वडक्कन्नाथन मंदिर केरल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह मंदिर केरल के त्रिचूर में स्थित है जो इस राज्य का एक महत्वपूर्ण धार्मिक नगर है। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर परशुराम द्वारा, प्राचीन केरल में स्थापित १०८ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माना जाता है।
वडक्कन्नाथन मंदिर का उद्भव
किवदंतियों एवं लोक कथाओं के अनुसार, इस मंदिर की स्थापना परशुराम ने की थी। ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पुत्र परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पास सुरभि नाम की एक गाय थी जो सबकी कामना पूर्ण करती थी। एक समय एक राजा ने ऋषि जमदग्नि से उस गाय की मांग की जिसे ऋषि जमदग्नि ने अस्वीकृत कर दिया। तदनंतर, जब ऋषि जमदग्नि स्नानादि के लिए आश्रम से बाहर गए तब राजा सुरभि गाय को चुरा कर ले गया। इस घटना की जानकारी प्राप्त होते ही क्रोधित परशुराम सुरभि की खोज में निकल पड़े। राजा से युद्ध कर करते हुए, अंततः उसका वध किया तथा सुरभि को आश्रम में वापिस लेकर आये।
जब परशुराम ने अपने पिता ऋषि जमदग्नि को सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया तब उनके पिता ने उन्हे अपने इस पाप का प्रायश्चित करने की सलाह दी तथा उन्हे तीर्थयात्रा पर जाने के लिए कहा। तीर्थयात्रा से वापिस लौटने पर परशुराम ने पाया कि प्रतिशोध की भावना से क्षत्रिय राजाओं ने उनके पिता का वध कर दिया था तथा आश्रम को भी तहस-नहस कर दिया था। प्रतिशोध की अग्नि में तपते परशुराम ने अपना परशु उठाया तथा अनेक क्षत्रिय राजाओं का वध कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि २१ बार उन्होंने इस धरती पर से क्षत्रियों को समाप्त कर दिया था। उन्होंने अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए एक यज्ञ किया तत्पश्चात अपने परशु को समुद्र में फेंक दिया। ऐसी मान्यता है कि इसी के फलस्वरूप भारत के पश्चिमी तटवर्ती मैदानों की उत्पत्ति हुई जिसे हम कोंकण के नाम से जानते हैं।
स्थानीय किवदंती
केरल राज्य की एक स्थानीय किवदंती के अनुसार, यज्ञ के पश्चात अनेक ऋषि मुनियों ने परशुराम से दक्षिणा में एकांत भूमि की याचना की। तब उन्होंने एक सुरपा अर्थात् सुपा गोकर्ण से दक्षिण की ओर फेंका। इसके फलस्वरूप समुद्र के भीतर से एक विशाल भूखंड प्रकट हुआ। इसे सुर्पारक कहा गया। केरल इसी भूखण्ड का वर्तमान नाम है। तत्पश्चात परशुराम कैलाश गए व शिव एवं पार्वती से अनुरोध किया कि वे इस नवीन भूखंड में वास कर उसे अनुग्रहित करें ।
मान्यता है कि भगवान शिव ने इस अनुरोध को सहर्ष स्वीकारा एवं पार्वती, गणेश व कार्तिकेय समेत परशुराम के साथ उस भूखंड पर पधारे। उन्होंने स्वयं के वास के लिए जिस स्थान का चयन किया वही वर्तमान त्रिशूर है। कुछ काल यहाँ व्यतीत कर भगवान शिव सपरिवार अंतर्धान हो गए। परशुराम ने उस स्थान पर, एक विशाल वट वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग देखा जिसके भीतर से उज्ज्वल प्रकाश प्रकट हो रहा था। यह स्थान श्री मूलस्थानम के नाम से जाना जाता है अर्थात् वह स्थान जहाँ भगवान शिव ने स्वयं को विग्रह के रूप में प्रकट किया। यह लिंग वडक्कन्नाथन मंदिर के पश्चिमी गोपुरम के बाह्य भाग में स्थित है।
