भारत के मंदिर Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 27 Mar 2024 05:05:06 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 बहुचरा माता- मेहसाणा गुजरात का शक्तिपीठ https://inditales.com/hindi/bahuchar-mata-mandir-gujarat/ https://inditales.com/hindi/bahuchar-mata-mandir-gujarat/#respond Wed, 19 Jun 2024 05:45:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3629

गुजरात में तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें बहुचरा जी एक हैं। अन्य दो शक्तिपीठ हैं, आबू पर्वत के निकट अम्बा जी तथा पावागढ़ पर्वत के ऊपर कालिका देवी। मैं इससे पूर्व चंपानेर पावागढ़ की यात्रा कर चुकी हूँ। अब जैसे ही मुझे अहमदाबाद भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने त्वरित ही एक विमार्ग लेकर बहुचरा जी […]

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गुजरात में तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें बहुचरा जी एक हैं। अन्य दो शक्तिपीठ हैं, आबू पर्वत के निकट अम्बा जी तथा पावागढ़ पर्वत के ऊपर कालिका देवी। मैं इससे पूर्व चंपानेर पावागढ़ की यात्रा कर चुकी हूँ। अब जैसे ही मुझे अहमदाबाद भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ, मैंने त्वरित ही एक विमार्ग लेकर बहुचरा जी के दर्शन करने का निर्णय लिया।

बहुचरा माँ कौन हैं?

बहुचरा माँ गुजरात के मेहसाणा क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे अपने दर्शनार्थियों एवं भक्तों पर आशीषों का वर्षाव करती हैं। अनेक भक्तगण विशेष रूप से पुत्रप्राप्ति की मनोकामना लिए उनके दर्शन करने आते हैं। स्त्रियाँ अपने घरेलू समस्याओं एवं कष्टों के निवारण की आस लेकर उनके दर्शन करने आती हैं तथा उनके आशीष की कामना करती हैं।

बहुचरा माता और उनका चढ़ावा
बहुचरा माता और उनका चढ़ावा

इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ किन्नर समुदाय भी बहुचरा देवी के दर्शन के लिए आता है। देवी माँ के भक्तों में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। आप उन्हे मंदिर में स्थित वृक्ष के नीचे बैठे देख सकते हैं।

कुलदेवी

बहुचरा देवी कई समुदायों की कुलदेवी हैं जिनमें सोलंकी राजपूत, कोली, भील, किन्नर आदि सम्मिलित हैं। सोलंकी राजपूतों ने इस क्षेत्र में दीर्घ काल तक राज किया था। बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट अथवा मुर्गा है। सोलंकी राजाओं ने अपने राजध्वज में देवी के वाहन कुक्कुट की छवि भी प्रदर्शित की थी। वे अपनी संतानों के मुंडन समारोह के लिए देवी के मंदिर आते थे। यह प्रथा वर्तमान में भी अनवरत जारी है। आप जब मंदिर में दर्शन के लिए आयेंगे, आप यहाँ मुंडन किये हुए कई शिशुओं को देखेंगे। उनके शीष पर लाल कुमकुम से स्वस्तिक भी बना होगा।

बहुचरा माता को सिंध की हिंगलज माता का स्वरूप माना जाता है। उन्हे बाला त्रिपुरसुंदरी का भी स्वरूप माना जाता है जो रंगकर्मियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। आपको स्मरण होगा, कुचीपुड़ी में भी एक मंदिर है जो त्रिपुरसुंदरी को समर्पित है। इंटरनेट से मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इस मंदिर के गर्भगृह में स्फटिक का एक बाला यंत्र स्थापित है किन्तु मैं उसे देख नहीं पायी।

चढ़ावा

बहुचरा देवी को अर्पित किये जाने वाले चढ़ावे में एक रोचक चढ़ावा है, धातु का चौकोर पतरा, जिस पर सम्पूर्ण शरीर अथवा शरीर का कोई अंग उत्कीर्णित होता है। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व ही आप चारों ओर विक्रेताओं को देखेंगे जो इन पतरों की विक्री करते हैं। शरीर के जिस अंग में कष्ट है अथवा रोग है, भक्त वही पतरा देवी को अर्पित करता है। देवी उसके उस अंग को रोगमुक्त कर देती हैं।

मंदिर के भीतर हमने अनेक भक्तों को देखा जो ऐसे पतरे देवी को अर्पित कर रहे थे। विशेषतः आदि बहुचरा मंदिर में ऐसे भक्तों की संख्या अधिक थी। संतान प्राप्ति की कामना लिये अनेक स्त्रियाँ अथवा सम्पूर्ण परिवार भी ऐसा चढ़ावा देवी को अर्पित करता है।

बहुचरा माता का इतिहास

ऐसी मान्यता है कि बहुचरा माता एक वास्तविक स्त्री थी जिसका जीवनकाल १४ वीं सदी में माना जाता है। ठीक वैसे ही जैसे देशनोक की करणी माता को एक वास्तविक व्यक्तित्व माना जाता है। उनका मूल स्थान मरु क्षेत्र है जो वर्तमान के जैसलमेर में आता है। उनके पिता को सौराष्ट्र में एक जागीर प्रदान की गयी थी। एक समय की घटना है, सौराष्ट्र की ओर यात्रा करते हुए उन पर तथा उनकी भगिनियों पर एक डाकू ने आक्रमण किया था। आत्मरक्षा करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए किन्तु मृत्यु से पूर्व उन्होंने उस डाकू को किन्नर होने का श्राप दे दिया।

