश्चात, उसी पालकी में भगवान की पादुकाओं को वापिस ले जाकर दिवस की समाप्ति की जाती है।

चिदंबरम मंदिर के पाषण शिल्प
चिदंबरम मंदिर के पाषण शिल्प

चिदंबरम मंदिर के दो प्रमुख उत्सव हैं मार्गलि तिरुवादिरई एवं आणि तिरुमन्जनं। इन उत्सवों में भगवान को रथ पर बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है।

नटराज मंदिर का कार्यभार दीक्षिदर ब्राह्मणों का समुदाय संभालता है। एक दीक्षिदर ब्राह्मण को विवाहोपरांत अपने परिवार से अर्चक की उपाधि विरासत में प्राप्त होती है। यद्यपि ऐसी मान्यता है कि इन ब्राह्मणों को स्वयं पतंजलि कैलाश पर्वत से यहाँ लेकर आए थे, तथापि ये केरल के नंबूदिरी से अधिक साम्य रखते प्रतीत होते हैं।

नटराज मंदिर की वास्तुकला

नटराज मंदिर का परिसर ४० एकड़ के क्षेत्र में पसरा हुआ है। मंदिर परिसर प्राकारों अथवा प्रांगणों की ५ परतों से घिरा है जिसमें सबसे भीतरी प्राकार में गर्भगृह है। कुल मंदिर एक ठेठ द्रविड़ वास्तुकला का पालन करता है। किन्तु इसका गर्भगृह ठेठ स्पष्टतः केरल अथवा मलाबारी शैली का है।

गोपुरम

मंदिर को घेरे हुए कुल नौ गोपुरम हैं। उनमें से चार विशालतम गोपुरम बाहरी प्राकार में चार दिशाओं में स्थित हैं। ये गोपुरम मंदिर से अपेक्षाकृत कहीं अधिक ऊंचे हैं। फिर भी, अपने शुद्ध स्वर्ण के शीर्ष के कारण साधारण ऊंचाई का यह मुख्य मंदिर उठकर दिखाई पड़ता है। मुख्य प्रवेश द्वार पूर्वी गोपुरम के नीचे है जहां तक पहुँचने के लिए एक संकरे मार्ग से जाना पड़ता है। सँकरे मार्ग के दोनों ओर पूजा सामग्री बिक्री करते अनेक विक्रेता तथा जूते-चप्पल के रखवाले इसे और अधिक संकरा बना देते हैं। गोपुरम का निचला प्रवेश द्वार का भाग रंगा हुआ नहीं है। किन्तु इसकी ऊपरी विशाल अधिरचना को नीली पृष्ठभूमि में अनेक रंगों में रंगा हुआ है। उस पर अनेक देवी-देवताओं के शिल्प हैं जो पुराणों के विभिन्न कथाओं को प्रदर्शित करते हैं।

नटराज मंदिर का गोपुर
नटराज मंदिर का गोपुर

गोपुरम के अन्तः भाग में पत्थर के छोटे छोटे चौकोर खंडों पर भरतनाट्यम की विभिन्न मुद्राओं को उत्कीर्णित किया गया है। गोपुरम के अग्र एवं पृष्ठ भाग पर लघु प्रतिमाएं हैं। उनमें से कुछ को ताले में बंद कर रखा है। मैं समझ नहीं पायी कि ऐसा क्यों किया गया है।

महिषासुरमर्दिनी - नटराज मंदिर चिदंबरम
महिषासुरमर्दिनी

कुछ मूर्तियों को वस्त्रों एवं पुष्पों से अलंकृत किया हुआ है। उन्हे देख ऐसा आभास होता है कि उनकी नियमित पूजा अर्चना की जाती है जबकि अन्य मूर्तियों का कदाचित केवल अवलोकन किया जाता है। मेरे अनुमान से जहां जहां महिषासुर का वध करती देवी की महिषासुरमर्दिनी रूप में प्रतिमाएँ हैं, केवल उन्ही की पूजा अर्चना की जाती है। स्मित हास्य लिए तथा हाथ जोड़े एक दाढ़ीधारी पुरुष की प्रतिमा मुझे अत्यंत रोचक प्रतीत हुई। मेरे सर्वोत्तम अनुमान के अनुसार यह प्रतिमा उस राजा की होगी जिसने किसी काल में इस मंदिर का संरक्षण किया होगा। इसके एक ओर एक छोटे आले के भीतर स्थित प्रतिमा उनकी पत्नी की होगी। एक अनभिज्ञ दर्शक के लिए अन्य गोपुरम भी इसी प्रकार के हैं, केवल उनमें नृत्य मुद्राएं नहीं हैं। प्रांगण में कुछ अन्य छोटे-बड़े मंदिर हैं जो विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित हैं।

शिव मंदिर

मंदिर के भीतर विशाल गलियारे हैं जिन्हे अनेक विशाल चौकोर स्तम्भ आधार देते हैं। इन स्तंभों के फैले हुए शीर्ष इन गलियारों के ऊपर मंडप सा बनाते प्रतीत होते हैं। ये स्तम्भ अधिकांशतः सादे हैं किन्तु इनके ऊपरी भाग उत्कीर्णित हैं। इन गलियारों से होकर जाते हुए अत्यंत राजसी भाव का आभास होता है। मंदिर का भीतरी भाग बाहरी परिवेश से अत्यंत पृथक है। यह आपको एक भिन्न विश्व एवं कदाचित एक भिन्न कालावधि में ले जाता है।

मेरी उपस्थिति के समय मंदिर में अधिक दर्शनार्थी नहीं थे। जो भी यहाँ उपस्थित थे उन्होंने पारंपरिक परिधान धारण किए हुए थे। उनकी भक्ति की अवस्था वातावरण को अत्यंत पवित्र कर रही थी। मंदिर में उपस्थित पंडितों ने अधिकतम शीश का मुंडन कर केवल छोटी चुटिया बांधी हुई थी। उनकी देह पर चंदन से अनेक बिन्दु एवं रेखाएं बनी हुई थीं। मंदिर के क्रियाकलापों के साथ वे प्रत्येक दर्शनार्थी पर भी दृष्टि रख रहे थे तथा उन्हे विभिन्न पूजा-अनुष्ठान करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। भक्तों द्वारा नकारने पर वे तुरंत उनसे विरक्त भी हो रहे थे। मेरी माने तो उनके इस आचरण को मन से न लगाएं।

नटराज मंदिर का गर्भगृह

नटराज मंदिर की स्वर्णिम छत
नटराज मंदिर की स्वर्णिम छत

चिति सभा अर्थात् चेतना कक्ष, नटराज मंदिर का गर्भगृह इसी नाम से जाना जाता है। यह ग्रेनाइट के आधार पर स्थापित चौकोर काष्ठी संरचना है जिसके छत पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है। इसकी असामान्य रूप से तिरछी छत इसकी वास्तुशिल्प को अत्यंत विशेष बनाती है। गर्भगृह में नटराज की मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह के भीतर अग्रभाग से नहीं जा सकते अपितु एक ओर से प्रवेश किया जाता है। नटराज की प्रतिमा पर वस्त्रों एवं पुष्पों की इतनी परतें रहती हैं कि आप विग्रह का अधिकांश भाग देख नहीं पाते। वैसे भी मंदिर के भीतर कुछ क्षण ही व्यतीत करने दिए जाते हैं।

चिदंबरम, यह शब्द चित एवं अंबर इन दो शब्दों के संयोजन से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है, चेतना का आकाश। मंदिर के गर्भगृह के भीतर ये दोनों तत्व प्रदर्शित होते हैं।

कनक सभा या स्वर्ण कक्ष चिति सभा के ठीक सामने स्थित है। इस की छत स्वर्णिम है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी छत को २२,६०० सुनहरी पट्टिकाओं को ७२,००० सुनहरी कीलों द्वारा जोड़कर बनाया गया है। आप जानते ही हैं कि २२,६०० मानवी श्वास की वह संख्या है जो वह एक दिन में ग्रहण करता है। वहीं, एक मानव की देह में ७२,००० की संख्या में शिराएं रहती हैं। शीर्ष पर स्थित ९ कलश मानवी देह के ९ द्वारों की ओर संकेत करते हैं। कनक सभा का प्रयोग अनेक अनुष्ठानों के आयोजनों में तथा मुख्य मूर्ति के दर्शन के लिए किया जाता है। चिति सभा एवं कनक सभा मंदिर के केंद्र हैं। अन्य सभी अवयव इनके चारों ओर स्थित हैं।

नृत्य सभा में ५६ स्तंभ हैं। घोड़ों एवं चक्रों का प्रयोग कर इसे एक रथ का रूप प्रदान किया है। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर शिव एवं पार्वती के मध्य नृत्य की स्पर्धा हुई थी जिसमें अपने प्रसिद्ध ऊर्ध्व तांडव मुद्रा का प्रदर्शन कर भगवान शिव ने विजय प्राप्त की थी।

नटराज मंदिर पर उत्कीर्णित हाथी
नटराज मंदिर पर उत्कीर्णित हाथी

राज सभा अथवा १००० स्तंभों का कक्ष शिव गंगा सरोवर के समीप स्थित है। मैं कल्पना सकती हूँ कि सरोवर से आती शीतल बयार का आनंद उठाते भक्तगण इस कक्ष में बैठकर तनिक सुस्ताते होंगे। इसकी भित्ति पर एक विशालकाय गज उत्कीर्णित है। राज सभा का रखरखाव देखकर यह लगभग परित्यक्त प्रतीत होता है।

देव सभा इस परिसर के प्राचीनतम संरचनाओं में से एक है। इसका प्रयोग कदाचित दर्शन के लिए पधारे साधु-संत ध्यान एवं भजन-गायन के लिए करते थे।

मंदिर परिसर के अन्य मंदिर

शिवकामसुंदरी मंदिर – यह प्रमुख शक्ति मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस मंदिर की भित्तियों पर सम्पूर्ण देवी माहात्म्य चित्रित था किन्तु कालांतर में वह पूर्णतः नष्ट हो चुका है। यह मंदिर नटराज मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित है। इसका भूतल अत्यंत रंगबिरंगा है।

चिदंबरम मंदिर की चित्रकारी
चिदंबरम मंदिर की चित्रकारी

गोविन्दराज मंदिर – यह मंदिर भगवान विष्णु के अनंतशयन रूप को समर्पित है। यह भगवान विष्णु के १०८ दिव्य देसम में से एक है। भगवान शिव के मंदिर में अनंतशयन विष्णु एवं देवी लक्ष्मी को देख मुझे सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि इस क्षेत्र में शैवों एवं वैष्णवों के मध्य विवाद सर्व विदित है। धर्म में समावेशिता का इससे उत्तम उदाहरण अन्य नहीं हो सकता है।