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वडक्कन्नाथन मंदिर की वास्तुकला
शिवलिंग को अनेक वर्षों तक मूलस्थानम में रखा गया था। कालांतर में कोचीन राज्य के शासकों ने एक मंदिर का निर्माण किया तथा शिवलिंग को उस मंदिर में स्थानांतरित किया। यह मंदिर एक छोटी पहाड़ी पर, एक गोलाकार मैदान के मध्य स्थित है जहां से त्रिचूर नगर दृष्टिगोचर होता है। स्थानीय भाषा में इस मैदान को टेक्किनाडु कहा जाता है जिसका अर्थ है सागौन का वन। ९ एकड़ के क्षेत्र में निर्मित यह मंदिर शिलाओं की विशाल भित्तियों से घिरा हुआ है। मंदिर में ४ भव्य गोपुरम हैं जो चार प्रमुख दिशाओं, पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण दिशाओं में स्थित हैं। दर्शनार्थियों के लिए मुख्य द्वार पूर्वी एवं पश्चिमी गोपुरम के भीतर से है जबकि उत्तरी व दक्षिणी गोपुरम सामान्यतः बंद रहते हैं। दक्षिणी गोपुरम को केवल ‘त्रिचूर पूरम’ के समय ही खोला जाता है जो अप्रैल मास में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण उत्सव है।
गोपुरम
इस मंदिर के गोपुरम बहु-तलीय संरचनाएँ हैं जिन्हे ग्रेनाइट एवं खपरैलों का प्रयोग कर बनाया गया है। इस मंदिर की वास्तुशैली केरल में प्रचलित अन्य मंदिरों की ठेठ वास्तुशैली से साम्य रखती है जिसमें लकड़ी एवं खपरैलों का प्रयोग कर पगोडा का आकार दिया गया है। अनेक मंदिरों से भरे परिसर के दो भाग हैं, भीतरी परिसर एवं बाह्य परिसर। भीतरी परिसर एक छोटी भित्ति से संरक्षित है जिसके मध्य में मुख्य वडक्कन्नाथन मंदिर स्थित है। साथ ही पार्वती, शंकराचार्य, श्री राम एवं गणेश को समर्पित छोटे मंदिर भी हैं। बाह्य परिसर से भीतरी परिसर में जाने के लिए एक गलियारा है जिसे चुट्टम्बलम कहते हैं। गलियारे में, उत्तरी भित्ति पर वासुकि-शयन का भित्ति चित्र है जिसमें भगवान शिव को नागराज वासुकि के ऊपर शयन करते दर्शाया गया है। यह नंदी एवं नृत्यनाथ के चित्रों के पश्चात है। नृत्यनाथ सोलह हस्तों के शिव की नृत्य में मग्न मुद्रा है। भगवान की प्रतिमा के साथ इन दो छवियों की भी पूजा अर्चना की जाती है।
शिवलिंग
श्री वडक्कन्नाथन का मंदिर गोलाकार है जिसमें अनेक स्तंभ एवं एक छत है। श्री वडक्कन्नाथन के लिंग पर वर्षों की नियमित आराधना के फलस्वरूप घी की इतनी परतें चढ़ी हुई हैं कि मूल लिंग दिखाई नहीं देता है। ऐसा कहा जाता है कि यह घी कभी पिघलता नहीं है। ना ग्रीष्म ऋतु, ना ही गर्भगृह में प्रज्ज्वलित दीपकों की ऊष्मा घी को पिघलाती है। आश्चर्य है कि अनेक वर्षों से अर्पित किए जा रहे घी की कोई दुर्गंध भी नहीं होती है। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार यह घृत भगवान शिव के वास, कैलाश पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है।
शिवलिंग स्वर्ण के तेरह अर्धचंद्रों से अलंकृत है। उसके ऊपर नागदेव के तीन फन हैं। देवी पार्वती की प्रतिमा भी इसी मंदिर के भीतर, मंदिर के पृष्ठभाग में स्थित है। शिव एवं पार्वती एक दूसरे के समक्ष नहीं हैं। पार्वती की प्रतिमा लकड़ी की होने के कारण उनका अभिषेक केवल हल्दी द्वारा ही किया जाता है। उनके विग्रह में तीन नेत्र हैं। पार्वती जी की इस प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों व आभूषणों से अलंकृत किया हुआ है।
