हिमालय की गोद में जीवन शांतिपूर्ण होता है। मनोरम पर्वतों एवं घाटियों के मध्य, प्रकृति का आनंद लेते हुए शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने की इच्छा किसे नहीं होती! मैं अत्यंत भाग्यशाली हूँ जो मेरा जन्म ही हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में स्थित करसोग गाँव में हुआ है। करसोग घाटी के गाँव की भौगोलिक स्थिति अत्यंत सुरम्य है। वहां से पीर पंजाल हिमगिरी श्रृंखला का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। चारों ओर से पर्वतों से अलंकृत करसोग एक ऐसा पर्यटन स्थल है जहां आप कुछ समय प्रकृति के सानिध्य में आनंद से व्यतीत करना चाहेंगे।
उत्कृष्ट संस्कृति, समृद्ध धरोहर एवं शुद्ध आध्यात्म से संपन्न करसोग एक विशिष्ट स्थल है। प्रकृति ने करसोग को उपजाऊ भूमि, सेबों के उद्यान तथा हिमाच्छादित पर्वत शिखर को छूते देवदार के घने वनों का वरदान दिया है। यह घाटी स्वतंत्रता पूर्व के सुकेत रियासत के अंतर्गत आता था जो भारत का एक छोटा सा स्वतन्त्र राज्य था। सन् १९४७ में स्वतंत्रता के पश्चात भी यहाँ के कुछ रियासतों के राजा स्वतंत्रता पूर्वक शासन चलाते रहे। सन् १९४८ में इन रियासतों को भारतीय गणतंत्र में विलय करने के उद्देश्य से सुकेत सत्याग्रह चलाया गया था। सुकेत सत्याग्रह का आरम्भ इसी घाटी से हुआ था।
करसोग के पास एक गिनीस विश्व कीर्तिमान भी है जो उसने एक ही पात्र में केवल पांच घंटों में ९९५ किलोग्राम खिचड़ी बनाकर प्राप्त किया था। यह महान कार्य करसोग गाँव से लगभग ५२ किलोमीटर दूर स्थित तत्तापानी में मकर संक्रांति के अवसर पर बनाया गया था।
करसोग की भूमि अत्यंत उपजाऊ है। यहाँ विभिन्न प्रकार की फसलें उपजाई जाती हैं, जैसे सेब, धान, गेहूं, राजमा, आदि। करसोग अपने रसभरे, कुरकुरे, स्वादिष्ट सेबों के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ के सेबों के उद्यान लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन चुके हैं। सेबों को इस घाटी की प्रमुख फसलों में गिना जाता है।
शीत ऋतु में यहाँ कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ का वातावरण अत्यंत सुखकर हो जाता है। साधारणतः, दिसंबर के अंत से लेकर सम्पूर्ण जनवरी तक करसोग हिमाच्छादित रहता है। उस समय इस घाटी की सुन्दरता अपनी चरम सीमा पर होती है। बर्फ का आनंद लेने वालों के लिए यह स्वर्ग समान हो जाता है।
करसोग का इतिहास
करसोग दो शब्दों के संयोग से बना है, कर एवं सोग। इसका शाब्दिक अर्थ है, दैनिक शोक। हमारे प्राचीन महाकाव्य महाभारत में करसोग नगरी की कथा भी है। द्वापर युग में जब पांडवों को वनवास भेजा गया था, तब उन्होंने कुछ समय करसोग में भी व्यतीत किया था। ऐसी मान्यता है कि यहीं से उत्तर की ओर जाते हुए पांडवों ने हिमालय को पार किया था तथा गंधमादन पर्वत पहुंचे थे। वहीं भीम की भेंट हनुमान से हुई थी।
