एक गोधूलि बेला में कच्चे मार्ग से होते हुए तिपहिया वाहन द्वारा मैं दारासुरम पहुँची। गंतव्य पर अग्रसर होते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मार्ग मुझे कहीं नहीं पहुँचायेगा। अकस्मात् ही एक विशाल मंदिर मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट हो गया। वह ऐरावतेश्वर मंदिर था। इस मंदिर का एक अन्य लोक-व्यापी नाम है, दारासुरम मंदिर।
मंदिर पहुँचते ही मेरी प्रथम दृष्टि मंदिर के खंडित गोपुरम एवं उसकी भंजित बाह्य भित्तियों पर पड़ी। तदनंतर मंदिर के प्रवेश द्वार पर मुझे एक छोटा जलमग्न मंदिर दृष्टिगोचर हुआ। मेरी इस यात्रा से कुछ ही दिवस पूर्व नीलम चक्रवात ने इस मंदिर में भेंट दी थी जिसके कारण मंदिर के चारों ओर जल एकत्र हो गया था।
कुछ क्षणों पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि सामान्यतः वर्षा के पश्चात मंदिर के चारों ओर की भूमि जलमग्न हो ही जाती है। काल के साथ मंदिर के आसपास की भूमि ऊँची हो गयी है जिसके कारण मंदिर का भूतल अपेक्षाकृत नीचे हो गया है। इसके कारण वर्षा का जल चारों ओर से मंदिर की ओर आता है तथा मंदिर को चहुँ ओर से घेर लेता है।
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के आकर्षण
जल के मध्य स्थित मंदिर को देख मन में कुतूहल जन्म ले रहा था। हृदय में सम्मिश्रित भावनाएं उत्पन्न होने लगी थीं। मुझे इस तथ्य का पूर्ण रुप से भान था कि यह एकत्रित जल मंदिर की संरचना के लिए अहितकारी सिद्ध हो सकता है। इस आभास के पश्चात भी मैं जल से घिरे मंदिर की सुन्दरता को देख मंत्रमुग्ध सी हो रही थी। सूर्य की किरणें जल की सतह पर मंदिर के प्रत्येक अवयव का प्रतिबिम्ब चित्रित कर रही थीं। जैसे जैसे सूर्य अस्त की ओर उन्मुख हो रहा था, मंदिर का प्रतिबिम्ब सूर्य की किरणों के संग आँख-मिचौली खेल रहा था।
एक गाँववासी ने मुझे कहा कि मंदिर के भीतर जाने के लिए मुझे इस जल का सामना करना पड़ेगा। मैं सोच में पड़ गयी कि किस प्रकार सामना करना पड़ेगा! मुझे विश्वास था कि ऊँची जगती अथवा चबूतरे पर निर्मित स्तंभ युक्त गलियारे से घिरे इस मंदिर तक पहुँचने का कोई मार्ग अवश्य होगा जिसके लिए मुझे जल में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। लेकिन वहाँ ऐसा कोई मार्ग नहीं था। मुझे जल में प्रवेश करना ही पड़ा। किन्तु जैसे ही मैंने जल में प्रवेश किया, मुझमें चारों ओर के जल का कोई आभास शेष नहीं रहा। मुझे जल की उपस्थिति का भी भान नहीं था। मैं व मेरा कैमरा, हम दोनों प्रसन्नता से मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हुए अपने अपने कार्य में मग्न हो गए थे।
चोल मंदिर की स्थापत्य शैली
ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण सन् ११६६ में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था।
यह एक वर्गाकार संरचना है। अन्य चोल मंदिरों के विपरीत इस मंदिर का परिक्रमा पथ मुख्य मंदिर के भीतर ना होकर मंदिर के बाह्य क्षेत्र में है।
मुख मंडप एवं अर्ध मंडप पार कर हम गर्भगृह पहुँचते हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो विशालकाय द्वारपालों के शिल्प हैं। महामंडप स्तंभों से भरा हुआ है। मंदिर के लिंग की स्थापना महाराज राजराजा ने स्वयं करवाई थी। इसलिए इस लिंग को राज-राजेश्वर उदयनार भी कहते हैं।
मुख्य मंदिर के पार्श्वभाग में स्थित मंडप को अग्र-मंडप कहते हैं। इस मंडप का नामकरण चोल राजा के नाम पर किया गया है। इस मंडप की संरचना एक विशाल रथ के समान है। इसके प्रवेश पर स्थित सोपानों की यह विशेषता बताई जाती है कि ये संगीतमय सोपान हैं। इन पर चढ़ते ही भिन्न भिन्न सोपानों से संगीत के भिन्न भिन्न सुर निकलते हैं। यह जानकारी मुझे हमारे परिदर्शक ने प्रदान की थी। किन्तु मैं इसका अनुभव नहीं ले पायी क्योंकि वह स्थल जलमग्न था।
मंदिर की भित्तियों पर कई शिल्प पट्टिकाएं एवं शिलालेख हैं जिन पर शैव नयनार संतों की कथाएं प्रदर्शित हैं। अनेक पौराणिक गाथाओं का भी चित्रण है।