चंडीकेश्वर मंदिर – यह आपको प्रत्येक दक्षिण भारतीय शिव मंदिर में अवश्य दृष्टिगोचर होगा।

महालक्ष्मी मंदिर

मूलस्थान – यहाँ भगवान शिव अपने मूल रूप अर्थात् शिवलिंग रूप में पूजे जाते हैं।
सुब्रमण्यम मंदिर
गणेश मंदिर
सुंदरेश्वर एवं मीनाक्षी मंदिर
नवग्रह मंदिर
सूर्य मंदिर – यह मंदिर के प्राचीनतम भागों में से एक है।
नवलिंग मंदिर
शिवगंगा तीर्थ – यह मंदिर का प्रमुख जलकुंड है। इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर में अन्य कई जलस्त्रोत हैं। माध्यम आकार की यह पुष्करणी उत्तरी गोपुरम की सीध में मंदिर के एक ओर स्थित है। इसके जल पर जब गोपुरम का प्रतिबिंब पड़ता है तो वह दृश्य अत्यंत मनोहारी होता है। इस पुष्करणी के चारों ओर स्तंभों से युक्त एक गलियारा है। जब मैं यहाँ आई थी तब यह गलियारा अत्यंत ही गलिच्छ था। मेरा विश्वास है कि इसमें पैर रखना आपके लिए भी कठिन होगा।

कल्याण मंडप एवं यज्ञ शाला

इस मंदिर का भीतरी भाग अत्यंत विस्तृत है। इसके भीतर विचरण करते आप पर्याप्त समय व्यतीत कर सकते हैं। सभी छोटे मंदिर एक ओर हैं। अनेक स्थानों पर इसकी छत पर आप चटक नीले एवं सुनहरे रंगों में सुंदर आकृतियाँ देख सकते हैं। मुख्य मंदिर की सुनहरी छत वक्रीय है तथा इसके द्वार चांदी के हैं।

परिसर का रखरखाव

नटराज  मंदिर परिसर
नटराज मंदिर परिसर

भित्तियों पर जंग के धब्बों की उपस्थिति पत्थरों में उपस्थित लोहे की प्रचुर मात्रा के कारण हो सकती है। कदाचित इसी जंग से रक्षण करने के लिए गोपुरम को चटक रंगों में रंगा गया है क्योंकि इस क्षेत्र की वायु में अत्यधिक आर्द्रता रहती है। मंदिर में लगी बिजली की व्यवस्था में सौंदर्यविषयक सुधार अत्यावश्यक है। इस समय उन्हे देखें तो ऐसा प्रतीत होता है मानो इस अप्रतिम मंदिर को कुदृष्टि से बचाने के लिए उन्हे जानबूझ कर अव्यवस्थित रूप से बिठाया गया है। भित्तियों पर कहीं कहीं भित्तिचित्रों के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। क्या कभी किसी ने इनके संरक्षक के लिए प्रयास किया होगा? मेरी यह भी इच्छा है कि इस प्रकार के धरोहरों एवं धार्मिक स्थलों की स्वच्छता को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि वहाँ की अस्वच्छता ना तो दर्शनार्थियों को व्याकुल कर रही थी ना ही वहाँ के अधिकारियों को विचलित कर रही थी।

चिदंबरम नटराज मंदिर की यात्रा से संबंधित कुछ सुझाव

नटराज मंदिर के दर्शन करने में ही आप आधा दिवस व्यतीत कर सकते हैं। इनकी अद्भुत शिल्पकारी व इसकी वास्तुकला निहारने में तथा मंदिर की जीवंत परंपरा के दर्शन करने में आप मग्न हो जाएंगे।

मंदिर के परिसर में चारों ओर घूमने के लिए १ से २ घंटों का अतिरिक्त समय रखें।

मंदिर प्रातःकाल से रात्रि तक खुला रहता है। मध्यकाल में दोपहर से संध्या ५ बजे तक मंदिर के पट बंद रहते हैं। अधिक जानकारी के लिए मंदिर के इस वेबस्थल से संपर्क करें।

मंदिर के बाह्य भाग में छायाचित्रीकारण की मनाही नहीं है। किन्तु मंदिर के भीतर इसकी अनुमति नहीं है, गर्भगृह के आसपास व भीतर तो कदापि नहीं।

चिदंबरम में इस प्रतिष्ठित नटराज मंदिर के अतिरिक्त भी अनेक दर्शनीय स्थल हैं। चिदंबरम नगर के दर्शनीय स्थल भी अवश्य देखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्राचीन कांचीपुरम नगर के दर्शनीय पर्यटक स्थल एवं अनुभव https://inditales.com/hindi/kanchipuram-paryatan-darshaniya-sthal/ https://inditales.com/hindi/kanchipuram-paryatan-darshaniya-sthal/#comments Wed, 05 Aug 2020 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1943

कांचीपुरम एक अत्यंत चित्ताकर्षक नगर है जो अपने भव्य मंदिरों एवं मनमोहक रेशमी साड़ियों के लिए जगत प्रसिद्ध है। जी हाँ, यहाँ आने से पूर्व मैं भी इस नगर के विषय में केवल इतना ही जानती थी। किन्तु अब मैंने जाना कि यह नगर रोमांचक कथाओं से परिपूर्ण है। यहाँ की उत्कीर्णित शिलाएं, रंगबिरंगी रेशमी […]

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कांचीपुरम एक अत्यंत चित्ताकर्षक नगर है जो अपने भव्य मंदिरों एवं मनमोहक रेशमी साड़ियों के लिए जगत प्रसिद्ध है। जी हाँ, यहाँ आने से पूर्व मैं भी इस नगर के विषय में केवल इतना ही जानती थी। किन्तु अब मैंने जाना कि यह नगर रोमांचक कथाओं से परिपूर्ण है। यहाँ की उत्कीर्णित शिलाएं, रंगबिरंगी रेशमी साड़ियाँ कांचीपुरम की ऐसी ही कई कथायें बखान करती हैं। यहाँ तक कि यहाँ की इडली का घोल भी विशेष है जिसका नाम इस नगरी पर ही दिया गया है। कांचीपुरम में देखने एवं अनुभव करने के लिए मेरी सूची अत्यंत लम्बी थी।

कांचीपुरम - तमिल नाडु
कांचीपुरम

मैंने कांचीपुरम यात्रा का आरम्भ यहाँ के ५ मुख्य मंदिरों के दर्शन से किया था जो यहाँ के सर्वाधिक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल माने जाते हैं। इनमें प्रत्येक मंदिर स्वयं में अत्यंत विशेष है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं वास्तुकला की दृष्टी से ये अद्भुत जवाहरात हैं। इन मुख्य मंदिरों के दर्शन के पश्चात मैंने शिव कांची, विष्णु कांची एवं जैन कांची के अन्य छोटे-बड़े मंदिरों के भी दर्शन किये। उन में से कई मंदिरों के विषय में मैंने अपने संस्मरण पूर्व में ही लिखे हैं। आशा है उन्हें पढ़कर आपको परम आनंद प्राप्त हुआ होगा।

कांचीपुरम में आप जहां भी दृष्टी दौड़ाएं, आपको मनमोहक रेशमी साड़ियाँ दृष्टिगोचर होंगी। कांचीपुरम में आकर्षण मनभावन रेशमी साड़ियाँ कहाँ कहाँ से प्राप्त कर सकते हैं, इस पर भी मैंने विस्तार पूर्वक एक संस्मरण लिखा है। उसे पढ़कर आपको अवश्य लाभ होगा।

कांचीपुरम का संक्षिप्त इतिहास

कांचीपुरम, इस प्राचीन नगरी का विवरण कई हिन्दू शास्त्रों में प्राप्त होता है। यह ७ नगरों का समूह अर्थात् सप्तपुरी में से एक नगर है। सप्तपुरी के अन्य ६ नगर हैं, अयोध्या, मथुरा, माया अर्थात् हरिद्वार, काशी अर्थात् वाराणसी, अवंतिका अर्थात् उज्जैन तथा द्वारावती अर्थात् द्वारका। वामन पुराण में कांचीपुरम के विषय में कुछ इस प्रकार कहा गया है, नगरेशु कांची। इसका अर्थ है, भारत के सर्व नगरों में सर्वश्रेष्ठ।

कांचीपुरम दो भागों में बंटा है, शिव कांची तथा विष्णु कांची। दोनों कांची कामाक्षी अम्मा मंदिर को घेरे हुए हैं। यह और बात है कि आप विष्णु कांची में कई शिव मंदिर देखेंगे तथा शिव कांची में कई विष्णु मंदिर।

कांचीपुरम ४ से १०वीं. सदी तक पल्लवों की राजधानी थी। इसके पश्चात यह चोल, पंड्या तथा विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था। यहाँ उपस्थित जैन एवं बौध शैली के चित्र इस तथ्य का प्रमाण हैं कि इस नगरी में ये तीनों संप्रदाय एक साथ उपस्थित थे। ठीक उसी प्रकार जैसा कि किसी बहुदेशीय नगरी में बहुधा होता है।

यह शिक्षण का एक उत्तम केंद्र था। राज-परिवार से सम्बंधित कई विद्यार्थी यहाँ उच्चतम शिक्षा ग्रहण करने आते थे। विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते इन विद्यालयों को घटिका कहा जाता था। दुर्भाग्य से इस समय इन प्राचीन घटिकाओं का अंश मात्र भी शेष नहीं है। यद्यपि नवयुग के कई नवीन एवं आधुनिक विश्वविद्यालय अब यहाँ उपलब्ध हैं तथा कई अन्य का आगमन शेष है।

आईये अब इतिहास से वर्त्तमान में आते हैं। इस संस्मरण में मैं आप सब को कांचीपुरम के ५ मुख्य मंदिरों के साथ उन स्थलों के विषय में बताउँगी जिनके विषय में अधिक लोग नहीं जानते।

कांचीपुरम के सर्वोत्तम आकर्षण – मंदिर

कांचीपुरम के  ५ बड़े मंदिर

कांचीपुरम के ५ बड़े मंदिर जिनके दर्शन प्रत्येक पर्यटक करता है:
श्री कांची कामाक्षी मंदिर – कांचीपुरम की परमपूज्य देवी तथा उनके परिसर में स्थित अन्य मंदिर
श्री एकम्बरेश्वर मंदिर – कांचीपुरम का विशालतम शिव मंदिर
श्री कैलाशनाथ मंदिर – कांचीपुरम का प्राचीनतम शिव मंदिर
श्री वरदराज पेरूमल मंदिर – विष्णु का विशालतम मंदिर एवं विष्णु कांची का केंद्र
श्री वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर – शिव कांची में स्थित विष्णु का अप्रतिम मंदिर