श्री राम का मंदिर
मंदिर परिसर के भीतर दो तलों पर पश्चिमाभिमुख मंदिर है जो भगवान श्री राम को समर्पित है। मंदिर की भित्तियाँ अप्रतिम भित्तिचित्रों द्वारा अलंकृत हैं। मुख्य मंदिर एवं राम मंदिर के मध्य एक गोलाकार मंदिर है जो श्री शंकरनारायण को समर्पित है। इस मंदिर का मुख भी उसी दिशा में है जिस दिशा में उपरोक्त दो मंदिर हैं। शंकरनारायण का विग्रह भगवान शिव एवं भगवान विष्णु का संयुक्त रूप है। उन्हे हरिहर भी कहा जाता है। विग्रह चतुर्भुज है, दाहिने दो हाथों में त्रिशूल व परशु है तथा बाएं दो हाथों में शंख व गदा है। मंदिर की भित्तियों पर महाभारत के विविध प्रसंगों को प्रदर्शित करते भित्तिचित्र हैं। इन तीनों मंदिरों की वास्तु वृत्ताकार है जिसका आधार गोलाकार एवं छत शंक्वाकार है। इन तीन मंदिरों के समक्ष लकड़ी के तीन मुखमंडप हैं।
महागणपति मंदिर
वडक्कन्नाथन एवं शंकरनारायण मंदिर के मध्य महागणपति को समर्पित एक पूर्व मुखी मंदिर है। यह मुख्य मंदिर के पाकगृह के समीप स्थित है जो शंकरनारायण मंदिर के पृष्ठभाग में है। गणपति का यह विग्रह चतुर्भुज है। मंदिर के उत्तर भाग में एक अन्य विग्रह है जो वेट्टक्योरिमगन देव को समर्पित है। वेट्टक्योरिमगन को भगवान शिव का आखेटक रूप माना जाता है जो इस मंदिर की रक्षा करते हैं। पीतल की एक बलि पीठिका है। भूमि पर चारों ओर दंडवत प्रणाम करते पुरुषों के शिल्प हैं।
भीतरी भित्ति एवं बाह्य भित्ति के मध्य स्थित परिसर में भी अनेक मंदिर हैं। बाह्य प्रकोष्ठ के भीतर पीपल के अनेक वृक्ष हैं। परिसर में एक प्रदक्षिणा पथ भी है। मंदिर के चारों ओर प्रदक्षिणा करते समय पूर्व निर्धारित नियमों का पालन करना आवश्यक है।
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बाह्य प्रकोष्ठ के मंदिर व संरचनाएं
बाह्य प्रकोष्ठ में स्थित विभिन्न मंदिर एवं संरचनाएं हैं:
कूतम्बलम अथवा नाट्यगृह
यह लकड़ी की एक विशाल संरचना है जहाँ कूथु, कोडियेट्टम एवं नंग्यारकूत जैसे केरल के प्राचीन नृत्य एवं कला शैलियों का वार्षिक प्रदर्शन किया जाता है।
गोपालकृष्ण अथवा गोसलकृष्ण
यह मंदिर भगवान कृष्ण के गोपाल अथवा ग्वाल रूप को समर्पित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी समय यहाँ एक गोशाला भी थी।
शरा तीर्थम
उत्तरी भाग में एक गहरा कुआँ है। मान्यताओं के अनुसार, महाभारत युद्ध में जयद्रथ का वध करने के पश्चात अर्जुन प्रायश्चित करने यहाँ आए थे। बाण भेद कर उन्होंने इस कुएं की रचना की थी तथा इसमें गंगा नदी का जल भरा था।
वृषभ अथवा नंदिकेश्वर
यह मंदिर भगवान शिव के वाहन, नंदी को समर्पित है। यह मंदिर उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। इस मंदिर में नंदी शयनावस्था में स्थित हैं। इसीलिए मंदिर में सर्वप्रथम करतल ध्वनि कर उन्हे निद्रा से जगाया जाता है। यहाँ भक्तगणों द्वारा अपने वस्त्र का एक दोरा उन्हे अर्पित करने की प्रथा है।
परशुराम