मंदिर परिसर में कुछ छोटे देवालय भी है। जैसे गणेश मंदिर, यम मंदिर, सप्तमातृका मंदिर आदि।
मंदिर परिसर अत्यंत विस्तृत है। इसे सप्त-वीथी भी कहते हैं। इसका अर्थ है, मंदिर जिसमें सात वीथिकाएँ अथवा गलियारे एवं सात मार्ग हैं। ठीक उसी प्रकार जैसा तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम मंदिर में है। वर्तमान में उन सातों में से केवल एक ही शेष है। मंदिर के गोपुरम एवं स्वयं मंदिर के भंगित अवशेष परिसर में चारों ओर बिखरे हुए हैं। मेरे अनुमान से १४वीं शताब्दी में इस मंदिर पर आततायियों ने आक्रमण किया था एवं मंदिर को इस स्थिति में पहुँचाया था।
मंदिर से सम्बंधित लोककथा
किवदंतियों एवं मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण उस चरवाहिन की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए किया गया था जिसने तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के शिखर के लिए शिला का दान किया था। उसकी अभिलाषा थी कि ऐसा ही एक विशाल मंदिर का निर्माण उसके ग्राम में भी किया जाए।
मुझे इस विनिमय ने अचंभित कर दिया। एक सामान्य स्त्री राजा के प्रिय मंदिर के निर्माण के लिए शिला का दान कर रही है। इसके प्रतिफल के रूप में वह स्वयं के लिए किसी भी वस्तु की माँग रख सकती थी। लेकिन उसने क्या माँगा! उसने माँग रखी कि ऐसा ही एक मंदिर उसके ग्राम में भी हो। क्या इससे प्राचीन काल के भारतीयों के नैतिक मूल्यों एवं उनकी प्राथमिकताओं की छवि नहीं प्राप्त होती? उस काल में कला एवं संस्कृति का महत्त्व सर्वोपरि था।
ऐरावतेश्वर मंदिर के गज शिल्प
ऐरावतेश्वर मंदिर का नामकरण इंद्र के गज ऐरावत के नाम पर किया गया है। ऐसी मान्यता है कि इंद्र के गज ऐरावत ने पवित्र कावेरी नदी से पोषित इस मंदिर के जलकुण्ड में स्नान किया था। इसके पश्चात उसकी त्वचा दैदीप्यमान हो गयी थी। यह दंतकथा मंदिर की शिला पर भी उत्कीर्णित है।
सोपानों के दोनों ओर गज प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो ये गज मंदिर को अपनी पीठ पर उठाये हुए हैं। समीप ही जगती की भित्ति पर दो पैरों पर खड़े दौड़ती हुई मुद्रा में अश्व उत्कीर्णित हैं। उनके पृष्ठ भाग में रथ के चक्र उत्कीर्णित हैं। भित्तियों पर भी रथ के चक्र इस प्रकार उत्कीर्णित हैं कि वे इस मंदिर को एक रथ की छवि प्रदान करते हैं।
ऐसी मान्यता है कि रथ के ये चक्र वास्तव में सौर घड़ियाँ हैं। इनका प्रयोग प्रातःकाल एवं संध्याकाल में समय आंकने के लिए किया जाता है। रथ के आकार के ऐसे मंदिरों को करक्कोइल कहा जाता है। इनकी प्रेरणा मंदिर में देवों की शोभायात्रा में प्रयुक्त विशाल रथों से प्राप्त की गयी है। एक तत्व जो मुझे भ्रामक प्रतीत हुई वह यह कि गज एवं अश्व एक दिशा में ना जाते हुए एक दूसरे से लम्बवत दिशा में जाते दर्शाए गए हैं।
अन्य दो मंदिर जो चक्र युक्त रथ के आकार के प्रतीत होते हैं, वे हैं, ओडिशा का कोणार्क सूर्य मंदिर एवं हम्पी का विट्ठल मंदिर।
मुख्य मंदिर के चारों ओर नंदी की अनेक लघु प्रतिमाएं हैं। दो प्रतिमाओं के मध्य कमल पुष्प उत्कीर्णित है। साहित्यों के अनुसार कदाचित ये कम ऊँचाई की भित्तियाँ थीं जिनका उद्देश्य मंदिर के चारों ओर कुण्ड का आभास प्रदान करना था। उसके अनुसार कदाचित यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने मंदिर को उसी रूप में देखा जैसा की यह पूर्व में नियोजित था।
भगवान शिव एवं चोल मंदिर
सभी चोल मंदिरों की विशेषता है कि उनके पृष्ठ भाग की बाह्य भित्ति पर शिवलिंग होता है जिसके मध्य से भगवान शिव प्रकट होते दर्शाए जाते हैं। इस मंदिर में भी ऐसा ही एक लिंग है। इसे लिंगोद्भव कहते हैं। इसका अर्थ है, लिंग से शिव का उद्भव। मंदिर के स्तंभों पर विस्तृत उत्कीर्णन हैं। उन पर इतिहास पुराण की कथाएं एवं विभिन्न नृत्य मुद्राएँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर स्थापत्य शैली एवं वास्तुकला के विद्यार्थियों के लिए यह मंदिर ज्ञान अर्जन का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है।