किवदंतियों के अनुसार इस नगरी को एक असुर की उपस्थिति का श्राप था। वनवास के समय जब पांडव वन में भ्रमण कर रहे थे, तब वे मामेल नामक एक गाँव में कुछ काल ठहरे थे। उस समय गाँव के निकट एक गुफा में एक असुर ने भी आश्रय लिया हुआ था। असुर के बर्बर अत्याचारों से बचने के लिए सभी गांववासियों ने सहमति से यह निश्चय किया कि वे प्रतिदिन एक व्यक्ति को उसके भोजन के रूप में उसके पास भेजेंगे ताकि वह एक साथ सम्पूर्ण गाँव को ना नष्ट करे। पांडवों ने जिस घर में आश्रय लिया था, उस घर के बालक को भेजने का दिवस आ गया था। उस बालक की माता अत्यंत दुखी थी तथा दहाड़े मारकर रो रही थी। पांडवों के पूछने पर उस माता ने बताया कि उसे अपने नन्हे बालक को असुर के भोजन के रूप में भेजना पड़ रहा है। भीम ने उस बालक के स्थान पर स्वयं असुर के पास जाने का निश्चय किया। घमासान युद्ध के पश्चात भीम ने उस असुर का वध कर दिया तथा गाँव को प्रतिदिन होते शोक से मुक्त किया।
पारंपरिक रूप से हिन्दुओं के लिए करसोग का विशेष महत्त्व है क्योंकि यहाँ अनेक प्राचीन मंदिर हैं जिनकी स्थापना पांडवों ने की थी।
करसोग के मंदिर
देवभूमि हिमाचल के कण कण में देव बसते हैं। करसोग भक्तों के लिए वरदान स्वरूप है। यहाँ के मंदिरों में भारत का इतिहास एवं भक्तों की श्रद्धा समाई हुई है। यहाँ के मंदिर पैगोडा शैली के हैं। इनमें शिलाओं एवं लकड़ी से निर्मित आयताकार संरचनाओं के ऊपर ढलुआ छतों की अनेक परतें होती हैं जो उन्हें बहुतलीय संरचना का रूप देती हैं। करसोग घाटी के कुछ प्रमुख मंदिर हैं, ममलेश्वर मंदिर, कामाक्षा देवी मंदिर, महुनाग मंदिर आदि।
ममलेश्वर मंदिर
ममलेश्वर मंदिर पांडवों द्वारा बनाया गया एक शिव मंदिर है जो इस नगर का प्राचीनतम मंदिर है। यह मंदिर लगभग ५००० वर्ष प्राचीन है तथा महाभारत काल में हुई घटनाओं से इसका प्रगाड़ सम्बन्ध है। ममलेश्वर महादेव मंदिर में अनेक ऐसे चिन्ह हैं जो महाबली भीम से सम्बंधित हैं। उन्हें देखने दूर दूर से भक्तगण यहाँ आते हैं।
उन चिन्हों में प्रथम है, भीम का प्राचीन ढोल, जो लगभग ६ फीट लम्बा है। देश-विदेश से भक्तगण एवं पर्यटक इस विशालकाय प्राचीन ढोल के दर्शन करने आते हैं। इस मंदिर का पांडवों से सम्बन्ध होने का संकेत देता दूसरा चिंह है, इस मंदिर के पांच शिवलिंग। ऐसी मान्यता है कि इन पांच शिवलिंगों की स्थापना पांच पांडव भ्राताओं ने की थी। तीसरा चिन्ह है लगभग ५००० वर्ष प्राचीन गेहूं का दाना। इस एक दाने का भार लगभग २०० ग्राम है। भारतीय पुरातात्विक विभाग ने भी मंदिर में रखी हुई इन वस्तुओं की पुरातनता की पुष्टि की है।
अंतिम चिन्ह है मंदिर में उपस्थित वह धूनी, जो मान्यताओं के अनुसार पांडवकाल से अखंडित रूप से प्रज्ज्वलित है। आपको स्मरण होगा मैंने इस गाँव की कथा आपको सुनाई थी। पांडव पुत्र भीम ने असुर का वध कर इस गाँव को उसके श्राप से मुक्त किया था। ऐसा कहा जाता है कि भीम के असुर पर विजय प्राप्त करने की स्मृति में उस काल से यह धूनी अनवरत जल रही है।
ऐसी मान्यता है कि परशुराम एवं भृगु जैसे महर्षियों ने भी यहाँ तपस्या की थी।
कामाक्षा मंदिर