उत्तर-पूर्वी छोर पर एक मंच है जो परशुराम को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि परशुराम इसी स्थान से अन्तर्धान हुए थे। उनकी आराधना में यहाँ एक दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है।
सिंहोदर
सिंहोदर, भगवान शिव के एक गण थे जिन्हे परशुराम के अनुरोध के पश्चात, केरल में शिव के लिए उपयुक्त स्थल की खोज करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उपयुक्त स्थल के चयन के पश्चात सिंहोदर यहीं विश्राम करने लगे। भगवान शिव जब यहाँ आए तब उन्होंने अंतरंग परिसर के बाहर उसे स्थान प्रदान किया। ऐसा माना जाता है कि तब से सिंहोदर यहीं विराजमान है तथा मंदिर की रखवाली करते हैं। यहाँ एक प्रथा है जिसमें भक्तगण छोटे छोटे ठींकरों को एक छोटी गोलाकार शिला पर रखते हैं। इस शिला को बलिकल्लु कहा जाता है। यह मंदिर की रखवाली करने के उपलक्ष में सिंहोदर को बली अर्पित करने का प्रतीक है। आंतरिक भित्ति पर एक त्रिकोणीय छिद्र है जिसमें से भक्तगण वडक्कन्नाथन मंदिर को देख सकते हैं।
शास्ता मंदिर
दक्षिण-पूर्वी छोर पर एक छोटा सा मंदिर है जो शास्ता अर्थात् श्री अयप्पा को समर्पित है। मंदिर के पृष्ठभाग में एक स्थान है जो अत्यंत हरा-भरा है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान द्वारा संजीवनी पर्वत को श्री लंका लेकर जाते समय, पर्वत से कुछ मिट्टी यहाँ गिर गई थी।
व्यास शिला
पीपल के एक वृक्ष के नीचे, चबूतरे पर व्यास ऋषि का एक लघु मंदिर है। व्यास ऋषि को महाभारत का रचयिता माना जाता है। भक्तगण इस चबूतरे पर अपनी उंगली से ‘ओम श्री महागणपतये नमः’ यह अदृश्य मंत्र लिखते हैं।
आदि शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य को समर्पित एक मंदिर है। आदि शंकराचार्य ने यहाँ कुछ दिवस व्यतीत किए थे। इस मंदिर से संबंधित उनके जन्म की कुछ दंतकथाएं भी प्रचलित हैं।
सम्बोदरा
दक्षिण-पूर्वी छोर पर एक चबूतरा है जहाँ खड़े होकर, पूर्व की ओर मुख कर, आप श्री चिदंबरम को प्रणाम कर सकते हैं तथा दक्षिण की ओर मुख कर श्री रामेश्वरम को प्रणाम कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि चिदंबरम मंदिर के शिव के आनंद तांडव नृत्य का प्रतिबिंब रामेश्वरम में भी पड़ता है। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान शिव के आनंद तांडव नृत्य का दर्शन सहस्त्र फनों वाले सर्प अनंतशेष ने यहीं से किया था।
अम्मदरा
इस चबूतरे पर ‘ऊरगत्तम्मा’ की आराधना की जाती है। ऊरगत्तम्मा जिन्हे कामाक्षी का एक स्वरूप माना जाता है, मंदिर से लगभग १० किलोमीटर स्थित ऊरकम में वास करती हैं। श्री राम के भ्राता, भरत, जिन्हे यहाँ श्री कूदलमाणिक्यस्वामी कहा जाता है, उनकी प्रतिमा मंदिर से २० किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित इरिंजलकुडा में स्थापित है। ऐसी मान्यता है कि ऊरकथम्मा एवं श्री कूदलमाणिक्यस्वामी, दोनों इस चबूतरे पर आकर मंदिर के सभी देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं।
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मंदिर में अर्चना के नियम
आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर में परिक्रमा अथवा प्रदक्षिणा करने के लिए कुछ नियम बांधे थे। भक्तगण पूर्ण श्रद्धा से इन नियमों का पालन करते हैं। बाह्य एवं अंतरंग प्रकोष्ठों में पूजा एवं प्रदक्षिणा के लिए दो प्रकार के नियम हैं।
बाह्य प्रकोष्ठ के प्रदक्षिणा एवं पूजन क्रम
क्रमवार प्रदक्षिणा एवं पूजन के नियम अंग्रेजी एवं मलयालम भाषा में कूतम्बलम के निकट लिखे हुए हैं। उनका क्रम इस प्रकार है:
- श्री मूलस्थानम: पश्चिमी गोपुरम के बाह्य भाग में स्थित है।
- गोपालकृष्णन
- नंदिकेश्वर/वृषभ
- परशुराम
- सिंहोदर
- काशीविश्वनाथ: सम्बोदरा मंदिर से उत्तर की ओर मुख कर वंदना करें।
- संबुकुम्बलम: भीतरी भित्ति पर स्थित त्रिकोणीय छिद्र से श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का कलश दर्शन
- सम्बोदरा: चिदंबरम एवं रामेश्वरम का वंदन
- दक्षिणी गोपुरम: दक्षिण की ओर मुख कर कोडुंगल्लूर देवी की वंदना
- अम्मदरा: ऊरगत्तम्मा देवी एवं श्री कूदलमाणिक्यस्वामी के दर्शन व वंदन
- शंकरनारायण, श्री राम मंदिर एवं श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के कलश दर्शन
- वेट्टक्योरिमगन: आखेटक शिव
- व्यासशिला एवं उंगली से ‘ओम श्री महागणपतये नमः’ लिखना
- अयप्पा अथवा शास्ता
- मंदिर का पृष्ठभाग जहाँ संजीवनी पर्वत की मिट्टी गिरी थी
- आदि शंकराचार्य की समाधि
बाह्य प्रकोष्ठ की प्रदक्षिणा के उपरांत भीतरी परिसर में जाने के लिए चुट्टमबलम में प्रवेश किया जाता है। तत्पश्चात चुट्टमबलम के भीतर इनके दर्शन किए जाते हैं:
- वृषभ
- वासुकि-शयन भित्तिचित्र। इसे फणीवरशयन भी कहा जाता है। यह एक दुर्लभ भित्तिचित्र है जिसमें भगवान विष्णु के अनंतशयन के समान भगवान शिव को वासुकि-शयन रूप में चित्रित किया गया है।
- नृत्यनाथ भित्तिचित्र
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अंतरंग प्रकोष्ठ के प्रदक्षिणा एवं पूजन क्रम
भीतरी परिसर में प्रदक्षिणा एवं दर्शन का क्रम इस प्रकार है। कुछ स्थानों पर दर्शन की पुनरावृत्ति इस क्रम का ही भाग है।
- श्री वडक्कन्नाथन
- पार्वती
- श्री गणेश
- श्री शंकरनारायण
- श्री राम
- श्री शंकरनारायण
- श्री गणेश
- पार्वती
- श्री वडक्कन्नाथन
- श्री गणेश
- श्री शंकरनारायण
- श्री राम
- श्री शंकरनारायण
- श्री राम
- श्री शंकरनारायण
- श्री गणेश
- पार्वती
- श्री वडक्कन्नाथन
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर
इस मंदिर से संबंधित अनेक किवदंतियाँ प्रचलित हैं। उन किवदंतियों में से एक आदि शंकर के जन्म से संबद्ध है। कलदी के शिवगुरु भट्ट एवं आर्यम्बा को दीर्घ काल तक संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। वे त्रिचूर के श्री वडक्कन्नाथन मंदिर गए तथा अपने दिवस पूजा व ध्यान में व्यतीत करने लगे। एक दिवस स्वप्न में भगवान शिव ने उन्हे दर्शन दिए तथा वर प्रदान किया। किन्तु भगवान शिव ने उनके समक्ष एक बंधन भी रखा। उन्हे विद्वान व बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र अथवा दीर्घायु किन्तु सामान्य बुद्धि के पुत्र में से एक का चयन करने का बंधन रखा। उस दम्पत्ति ने विद्वान व बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र का चयन किया। एक वर्ष के भीतर ही उन्हे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। भगवान शिव के वरदान स्वरूप पुत्र का नामकरण उन्होंने शंकर किया।