बहुचरा माता मंदिर - गुजरात
बहुचरा माता मंदिर – गुजरात

जब उस दस्यु को अपनी भूल का आभास हुआ, वह हृदय से क्षमाप्रार्थी हो गया। तब बहुचरा जी ने उससे उसी स्थान पर उनकी स्मृति में एक मंदिर का निर्माण करने की आज्ञा दी। उस काल में उसे चुनावल कहा जाता था किन्तु अब देवी के नाम पर उसे बेचारजी कहा जाता है। देवी ने वरदान दिया कि यदि किन्नर स्त्री की वेशभूषा धारण कर उनके दर्शन करने के लिए आयेंगे तो वे उन्हे आशीर्वाद देंगी तथा मरणोपरांत अपने चरणों में स्थान देंगी।

उस डाकू ने एक शमी वृक्ष के नीचे देवी के लिए एक मंदिर का निर्माण किया। आप आज भी यहाँ वह मंदिर देख सकते हैं।

वडोदरा के गायकवाड

१८ वीं शताब्दी में इस मंदिर में आराधना करने के पश्चात एक गायकवाड राजा को अपने रोग से मुक्ति प्राप्त हुई थी। उसके पश्चात उन्होंने यहाँ नवीन मंदिर का निर्माण करवाया था। १९ वीं शताब्दी में गायकवाड राजाओं ने दक्षिण भारत के एक पुरोहित को इस मंदिर में पूजा-अनुष्ठान करने के लिए यहाँ आमंत्रित किया था। वर्तमान में उसी दक्षिण भारतीय पुरोहित के वंशज मंदिर की पूजा-आर्चना आदि सभी अनुष्ठानों का नेतृत्व करते हैं।

जब बड़ौदा के गायकवाड राजाओं ने गुजरात में बड़ौदा राज्य रेलसेवा आरंभ की थी, तब वे प्रत्येक यात्री के एवज में मंदिर न्यास को ५० पैसे दान में देते थे। वे तालुका राजस्व से मंदिर के रखरखाव के लिए आवश्यक निधि भी प्रदान करते थे। स्वतंत्रता के पश्चात यह व्यवहार अब भी जीवित है अथवा नहीं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है।

मूर्ति विज्ञान – देवी बहुचरा जी की प्रतिमा की विशेषताएँ

बहुचरा देवी का वाहन एक कुक्कुट है। मंदिर के समक्ष अनेक सुंदर रंगों से अलंकृत एक कुक्कुट की प्रतिमा स्थापित है।

कुक्कुट वाहन
कुक्कुट वाहन

देवी की चार भुजायें हैं। दाहिनी ओर की ऊपरी भुजा में देवी ने दुर्गा की भांति एक तलवार धारण की हुई है। वहीं बायीं ओर के ऊपरी हाथ में उन्होंने देवी सरस्वती की भांति एक धर्मग्रंथ पकड़ा हुआ है। बाईं ओर के निचले हाथ में माहेश्वरी की भांति त्रिशूल धारण किया है तथा दाहिनी ओर की निचली भुजा लक्ष्मी की भांति अभय मुद्रा में स्थित है।

इस प्रकार बहुचरा जी देवी के चारों प्रमुख स्वरूपों के लक्षणों को अंगीकार करती प्रतीत होती हैं।

बहुचरा जी से संबंधित किवदंतियाँ

शमी वृक्ष के नीचे स्थित आदि बहुचरा जी के मंदिर के पुजारी जी ने मुझे बहुचरा देवी से संबंधित दो रोचक लोक-कथाएं सुनाईं।

मुसलमान आक्रमणकारी

सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के लिए जा रहे मुसलमान आक्रमणकारी मार्ग में स्थित सभी मंदिरों को नष्ट कर रहे थे. आक्रमण करते हुए वो सिद्धपुर पहुँचे जहाँ सिद्धपुर का प्रसिद्ध रुद्र महालय स्थित था। एक ब्राह्मण ने आक्रमणकारियों चुनौती दी कि वे बहुचरा देवी के मंदिर को ध्वस्त कर दिखाएं। उस ब्राह्मण पुजारी का असीम विश्वास था कि बहुचरा जी एक जागृत देवी हैं। वे मंदिर का एवं अपने भक्तों का सदा रक्षण करेंगी।

जब तक आक्रमणकारी मंदिर के निकट पहुँचे, संध्या हो चुकी थी। मंदिर के चारों ओर अनेक कुक्कुट विचरण करने लगे थे जो संयोग से देवी के वाहन भी हैं। उन्हे देख आक्रमणकारियों को लालच आने लगा। उन्होंने भरपूर कुक्कुटों का शिकार किया तथा उसे अपने रात्रि के भोजन में सम्मिलित किया। प्रातः होते ही मंदिर के एक कुक्कुट ने बाँग दी। आक्रमणकारियों के उदर में स्थित कुक्कुटों ने उस बाँग की प्रतिक्रिया दी एवं उनके उदार फाड़कर बाहर आ गए। इस प्रकार उन्होंने आक्रमणकारियों की सम्पूर्ण सेना को समाप्त कर दिया।

