प्रयागराज, जिसे कुछ समय के लिए इलाहाबाद भी कहा जाता था, एक छोटा किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण नगर है। भारत के तीन प्रधानमंत्री प्रयागराज नगर के निवासी थे जिनमें दो का जन्म भी प्रयागराज में हुआ था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी इस नगर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अध्ययन क्षेत्र में भी प्रयागराज का नाम, इसके इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कारण प्रसिद्ध है।
अतः जब मैं प्रयागराज की यात्रा पर थी, मैंने इस नगर की धरोहरों के दर्शन करने के लिए एक आत्म-निर्देशित पदभ्रमण करने का निश्चय किया। उत्तरप्रदेश पर्यटन द्वारा जगह जगह पर लगाई गई सूचना पट्टिकाओं ने इस पदभ्रमण में मेरा भरपूर मार्गदर्शन किया। इन पट्टिकाओं में पदभ्रमण से सम्बंधित प्रत्येक बिंदु के विषय में स्पष्ट जानकारी दी गयी है जिनका पालन करते हुए आप प्रयागराज नगर की विरासती धरोहरों का पूर्ण आनंद ले सकते हैं। तब तक के लिए आईये, मैं अपने इस संस्मरण के द्वारा आपको इस मनमोहक यात्रा पर ले चलती हूँ।
मैंने अपना पदभ्रमण प्रातः ही आरम्भ कर दिया था। इस समय तक कोई भी स्मारक, संग्रहालय अथवा बगीचे खुले नहीं थे। अतः मैंने अपनी पदयात्रा ऋषि भारद्वाज आश्रम से आरम्भ की क्योंकि यह प्रातः सूर्योदय के साथ ही खुल जाता है।
प्रयागराज धरोहर यात्रा
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ऋषि भारद्वाज आश्रम
प्रयागराज के मुख्य मार्ग पर ऋषि भारद्वाज की एक विशाल प्रतिमा है। मार्ग से जाते समय आप इसे अनदेखा कर ही नहीं सकते। इस प्रतिमा के पीछे एक छोटा व मनोरम बगीचा है। यह सुबह ९ बजे खुलता है एवं इसका प्रवेश शुल्क रुपये १०/- है। बगीचे का रखरखाव उत्तम है। बगीचे की भित्तियों पर भित्तिचित्र बने हुए हैं जो भारद्वाज मुनि की कथा कहते हैं।
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बगीचे के पास से एक रास्ता प्राचीन आश्रम परिसर की ओर जाता है। इस मार्ग में रंगबिरंगे सुन्दर घर हैं। प्रत्येक घर एक मंदिर सा प्रतीत होता है। एक संकरी गली आपको आश्रम तक ले जाती है जो कई छोटे मंदिरों का समूह है।
तुलसी रामायाण में भारद्वाज आश्रम का उल्लेख है। इसके अनुसार भगवान् राम वनवास मार्ग पर यहाँ होते हुए गए थे, जिसकी स्मृति में उनकी चरण पादुका यहाँ उत्कीर्णित है। कई देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियाँ आप यहाँ देख सकते हैं। यहाँ ऋषि अत्री व उनकी पत्नी अनुसूया, ऋषि याज्ञवल्क्य, ऋणमोचन, पापमोचन, सत्यनारायण एवं देवी के कई रूपों को समर्पित मंदिर हैं। भगवान् शिव यहाँ कोटेश्वर महादेव के रूप में विराजमान हैं।