मैंने कांचीपुरम में कुल ६ दिवस भ्रमण किया जिसमें मैंने इन ५ प्रमुख मंदिर तथा कई अन्य दर्शनीय स्थलों के दर्शन किये। मैंने इन मंदिरों के विषय में विस्तृत संस्मरण लिखे हैं। कांचीपुरम यात्रा से पूर्व इन संस्मरणों को अवश्य पढ़ें।

शिव कांची के अन्य मंदिर

कुमार कोट्टम मंदिर

कुमार कोट्टम मंदिर - कांचीपुरम
कुमार कोट्टम मंदिर – कांचीपुरम

कुमार कोट्टम मंदिर कांची कामाक्षी एवं एकम्बरेश्वर मंदिरों के मध्य स्थित है। यदि आप इस स्थान को ऊंचाई से देख पायें तो ये तीनों मंदिर सोमस्कंद की आकृति बनाते प्रतीत होते हैं। एक मंदिर से दूसरे मंदिर की ओर जाते समय आप इस मंदिर के दर्शन कर सकते हैं।

यद्यपि कुमार कोट्टम मंदिर इस दोनों विशाल मंदिरों से अपेक्षाकृत छोटा है, तथापि दो प्राकारों से युक्त यह भी एक बड़ा मंदिर है। गर्भगृह के भीतर बैठी मुद्रा में मुरुगन की प्रतिमा है जिसे ब्रम्हा चट्टम कहा जाता है। उनकी पत्नियां, वल्ली एवं देवयानी अपने उत्सव मूर्ति के रूप में उपस्थित हैं।

ऐसा माना जाता है कि कंद पुराण की रचना इसी मंदिर में हुई थी।

श्री उलगनंद पेरूमल मंदिर

कांची कामाक्षी मंदिर के समीप स्थित उलगनंद मंदिर विष्णु के वामन अवतार को समर्पित है। यहाँ उनकी काले पत्थर में बनी ३५X२५ फीट की विशाल प्रतिमा है जिसमें वे एक पाँव उठाये हुए हैं तथा एक हाथ की दो उंगलियाँ उठाकर पहले से ले चुके दो पगों को इंगित कर रहे हैं। प्रतिमा की विशालता एवं उसका श्याम रंग आपको अभिभूत करने में पूर्णतः सक्षम है।

उनकी पत्नी को अमृतवल्ली थयर के रूप में पूजा जाता है।

श्री कच्छपेश्वर मंदिर

श्री कच्छपेश्वर मंदिर
श्री कच्छपेश्वर मंदिर

कुमार कोट्टा के समीप स्थित श्री कच्छपेश्वर मंदिर एक बड़ा मंदिर है। नगर के प्रमुख सड़क मार्ग से सटा हुआ इसका एक विशाल जलकुंड भी है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में विष्णु ने कच्छप अर्थात् कूर्म अवतार में शिव की आराधना की थी। इसीलिए इस मंदिर को कच्छ्पेश्वर कहा जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि ब्रम्हा एवं सरस्वती ने भी इस मंदिर में पूजा की थी।

एक अन्य मान्यता के अनुसार इसे कचिकान्ची ईश्वर अर्थात् कांची नगरी का देव भी माना जाता है।

जलकुंड को इष्टसिद्धी तीर्थं कहा जाता है।

५ प्रमुख मंदिरों के पश्चात यही मंदिर है जिसके दर्शन अधिकतम यात्री व पर्यटक करते हैं।

श्री चित्रगुप्त स्वामी मंदिर

चित्रगुप्त यम के सहायक एवं एक प्रमुख हिन्दू देवता हैं जो मनुष्यों के पाप-पुण्यों का लेखा-जोखा कर न्याय करते हैं। ऐसा माना जाता है कि चित्रगुप्त मनुष्यों के मानसपटल पर चित्रित विचारों को गुप्त रूप से संचित कर रखते हैं। अंत समय पर इन्ही चित्रों के आधार पर वे उनके परलोक एवं पुनर्जन्म के विषय में निर्णय लेते हैं। उन्हें समर्पित मंदिर साधारणतः दुर्लभ हैं। मुझे बताया गया कि दिल्ली में भी उन्हें समर्पित एक मंदिर है। मैं अब तक उस मंदिर के दर्शन नहीं कर पाई हूँ।

यह एक छोटा मंदिर है। गर्भगृह में स्थित उनका विग्रह अत्यंत सुन्दर है।

श्री पांडवदूत पेरूमल मंदिर

श्री पांडवदूत पेरूमल मंदिर - शिव कांची
श्री पांडवदूत पेरूमल मंदिर – शिव कांची

एकम्बरेश्वर मंदिर के समीप स्थित यह एक छोटा तथा मनमोहक श्री कृष्ण मंदिर है। यह मंदिर उस क्षण को समर्पित है जब श्री कृष्ण पांडवों के दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे। इसीलिए इस मंदिर को पांडवदूत मंदिर कहा जाता है।

यह भारत के उन मंदिरों में से एक है जो पौराणिक कथाओं के विभिन्न क्षणों को समर्पित हैं। इसी प्रकार का एक मंदिर है खिद्रापुर का कोपेश्वर मंदिर जो देवी सती के अग्निदाह के क्षण को समर्पित है।

ज्वरहरेश्वर मंदिर

पांडवदूत मंदिर के समीप स्थित यह मंदिर भी छोटा किन्तु अत्यंत सुन्दर है। इसकी गजपृष्ठाकार आकृति विशेष है। यह मंदिर शिव के ज्वर हरण करने वाले रूप को समर्पित है।

मथन्गेश्वर मंदिर

यह छोटा सा मंदिर वैकुंठ पेरूमल मंदिर के समीप है। यहाँ पल्लव शैली के सिन्हमुख युक्त स्तम्भ हैं जिन पर क्षरण के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे हैं।

श्री कौशिकेश्वर मंदिर

कांची कामाक्षी मंदिर के समीप स्थित यह मंदिर उनके सन्निधी मंदिरों में से एक है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित ६ पंथों को यह मंदिर समर्पित है। इसे कांचीपुरम का प्राचीनतम शिला मंदिर भी माना जाता है। यह एक अत्यंत छोटा मंदिर होते हुए भी स्वयं में सम्पूर्ण मंदिर है।

इरावतनेश्वर एवं पिरावतनेश्वर मंदिर

इरावतनेश्वर मंदिर - शिव कांची
इरावतनेश्वर मंदिर – शिव कांची

ये दोनों मंदिर एक दूसरे के समक्ष स्थित, न्यूनतम संभव मंदिर हैं। यद्यपि वर्त्तमान में इनके मध्य से एक सड़क जाती है। जिस समय मैं यहाँ पहुँची थी, ये दोनों मंदिर बंद थे। इन्हें देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे दोनों मंदिर सदैव बंद रहते हैं। पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि इन्हें केवल जन्म एवं मृत्यु संबंधी अनुष्ठानों हेतु ही खोला जाता है।

यम मंदिर

यह एक छोटा सा शिव मंदिर है जो एम् एम् होटल के समीप स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है कि समय के साथ इस मंदिर का नाम अपभ्रंशित होकर यम मंदिर पड़ गया है। ये छोटे मंदिर उन छोटे समुदायों को समर्पित हैं जो किसी समय इस मंदिर नगरी में अस्तित्व में थे।

ऐरावतेश्वर मंदिर

ऐरावातेश्वर मंदिर में दुर्गा
ऐरावातेश्वर मंदिर में दुर्गा

श्री कच्छपेश्वर मंदिर के समीप स्थित यह एक छोटा मंदिर है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, इस मंदिर का निर्माण संभवतः इंद्र ने किया था।

अरुल्मिगु श्री विलकोली पेरूमल मंदिर

विलाकोली मंदिर का जलकुंड
विलाकोली मंदिर का जलकुंड

यह अपेक्षाकृत विशाल मंदिर है। विष्णु को समर्पित इस मंदिर का जलकुंड विचित्र आकृति का है।

श्री मुक्तीश्वर मंदिर

गाँधी मार्ग पर स्थित यह अपेक्षाकृत बड़ा मंदिर एक शिव मंदिर है। इस मंदिर की विशेषता है एक भक्त, थोंडा नयनार की शिवलिंग को प्रणाम करते हुए एक प्रतिमा। इसके परिसर में कई अन्य छोटे-बड़े मंदिर भी हैं।

सर्व तीर्थम् कुलम्

सर्व तीर्थम कुलम - कांचीपुरम
सर्व तीर्थम कुलम – कांचीपुरम

यह एक विशाल चौकोर जलकुंड है। इसके भीतर जाती सीड़ियों पर लाल एवं श्वेत पट्टियां रंगी हुई हैं। इसके चारों ओर कई छोटे मंदिर हैं, जैसे सीतेश्वर मंदिर, मल्लिकारुजेश्वर मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर तथा हनुमंतेश्वर मंदिर इत्यादि। मंदिर का जलकुंड दूर से अत्यंत सुन्दर प्रतीत होता है। दुर्भाग्य से पास से देखने पर समझ आया कि इसका रखरखाव ठीक प्रकार से नहीं किया गया है। इसके चारों ओर कूड़ा-कर्कट एवं मैला पसरा हुआ है।

आशा है कि सम्बंधित विभाग इस स्थल को शीघ्र ही स्वच्छ करेगा। यह स्थानीय निवासियों के साथ साथ पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के लिए एक सुन्दर आमोद स्थल सिद्ध हो सकता है।

विष्णु कांची के अन्य मंदिर

पुण्यकोटेश्वर कोइल – एक छोटा शिव मंदिर जिसके गर्भगृह के चारों ओर संकरी खंदक है। यह मंदिर विष्णु कांची में वरदराज पेरूमल मंदिर के समीप स्थित है।

व्यासेश्वर एवं वसिष्टेश्वर मंदिर – विष्णु कांची की गलियों में, एक दूसरे के समीप स्थित ये दोनों मंदिर दो ऋषियों, व्यास एवं वसिष्ट को समर्पित हैं। इनके जलकुंड अब सूख चुके हैं।

अष्टभुजा पेरूमल मंदिर – विष्णु कांची का यह दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिर है। मुख्य मार्ग पर स्थित इस मंदिर के अधिष्टात्र देव पेरूमल अर्थात् विष्णु की आठ भुजाएं हैं। इसी कारण इस मंदिर का नाम अष्टभुजा पेरूमल मंदिर पड़ा।