तब से देवी को धर्म के अनुयायियों का रक्षक माना जाता है।

सोलंकी एवं चावडा सम्राट

यह दंतकथा १८ वीं सदी की किसी कालावधी के दो घनिष्ठ मित्रों की है। एक कालरी ग्राम का सोलंकी राजा था तो दूसरा पाटन का चावडा राजा। उनके मध्य परम घनिष्ठता थी। उन्होंने एक दूसरे से प्रतिज्ञा की थी कि भविष्य में यदि एक मित्र को कन्यारत्न की प्राप्ति होगी तथा दूसरे को पुत्ररत्न प्राप्त हो तो वे उनका आपस में विवाह संपन्न करायेंगे। इससे उनकी घनिष्ठ मित्रता पारिवारिक संबंध में परिवर्तित हो जाएगी। भाग्य ने ऐसी कृपा की कि कालांतर में दोनों ही मित्रों को कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। सोलंकी राजा ने कन्या के स्थान पर पुत्र के जन्म की घोषणा कर दी।

यह ऐसा सत्य है जिसे कोई भी अधिक दिवसों तक गोपनीय नहीं रख सकता। सोलंकी राजा के असत्य घोषणा की सूचना शीघ्र ही पाटन के राजा तक भी पहुँच गयी। सत्य सबके समक्ष उजागर करने की मंशा से पाटन के राजा ने किसी अनुष्ठान के नाम पर अपने भावी जमाई के लिए निमंत्रण भेजा।

इससे सोलंकी राजकुमारी भयभीत हो गयी तथा अपनी घोड़ी दौड़ाते हुए बहुचराजी के पास पहुँची। यदि उसका भेद उजागर हो गया तो दोनों राजवंशों के मध्य युद्ध हो जाएगा तथा असंख्य निर्दोषों के प्राण न्योछावर हो जाएंगे। राजकुमारी ने बहुचराजी से निवेदन किया कि वे बिना किसी हिंसा एवं रक्तपात के इस विकट समस्या का हल निकालें।

यहाँ मानसरोवर नामक एक विशाल सरोवर था। बहुचरा देवी से प्रार्थना करने के पश्चात राजकुमारी उस सरोवर के तट पर बैठ गयी। उसने देखा कि एक मादा श्वान ने सरोवर के जल में प्रवेश किया तथा कुछ क्षण पश्चात वह नर श्वान के रूप में जल से बाहर आ गयी। राजकुमारी ने इसे देवी का संकेत माना तथा वह स्वयं भी सरोवर के जल में प्रवेश कर गयी। एक डुबकी लगाने के पश्चात उसने देखा कि वह एक रूपवान नवयुवक के रूप में परिवर्तित हो गयी है।

हर्षित हो कर उसने पाटन की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उसका भव्य स्वागत किया गया। कालांतर में पाटन की राजकुमारी से उसका विवाह भी संपन्न हो गया।

अन्य किवदंतियाँ

एक अन्य किवदंती के अनुसार देवी बहुचरा जी ने दण्डासुर का वध किया था। दण्डासुर दैत्यराजपुर पर शासन करता था जिसे अब दैत्रो कहा जाता है। यह घटना सभी देवी क्षेत्रों में घटी घटनाओं के अनुरूप है जहाँ देवी ने किसी ना किसी असुर का वध किया है। दृष्टांत के लिए, चामुण्डेश्वरी देवी ने मैसूर में महिषासुर का वध किया था, महालक्ष्मी ने कोल्हापूर में कोलासुर का वध किया था।

एक लोककथा के अनुसार एक राजा ने पुत्र प्राप्ति की कामना से यहाँ प्रार्थना की थी। उसे पुत्र की प्राप्ति अवश्य हुई किन्तु वह पुत्र नपुंसक था। देवी ने पुत्र को उसके स्वप्न में दर्शन दिए तथा स्त्री के भेस में उसकी पूजा-आराधना करने का निर्देश दिया। तभी से यहाँ पुरुषों द्वारा स्त्री का रूप धर कर देवी की आराधना की प्रथा चली आ रही है।

बहुचरा जी का मंदिर

हम प्रातःकाल मंदिर पहुँच गए थे। वाहन को वाहन स्थानक पर रखकर हम मंदिर की ओर चल दिए। मार्ग के दोनों ओर विक्रेता देवी को अर्पण करने की विविध वस्तुएं विक्री कर रहे थे। जिस वस्तु ने हमें सर्वाधिक आकर्षित किया, वह था धातु का पतरा। अनेक विक्रेता धातु के छोटे छोटे चौकोर पतरे विक्री कर रहे थे जिन पर शरीर के भिन्न भिन्न भाग उत्कीर्णित थे।

बहुचरा माता शक्तिपीठ का प्रवेश  द्वार
बहुचरा माता शक्तिपीठ का प्रवेश द्वार

एक विशाल अर्धगोलाकार तोरण के नीचे से हम परिसर की ओर अग्रसर हुए। तोरण के एक ओर गणेश जी का एक छोटा मंदिर था। मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग अत्यंत अस्तव्यस्त एवं भीड़भाड़ भरा था। किन्तु जैसे ही हमने मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश किया, एक शुभ्र श्वेत विशाल संरचना को देख हमारी आँखें चुँधिया गईं। वह संरचना पवित्र एवं सशक्त ऊर्जा उत्सर्जित कर रही थी। वह देवी बहुचरा जी का मंदिर था।

मंदिर की ओर जाते हुए आपको अपने दोनों ओर दो लघु मंदिर दृष्टिगोचर होंगे। उनमें से एक शिव मंदिर है तथा दूसरा गणपती मंदिर है। बहुचरा जी के मंदिर के ठीक अग्र दिशा में देवी के वाहन, कुक्कुट की बहुरंगी प्रतिमा स्थापित है। परिसर में चारों ओर की श्वेत शुभ्र संरचनाओं के मध्य इस कुक्कुट के रंग अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं।