ऐसी मान्यता है कि देवी का यह शक्तिपीठ सतयुग के स्वर्णिम युग में निर्मित है। वहीं शोधकर्ताओं का मानना है कि यह मंदिर परशुराम तथा पांडवों के युग से सम्बंधित हो सकता है क्योंकि उनका निष्कर्ष है कि सतयुग में निर्मित मंदिर इतने लम्बे समय तक अखंडित नहीं रह सकता है। यह शोध का विषय हो सकता है। जहां तक भक्तों की आस्था का प्रश्न है, इस मंदिर को देखने का उनका दृष्टिकोण भिन्न है। इस मंदिर में अष्टधातु में निर्मित एक मूर्ति है जो पांडवकाल की मानी जाती है।
दुर्गा अष्टमी के अवसरों पर मंदिर में प्रति वर्ष दो उत्सवों का आयोजन किया जाता है। इन उत्सवों में मंदिर की सभी मूर्तियों को एक रथ पर आरूढ़ किया जाता है। उनके दर्शन करने के लिए सहस्त्रों की संख्या में भक्तगण यहाँ एकत्र होते हैं। कामाक्षा देवी के दर्शन करने के लिए दूर-सुदूर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि कामाक्षा मंदिर में आकर देवी के दर्शन करने से भक्तों की सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। ऐसा कहा जाता है सम्पूर्ण विश्व में कामाक्षा देवी के केवल तीन मंदिर हैं। प्रथम है, असम का प्रसिद्ध शक्तिपीठ, कामख्या देवी मंदिर। दूसरा है, तमिलनाडु का कांचीपुरम तथा तीसरा है, हिमाचल के मंडी जिले में करसोग में स्थित यह कामाक्षा मंदिर। करसोग के कामाक्षा मन्दिर में परशुराम के आगमन के विषय में पुराणों में उल्लेख है।
लकड़ी पर की गयी उत्कृष्ट उत्कीर्णन इस मंदिर की विशेषता है।
महुनाग मंदिर
महुनाग को सूर्यपुत्र कर्ण का अवतार माना जाता है। कर्ण सूर्यदेव एवं क्षत्रिय माता कुंती के पुत्र थे। शूरवीर योद्धा के रूप में उनका परिचय दिया जाता है। महाभारत युद्ध में अर्जुन ने कर्ण का वध किया था। नियमों के विरुद्ध जाकर कर्ण का वध करने के कारण अर्जुन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा था। ऐसा माना जाता है कि अपने नागमित्र की सहायता से अर्जुन कर्ण के मृत शरीर को तत्तापानी के निकट सतलज के तट पर लेकर आये तथा वहां उनका अंतिम संस्कार किया। उस समय जलती चिता में से एक नाग प्रकट हुआ जो उसी स्थान पर स्थाई हो गया। लोग आज भी उस नाग की महुनाग रूप में पूजा अर्चना करते हैं।
करसोग घाटी के दर्शनीय स्थल
पंगना दुर्ग
ऐतिहासिक पंगना दुर्ग का निर्माण सन् १२११ में भूतपूर्व सुकेत रियासत के शासक राजा वीरसेन ने करवाया था। यह सुकेत राज्य के सेन राजवंश की प्रथम राजधानी थी जो कालांतर में सुंदरनगर में स्थानांतरित की गयी थी।
पंगना दुर्ग अपने विशिष्ट वास्तुकला, संरचना एवं लकड़ी पर की गयी उत्कृष्ट नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। इस किले की संरचना एक दुर्ग के समान है जो पचास फीट के पत्थर के चबूतरे पर बना है। यहाँ से इसके दोनों ओर स्थित गाँव का दृश्य दिखाई देता है। यह सात तलीय दुर्ग अपने पुरातन भव्यता के लिए लोकप्रिय है जो इसकी वास्तुकला एवं संरचना में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यह पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है। पंगना दुर्ग ठेठ काठ-कुणी वास्तुशैली में निर्मित किला है जिसके सर्वोच्च तल में एक मंदिर है। यह मंदिर शक्तिशाली देवी माता महामाया को समर्पित है। इस दुर्ग के भीतर जाने की अनुमति केवल इस मंदिर के पुरोहित को है, अन्य किसी को नहीं है। पर्यटकों द्वारा दर्शन लिए केवल भूतल का क्षेत्र उपलब्ध है जिसे माता महामाया का मंदिर बना दिया गया है।