यथोर्तकारी पेरूमल मंदिर – अष्टभुजा पेरूमल मंदिर के समीप स्थित यह एक प्राचीन मंदिर है। जब मैं इसके दर्शनार्थ यहाँ आयी थी, उस समय इस मंदिर के नवीनीकरण का कार्य प्रगती पर था।

कांचीपुरम में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत आते मंदिरों की सम्पूर्ण सूची यहाँ देखें।

कांची कामकोटी मठ

कांची आदि शंकराचार्य की बैठक है। कांची कामकोटी मठ कांचीपुरम के हृदयस्थली में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने अपने अंतिम क्षण कांची में व्यतीत किये थे। यह उनके द्वारा स्थापित पांचवां मठ है। इससे पूर्व उन्होंने बद्री, पुरी, द्वारका एवं श्रृंगेरी में मठों की स्थापना की थी। कामाक्षी मंदिर परिसर में आप उनकी समाधि भी देख सकते हैं।
कांची मठ की भित्तियों पर आप आदि शंकराचार्य एवं कांची मठ के शंकराचार्यों की वंशावली के विषय में पढ़ सकते हैं। सम्पूर्ण भारत में उनके द्वारा किये गए परोपकारी कार्यों के विषय में भी आप यहाँ से जान सकते हैं।

कांची कामकोटि मठ में संगीत कचेरी
कांची कामकोटि मठ में संगीत कचेरी

कांचीपुरम का कांची मठ आध्यात्मिक जीवन का केंद्र है। लोग दूर दूर से तात्कालीन शंकराचार्यजी से भेंट करने यहाँ आते हैं। उनकी एक झलक पाने के लिए अथवा उन्हें आरती करते देखने के लिए लोग घंटों प्रतीक्षा करते हैं। उनमें से कुछ को शंकराचार्यजी से चर्चा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हो जाता है। मैं भी उनमें से एक थी।

सादा पौष्टिक प्रसाद
सादा पौष्टिक प्रसाद

कांची मठ से मैं उनका आशीर्वाद प्राप्त कर एवं पढ़ने के लिए कांचीपुरम पर प्रकाशित अनेक पुस्तकें ले कर वापिस लौटी।
कांचीपुरम यात्रा बिना कांची मठ दर्शन के अपूर्ण है। यद्यपि कांचीपुरम में विभिन्न युग के मंदिर हैं, तथापि कांची मठ उसकी जीवंत आत्मा है। मुझे बताया गया कि यहाँ नियमित रूप से कचेरी अर्थात् संगीत कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। आप शान्ति से बैठकर इसका आनंद उठा सकते हैं। यह कांचीपुरम का उत्तम दर्शनीय स्थल है।

श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती विश्व महाविद्यालय

श्रीयन्त्र की संरचना में पुस्तकालय
श्रीयन्त्र की संरचना में पुस्तकालय

यह विश्वविद्यालय कांचीपुरम नगरी से किंचित दूर स्थित है। मैं यहाँ एक विशेष उद्देश्य से आयी थी। मुझे यहाँ की अंतरराष्ट्रीय पुस्तकालय देखने की इच्छा थी। यहां कई भारतीय शास्त्रों का अद्भुत संग्रह है। साथ ही मैं एक प्राध्यापक से भी भेंट करना चाहती थी जिन्होंने मुझे कांचीपुरम के पवित्र भूभाग की विस्तृत जानकारी दी। श्री चक्र के आकार में निर्मित इस पुस्तकालय की इमारत ने मुझे स्तब्ध कर दिया।

कई वर्षों पश्चात एक बार फिर मैंने छात्र कैंटीन में भोजन किया। वहां छात्रों से वार्तालाप में मुझे बड़ा आनंद आया।

कांचीपुरम के जैन मंदिर

यहाँ थिरुप्परुथीकुन्द्रम में दो प्रमुख जैन मंदिर हैं जो एक दूसरे के समीप स्थापित हैं। ये हैं त्रिलोक्यनाथ मंदिर एवं चंद्रप्रभा मंदिर।

त्रिलोक्यानाथ जैन मंदिर - कांचीपुरम
त्रिलोक्यानाथ जैन मंदिर – कांचीपुरम

त्रिलोक्यनाथ मंदिर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत आता है। किन्तु मंदिर की चाबियाँ एक वृद्ध स्त्री के पास रहती हैं। इन्ही की इच्छानुसार मंदिर खुलता एवं बंद होता था। जब मैं यहाँ आयी थी, सौभाग्य से मंदिर खुला था तथा मुझे यहाँ कुछ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने उनसे दुबारा मंदिर खोलने की कई मिन्नतें की किन्तु सब व्यर्थ हुआ।

पल्लवों के युग का यह मंदिर ठेठ द्रविड़ वास्तुशैली में ९ वी. सदी के आरम्भ में निर्मित किया गया है। कालान्तर में १४ वी. सदी में इसमें मंडप जोड़ा गया था। १७ वीं सदी में इस पर विभिन्न चित्रकारी की गयी। जैन धर्म के २४ वें. तीर्थंकर महावीर यहाँ के प्रमुख देव हैं। बाकी के मंदिरों में जैन धर्म के अन्य तीर्थंकर स्थापित हैं।

जैन मंडल
जैन मंडल

इस मंदिर में इतने मनमोहक जैन भित्तीचित्र हैं जितने इससे पूर्व आपने कभी नहीं देखे होंगे। सौभाग्य से इनका रख रखाव उत्तम है। मंदिर के मंडप को आधार देते कई रंगबिरंगे स्तम्भ हैं। इसकी छत पर ब्रम्हांड को प्रदर्शित करते अप्रतिम मंडल चित्रित हैं। ज्यामितीय आकृतियाँ अत्यंत रोचक हैं। तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों को जैन दर्शन की बारीकियां समझाने के लिए किसी जानकार की अनुपस्थिति मुझे बहुत खली। मुझे ये तथ्य भलीभांति ज्ञात है कि भारत के मंदिरों की शिल्पकारी एवं चित्रकारी केवल उनके लिए ही है जो इन्हें समझते हैं तथा इनके विषय में जानते हैं। सहसा यहाँ पहुंचे किसी यात्री के लिए इन्हें समझना आसान नहीं है।

जैन मंदिर के भित्तिचित्र
जैन मंदिर के भित्तिचित्र

अवश्य पढ़ें: कर्नाटक के मूदाबिद्री में जैन काशी

कितने यात्री इस मंदिर के दर्शन करते हैं यह मुझे ज्ञात नहीं। मेरे लिए इस मंदिर के अप्रतिम भित्तिचित्र अवश्य दर्शन योग्य हैं।

बुद्ध की प्रतिमा

कांचीपुरम में प्राचीन बुद्ध प्रतिमा
कांचीपुरम में प्राचीन बुद्ध प्रतिमा

यूँ तो चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने संस्मरण में कांचीपुरम को कई बौध मठों से युक्त दर्शाया था, किन्तु वर्त्तमान में वे यहाँ दिखाई नहीं देते। सिवाय बुद्ध की एक सुन्दर प्रतिमा के, जिसे कुछ वर्षों पूर्व ही खोजा गया है। अब यह प्रतिमा कांची कामाक्षी मंदिर के समीप स्थित एक विद्यालय के प्रांगण में स्थापित है।

रोचक तथ्य यह है कि इस प्रतिमा को खोजते हुए मैंने एक घंटे से अधिक समय नगर के सड़कों की धूल छानी।

कांचीपुरम के समीप स्थित दर्शनीय स्थल – मंदिर

आयंगारकुलम का संजीवी राया आंजनेय मंदिर

यह एक विशाल हनुमान मंदिर है जो किसी समय यहाँ उपस्थित एक विशाल जलकुंड के तट पर स्थित है। एक भव्य एवं विशाल मंडप से युक्त यह मंदिर अत्यंत मनमोहक है। किवदंतियों के अनुसार जब हनुमान हिमालय से संजीवनी बूटी सहित पहाड़ उठाकर श्री लंका ले जा रहे थे तब उनकी उँगलियों के बीच से पहाड़ का एक भाग टूटकर यहाँ गिर गया था। इसीलिए इसका नाम संजीवी राया पड़ा।

संजिविराया आंजनेय मंदिर
संजिविराया आंजनेय मंदिर

मैंने कांचीपुरम में जितने भी मंदिर देखे, यह उनमें से सर्वाधिक शांत मंदिर था। भक्तगण अधिक नहीं होने के बाद भी मुझे यह मंदिर अत्यंत जीवंत प्रतीत हुआ। मंदिर के जलकुंड के समीप एक खुले रंगमंच सी सुन्दर संरचना है। कदाचित किसी समय इस स्थल का प्रयोग त्यौहारों एवं उत्सवों के लिए किया गया होगा।

प्रत्येक वर्ष, चैत्र पूर्णिमा के दिवस, वरदराज पेरूमल इस मंदिर में आते हैं तथा नाता भावी बावड़ी में स्नान करते हैं। समीप स्थित एक मंच पर उनकी उत्सव मूर्ति विराजमान होती है।

कांचीपुरम की यात्रा के समय इसके दर्शन करना ना भूलें।

नटभावी पुष्करणी

नटभावी पुष्करणी
नटभावी पुष्करणी

संजीवी राया मंदिर से कुछ ही दूरी पर शिलाओं द्वारा निर्मित एक सुन्दर बावड़ी है। इसके द्वार के तोरण पर गजलक्ष्मी विराजमान हैं।

संकरी और दीघ नटभावी पुष्करणी
संकरी और दीघ नटभावी पुष्करणी

धूसर रंग की शिलाओं से निर्मित यह लम्बी एवं संकरी बावड़ी गुजरात एवं राजस्थान में स्थित बावड़ियों की बहिन प्रतीत होती है। निचले तलों पर कई मंडप हैं। किसी समय इनका प्रयोग ग्रीष्म ऋतू की ऊष्मता से बचने के लिए किया जाता रहा होगा। वर्त्तमान में वहां पहुँचने के सभी मार्ग बंद कर दिए गए हैं।

कांची कुदिल

कांची कुदिल
कांची कुदिल

कैलाशनाथ मंदिर के समीप एक प्राचीन कांची निवास है जिसे अब संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है। यहाँ कांची संस्कृति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। लाल ऑक्साइड की धरती पर सुन्दर रंगोली, नवरात्रि के उपलक्ष्य में प्रदर्शित की जाने वाली गोलू गुड़ियाँ, प्राचीन काल के बर्तन, लकड़ी की घरेलू साजसज्जा तथा एक मनमोहक झूला उनमें से कुछ हैं।

मुझे लाल धरती पर श्वेत पदार्थ से बनी कोलम अर्थात् रंगोलियाँ अत्यंत ही भा गयी। वे मानो कोलम का संग्रह हों।

पूर्व सूचना देकर आप यहाँ का स्थानीय स्वादिष्ट खाना भी खा सकते हैं।

सरकारी संग्रहालय

काष्ठ प्रतिमा - सरकारी संग्रहालय में
काष्ठ प्रतिमा – सरकारी संग्रहालय में

यह एक छोटा सा संग्रहालय है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे इसमें निर्माण के पश्चात कोई सुधार ही नहीं किया गया है। यहाँ आप लकड़ी द्वारा निर्मित कुछ कलाकृतियाँ देख सकते हैं। यह एक सर्वसामान्य संग्रहालय है। यदि आप इसे ना देखें तो कुछ नुक्सान नहीं होगा।

कांचीपुरम में क्या खाएं?