मंदिर के अग्रभाग में श्वेत रंग के आकर्षक तोरण हैं। उसके नीचे से जाते हुए आप एक विशाल मंडप में पहुँचेंगे। समक्ष ही गर्भगृह स्थित है जिसके भीतर बहुचरा देवी का सुंदर विग्रह स्थित है। चित्रों में बहुचरा देवी का जैसा आयुधों एवं वस्त्राभूषणों से अलंकृत अप्रतिम रूप दर्शाया जाता है, देवी का विग्रह उसी के अनुरूप है।

देवी के समक्ष नतमस्तक होकर हमने उनकी आराधना की। तत्पश्चात मंदिर के मंडप में बैठ गए। कुछ क्षणों पश्चात मंदिर के बाह्य भाग में स्थित यज्ञ मंडप की ओर से हमें संगीत के स्वर सुनाई देने लगे। उसे सुनने हम मंडप से बाहर आ गए।

मंदिर का परिसर

यज्ञ मंडप में किसी प्रकार का अनुष्ठानिक यज्ञ किया जा रहा था। अनेक भक्तगण गुजराती भाषा में दुर्गा सप्तशती का जाप कर रहे थे।

मंदिर के दूसरी ओर छोटे मंदिर हैं जो नरसिंह वीर को समर्पित हैं। नरसिंह वीर अपने वाहन अश्व पर आरूढ़ हैं। आपको स्मरण होगा, कुमाऊँ के गोलू देवता एवं महाराष्ट्र के खंडोबा, दोनों के वाहन भी अश्व हैं।

मंदिर परिसर में, मंदिर के समक्ष, मंदिर के ही अनुरूप, श्वेत रंग में तीन तलों का एक दीपस्तंभ है।

बहुचरा जी का सुखड़ी प्रसाद
बहुचरा जी का सुखड़ी प्रसाद

परिसर में कुछ भक्त अन्य भक्तों को प्रसाद के रूप में सुखड़ी वितरित कर रहे थे। सुखड़ी एक प्रकार का मिष्टान्न है जिसे दूध एवं गुड़ से बनाया जाता है।

मंदिर से बाहर आकर हमने परिक्रमा आरंभ की। परिक्रमा करते हुए हमने एक सुंदर व्यालमुख जलप्रणाली देखी जिसका मुख हाथी के मुख के अनुरूप था। इस गजमुख से जल एक पात्र में गिर रहा था। एक स्त्री की सुंदर शैलप्रतिमा उस पात्र को अपने हाथों में धारण किये हुए थी।

हमने अनेक स्तंभों से सज्ज एक सभा मंडप देखा जिसके भीतर बहुरंगी आधारों पर मिट्टी के घड़े रखे हुए थे। ऐसे ही एक अन्य सभामंडप में एक पालना रखा हुआ था। उस पालने के समक्ष स्त्रियाँ पुत्र प्राप्ति की कामना करती हैं। इस मंडप में बहुचरा जी के अनेक विशाल चित्र हैं। उनमें से एक चित्र में वे एक सुंदर रथ में सवार हैं जिसे कुक्कुटों का समूह हाँक रहा है।

परिक्रमा करते हुए हम मंदिर के पृष्ठभाग में पहुँचे। वहाँ हमने संगमरमर में उत्कीर्णित चरणों की आकृति देखी जिस पर सिंदूर का ढेर रखा हुआ था। भक्तगण उस सिंदूर को अपनी माथे पर लगाते हैं तथा समक्ष स्थित भित्ति पर स्वास्तिक का चिन्ह अंकित करते हैं। ऐसी ही प्रथा मैंने इससे पूर्व मथुरा के मंदिरों में भी देखी थी।

मंदिर के चारों ओर उसकी बाह्य भित्तियों पर आकर्षक उत्कीर्णन किये हुए हैं।

आद्यस्थान

यह एक लघु मंदिर है जो मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित है। यह वह मूल स्थान है जहाँ एक शमी अथवा वरखड़ी वृक्ष के नीचे देवी सर्वप्रथम प्रकट हुई थीं।

प्रत्येक दर्शनार्थी इस मंदिर में देवी के दर्शन अवश्य करता है। वे देवी को धातु के पतरे अर्पित करते हैं। इसी मंदिर में मुझे पण्डितजी ने बहुचरा जी से संबंधित दंतकथाएं सुनाई थीं।

मंदिर का जलकुण्ड

मंदिर के पीछे एक पगडंडी है जो एक जलकुण्ड की ओर ले जाती है। इस जलकुण्ड के चारों ओर अनेक लघु मंदिर स्थित हैं। जलकुण्ड के जल का प्रयोग मंदिर के विविध अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। हमने यहाँ अनेक मुंडन संस्कार भी होते देखा।

मंदिर का जलकुण्ड
मंदिर का जलकुण्ड

मैंने महाभारत में पढ़ा था कि अज्ञातवास की अवधि में अपना परिचय गुप्त रखने की मंशा से अर्जुन ने इस सरोवर में डुबकी लगाई थी जिसके पश्चात उसे बृहन्नला का रूप प्राप्त हुआ था। ऐसा भी उल्लेख किया जाता है कि शिखंडी ने भी द्रोणाचार्य से युद्ध करने से पूर्व यहाँ पूजा-अर्चना की थी। आपको स्मरण ही होगा कि महाभारत महाकाव्य के अनुसार अम्बा ने मृत्यु पश्चात शिखंडी के रूप में जन्म लिया था। उसका जन्म एक कन्या के रूप में हुआ था। कालांतर में उसने लिंग परिवर्तन कराकर पुरुष रूप धारण किया था तथा भीष्म की मृत्यु का कारण बनकर अपना प्रतिशोध लिया था।