मुख्य मंदिर से अभिषेक के जल को बाह्य दिशा की ओर संचालित करते व्याल मुखों पर भी विस्तृत उत्कीर्णन है। उन पर सिंह मुख की आकृति बनाई गयी है।
मेरी इस यात्रा में अवलोकित मंदिरों में से यह इकलौता ऐसा मंदिर है जिनके जाली युक्त झरोखों पर विलोम स्वस्तिक आकृतियाँ एवं वर्गाकार आकृतियाँ क्रम से उकेरी गयी हैं। कुछ स्थानों पर लाल एवं हरित रंग पुते हुए हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित अनुत्कीर्णित भागों पर रंगाई की गयी थी। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि ऐसे मंदिरों को इनके पूर्ववत भव्य अवस्था में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। मंदिरों का नवीनीकरण इसी दिशा में होना चाहिए।
नंदी मंडप
इस मंदिर का नंदी मंडप मुख्य गोपुरम के बाह्य भाग में है। यह एक लघु मंडप है। जिस जगती पर शिवलिंग स्थापित है, उस जगती के तल से यह मंडप कहीं अधिक निचले तल पर है। मुझे बताया गया कि पूर्वकाल में वर्तमान गोपुरम के स्थान पर यहाँ उससे अधिक विशाल गोपुरम था। अब उनके केवल अवशेष ही शेष रह गए हैं।
इस मंदिर का एक अन्य विशेष तत्व है, स्तंभों के आधार याली के आकार में उत्कीर्णित हैं। इस प्रकार के स्तम्भ हमें महाबलीपुरम एवं कांचीपुरम के मंदिरों में भी दृष्टिगोचर होते हैं। याली एक पौराणिक पशु है जिसका शरीर विभिन्न पशुओं का सम्मिश्रित रूप होता है। उसका मुख गज का, धड़ सिंह का, कर्ण सूकर का, सींग बकरी के एवं पूँछ गौमाता का होता है।
देवी मंदिर
मुख्य मंदिर के एक ओर देवी मंदिर है जो ऐरावतेश्वर मंदिर के समकालीन है। यह पेरिया नायकी अम्मा का मंदिर है। दुर्भाग्य से यहाँ जल संचयन मुख्य मंदिर से भी अधिक था जिसके कारण मैं मंदिर के भीतर नहीं जा सकी।
हो सकता है कि किसी काल में यह मुख्य मंदिर संकुल का अभिन्न अंग रहा होगा किन्तु अब यह मुख्य मंदिर से असंलग्न है।
दारासुरम
दरासुरम, यह नाम कदाचित दारुका-वन, इस शब्द से व्युत्पन्न है। कनकल एवं ऋषि पत्नी के अनेक चित्र हैं जो इस ओर संकेत करते हैं।
यह कोल्लीडम नदी के निकट स्थित है जो कावेरी नदी के मुहाने का भाग है।
उत्सव
यह एक शिव मंदिर होने के नाते यहाँ का प्रमुख उत्सव शिवरात्रि है।
मंदिर का वार्षिक उत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार यह काल लगभग जनवरी मास में पड़ता है।
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर – यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल
यह मंदिर भारत के दक्षिणी राज्य तमिल नाडु में स्थित है। कुम्भकोणम के निकट दारासुरम नामक नगर में स्थित होने के कारण इस मंदिर को दारासुरम मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माण लगभग १२वीं सदी में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान शिव के ऐरावतेश्वर रूप की आराधना की जाती है।
ऐरावतेश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। सन् २००४ में इस मंदिर को यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थलों की सूची में सम्मिलित किया गया था। उस सूची में इस मंदिर को महान जीवंत चोल मंदिरों के उप-वर्ग के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।
दारासुरम यात्रा से सम्बंधित कुछ सुझाव
दारासुरम तंजावुर से लगभग ४० किलोमीटर दूर है। आप तंजावुर में अपना पड़ाव रखते हुए बृहदीश्वर का बड़ा मंदिर, गंगईकोंडा चोलपुरम तथा आसपास के अन्य आकर्षणों का अवलोकन कर सकते हैं।
मंदिर नगरी चिदंबरम से तंजावुर की मंदिर नगरी जाते हुए भी आप मध्य में विमार्ग लेते हुए ऐरावतेश्वर मंदिर जा सकते हैं।
सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं।
ऐरावतेश्वर मंदिर पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल तिरुचिरापल्ली है जो लगभग ९० किलोमीटर दूर स्थित है। यदि आप तिरुचिरापल्ली की ओर से यहाँ आ रहे हैं तो आप श्रीरंगम के भी दर्शन कर सकते हैं।