मंदिर के बाह्य परिसर में आदि शंकर की समाधि निर्मित की गई है।
नृत्यनाथ का भित्तिचित्र
मंदिर परिसर के भीतर, चुट्टमबलम के निकट स्थित नृत्यनाथ अथवा नटराज के भित्तिचित्र से संबंधित भी एक दंत कथा प्रचलित है। श्री वडक्कन्नाथन का एक भक्त ख्यातिप्राप्त भित्ति-चित्रकार था। उसने तीन मास तक अथक परिश्रम कर नटराज का एक अप्रतिम भित्तिचित्र चित्रित किया था। किन्तु दूसरे ही दिवस एक नंबूदिरी भक्त ने अपने पूजन कमंडल के जल से उस भित्तिचित्र को धो दिया। इस प्रकार नंबूदिरी भक्त ने चित्रकार के तीन प्रयासों को नष्ट किया। तब चित्रकार ने मंदिर के अधिकारियों से शिकायत करने का निश्चय किया।
इसकी सूचना प्राप्त होती ही उस नंबूदिरी भक्त ने चित्रकार को सांत्वना दी तथा कहा कि एक दिवस वह उससे अधिक उत्कृष्ट भित्तिचित्र चित्रित करेगा जिसे देखकर सब दंग रह जाएंगे। उस नंबूदिरी भक्त ने भित्तिचित्र का चित्रण आरंभ किया जिसे देखने भक्तगण एकत्र हो गए। जब नटराज का चित्र पूर्ण हुआ, उस में नटराज जीवंत हो उठे। सबने उन्हे नेत्रों को हिलाते हुए नृत्य करते देखा। एक मिनट के पश्चात उस चित्र में नटराज पुनः जड़ हो गए। उस समय से इस भित्तिचित्र की भी वंदना की जाती है।
भक्तों को आशीर्वाद
श्री वडक्कन्नाथन के विषय में कहा जाता है कि ‘जैसी इच्छा वैसा आशीर्वाद’। इस संबंध में भी अनेक किवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक किवदंती एक वृद्ध व अशक्त ब्राह्मण के विषय में है जिसे काशी भ्रमण की तीव्र अभिलाषा थी। उसने काशी भ्रमण पर निकले एक नंबूदिरी से अपनी अभिलाषा व्यक्त की। उस समय काशी की यात्रा पैदल चल कर पूर्ण की जाती थी जो अत्यंत कष्टकर होती थी। ब्राह्मण की दैहिक स्थिति देख नंबूदिरी ने उसके निवेदन को अस्वीकृत कर दिया। तब उस वृद्ध ब्राह्मण ने श्री वडक्कन्नाथन की आराधना की तथा उनसे काशी दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। ऐसा माना जाता है कि भगवान ने स्वयं सिंहोदर को आज्ञा दी कि वह ब्राह्मण को काशी लेकर जाए।
सिंहोदर ब्राह्मण को एक सुरंग से काशी लेकर गया। अगले दिन जब ब्राह्मण घाट पर स्नान कर रहा था तब नंबूदिरी की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने ब्राह्मण से पूछा कि वह इतने शीघ्र काशी कैसे पहुँच। तब ब्राह्मण ने सम्पूर्ण वृत्तान्त उसे सुनाया कि कैसे श्री वडक्कन्नाथन के आशीर्वाद से वह यहाँ पहुँच पाया है। अब उस सुरंग के मुहाने पर एक शिला रखी गई है जो माना जाता है कि देवी पार्वती की आज्ञा पर सिंहोदर ने रखी थी। इसी परिपाटी के अंतर्गत भक्तगण उस शिला के ऊपर पत्थर रखते हैं।
श्री वडक्कन्नाथन से संबंधित ऐसी अनेक दंतकथाएं प्रचलित हैं।
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श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के उत्सव
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर में मनाए जाने वाले प्रमुख उत्सव इस प्रकार हैं:
शिवरात्रि