किन्नरों से भेंट

मंदिर परिसर में विचरण करते हुए हमारी दृष्टि किन्नरों के एक समूह पर पड़ी जो उजले चटक रंगों की साड़ियाँ धारण कर तथा स्वर्णाभूषणों से सज्जित होकर एक वृक्ष के नीचे बैठी थीं। जो भी भक्तगण अपनी संतानों के मुंडन संस्कार के लिए यहाँ आए थे, वे आशीष ग्रहण करने के लिए अपनी संतानों को इन किन्नरों के पास ले जा रहे थे। यदा-कदा वे उठकर गरबा नृत्य भी करने लगती थीं।

किन्नर सोनू मासी के साथ
किन्नर सोनू मासी के साथ

कुछ क्षण उनको निहारने के पश्चात मुझसे रहा नहीं गया। मैं उठकर उनके समीप पहुँची तथा उनसे वार्तालाप करने लगी। उन्होंने मुझे उनके वरिष्ठतम सदस्य सोनू मासी के पास भेजा। सोनू मासी ने भरपूर स्वर्णाभूषण धारण किया हुआ था। यहाँ तक कि उनके सभी दाँतों पर स्वर्ण का आवरण था। मैंने वहाँ बैठकर उनके विषय में तथा मंदिर के विषय में चर्चा की। उन्होंने मुझे उनके विविध वार्षिक उत्सवों के विषय में भी जानकारी दी, जैसे दीपावली के पाँच दिवस उपरांत लाभ पंचमी का उत्सव आयोजित किया जाता है जो ८ से ९ दिवसों तक चलता है। उन्होंने मुझे कई विडिओ भी दिखाए जिनमें वे इन उत्सवों में नृत्य करती दिखाई पड़ रही थीं।

मैंने उनसे बहुचरा जी एवं इस मंदिर से उनके संबंध के विषय में प्रश्न किये। उन्होंने बताया कि वे बहुचरा माँ के नामों का जप करते हैं तथा देवी उनका रक्षण करती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि अनेक पालक अपनी किन्नर संतानों को यहाँ छोड़ जाते हैं। यहाँ का किन्नर समुदाय उनको गोद ले लेता है तथा उनका पालन-पोषण करता है। इंटरनेट के द्वारा मुझे यह जानकारी भी प्राप्त हुई कि अनेक वयस्क भी इस मंदिर में आकार इस समुदाय से संयुक्त होते हैं।

सोनू मासी ने मुझे आशीर्वाद के रूप में एक सिक्का दिया। देने से पूर्व उन्होंने उस सिक्के को अपनी चूड़ियों से स्पर्श कराया। ऐसी मान्यता है कि उनके आशीष में अपार शक्ति होती है। उनके आशीष ने मुझे कृतार्थ कर दिया। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे उनका आशीष प्राप्त हुआ, वह भी बहुचरा जी के शक्तिपीठ में। मानो देवी स्वयं अपने विशेष भक्तों के माध्यम से मुझे आशीर्वाद प्रदान कर रही हों।

मंदिर के विविध उत्सव

प्रत्येक पूर्णिमा के दिवस बहुचरा जी को पालकी में बिठाकर मंदिर के चारों ओर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है।

चैत्र एवं आश्विन मासों की पूर्णिमा के दिवसों में बहुचरा जी का उत्सव आयोजित किया जाता है। ये पूर्णिमाएँ ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु के आरंभ में आयोजित नवरात्रि उत्सवों के पश्चात आती हैं। इस उत्सव में बहुचरा जी अपनी पालकी में बैठकर शंखलपुर गाँव जाती हैं जो उनके मंदिर से लगभग ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

दशहरा के दिवस शमी वृक्ष की पूजा-अर्चना की जाती है।

वल्लभ भट्ट नी वाव

वल्लभ भट्ट नी वाव एक बावड़ी है जो बहुचरा जी के मंदिर से लगभग १-२ किलोमीटकर की दूरी पर है। लोककथाओं के अनुसार वल्लभ भट्ट देवी के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन अन्न-जल ग्रहण करने से पूर्व देवी के दर्शन करने के लिए आते थे। एक दिवस देवी के मंदिर जाते हुए मार्ग में उन्हे प्यास लगी। गहन तृष्णा के पश्चात भी उन्होंने जल ग्रहण करना अस्वीकार किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने वहीं उन्हे दर्शन दिए। एक वाव अथवा बावड़ी खोदकर उन्हे जल पिलाया। तब से इस बावड़ी को उस परम भक्त का नाम प्राप्त हुआ।

वर्तमान में यह स्थान एक भक्ति स्थल की अपेक्षा एक पर्यटन स्थल के रूप में अधिक लोकप्रिय है। यहाँ बहुचरा जी का एक छोटा मंदिर है। बावड़ी जाने का द्वार बंद रहता है। एक जाली के मध्य से आप बावड़ी का दर्शन कर सकते हैं।

यात्रा सुझाव

बेचारजी अथवा बहुचर माता मंदिर अहमदाबाद से लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

अहमदाबाद से आप एक दिवसीय यात्रा के रूप में इस मंदिर का भ्रमण कर सकते हैं। अहमदाबाद देश के सभी प्रमुख स्थानों से आकाश मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा संयुक्त है।