आश्रम की पुजारिन ने मुझे बताया कि एक समय यह आश्रम गंगा किनारे था। अकबर ने नदी पर बाँध बांधा तथा गंगा को आश्रम से दूर ले गया। किन्तु भक्तगण आश्रम को नहीं भूले। वे जब भी प्रयाग तीर्थ अथवा प्रयाग संगम के दर्शनार्थ यहाँ आते हैं, वे भारद्वाज आश्रम के दर्शन अवश्य करते हैं। जैसा कि आप सब जानते हैं, ऋषि भारद्वाज सप्तऋषियों में से एक हैं जो हम सब के पूर्वज हैं। उन्हें बृहस्पति का पुत्र तथा आयुर्वेद का लेखक माना जाता है
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एक समय भारद्वाज मुनि का यह आश्रम एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि इसी आश्रम में पुष्पक विमान की निर्मिती की गयी थी।
आनंद भवन
आनंद भवन कदाचित इलाहाबाद का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक है। यह नेहरु परिवार का निवासस्थान था जहां जवाहर लाल नेहरु एवं इंदिरा गाँधी का जन्म हुआ था। महात्मा गाँधी जब इलाहाबाद आये थे, तब वे भी यहीं ठहरे थे।
इसका प्रवेश शुल्क अधिक है( रुपये ७०/-) एवं छायाचित्रीकरण की भी अनुमति नहीं दी जाती है। प्रवेश करते ही आप एक सुन्दर दुमंजिला घर देखेंगे जो एक बड़े घास के मैदान के बीचोंबीच स्थित है। इसके ऊपर छत्री के सामान एक गुम्बद बना हुआ है।
ऊपरी तल में नेहरु एवं इंदिरा के कक्ष हैं। एक विशाल पुस्तकालय भी है जहां बैठकें की जाती थीं। पुस्तक प्रेमी होने के कारण मुझे सदैव ऐसे पुस्तकालयों में भरपूर समय बिताने की इच्छा रहती है।
घर के पीछे छायाचित्रों की प्रदर्शनी है जहां मुख्यतः नेहरु-गाँधी परिवारों के चित्र हैं। पुस्तकों की एक सुन्दर दुकान भी है जहां एक बार फिर नेहरु-गाँधी परिवारों से सम्बंधित पुस्तकें ही हैं। इस परिसर में नेहरु तारामंडल भी है। यहाँ की प्रदर्शनी देखने के लिए एक और टिकट खरीदने की आवश्यकता है।
स्वराज भवन
आनंद भवन का पिछला द्वार स्वराज भवन की ओर जाता है। यह मोतीलाल नेहरु का मूल निवासस्थान था। यह आनंद भवन से अपेक्षाकृत अधिक विशाल है। इसका एक अत्यंत छोटा भाग ही खुला है। यहाँ एक छायाचित्र प्रदर्शनी है जो इंदिरा की इस घर में एक नन्ही बालिका से लेकर प्रधान मंत्री बनने तक की यात्रा का चित्रण है। यद्यपि इस स्थान को इंदिरा के जन्मस्थान के रूप में नहीं जाना जाता है।
स्वराज भवन का एक अत्यंत छोटा सा भाग ही आप देख सकते हैं तथा इसके लिए प्रवेश शुल्क नहीं है।
इलाहाबाद विश्विद्यालय
इलाहाबाद विश्वविद्यालय आधुनिक भारत के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से एक है। कई विख्यात महानुभावों के यहाँ शिक्षा प्राप्त की है तथा कईयों ने यहाँ पढ़ाया भी है। इन प्रसिद्ध हस्तियों में हरिवंशराय बच्चन का भी नाम है। विश्वविद्यालय की कई पुरानी इमारतें आपको अंग्रेजी शासन का स्मरण करायेंगी। अधिकतर इमारतें अब भी सक्रिय हैं। विद्यार्थी इन इमारतों में अन्दर बाहर होते दिखाई पड़ते हैं। मैं सोचने लगी कि इन विद्यार्थियों में से कितनों को वास्तव में इस विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक महत्व का अनुमान होगा!