तत्तापानी
यह हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। जनवरी-फरवरी में आने वाले, हिन्दू पंचांग के माघ मास में यहाँ किया गया मंगल स्नान पवित्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह पावन स्नान भक्तों को पापों से मुक्त करता है। यहाँ सल्फर या गंधक युक्त उष्ण जल के सोते हैं जिसमें स्नान करने के लिए लोग दूर दूर से आते हैं। शीत ऋतु में यहाँ भक्तों का तांता लग जाता है। मकर संक्रांति में किये गए स्नान का विशेष महत्त्व है। गंधक युक्त जल में औषधिक गुण होते हैं। यह जल सभी प्रकार के चरम रोगों में अत्यंत लाभदायक होता है।
तत्तापानी राफ्टिंग जैसे रोमांचक क्रीड़ाओं के लिए भी लोकप्रिय है। चमचमाते नीले जल में राफ्टिंग करने का रोमांच एक भिन्न अनुभव होता है।
फलबाग में ठहरने का अनुभव
प्रकृति प्रेमियों के लिए यह एक प्रकार से आदर्श स्थान है। जो महानगरों की भीड़-भाड़ एवं कोलाहल युक्त वातावरण से दूर, किसी शांत व निर्मल स्थान पर कुछ दिवस विश्राम करना चाहते हैं, प्रकृति के सानिध्य में कुछ समय व्यतीत करना चाहते हैं, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाना चाहते हैं तथा रसायन-मुक्त स्वास्थ्य वर्धक भोजन का आस्वाद लेना चाहते हैं, उनके लिए यह उत्तम स्थान है। सेबों के उद्यानों से सेब तोड़ना अपने आप में एक विशेष अनुभव होता है। हम सबने बाजारों से सेब खरीद कर खाए हैं। उन्हें पेड़ों पर लगे हुए देखना तथा उन्हें तोड़कर खाना एक अद्भुत अनुभव होता है। आप अपने सम्पूर्ण परिवार अथवा अपने प्रियकर के साथ इसका आनंद उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप यहाँ स्थानीय ग्रामीण वातावरण का आनंद ले सकते हैं। स्थानीय फलों, भाजियों एवं स्थानीय पाककला का भी स्वाद से परिपूर्ण अनुभव ले सकते हैं।
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संस्कृति एवं परम्पराएं
करसोग के निवासी अत्यंत शांतिप्रिय, सादे एवं निर्मल होते हैं। उनकी जीविका के मुख्य स्त्रोत खेती एवं सेबों के उद्यान हैं। करसोग घाटी में हिन्दी एवं पहाड़ी भाषा बोली जाती है। उनके परिधान यहाँ के कष्टकर शीत वातावरण के अनुकूल होते हैं। स्त्रियाँ भारतीय सलवार कुरता एवं कोटी पहनती हैं। इस कोटी को ‘सदरी’ कहते हैं। सर पर दुपट्टा बांधते हैं जिसे ‘धातु’ कहते हैं। पुरुष चूड़ीदार पजामा के ऊपर लम्बे कुरते धारण करते हैं। उसके ऊपर रेशम का लम्बा जैकेट पहनते हैं। सर पर प्रसिद्ध हिमाचली टोपी धारण करते हैं।
इस क्षेत्र के लोकनृत्य को सुकेती नाटी कहते हैं। यहाँ का कोई भी आयोजन अथवा उत्सव सुकेती नाटी के बिना अपूर्ण है। नाटी के साथ लोकगीत भी गाये जाते हैं जिनके साथ स्थानीय संगीत वाद्य बजाये जाते हैं।
करसोग घाटी तक कैसे पहुंचें?