मंदिर के बाह्य क्षेत्र में मंदिर का वाहन स्थानक है।

नवरात्रि, पूर्णिमा तथा अन्य विशेष उत्सवों में मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है। मैंने गुरुवार के दिवस मंदिर का भ्रमण किया था। उस दिन भक्तों की भीड़ अपेक्षाकृत कम थी।

मंदिर में भ्रमण तथा अवलोकन के लिए ३० मिनट से अधिक समय लग सकता है। दर्शन समय भक्तों की संख्या पर निर्भर है।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण निषिद्ध है। मंदिर के परिसर में आप छायाचित्र ले सकते हैं।

आप इस एक दिवसीय यात्रा में मोढेरा सूर्य मंदिर, पाटन की बावड़ी रानी की वाव, सिद्धपुर तथा उंझा जा सकते हैं जहाँ उमिया माता का मंदिर है।

यह गुजरात का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। आप इसके दर्शन अवश्य करें।

बहुचराजी नगरी अथवा मेहसाणा में भी विश्राम गृह उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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उडुपी के प्राचीन शिव मंदिर https://inditales.com/hindi/udupi-ke-prachin-shiv-mandir/ https://inditales.com/hindi/udupi-ke-prachin-shiv-mandir/#respond Wed, 12 Jun 2024 02:30:46 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3625

कर्णाटक के तटीय क्षेत्र में बसा उडुपी नगर अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्वादिष्ट उडुपी व्यंजनों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। उडुपी नगर के हृदयस्थल पर श्री कृष्ण मठ स्थित है जो एक मंदिर भी है। १३वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की स्थापना श्री माधवाचार्य जी ने की थी। इस मंदिर के चारों ओर ८ […]

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कर्णाटक के तटीय क्षेत्र में बसा उडुपी नगर अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्वादिष्ट उडुपी व्यंजनों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। उडुपी नगर के हृदयस्थल पर श्री कृष्ण मठ स्थित है जो एक मंदिर भी है। १३वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की स्थापना श्री माधवाचार्य जी ने की थी। इस मंदिर के चारों ओर ८ मठों की स्थापना की गयी है। वर्ष भर असंख्य भक्तगण, दर्शनार्थी एवं श्रद्धालू अत्यंत उत्साह से इस मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर परिसर के भीतर भगवान शिव के दो प्राचीन मंदिर भी स्थित हैं।

शैव धर्म को समर्पित इन प्राचीन मंदिरों के नाम हैं, अनंतेश्वर मंदिर एवं चन्द्रमौलीश्वर मंदिर। इन दो प्राचीन मंदिरों की उपस्थिति ने श्री कृष्ण मंदिर की स्थापना के पूर्व से ही उडुपी को एक पावन भूमि का स्तर प्रदान कर दिया था। प्रचलित प्रथाओं के अनुसार श्री कृष्ण मंदिर के दर्शन से पूर्व इन दो मंदिरों के दर्शन करना आवश्यक है।

उडुपी के प्राचीन शिव मंदिर

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर

उडुपी नगर का इतिहास उडुपी नाम में ही सन्निहित है। उडुपी नाम की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द उडुपा से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है, नक्षत्रों के स्वामी चन्द्र। प्रचलित किवदंतियों के अनुसार चन्द्र का विवाह दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियों से हुआ था। दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियाँ २७ नक्षत्रों का प्रतीक हैं। उन २७ पत्नियों में से चन्द्र को रोहिणी से विशेष स्नेह था जिसके कारण उनसे अपनी अन्य २६ पत्नियों की उपेक्षा हो गयी। जब चन्द्र की २६ पत्नियों ने अपने पिता दक्ष से अपनी व्यथा कही, तब दक्ष ने चन्द्र के इस व्यवहार से क्रोधित होकर उन्हे श्राप दे दिया कि उनकी कान्ति शनैः शनैः क्षीण हो जायेगी तथा एक दिवस वे कांतिहीन हो कर विस्मृत हो जायेंगे। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चन्द्र ने भगवान शिव की आराधना की तथा कठोर तप किया।

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर उडुपी
चन्द्रमौलीश्वर मंदिर उडुपी

चन्द्र की घोर तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने श्राप के ताप को दुर्बल करते हुए इन्हें पूर्णतः क्षय हो जाने के स्थान पर क्रमवार क्षय एवं वृद्धि होने की क्षमता प्रदान की। जिस स्थान पर चन्द्र ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, उस स्थान को अब्जारण्य कहा गया जो अब उडुपी है। समीप स्थित सरोवर चन्द्रपुष्करणी कहलाया। इस घटना के पश्चात भक्तों ने भगवान शिव को चन्द्रमौलीश्वर की उपाधि से अलंकृत किया।

मंदिर का परिसर

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर का निर्माण ८वीं सदी में किया गया था। यह मंदिर स्थापत्य कला की उडुपी शैली में निर्मित है। इसकी छत ढलवाँ है तथा भूमि पर शीतल ग्रेनाईट शिलाओं की परत है। यह मंदिर श्री कृष्ण मठ के समक्ष स्थित है। इसके एक ओर इस क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय जलपानगृह मित्र समाज स्थित है।

मंदिर में स्थित नंदी का विग्रह एक ओर झुका हुआ है जिसके कारण शिवलिंग के दर्शन प्राप्त करने के लिए हमें भी अपना शीष उसी प्रकार झुकाना पड़ता है। यह मंदिर भूतल से लगभग ६ फीट नीचे स्थित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए हमें कुछ सोपान नीचे उतरना पड़ता है। भूतल से नीचे स्थित होने के पश्चात भी इस मंदिर में कभी भी बाढ़ के जल ने प्रवेश नहीं किया है।