कांचीपुरम इडली
कांचीपुरम इडली

कांचीपुरम में आपको प्रत्येक संभव तमिल पकवान उपलब्ध होगा। नगर में कई सर्वन्ना भवन हैं जहां आप आँख मूँद कर जा सकते हैं तथा विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजनों का आस्वाद ले सकते हैं। अन्य प्रसिद्ध जलपानगृह हैं शक्ति गणपति तथा श्री राम कैफ़े।

सेवई इडली
सेवई इडली

मेरा सुझाव है कि आप एक भोजन कांची मठ में भी करें। यह एक वरदान स्वरूप है।

व्यंजनों में इन दो व्यंजनों का आस्वाद आप अवश्य लें:

कांचीपुरम इडली – यह सामान्य इडली का किंचित सूखा एवं कड़ा रूप है जिसमें कई दालें डाली जाती हैं। इसके स्वाद से अभ्यस्त होने में कुछ समय अवश्य लगता है। किन्तु कांचीपुरम नगर आकर कांची इडली ना खाएं यह संभव नहीं।

सेवईं इडली – यह इडली सेवईं से बनायी जाती है। संध्या के समय यह छोटी दुकानों में उपलब्ध होती हैं।

कांचीपुरम कैसे पहुंचे?

मनभावन कोलम
मनभावन कोलम

• कांचीपुरम रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा सभी अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है। यह चेन्नई से लगभग ७५ की.मी. की दूरी पर स्थित है जो निकटतम विमानतल भी है। मैं चेन्नई से ओला टैक्सी लेकर यहाँ पहुँची थी।
• कांचीपुरम में रहने के लिए जीआरटी रीजेंसी सर्वोपयुक्त अथितिगृह है। आशा है शीघ्र ही सुख-सुविशाओं से लैस नवीन अतिथिगृहों का भी निर्माण हो जायेगा।
• अधिकतर पर्यटक चेन्नई में ठहरकर एक दिवसीय यात्रा के रूप में कांची का भ्रमण करते हैं। मेरा सुझाव है कि कांची को सही प्रकार से जानने के लिए २ से ३ दिवसों का समय अवश्य दीजिये।
• नगर में भ्रमण करने के लिए ऑटोरिक्शा उपयुक्त एवं उपलब्ध है।
• गूगल नक़्शे के अनुसार यहाँ पैदल भ्रमण आसान प्रतीत होता है। किन्तु वास्तव में यह इतना आसान नहीं है। यह स्थान अत्यंत गर्म तथा उमस भरा है। पैदल चलने के लिए उपयुक्त पगडंडियाँ भी नहीं हैं।

कांचीपुरम भ्रमण के अपने अनुभव हमसे बांटना ना भूलें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कांचीपुरम का वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर- पल्लव काल की उत्कृष्ट कृति https://inditales.com/hindi/vaikunth-perumal-mandir-kanchipuram/ https://inditales.com/hindi/vaikunth-perumal-mandir-kanchipuram/#comments Wed, 20 Nov 2019 02:30:24 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1580

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर, शिव कांची का सर्वाधिक विशिष्ठ विष्णु मंदिर! कैलाशनाथ मंदिर की भान्ति यह मंदिर भी इतिहास, कला तथा मंदिर-वास्तुकला में रूचि रखने वाले विद्वानों एवं विद्यार्थियों में अत्यंत लोकप्रिय है। मैंने भी अपनी कांचीपुरम यात्रा से पूर्व इस मंदिर के विषय में एक सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ डाली थी। पुस्तक में मंदिर की जानकारी […]

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वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर, शिव कांची का सर्वाधिक विशिष्ठ विष्णु मंदिर! कैलाशनाथ मंदिर की भान्ति यह मंदिर भी इतिहास, कला तथा मंदिर-वास्तुकला में रूचि रखने वाले विद्वानों एवं विद्यार्थियों में अत्यंत लोकप्रिय है। मैंने भी अपनी कांचीपुरम यात्रा से पूर्व इस मंदिर के विषय में एक सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ डाली थी।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर - कांचीपुरम
वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर – कांचीपुरम

पुस्तक में मंदिर की जानकारी इतनी विस्तृत है कि मैंने एक विशाल मंदिर की कल्पना कर ली थी। जो भित्तियाँ इतनी कथाएं कहती हैं, वह अवश्य ही अत्यंत लंबी-चौड़ी होंगी। वहां पहुँच कर मुझे आभास हुआ कि यह मेरी कल्पना से अपेक्षाकृत छोटा मंदिर है। मंदिर परिसर विशाल है किन्तु मंदिर छोटा, सुगठित व तेजस्वी है। विपुलता से उत्कीर्णित भित्तियों के समक्ष स्थित सिंह की आकृतियों के स्तंभ मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो ये सिंह वास्तव में देवों एवं राजाओं की इन कथाओं का रक्षण कर रहे हों।

विष्णु की कथाएं और सिंह स्तम्भ - वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर
विष्णु की कथाएं और सिंह स्तम्भ

प्रातः ही मैं मंदिर के दर्शन के लिए चल पड़ी। एक ओर मंदिर का जलकुंड था जो अब सूख गया था। उसमें घास उग आयी थी। तत्पश्चात सामने एक छोटा गोपुरम दृष्टिगोचर हुआ। कांचीपुरम के अन्य मंदिरों की तुलना में इसके गोपुरम का शिखर अपेक्षाकृत छोटा था। प्रवेश स्थल पर नीले रंग के कई प्रवेश द्वार थे। मंडपम को पार कर मैं मंदिर पहुँची। जैसे ही मंदिर को देखा, मेरे श्वास एक क्षण को रुक गये। यूँ तो इस मंदिर के कई चित्र मैंने पुस्तकों में देखे थे, किन्तु प्रत्यक्ष इसकी अद्भुत सुन्दरता देख मेरी आँखे फटी की फटी रह गयीं।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर की सर्वोत्कृष्ट वास्तुकला

इस मंदिर की संरचना में वास्तुशास्त्र के कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो इसे अत्यंत असाधारण एवं न्यारा बनाते हैं।

इस मंदिर की वास्तुकला के कुछ विशेष तत्व आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ:

३ तलों का गर्भगृह

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर के भीतर, तीन तलों में तीन गर्भगृह हैं। जी हाँ! आपने सही पढ़ा! अधिकतर मंदिरों में स्थित एकल गर्भगृह के विपरीत इस मंदिर में एक के ऊपर एक तीन गर्भगृह हैं। तीनों गर्भगृहों में विष्णु की प्रतिमाओं की मुद्राएँ एवं भाव-भंगिमाएं भिन्न हैं।

भूतल

विष्णु प्रतिमा - वैकुण्ठनाथ
विष्णु प्रतिमा – वैकुण्ठनाथ

भूतल पर स्थित गर्भगृह के भीतर विष्णु आसीन स्थिति में विराजमान हैं अर्थात् आसन पर बैठे हैं। विष्णु की प्रतिमा का विशाल आकार हमें लगभग पूर्णतः अभिभूत कर देता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान् विष्णु इस पीठासीन मुद्रा में राजा को सलाह देते आचार्य के रूप में उपस्थित हैं। मूर्ति के समक्ष एक छोटा मंडप है जिसे सिंहों पर खड़े स्तंभ आधार देते हैं।

प्रथम तल

विष्णु नरसिंह अवतार में
विष्णु नरसिंह अवतार में

प्रथम तल पर स्थापित विष्णु, क्षीरसागर पर निद्रामग्न, शेषशायी विष्णु के रूप में विराजमान हैं। यह गर्भगृह अपेक्षाकृत छोटा है तथा इसकी भित्तियाँ भी सादी हैं। इस मुद्रा में राजा भगवान् विष्णु की ऐसे सेवा कर रहे हैं जैसे एक शिष्य अपने गुरु की सेवा करता है।

विष्णु त्रिविक्रम अवतार में
विष्णु त्रिविक्रम अवतार में

इस मध्यम तल पर पहुँचने के लिए आपको मंदिर के चारों ओर चढ़ती सीड़ियों की सहायता लेनी पड़ती है। यहाँ एक समस्या है। यह तल केवल एकादशी के दिन ही खोला जाता है। अर्थात् हिन्दू पञ्चांग के अनुसार प्रत्येक पक्ष के ग्यारहवें दिन इस तल के भीतर प्रवेश पाया जा सकता है। मैं यहाँ द्वादशी के दिन उपस्थित थी। मुझे मध्यम तल में प्रवेश पाने की तीव्र इच्छा थी। मैंने पुजारीजी से मिन्नतें की, उनसे द्वार खोलने का अनुरोध किया। चूंकि द्वार खोलने की अनुमति नहीं थी, पहले तो उन्होंने मुझसे ३ घंटे प्रतीक्षा करवाई। तत्पश्चात क्षण भर के लिए ही उन्होंने दूसरे तल के पट खोले, वह भी मुझसे वचन लेने के पश्चात कि मैं कोई छायाचित्र नहीं लूंगी। पलक झपकते ही उन्होंने द्वार बंद भी कर दिया।

द्वितीय तल

विष्णु का वराह अवतार
विष्णु का वराह अवतार

दूसरे तल पर किसी समय भगवान् विष्णु की खड़ी प्रतिमा स्थापित थी। कुछ का मानना है कि प्रतिमा भगवान् कृष्ण की थी। तथ्य सत्यापित करने का कोई मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रतिमा की चोरी हो चुकी है। अब वह कहाँ है, यह किसी को भी ज्ञात नहीं है। अतः यह तल अब निषिद्ध है। इसके भीतर पहुँचना संभव नहीं है। विष्णु की खड़ी प्रतिमा की पृष्ठभागीय मान्यता है कि इस मुद्रा में भगवान् विष्णु ने राजा को १८ विभिन्न कला क्षेत्रों में शिक्षा प्रदान की थी।