शिवरात्रि श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का प्रमुख उत्सव है जिसे फरवरी-मार्च मास में आयोजित किया जाता है। इस उपलक्ष्य में मंदिर परिसर में अनेक सांस्कृतिक एवं संगीतमय कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दिन मंदिर के सम्पूर्ण परिसर को प्रकाशमान किया जाता है। मंदिर के द्वार सम्पूर्ण रात्रि खुले रहते हैं। श्रीफल के जल एवं घी से भगवान का अनवरत अभिषेक किया जाता है। किन्तु इस दिन कोई शोभायात्रा आयोजित नहीं की जाती है।
आनाऊट्ट
यह इस मंदिर के बड़े उत्सवों में से एक है जिसमें हाथियों को भोजन अर्पण किया जाता है। यह उत्सव जुलाई मास में आता है। मलयालम पंचांग के अनुसार यह उत्सव करकिडगम मास के प्रथम दिवस मनाया जाता है। इस दिन महागणपति होम का आयोजन किया जाता है। बड़ी संख्या में भक्तगण मंदिर में गज पूजा के लिए आते हैं तथा यहाँ एकत्रित अनेक हाथियों को भोजन अर्पित करते हैं।
त्रिचूर पूरम
आसपास के सभी मंदिरों के विभिन्न विग्रहों को श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के प्रांगण में लाकर विशाल सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन प्रतिवर्ष मलयालम पंचांग के मेढम मास में किया जाता है जो अंग्रेजी पंचांग के अप्रैल में आता है। यह केरल राज्य में आयोजित सभी पूरम उत्सवों में से सर्वाधिक भव्य उत्सव है। पूरम उस मलयालम मास का नक्षत्र है जिसमें यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन मध्य केरल के मंदिरों में, संबंधित भगवान की विशेष वंदना का, वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है। हाथियों को सजा-सवाँरकर, अधिष्ठात्र देवों की उत्सव मूर्तियों को उन पर बिठाकर भव्य शोभायात्रा यात्रा निकाली जाती है। वाद्य यंत्रों का बेजोड़ सामूहिक प्रभाव इस शोभायात्रा को अत्यंत अद्भुत एवं अद्वितीय बना देते हैं। यह उत्सव नवंबर मास से आरंभ होकर मई मास तक चलता है। इस समयावधि में अनेक उत्सव आयोजित होते हैं किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव त्रिचूर पूरम है।
शक्तन थमपुरण
पूरम २०० वर्ष प्राचीन उत्सव है जिसका आरंभ राजा राम वर्मा ने किया था। राजा राम वर्मा कोचीन के राजा थे तथा शक्तन थमपुरण के नाम से लोकप्रिय थे। उन्होंने श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के चारों ओर स्थित सभी दस मंदिरों को एकीकृत किया था तथा इस उत्सव को एक सामूहिक उत्सव बनाने के लिए अनेक कदम उठाए थे। पूरम उत्सव की सम्पूर्ण प्रक्रिया को उन्होंने सूक्ष्मता से नियोजित किया। अब भी बिना किसी परिवर्तन के सम्पूर्ण प्रक्रिया उसी प्रकार पूर्ण की जाती है।
राजा राम वर्मा ने मंदिरों को दो समूहों में बांटा था, पूर्वी समूह तथा पश्चिमी समूह। सभी मंदिरों की शोभायात्रा श्री वडक्कन्नाथन मंदिर तक जाती है तथा वंदना अर्पण करती है। यह सात दिवसों का उत्सव है जिसका आरंभ प्रत्येक मंदिर में ध्वज फहराकर किया जाता है। साथ ही आतिशबाजी का प्रदर्शन कर उत्सव आरंभ होने की घोषणा की जाती है। उत्सव के चौथे एवं पाँचवें दिवस, मंदिरों के दोनों समूह अपने आभूषणों तथा गज अलंकरणों का प्रदर्शन करते हैं। तत्पश्चात पूरम अथवा महासम्मेलन का आयोजन होता है।
नैतिकावु भगवती देवी