ऐसी मान्यता है कि मंदिर में स्थापित स्फटिक के शिवलिंग का रंग एक दिवस में तीन बार परिवर्तित होता है। प्रातःकाल शिवलिंग श्याम वर्ण का प्रतीत होता है, दूसरे प्रहर में नीलवर्ण तथा रात्रि काल में श्वेत प्रतीत होता है। शिवलिंग पर चाँदी का मुख अथवा मुखौटा चढ़ाया जाता है। पर्याय स्वामीजी पर्याय सिंहासन पर विराजमान होने से पूर्व चन्द्रमौलीश्वर मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं। इसके पश्चात वे भगवान अनंतेश्वर एवं श्री कृष्ण के दर्शन करते हैं। यह प्रथा अब भी अनवरत अखंडित चली आ रही है।

अनंतेश्वर मंदिर

उडुपी को तुलु भाषा में ओडिपू कहते हैं। ओडिपू शब्द संस्कृत शब्द रजतपीठपुर से प्रेरित है जिसका अर्थ है, चाँदी के पीठासन का नगर। अनंतेश्वर मंदिर के भीतर अनंतेश्वर लिंग चाँदी द्वारा निर्मित एक प्राचीन पीठासन पर प्रतिष्ठापित है। इस परशुराम क्षेत्र पर राजा रामभोज का आधिपत्य था।

अनंतेश्वर मंदिर उडुपी
अनंतेश्वर मंदिर उडुपी

एक समय राजा रामभोज ने स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट अर्थात् सम्पूर्ण धरती का निर्बाध सम्राट सिद्ध करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध यज्ञ की यज्ञ भूमि चन्द्रमौलीश्वर मंदिर के पश्चिमी पार्श्वभाग पर स्थित थी। यज्ञ वेदी के निर्माण के लिए जब भूमि की जुताई की जा रही थी तब एक सर्प हल से आहत हो गया तथा उसकी मृत्यु हो गयी। सर्पहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए राजा ने पूर्ण श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। भगवान् शिव राजा की घोर तपस्या से प्रसन्न हुए। राजा को पापमुक्त करने के लिए भगवान ने उसे यज्ञ भूमि पर चाँदी के पीठासन का निर्माण कराकर उस पर लिंग की स्थापना कराने का आदेश दिया। कालान्तर में यही लिंग अनंतेश्वर लिंग कहलाया तथा उस पर निर्मित मंदिर को अनंतेश्वर मंदिर कहा गया।

तुलुनाडू का प्राचीनतम मंदिर होने के नाते यह मंदिर शिवल्ली ब्राह्मण समुदाय का आध्यात्मिक केंद्र है। ऐसी मान्यता है कि माधवाचार्य के माता-पिता ने संतान प्राप्ति के लिए १२ वर्षों तक अनंतेश्वर मंदिर में अनंतेश्वर स्वामी की आराधना की थी।

मंदिर का परिसर

अनंतेश्वर मंदिर को लगभग २री. सदी में निर्मित माना जाता है। भित्तियों का निर्माण करने के लिए ग्रेनाईट के फलकों को चूने के पलस्तर से जोड़ा गया है। यह एक अनूठा मंदिर है। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ शेषनाग विराजमान हैं। इसी कारण इस मंदिर में शैव एवं वैष्णव, दोनों मान्यताओं के भक्तगण आते हैं।

इस मंदिर के गर्भगृह के दो भाग हैं। जहाँ एक भाग भक्तों को दृश्यमान है, वहीं दूसरा भाग मूलस्थान के पृष्ठभाग में होने के कारण भक्तों के लिए अदृश्यमान है। प्रवेश द्वार पर शंख एवं चक्र की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। मंदिर के विशेष आकर्षणों में मंदिर परिसर में विराजमान ४० फीट उंचा दीपस्तंभ भी सम्मिलित है। भक्तगण तेल का आर्पण करते हुए दीपों को प्रज्ज्वलित करते हैं।

मंदिर की परिक्रमा करते हुए आप भित्तियों पर गणपति एवं पार्वती की छवियाँ देख सकते हैं। मंदिर के एक कोने में शेषनाग एवं ऐयप्पा स्वामी की लघु आकृतियाँ हैं जो शक्तिशाली देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शेषनाग की प्रतिमा शुद्ध स्वर्ण धातु में निर्मित है।

उडुपी के शिव मंदिरों में शिवरात्रि पर्व का उत्सव

हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि भगवान शिव की सर्वाधिक पावन आराधना बिल्व पत्र अर्चना मानी जाती है। उडुपी के इन दोनों प्राचीन मंदिरों में विशेष रुद्राभिषेक एवं बिल्वपत्र अर्चना द्वारा भगवान शिव की आराधना की जाती है। माधवाचार्य जी के अनुयायी अथवा माधव ब्राह्मण समुदाय के विष्णु आराधक शिवरात्रि के दिवस उपवास अथवा अल्पभोजन करने के स्थान पर भरपेट भोजन करते हैं। वैष्णव प्रथाओं को मानने के पश्चात भी शिव की आराधना करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता है। वे शिवपंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए भिन्न भिन्न उपचारों व सेवाओं द्वारा भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं।