इस विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों की सूची देखिये।
केंद्रीय पुस्तकालय में निराला
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का केंद्रीय पुस्तकालय एक प्राचीन पुस्तकालय है जो इस विश्वविद्यालय के आरंभिक दिनों से यहाँ स्थित है। वर्तमान में इस पुस्तकालय की इमारत अपेक्षाकृत नवीन है। यहाँ का अध्ययन कक्ष अत्यंत विशाल है जिसके भीतर ५०० से अधिक लोग एक साथ बैठकर आसानी से पढ़ सकते हैं।
पुस्तकालय के सम्मुख हिंदी भाषा के प्रख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाजी की आदमकद प्रतिमा है। उन्हें देख मुझे स्मरण हुआ कि इलाहाबाद नगर में ही निरालाजी ने अपना अंतिम श्वास लिया था।
व्यवस्थापिका सभा अर्थात सीनेट हाल
व्यवस्थापिका सभा अर्थात सीनेट हाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति(वाइस चांसलर) का कार्यालय है। लाल रंग की छटा लिए इस उत्कृष्ट इमारत का ऊंचा घंटाघर आगंतुकों को समय बताता है। झरोखों एवं छत्रियों से सज्ज यह मिश्रित वास्तुकला १०० वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। इसकी वास्तुशैली लुटियन दिल्ली से मिलती जुलती है। दोनों शैलियाँ एक ही काल की तो हैं!
यहाँ से आगे बढ़कर मैंने उन गलियों में प्रवेश किया जहां पुरानी पुस्तकों के विक्रेताओं की भरमार थी। साथ ही कई महाविद्यालयीन भोजनालय भी थे। जलेबियों को देख स्वयं को रोक नहीं पायी तथा अत्यंत स्वादिष्ट जलेबियों का भरपूर आनंद लिया।
गणित विभाग
सन् १८७२ में निर्मित यह भवन ठेठ गोथिक पद्धति की संरचना प्रतीत होती है। यहाँ की कक्षाओं में गुम्बददार छतें हैं जिन्हे मैं नहीं देख पायी। कुल मिलाकर यह गणित का अभ्यास करने के लिए एक उपयुक्त इमारत प्रतीत हुई।
मुइर केंद्रीय महाविद्यालय
सन्१८७२ में ही निर्मित मुइर केंद्रीय महाविद्यालय, गणित विभाग के एक ओर स्थित है। एक विशाल खेल के मैदान के समक्ष स्थित इस इमारत की अनोखी विशेषता है बलुआ पत्थर में निर्मित २०० फीट ऊंची एक मीनार।
मुइर केंद्रीय महाविद्यालय का महत्व इस तथ्य में निहित है कि ये वो नींव का पत्थर है जो कालान्तर में प्रतिष्ठित इलाहाबाद विश्वविद्यालय बना।
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आप अपने चारों ओर दृष्टी दौड़ायेंगे तो आपको वहां बलुआ पत्थर में निर्मित कई अन्य संरचनायें दृष्टिगोचर होंगी। उनके बीच पैदल चलते हुए आप कई विद्यार्थियों को देखेंगे जो बैठकर पढ़ रहे होंगे अथवा बातें या मजे कर रहे होंगे। उन्हें देखकर मुझे अपने महाविद्यालयीन अच्छे पुराने दिनों का स्मरण हो आया।
चन्द्र शेखर आजाद उद्यान
रास्ता पार कर दूसरी ओर जाने पर आप स्वयं को चन्द्र शेखर आजाद उद्यान के समक्ष पायेंगे। इस बगीचे को पूर्व में अल्फ्रेड बाग भी कहा जाता था। स्थानीय लोग इसे कंपनी बाग भी कहते हैं।
उद्यान के भीतर चन्द्र शेखर आजाद की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा साक्षी है, किस प्रकार २४ वर्ष की अल्पायु में चन्द्र शेखर आजाद ने १९३१ में भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने अनमोल प्राणों की बलि दे दी थी। चन्द्र शेखर आजाद उन कुछ स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं जिनके कारण आज हम स्वतन्त्र भारत में चैन की सांस ले रहे हैं। आप अपने चप्पल-जूते उतार कर प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक होकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकते हैं।