करसोग की अनछुई सुन्दरता के दर्शन करने के लिए अधिक कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। सड़क मार्ग द्वारा यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है। करसोग पहुँचने के लिए सुदृढ़ सड़क मार्ग उपलब्ध है। करसोग की सुन्दरता का आनंद उठाने के लिए सर्वोत्तम समय है अप्रैल से जून तक, जब उसकी सुन्दरता अप्रतिम होती है तथा वातावरण भी सुखमय होता है। सेबों को तोड़ने के लिए भी यह सर्वोत्तम काल होता है जब सेबों की फसल पक कर तैयार हो जाती है। दिसंबर से फरवरी तक, शीत ऋतु में आसपास के हिमाच्छादित पर्वत क्षेत्र स्वर्ग के समान सुन्दर हो जाते हैं। यदि आप को शीतल वातावरण प्रिय है तथा हिमपात एवं बर्फ का आनंद लेना चाहते हैं तो इस काल में यहाँ अवश्य आईये।
वायु मार्ग – करसोग घाटी से निकटतम विमानतल शिमला है। यह विमानतल करसोग घाटी से लगभग ११५ किलोमीटर दूर है।
रेल मार्ग – शिमला रेल स्थानक यहाँ से निकटतम रेल स्थानक है।
सड़क मार्ग – करसोग घाटी शिमला नगर से लगभग १०९ किलोमीटर दूर स्थित है। आप शिमला से नालदेहरा जाते हुए राज्य-महामार्ग १३ द्वारा यहाँ पहुँच सकते हैं। घाटी के भीतर पहुँचने का मार्ग भी सुगम है। दोनों के लिए आप सड़क परिवहन की बसों की सुविधाएं ले सकते हैं। सड़क मार्ग द्वारा करसोग घाटी पहुँचने का सर्वोत्तम साधन है आपकी अपनी कार अथवा दुपहिया।
करसोग घाटी में कहाँ ठहरें?
होटल ममलेश्वर – यह होटल सेबों के उद्यानों के निकट स्थित है जो इसकी सर्वोत्तम विशेषता है। शान्ति से छुट्टियों का आनंद उठाने एवं लीक से भिन्न दर्शनीय स्थलों के अवलोकन के लिए यह एक उत्तम सुविधा है।
अवस्थिति – द ममलेश्वर, चिंदी, मंडी जिला, हिमाचल प्रदेश, भारत
करसोग घाटी से दूरी – १४ किलोमीटर
कलसन बाग (Kalasan Nursery Farm) – सेबों के उद्यान के मध्य ठहरने का यह एक सर्वोत्तम स्थान है। सेबों के उद्यान के मध्य, जैविक खेतों में, घर जैसे वातावरण में रहने का यह सर्वोत्तम साधन है। प्रकृति प्रेमियों के लिए प्रकृति का आनंद उठाने, सेबों के उद्यान के भीतर रहकर सेबों की खेती के विषय में जानने एवं सेबों को तोड़ने का आनंद उठाने में रूचि रखने वालों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
अवस्थिति – डाकघर ठंडापानी, उप-तहसील पंगना, जिला मंडी, हिमाचल प्रदेश, भारत, १७५०४६
घाटी से दूरी – २३ किलोमीटर
होटल हॉट स्प्रिंग – यह होटल आपको नदी का अप्रतिम दृश्य प्रदान करता है। यहाँ एक अच्छा जलपान गृह है एवं एक आयुर्वेदिक केंद्र भी है जहां उष्ण जल का कुण्ड है। इस होटल में ४ भिन्न भिन्न जलाशय है जो वास्तव में प्रथम हिमालयी भू-तापीय खनिज युक्त उष्ण जल के सोते(Himalayan Geo-Thermal mineral-rich hot springs) हैं।
अवस्थिति – होटल हॉट स्प्रिंग, तत्तापानी, शिमला, हिमाचल प्रदेश, भारत, १७५००९
करसोग घाटी से दूरी – ५३ किलोमीटर
यह संस्करण IndiTales Internship Program के लिए पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।