विष्णु की कथाएं भित्तियों पर
विष्णु की कथाएं भित्तियों पर

मंदिर के तीन तलों की संरचना ऐसी है कि इसके प्रत्येक तल पर पहुंचते हुए आप वास्तव में मंदिर की एक परिक्रमा करते हैं। अनोखा तथ्य यह है कि सीड़ियाँ मंदिर परिसर के किसी भी भाग से दृष्टिगोचर नहीं है।

३ तल, विष्णु की ३ भिन्न मुद्राओं में ३ मूर्तियाँ – आसीन, शेषशायी व खड़ी मुद्रा। यदि इस क्रम का कुछ महत्व हो तो इसके विषय में मैं अनभिज्ञ हूँ। किन्तु इसकी वास्तु एवं संरचना मुझे अत्यंत अद्वितीय व अनूठी प्रतीत हुई।

भूतल पर स्थित गर्भगृह के पृष्ठभाग से जाती सीड़ियाँ आसीन विष्णु की एक विशाल प्रतिमा के समक्ष खुलती हैं। मेरे अनुमान से यह इस मंदिर परिसर की सर्वाधिक रखरखाव युक्त सर्वोत्कृष्ट प्रतिमा है।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर के चारों ओर निर्मित खंदक

गर्भ गृह के गिर्द खंदक
गर्भ गृह के गिर्द खंदक

मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही गलियारा है जो मंदिर के चारों ओर स्थित है। मध्य में एक चबूतरे पर गर्भगृह स्थित है। गर्भगृह के चबूतरे की भू-सतह गलियारे की भू-सतह से नीची है। गलियारा एवं गर्भगृह के मध्य एक खंदक है जो गर्भगृह के चारों ओर स्थित है।

आप अवश्य कल्पना कर रहे होंगे कि वर्षा ऋतु में यह मंदिर अद्वितीय प्रतीत होता होगा। मैंने जब यहाँ के दर्शन किये थे, वर्षा ऋतु नहीं थी। किन्तु मेरे मानसपटल में दारासुरम के ऐरावतेश्वर मंदिर की स्मृति अब भी ताजा थी। उस समय ऐरावतेश्वर मंदिर में जल भरा हुआ था। जल सतह पर मंदिर का प्रतिबिम्ब अत्यंत मनोहारी दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। यद्यपि, इस मंदिर के भीतर, सीमित स्थान के कारण मंदिर का पूर्ण प्रतिबिम्ब जल सतह पर देख पाना संभव नहीं है।

मंदिर के परिसर एवं गर्भगृह के मध्य निर्मित यह खंदक अत्यंत ही अनूठा है। इससे पूर्व मैंने ऐसी संरचना कहीं नहीं देखी थी। गर्भगृह के चारों ओर खंदक निर्मिती का क्या प्रयोजन हो सकता है, यह मैं अब तक ज्ञात नहीं कर पायी हूँ।

कथाएं कहती भित्तियाँ

कथा कहती भित्तियां - वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर
कथा कहती भित्तियां – वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर

गर्भगृह के चारों ओर स्थित गलियारे की भित्तियाँ कथाओं से परिपूर्ण हैं। यूँ तो भारत के अधिकतर मंदिरों के चारों ओर उत्कीर्णित भित्तियाँ हैं। तो इस मंदिर में क्या विशेष है? आईये आपको इससे अवगत कराती हूँ। बाईं ओर स्थित भित्तियों पर विष्णु की कथाएं उत्कीर्णित हैं जो इस मंदिर के पीठासीन देव हैं। वहीं दूसरी ओर की भित्तियों पर इस मंदिर के निर्माता, राजा नन्दिवर्मन की समकालीन कथाएं प्रदर्शित हैं।

विष्णु और पल्लव वंश की कथाएं
विष्णु और पल्लव वंश की कथाएं

भगवान् विष्णु एवं राजा नन्दिवर्मन के मध्य तुलनात्मक समानता ही इन मूर्तियों को अनोखा एवं विशेष बनाती है।

मंदिरों की प्रतिमुर्तियाँ
मंदिरों की प्रतिमुर्तियाँ

२४ उत्कीर्णित फलकों पर कृष्ण कथाएं प्रदर्शित हैं। भित्तियों पर गंगा एवं यमुना भी उत्कीर्णित हैं। भित्तियों पर देवालय वास्तुकला का समागम, स्वर्णिम काल में दूर-सुदूर से आये व्यापारियों का कांचीपुरम से व्यापार संबंध इत्यादि की रोचक पूर्ण कथाएं भी प्रदर्शित हैं।

चीनी व्यवसायी - वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर की भित्तियों पर
चीनी व्यवसायी – वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर की भित्तियों पर

सभी शिल्पों की स्थिति उत्तम नहीं है। यद्यपि इन शिल्पों के साथ किसी ने बर्बरता का व्यवहार नहीं किया है, तथापि समय के साथ इन पत्थरों का क्षरण हो रहा है। आशा है कि इन पत्थरों एवं शिल्पकारियों के क्षरण को रोकने के लिए समय रहते ठोस प्रयास किये जाएँगे।

पल्लव-काल के सिंह स्तंभ

शंकु के आकार के ये स्तंभ, जिनके आधार आसीन सिंहों के समान उत्कीर्णित हैं, तमिल नाडू के पल्लव वास्तु कला का जीवंत उदाहरण है। आप ऐसी वास्तुशिल्प कांचीपुरम में सर्वत्र देख सकते हैं। स्पष्टतः कांचीपुरम लंबे समय तक पल्लवों की राजधानी रही है।

पल्लव वंश के चिन्ह - सिंह स्तम्भ
पल्लव वंश के चिन्ह – सिंह स्तम्भ

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर में ये स्तंभ स्पष्ट सुव्यवस्थित पंक्तियों में स्थित हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में भी लिखा है, ये सिंह फलकों पर उत्कीर्णित कथाओं का रक्षण करते प्रतीत होते हैं। सामने से यह दृश्य अत्यंत मनमोहक व चित्ताकर्षक है। चूंकि इस मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ नहीं रहती, आप बिना किसी अड़चन के यह दृश्य अनवरत देख सकते हैं।

काले पत्थर के स्तम्भ - विजयनगर काल के
काले पत्थर के स्तम्भ – विजयनगर काल के

आप इन स्तंभों पर रंगों की विविधता स्पष्ट देख सकते हैं। हकले रंग के बलुआ पत्थर से गहरे रंग के ग्रेनाइट तक रंगों की विविधता देख सकते हैं। इन स्तंभों में रंग एवं मूल तत्व के साथ नक्काशी की रीत भी भिन्न है। इसका कारण है, विजयनगर साम्राज्य द्वारा इन स्तंभों का समय समय पर पुनरुद्धार किया जाना। आप जानते ही हैं कि कांचीपुरम पर एक समय विजयनगर साम्राज्य ने शासन किया था। इन्हें देख आप मंदिर के पुनरुद्धार के इतिहास का तथा पुनरुद्धार कार्य में प्रत्येक वंश के योगदान का अनुमान लगा सकते हैं।

१०८ दिव्य देसम मंदिर

१०८ दिव्य देसम वास्तव में १०८ विष्णु मंदिरों का समूह है। वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर इस १०८ दिव्य देसम में से एक मंदिर है। विष्णु भक्त अपने जीवनकाल में प्रायः इन सभी १०८ मंदिरों के दर्शन करते हैं। इन १०८ मंदिरों में से १४ मंदिर कांचीपुरम में ही स्थित हैं।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर का इतिहास

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर का गोपुर
वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर का गोपुर

कैलाशनाथ मंदिर के पश्चात वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर कांचीपुरम का दूसरा प्राचीनतम मंदिर है। इसका निर्माण पल्लव राजा नन्दिवर्मन द्वितीय ने ७वी. शताब्दी के अंत में अथवा ८वी. शब्दी के आरम्भ में करवाया था। तत्पश्चात इसकी देखरेख वहां राज्य करते चोल वंशी एवम विजयनगर राजाओं ने की थी। यह तथ्य इस मंदिर को द्रविड़ वास्तुकला में संरचित सर्वाधिक प्राचीन पाषाणी मंदिरों में से एक बनाता है। इस मंदिर ने अवश्य आगामी मंदिरों के निर्माण को प्रभावित किया होगा।

नन्दिवर्मन द्वितीय के शासनकाल में इस मंदिर को सम्राट के मूल नाम पर परमेश्वर विष्णुगृहम कहा जाता था। तत्पश्चात इसका नाम वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर हो गया। तमिल भाषी नगरों में विष्णु को पेरूमल कहा जाता है।

यहाँ भगवान् विष्णु को वैकुंठनाथन के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ भगवान् विष्णु अपनी पत्नी वैकुण्ठवल्ली के साथ निवास करते हैं।

मंदिर के जलकुंड को ऐरम्मद तीर्थं कहा जाता है।

मंदिर से जुडी किवदंतियां

मंदिर को मन भर कर निहारने के पश्चात एक विचार मन में कौंधा कि कांचीपुरम में विशाल विष्णु कांची होने के बाद भी यह विष्णु मंदिर शिव कांची में क्यों निर्मित किया गया। इसके पृष्ठ भाग में एक किवदंती है।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर की भित्तोयों पर विष्णु प्रतिमाएं
मंदिर की भित्तोयों पर विष्णु प्रतिमाएं

इस कथा के अनुसार यहाँ का शासक राजा विरोच निःसंतान था। संतान प्राप्ति के लिए उसने भगवान् शिव की आराधना की थी। भगवान् शिव ने राजा को वरदान दिया कि भगवान् विष्णु के द्वारपाल उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। समय आने पर राजा को दो पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। दोनों पुत्र बड़े होकर भगवान् विष्णु के परम भक्त बने। तभी से भगवान् विष्णु भी यहाँ वैकुण्ठनाथ के रूप में विराजे। आप जानते ही हैं कि विष्णु के धाम को वैकुण्ठ कहा जाता है।

मेरे विचार से यह दंतकथा हिन्दू धर्म के दो पंथों, शैव एवं वैष्णव पंथ को साथ लाती है ताकि इन दो पंथों के अनुगामी एक दूसरे का सम्मान कर सकें तथा शान्ति से साथ रह सकें।

वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर के उत्सव

हिन्दू पञ्चांग के अनुसार प्रत्येक एकादशी के दिन, जिसका सम्बन्ध भगवान् विष्णु से है, वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। राम नवमी एवं जन्माष्टमी के साथ साथ वैकुण्ठ एकादशी भी यहाँ का एक प्रमुख उत्सव है।