आजाद की मूर्ति के आसपास मैंने कई पौधे देखे जिन्हें अनोखे पात्रों में उगाया गया था। पौधों के पात्रों के रूप में गाड़ी के फेंके गए चक्कों का प्रयोग किया गया था। फेंकी गयी वस्तु का यह अनोखा प्रयोग देख मुझे अत्यंत आनंद आया।
इलाहाबाद संग्रहालय
इलाहाबाद संग्रहालय भारत के प्रारंभिक संग्रहालयों में से एक है। यहाँ आप कुछ अप्रतिम एवं अनमोल कलाकृतियाँ देखेंगे। पुरातत्व दीर्घा में मैंने सुन्दर बौद्ध एवं जैन मूर्तियाँ देखीं। टेराकोटा दीर्घा में लाल पकी टेराकोटा मिट्टी में बनी कई छोटी छोटी मूर्तियाँ थी जिन पर सूक्ष्म नक्काशी की गयी थी। आधुनिक चित्रकारी की दीर्घा में कुछ अत्यंत मनोहारी चित्र प्रदर्शित की गयी थीं।
संग्रहालय में कुंभ मेले के अभिलेखों पर एक प्रदर्शनी लगी हुई थी। १९२० अथवा १९३० के दशक में कुंभ मेले में किये गए व्यवस्थाओं के विषय में जानकर बहुत आश्चर्य हुआ। इनमें कुछ व्यवस्थाएं हैं, अतिरिक्त रेलगाड़ियाँ चलाना, स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना इत्यादि।
टिकट के साथ एक छोटी पुस्तिका दी जाती है जिसमें संग्रहालय का नक्शा बना हुआ है। इस पुस्तिका में संग्रहालय के प्रमुख आकर्षणों का भी उल्लेख किया गया है जिन्हें अवश्य देखने की सिफारिश की गयी है, जैसे चन्द्रगुप्त प्रथम के सोने के सिक्के, चन्द्र शेखर आजाद की पिस्तौल इत्यादि।
इलाहाबाद नगर का सार्वजनिक पुस्तकालय
थॉर्नहिल मेन मेमोरियल, स्कॉटिश सामंती गोथिक पद्धति में बनी इस इमारत का आरंभिक नाम था। १८६३-६४ में स्थापित इलाहाबाद पुस्तकालय को कई स्थानों में स्थानांतरित करने के पश्चात अंततः १८८९ में इस इमारत में स्थायी स्थान प्राप्त हुआ। अब यह राज्य सार्वजनिक पुस्तकालय है।
मैं जब इस पुस्तकालय के भीतर चलते हुए इसका अवलोकन कर रही थी तब इसकी भीतरी सज्जा मुझे गिरिजाघर का स्मरण करा रही थी। मैंने जानने की चेष्टा की कि क्या यह इमारत पूर्व में एक गिरिजाघर थी? किन्तु मुझे इसका उत्तर ‘नहीं’ में प्राप्त हुआ। इसका निर्माण पुस्तकालय के लिए ही किया गया था। यद्यपि, बाहर लगी सूचना पट्टिका के अनुसार इस इमारत का उपयोग आरम्भ में संयुक्त प्रांत के विधानसभा कक्ष के रूप हुआ था।
यहाँ आकर मेरी इलाहाबाद अर्थात प्रयागराज की इस पदयात्रा का अंत हुआ। एक ऑटो में बैठकर मैंने कुंभ मेले की ओर प्रस्थान किया जो मेरे इस प्रयागराज यात्रा का प्रमुख उद्देश्य था।
एक तथ्य ने आपका ध्यान अवश्य आकर्षित किया होगा कि मेरी इस पदयात्रा में पुस्तकों का वर्चस्व था। दो पुस्तकालयें, विश्विद्यालय के भीतर एक पुस्तक गली तथा पुस्तकों की एक सुन्दर दुकान! पुस्तकों की चर्चा करें तो आपको बताना चाहूंगी कि भारद्वाज आश्रम के बाहर भी मैंने पुस्तकों एवं पंचांगों की दुकान देखी थी। कह सकते हैं कि प्रयागराज में साहित्य का प्रभुत्व सर्वविदित है।
मेरी इस पदयात्रा में मुझे ४ घंटों का समय लगा। इसमें भारद्वाज आश्रम एवं संग्रहालय में बिताये गए समय का भी समावेश है। आप चाहें तो इस पदयात्रा को २ घंटों में भी समाप्त कर सकते हैं। पदयात्रा के लिए सहायक सूचना पट्टिकाओं का पालन अवश्य करें।
अति सुन्दर जानकारी दी है आपने