पूरम उत्सव से एक दिवस पूर्व, मंदिरों के पश्चिमी समूह से नैथिकव्वु भगवती देवी श्री वडक्कन्नाथन मंदिर पहुँचती हैं तथा भगवान शिव को श्रद्धा सुमन अर्पित करती हैं। तत्पश्चात, दक्षिणी गोपुरम का द्वार खोलती हैं तथा मूलस्थानम जाती हैं। वहाँ कोचीन देवास्वोम मण्डल के प्रतिनिधि उनका स्वागत करते हैं। इसके पश्चात तीन शंखनाद कर पूरम की घोषणा की जाती है।
३६ घंटों के विस्तृत पूरम उत्सव में कार्यक्रम सारणी का कठोरता से पालन किया जाता है। अपने अपने अलंकृत हाथियों पर सवार, सभी देवी-देवता पूर्व निर्धारित पथ द्वारा ही श्री वडक्कन्नाथन को श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचते हैं। इस पथ का भी कठोरता से पालन किया जाता है। दिवस का आरंभ, सारणी के अनुसार, प्रत्येक देवी-देवता के पारंपरिक भव्य प्रवेश से होता है। अंततः, आतिशबाजी के प्रदर्शन द्वारा उत्सव का समापन किया जाता है। यह अत्यंत चकाचौंध भरा दृश्य होता है। दूर-सुदूर से भक्तगण एवं पर्यटक इस उत्सव में भाग लेने यहाँ आते हैं। इस आयोजन के भव्य समापन का अनुभव करने वे सम्पूर्ण रात्रि जागरण भी करते हैं।
सन् १९६४ से एक अन्य आकर्षण भी लोगों को यहाँ आकर्षित कर रहा है। वह है, दक्षिण भारत के सर्वाधिक विशाल व्यापार मेलों में से एक व्यापार मेले का आयोजन। यहाँ केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार, दोनों अपने खेमे लगाकर अपने विभिन्न उत्पादों की प्रदर्शनी लगाते हैं।
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यात्रा सुझाव
- इस मंदिर में भक्तों को परिधान के विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है। पुरुषों को केवल धोती धारण करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त देह पर कोई वस्त्र नहीं होता है। स्त्रियाँ साड़ी, केरल का लंबा लहंगा अथवा सलवार-कुर्ता पहन सकती हैं।
- वडक्कन्नाथन मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ४ बजे से १० बजे तक तथा सायं ४:३० बजे से रात्रि ८:३० बजे तक का होता है।
- वडक्कन्नाथन मंदिर परिसर के भीतर किसी भी प्रकार का छायाचित्रिकरण प्रतिबंधित है।
- इस मंदिर के दर्शन का सर्वोत्तम समय पूरम उत्सव है। अपने ठहरने की सुविधाएं पूर्व निर्धारित एवं नियोजित कर लें। अन्यथा उत्सव काल में यहाँ पर्यटकों की संख्या अत्यधिक रहती है।
- मंदिर के आसपास अनेक विश्रामगृह तथा अतिथिगृह हैं। अतः ठहरने की कोई समस्या नहीं है।
- राज्य के अनेक भागों से तथा कुछ अंतरराज्यीय स्थलों से केरल राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों की सुविधाएं नियमित रूप से उपलब्ध हैं।
- त्रिचूर रेल स्थानक सभी महत्वपूर्ण नगरों से जुड़ा हुआ है।
- निकटतम विमानतल कोची एवं कालीकट हैं।
- भ्रमण के लिए आसपास के अन्य महत्वपूर्ण स्थल हैं, कलदी, गुरुवायुर, इत्यादि।
यह संस्करण एक अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है। यदि विशेष उल्लेख ना हो तो सभी छायाचित्र भी उन्ही की देन हैं।
श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से भी अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। वर्तमान में वे बंगलुरु में निवास करती हैं। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।