डी डेनिस हडसन द्वारा वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर पर लिखी पुस्तक के अनुसार, मंदिर के मध्य तल पर स्थापित विष्णु मूर्ति उनके १२ भिन्न रूपों में पूजी जाती है। वे १२ रूप इस प्रकार हैं:

१. केशव
२. नारायण
३. माधव
४. गोविन्द
५. विष्णु
६. मधुसुदन
७. त्रिविक्रम
८. वामन
९. श्रीधर
१०. ऋषिकेश
११. पद्मनाभ
१२. दामोदर

विष्णु के ये १२ रूपों में से प्रत्येक रूप की, हिन्दू पंचांग के एक मास तक आराधना की जाती है। इसका आरम्भ अंग्रेजी कैलेंडर की १०वीं. तिथि से होता है।

विष्णु कांची के वरदराज पेरूमल मंदिर से विपरीत, इस मंदिर के दर्शन के लिए कुछ ही भक्त आते हैं। एक ओर कम लोगों की उपस्थिति हमें मंदिर की सूक्ष्मता को निहारने का भरपूर अवसर प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर, भक्तों द्वारा की जाती पूजा अर्चना से प्राप्त उर्जा एवं कोलाहल की अनुपस्थिति खलती भी है।

यात्रा सुझाव

  • वरदराज पेरूमल मंदिर कांचीपुरम में, प्रसिद्ध कांची कामाक्षी मंदिर के समीप स्थित है।
  • यह मंदिर प्रातः ७:३० बजे से दोपहर १२ बजे तक, तत्पश्चात सायं ४:३० बजे से ७:३०बजे तक खुला रहता है।
  • मंदिर में प्रतिदिन ६ पूजा अर्चना की जाती है।
  • वर्तमान में यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के आधीन है। यहाँ उनका एक पहरेदार उपलब्ध रहता है। मंदिर के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आप उनसे सहायता मांग सकते हैं।
  • गर्भगृह के सिवाय, अन्य सभी स्थानों में छायाचित्रिकरण की अनुमति है।
  • कांचीपुरम की प्रसिद्ध साड़ियों की दुकानों के विषय में यहाँ से जानिये।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कैलाशनाथ मंदिर – कांचीपुरम का प्राचीनतम शिव मंदिर https://inditales.com/hindi/kailasanathar-mandir-shiv-kanchi-kanchipuram/ https://inditales.com/hindi/kailasanathar-mandir-shiv-kanchi-kanchipuram/#respond Wed, 25 Sep 2019 02:30:10 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1517

कैलाशनाथ मंदिर, कांचीपुरम का तीसरा विशालतम मंदिर तथा प्राचीनतम शिव मंदिर। इससे पूर्व मैंने कांचीपुरम के दो सबसे बड़े मंदिरों के दर्शन किये थे, कांची कामाक्षी मंदिर एवं एकम्बरेश्वर मंदिर। इन दो मंदिरों में शक्ति की उर्जा ने मुझे ओतप्रोत कर दिया था। इसी उर्जा में मैं इस प्रकार भावविभोर हो गयी थी कि कब […]

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कैलाशनाथ मंदिर, कांचीपुरम का तीसरा विशालतम मंदिर तथा प्राचीनतम शिव मंदिर। इससे पूर्व मैंने कांचीपुरम के दो सबसे बड़े मंदिरों के दर्शन किये थे, कांची कामाक्षी मंदिर एवं एकम्बरेश्वर मंदिर। इन दो मंदिरों में शक्ति की उर्जा ने मुझे ओतप्रोत कर दिया था। इसी उर्जा में मैं इस प्रकार भावविभोर हो गयी थी कि कब मेरा ऑटो कैलाशनाथ मंदिर के समक्ष पहुँच कर रुक गया, मुझे आभास ही नहीं हुआ। मंदिर के समक्ष एक ठेलागाड़ी में रखी कांसे की पंक्तिबद्ध मूर्तियों ने मेरा स्वागत किया।

कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम

कैलाशनाथ मंदिर एक ऐसा मंदिर है जिसमें विद्वानों व शोध छात्रों की विशेष रुची रहती है। एक एक मूर्ति का गहन अध्ययन किया गया है तथा इन पर कई पुस्तकें भी लिखी गयी हैं। उन्होंने इस मंदिर का इतना महिमा मंडन किया है कि मैं इस मंदिर के दर्शन करने के लिए अत्यंत रोमांचित एवं उत्सुक हो रही थी। मंदिर को देखने के पश्चात यह मुझे अन्य दो मंदिरों की अपेक्षा किंचित छोटा प्रतीत हुआ। सितम्बर की उस सुबह मैं यहाँ इकलौती दर्शनार्थी थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सम्पूर्ण मंदिर मेरी ही प्रतीक्षारत है।

कैलाशनाथ मंदिर का प्रवेश द्वार
कैलाशनाथ मंदिर का प्रवेश द्वार

शब्दों को रोकते हुए कहूं तो यह अत्यंत ही लुभावना एवं रमणीय मंदिर है। शिल्पकारी के परिपूर्ण इसकी भित्तियों की सुन्दरता अचंभित कर देती है। निर्मल नीला आकाश इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है।

चिंतन गुफाएं या ध्यान मंदिर

कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर की चिंतन गुफाओं अथवा ध्यान मंदिरों के विषय में मैंने पढ़ा था तथा उनके चित्र भी देखे थे। किन्तु मैंने कल्पना नहीं की थी कि मंदिर के समक्ष ही ऐसी ८ गुफाएँ मुझे पंक्तिबद्ध दिखेंगी। वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानों मंदिर के समक्ष दीवार बन कर खड़ी हों। मुख्य मंदिर के समक्ष ये ८ गुफाएं वास्तव में ८ छोटे मंदिर हैं जिनके भीतर शिवलिंग स्थापित हैं।

प्रमुख मंदिर के समक्ष ८ छोटे मंदिर - कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
प्रमुख मंदिर के समक्ष ८ छोटे मंदिर

गोपुरम के नीचे स्थित प्रवेश द्वार, इन गुफा मंदिरों के बीच इस प्रकार स्थित है कि २ गुफा एक ओर तथा ६ गुफाएं दूसरी ओर हैं। इनकी वास्तुकला अद्वितीय है। आश्चर्य नहीं कि स्थापत्य-कला एवं ऐतिहासिक-कला क्षेत्र के विद्यार्थीयों के लिए यह विशेष रूचि का विषय रहा है। गोलाकार स्तंभ तथा इनके आधार, जो पौराणिक सिंह के आकार में हैं, पल्लव वंश की विशेष पहचान है।

चिंतन कक्ष - कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
चिंतन कक्ष – कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम

मंदिर के चारों ओर स्थित भित्त अर्थात् प्राकार में भी कई छोटी चिंतन गुफाएं हैं। यूँ कहा जा सकता है कि मुख्य मंदिर को चारों ओर से घेरे कई छोटे मंदिर हैं। ये इतनी छोटी हैं कि एक बार में केवल एक ही मनुष्य भीतर जा सकता है। आसपास देखने या घूमने का भी स्थान शेष नहीं रहता। चिंतन गुफाओं के सामने की भित्त पर शिल्पकारी एवं चित्रकारी की गयी है। शिल्पकारी भंगित नहीं हैं किन्तु चित्रकारी लगभग नष्ट होने की कगार पर है। इन्हें देख केवल कल्पना करनी पड़ती है कि ये वास्तव में कैसी रही होंगी। अधिकतर प्रतिमाएं शिव-पार्वती की हैं। बीच में कुछ प्रतिमाएं गणेश की भी हैं।

शिव पार्वती भित्ति चित्र
शिव पार्वती भित्ति चित्र

मुख्य मंदिर के चारों ओर लगभग ५० छोटी चिंतन गुफाएं हैं। हम सोच में पड़ जाते हैं कि अंततः इनका उपयोग क्या था? मुख्य मंदिर के साथ जब इन सब मंदिरों में भी पूजा अर्चना की जाती थी तब यहाँ कितना भव्य दृश्य रहा होगा!

मुख्य मंदिर

आरंभिक ८ छोटे मंदिरों को पार कर मैंने मुख्य मंदिर में प्रवेश किया। मैंने स्वयं को एक लकड़ी के नीले द्वार के समक्ष खड़े पाया जिसके दोनों ओर शिव की बड़ी प्रतिमाएं थीं। विशाल होने के साथ उनका श्वेत रंग भी उन्हें विशेष रूप प्रदान कर रहा था। वे दोनों प्रतिमाएं एक दूसरे के समक्ष खड़ी थीं किन्तु भिन्न दिशाओं की ओर देख रही थीं। उनके चरणों में पुनः पल्लव वंश के विशेष चिन्ह, सिंह उत्कीर्णित थे। ये वही सिंह हैं जिन्हें आप कांचीपुरम में हर ओर देख सकते हैं। मंदिर का शिखर यहाँ से दिखाई नहीं दे रहा था।

कैलाशनाथ मंदिर मुख्मंड़प
कैलाशनाथ मंदिर मुख्मंड़प

मैं अनायास ही बाईं ओर मुड़ गयी, मानो मंदिर में प्रदक्षिणा कर रही हूँ। मेरी बाईं ओर पंक्ति में चिंतन गुफाएं अथवा छोटे ध्यान मंदिर थे। ये मंदिर मेरी जिज्ञासा और बड़ा रहे थे। कुछ कदमों के पश्चात मुख्य मंदिर तथा इसका मनमोहक शिखर मेरे समक्ष प्रकट हुआ। मंदिर की अप्रतिम शिल्पकारी देख मेरी आँखें चुंधिया गयीं। मष्तिष्क की शिराएँ सुन्न सी होने लगीं। गलियारे में खड़ी मैं निश्चय नहीं कर पा रही थी कि किस ओर दृष्टी डालूँ। एक ओर वास्तुशिल्प का अनूठा नमूना था, पत्थर की न्यूनतम संभव गुफाएं! दूसरी ओर पल्लव वास्तुकला का अप्रतिम नमूना था। भित्त के प्रत्येक भाग पर प्रतिमाएं उत्कीर्णित थीं। ये प्रतिमाएं अत्यंत सम्मोहक एवं चित्ताकर्षक थीं।

स्तंभ युक्त मंडप

मंडप एवं गर्भ गृह - कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
मंडप एवं गर्भ गृह – कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम

मुख्य मंदिर के समक्ष एक मंडप है जो कई स्तंभों पर खड़ा है। अभी यह दोनों ओर से बंद है। एक समय यह मंदिर का स्वतन्त्र मंडप था जिसे कालान्तर में एक अर्ध-मंडप निर्मित कर मुख्य मंदिर से जोड़ दिया गया था। उसे देख ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ तो है जो सही नहीं है। बीच के मंडप की सादी भित्तियाँ कुछ भिन्न प्रतीत होती हैं। मैं कल्पना करने लगी कि मध्य मंडप के बिना, मंदिर एवं अर्ध-मंडप कितने मनमोहक लगेंगे! कदाचित अधिक संतुलित एवं सुडौल।

कुछ आगे जाकर हमें मंदिर के बाई और एक प्रवेश द्वार दिखाई दिया। एक इकलौता पुजारी मंदिर का दैनिक कार्यभार संभालता है। इसके ठीक विपरीत, एकम्बरेश्वर मंदिर में मैंने पुजारियों की सेना देखी थी जो मंदिर के दैनिक पूजा अर्चना में व्यस्त, यहाँ से वहां दौड़ रहे थे। इस मंदिर में यह इकलौता पुजारी दर्शनार्थियों की प्रतीक्षा में बैठा प्रतीत हो रहा था। फिर भी, विनम्रता तो छोड़िये, उसकी पुजारी होने की अकड़ में कहीं कमी नहीं दिखी।

गर्भगृह

मंदिर का गर्भगृह अपेक्षाकृत सादा है। गर्भगृह के भीतर काले ग्रेनाइट में बना १६ पक्षों का शिवलिंग है। शिवलिंग के पीछे सोमस्कंद की छवि है। सोमस्कंद अर्थात् कार्तिक सहित शिव तथा उमा। सोमस्कंद मैंने केवल कांचीपुरम के मंदिरों में ही देखा है।

कैलाश्मंथ मंदिर का प्रदक्षिणा पथ
मंदिर का प्रदक्षिणा पथ

गर्भगृह के चारों ओर एक संकरा प्रदक्षिणा पथ है। यह इतना संकरा है कि इसके भीतर जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मुझे संकरे स्थानों में घबराहट जो होती है। मुझे समझ नहीं आया कि इतनी संकरी प्रदक्षिणा पथ का औचित्य क्या था। वह भी सीधा सरल नहीं था। कुछ सीड़ियाँ चढ़ना, रेंग कर नीचे उतरना, तत्पश्चात बाहर निकलते समय फिर चढ़ाना तथा रेंग कर उतरना। मैंने अन्दर ना जाना ही ठीक समझा। ना जाने क्यों, पुजारी ने सुझाया कि मैं उल्टी दिशा में परिक्रमा करूँ जो कुछ आसान होता। किन्तु मेरे भीतर के सनातन संस्कारों ने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी।

शिव तांडव
शिव तांडव

बाद में मैंने पढ़ा कि इस कठिन संकरे प्रदक्षिणा पथ के पीछे दार्शनिक सिद्धांत है। इसकी तुलना पुनर्जन्म से की गयी है। मुझे तो वह राजाओं द्वारा बनाये जाने वाले, युद्ध में बचकर भागने के रास्ते के सामान प्रतीत हो रहा था।

और पढ़ें: कांचीपुरम का एकम्बरेश्वर मंदिर

शुण्डाकार शिखर

कैलाशनाथ मंदिर का शिखर शुण्डाकार अर्थात पिरामिड के आकार का है जिसके प्रत्येक फलक पर प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पत्थर की पट्टियों को हलके से एक दूसरे पर टिका कर रखा हो। हर पट्टी एक कथा कहती है। शिखर का ऊपरी भाग गोलाकार है। इसके ठीक नीचे, चारों दिशाओं में नंदी की प्रतिमाएं हैं।

दुर्गा मूर्ति
पल्लव कालीन सिंहों से घिरी सिंहवाहिनी दुर्गा

आप कहीं भी खड़े हो जाईये, आपको सिंहों के आधार पर खड़े स्तंभों की कतार अवश्य दृष्टिगोचर होंगी। मंदिर के समक्ष यदि आप एक कोने में खड़े हो जाएँ तो आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो आप सिंहों के किसी अभयारण्य में आ गए हों।

मंदिर की भित्तियों पर आप शिव के इतने अवतार देखेंगे जो कदाचित आपकी जानकारी एवं कल्पना से भी परे हो। मुख्य मंदिर के पीछे कार्तिकेय को समर्पित एक मंदिर है। यहाँ आप काले पत्थर में बनी उसकी प्रतिमा या विग्रह देख सकते हैं। यहाँ दुर्गा की एक मनमोहक मूर्ति है। साथ ही सप्तमातृका भी है।

कैलाशनाथ मंदिर परिसर

कैलाशनाथ मंदिर इस परिसर का इकलौता मंदिर है। अन्य मंदिर परिसरों की भान्ति यहाँ मुख्य मंदिर के साथ अन्य मंदिर नहीं हैं। भारत के कई स्थानों में शिव मंदिर के भीतर देवी का भी मंदिर होता है। किन्तु कांचीपुरम में इसकी ठीक विपरीत प्रथा है। यहाँ के शिव मंदिरों के भीतर देवी का मंदिर नहीं होता। कांचीपुरम में देवी अपने स्वयं के मंदिर परिसर में निवास करती है।

और पढ़ें: श्री कांची कामाक्षी अम्मा मंदिर

मंदिर के पृष्ठ भाग एवं चिंतन गुफाओं के मध्य मुझे नंदी की कुछ प्रतिमाएं दिखाई दीं। मेरे अनुमान से यह गुफाओं में शिव विग्रह अर्थात् शिव प्रतिमाओं के लिए बनायी गयी हैं।

नंदी मंडप

नंदी मंडप कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
मंदिर से दूर – नंदी मंडप

मंदिर के समक्ष, बड़े मैदान के उस पार, लगभग १०० मीटर की दूरी पर मुख्य नंदी मंडप है। नंदी की बड़ी प्रतिमा है जिसका मुख गर्भगृह की ओर है। नंदी मंडप एवं गर्भगृह के लिंग के मध्य पर्याप्त दूरी तथा पत्थरों की कई परतें है। मंडप के ऊपर चार स्वतन्त्र स्तंभ हैं। किन्तु मुझे यह बनावटी प्रतीत हुआ। पता नहीं नंदी मंडप सदैव इतनी दूर, ऐसा ही था या किसी संरक्षण कार्य के चलते इसे इतनी दूर हटाया गया है।

कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम की पुष्करणी
कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम की पुष्करणी

जब आप मंदिर से दूर जाते हुए घास के मैदान में चलेंगे तब आप बाहरी भित्तियों से एक एक कर सिंह बाहर आते देखेंगे। मैं सोच में पड़ गयी कि क्या ये सिंह भी एक समय स्वतन्त्र स्तंभ थे तथा उन्हें कालान्तर में भित्तियों से जोड़ दिया गया है! मंदिर परिसर के बाहर से आप चिंतन गुफाओं अर्थात् ध्यान मंदिरों के शिखर देख सकते हैं। ये मुख्य शिखर के सूक्ष्म रूप प्रतीत होते हैं। कांचीपुरम के अन्य शिव मंदिरों के समान यहाँ भी ध्यान मंदिरों के मध्य नंदी हैं जिन्हें भित्ती पर बिठाया गया है।

मंदिर के समक्ष स्थित घास के मैदान के उस पार, एक ओर एक जल कुण्ड है।

कैलाशनाथ मंदिर का इतिहास तथा वास्तुशिल्प

पत्थर से बना यह मंदिर ७वीं. सदी में पल्लव सम्राट नरसिंहवर्मन द्वितीय द्वारा निर्मित है। इसका अग्रभाग जो बाद में निर्मित प्रतीत होता है, महेंद्रवर्मन द्वितीय द्वारा निर्मित है। ऐसा माना जाता है कि राजराजा चोल जिसने भव्य बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण कराया था, कैलाशनाथ मंदिर से प्रेरित था।

कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम
कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम

मंदिर का आधार कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बना है जबकि ऊपरी संरचना नर्म बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित है। मुख्य मंदिर लगभग आयताकार है, जो की इसके शुण्डाकार शिखर का आधार भी है। मुख्य मंदिर के चारों ओर स्थित ध्यान मंदिर इस मंदिर परिसर की विशेषता है जो मैंने आज तक अन्य किसी मंदिर में नहीं देखी। ये मुझे कुछ कुछ ऋषिकेश की ८४ कुटियों का स्मरण कराते हैं।

कैलाशनाथ मंदिर कदाचित एक राजसी मंदिर था| इसकी स्थापना राज परिवार ने कदाचित ध्यान की निजी आवश्यकताओं के लिए करवाई थी। यह अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत है। वे इसकी देखरेख एवं रखरखाव करते हैं। दर्शनार्थियों की अनुपस्थिति इसे भूतकाल के अवशेष सा आभास प्रदान कर रही थी। वास्तव में यह एक जागृत मंदिर है जहां नित्य पूजा अर्चना की जाती है। मुझे बताया गया कि शिवरात्री के उत्सव में यहाँ दर्शनार्थियों की भीड़ लगती है।

कैलाशनाथ मंदिर की महत्ता इस तथ्य में है कि यह कदाचित इस क्षेत्र का, पत्थर में निर्मित, प्रथम एकल मंदिर है। इससे पूर्व मंदिरों को उसी स्थान की शिलाओं को काट कर निर्मित किया जाता था। जिन्हें गुफा मंदिर भी कहा जाता था। ऐसे कई मंदिर आप समीप ही महाबलीपुरम में देख सकते हैं।

कैलाशनाथ मंदिर के दर्शन हेतु कुछ सुझाव

कांचीपुरम नगरी में कहीं से भी आप एक ऑटो द्वारा यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं। यह मंदिर शिव कांची में स्थित है।
मंदिर प्रातः ६ बजे से दोपहर १२ बजे तक, तत्पश्चात सायं ४ बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है।

इस मंदिर का विस्तार से अवलोकन करने के लिए ३० मिनट का समय पर्याप्त है।

यह अत्यंत चित्रण-योग्य मंदिर है। अच्छी बात यह है कि यहाँ छायाचित्रण की अनुमति भी है। केवल गर्भगृह के भीतर फोटो खींचना मना है। छायाचित्रण अर्थात् फोटो खींचने के लिए सुबह का समय सर्वोत्तम है।

कांची कुदिल नामक संग्रहालय भी समीप ही है जिसे एक पुराने विरासती घर को परिवर्तित कर बनाया गया है। मंदिर के दर्शन के साथ इस संग्रहालय को भी आप देख सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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