अनंतेश्वर मंदिर की शिल्प कला
अनंतेश्वर मंदिर की शिल्प कला

महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर सूर्यास्त के पश्चात दोनों मंदिरों में रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। महाशिवरात्रि उत्सव के अंतिम दिवस अनंतेश्वर महादेव के लिए विशेष रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। शिवरात्रि के उत्सव में भाग लेने के लिए अनेक भक्तगण यहाँ आते हैं। मैंने शिवरात्रि उत्सव से एक दिवस पश्चात मंदिर के दर्शन किये थे। चारों ओर निर्मल एवं शांत वातावरण था। मंदिर में भक्तों की संख्या नगण्य थी। मुझे अपने चारों ओर सकारात्मक उर्जा का दिव्य अनुभव प्राप्त हो रहा था।

हमने मथुरा में भी देखा था कि कृष्ण की नगरी का संरक्षण करते चार प्राचीन शिव मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि उडुपी के शिव मंदिरों के समान ये मंदिर भी कृष्ण के काल से भी अधिक पुरातन हैं।

संस्कृति एवं पाकशैली

उडुपी तुलुनाडू एवं प्राचीन परशुराम क्षेत्र का एक अभिन्न अंग है। उडुपी में तीन भिन्न भिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है, कन्नड़, तुलु एवं कोंकणी। इसी कारण यहाँ की पाकशैली एवं यहाँ के व्यंजन तीनों संस्कृतियों के विभिन्न मसालों एवं स्वादों का अद्भुत समागम है।

उडुपी का पर्यटन मानचित्र
उडुपी का पर्यटन मानचित्र

सज्जिगे बाजिल, मैंगलोर बंस, गोली भाजे, बिस्कुट अम्बाडे, बोंडा सूप, मीठे अवलक्की, सन्ना पोला, मेंथे दोसे आदि उन स्वादिष्ट व्यंजनों में से हैं जो इन तीनों संस्कृतियों के अभिन्न अंग हैं। ये सभी व्यंजन मंदिर परिसर के भीतर स्थित अनेक जलपानगृहों में भी उपलब्ध हैं। इन स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए १०० वर्ष प्राचीन जलपानगृह, ‘मित्र समाज’ विशेषरूप से प्रसिद्ध है। कुरकुरा मसाला डोसा एवं मूदे इडली के साथ गर्म फिल्टर कॉफी हमारी जिव्हा एवं मन दोनों को तृप्त कर देती है।

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दोपहर के भोजन के लिए शुद्ध शाकाहारी कोंकणी थाली एक स्वादिष्ट विकल्प है जो यहाँ के अनेक भोजनालयों में उपलब्ध है। इस थाली की विशेषता है, भिन्न भिन्न प्रकार के उपकारी, दाल तोय एवं विभिन्न प्रकार के पोड़ी। बसवेश्वर खानावल्ली में आपकी जिव्हा एवं मन को तृप्त करने के लिए स्वादिष्ट उत्तर कर्णाटक व्यंजनों से सज्ज थाली उपलब्ध है। इस थाली के प्रमुख व्यंजन हैं, जोलदा रोटी, एन्ग्गई पाल्या, होलिगे आदि।

उडुपी भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीमों के लिए भी लोकप्रिय है। सर्वप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गड़बड़ आइसक्रीम का आविष्कार यहाँ के होटल डायना में ही हुआ था। यहाँ के प्रत्येक जलपानगृहों एवं भोजनालयों में भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीम एवं उनके निराले सम्मिश्रण परोसे जाते हैं। उडुपी के उष्ण एवं आर्द्र वातावरण में ये स्फूर्ति के स्त्रोत होते हैं। उडुपी के मंदिरों में सदियों से दूर-सुदूर से तीर्थयात्री भगवान के दर्शनार्थ आते रहे हैं। उडुपी ने सदा स्वादिष्ट एवं सात्विक व्यंजनों से उनकी सेवा की है। इसी कारण यहाँ उत्तम स्तर के उत्तर भारतीय व्यंजन भी उपलब्ध हैं।

उडुपी के शिव मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम काल

सितम्बर मास से फरवरी मास का समयकाल उडुपी भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ की ऊष्णता एवं आर्द्रता अत्यंत कष्टकारी होती हैं। जून मास से सितम्बर मास तक यहाँ घनघोर वर्षा होती है। यद्यपि वर्षा काल में उडुपी भ्रमण किंचित असुविधाजनक हो, तथापि इस काल में उडुपी भ्रमण आपको मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर भी कर देगा। वर्षा काल में उडुपी एवं आसपास के क्षेत्र अत्यंत मनोरम प्रतीत होते हैं।

सोमवार भगवान शिव के लिए एक विशेष दिवस होता है। इसलिए सोमवार के दिन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है।

परिवहन एवं आवास सुविधाएं

उडुपी पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल मंगलुरु में है जो उडुपी से लगभग ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंगलुरु से आप सड़कमार्ग द्वारा उडुपी पहुँच सकते हैं।

यदि आपको रेल यात्राएं प्रिय हैं तो आप रेल मार्ग द्वारा भी मंगलुरु पहुँच सकते हैं। यदि आप बंगलुरु की ओर से आ रहे हैं तो मेरा सुझाव है कि आप बंगलुरु से करवार एक्सप्रेस अथवा विस्टाडोम से यात्रा करें। ८ घंटों की यह रेल यात्रा आपको पश्चिमी घाटों के अप्रतिम परिदृश्यों के दर्शन का सुअवसर प्रदान करेगी। बंगलुरु, मुंबई, पुणे, मंगलुरु आदि नगरों से यहाँ तक की सुविधाजनक बस सेवायें भी सुगमता से उपलब्ध हैं।

चूँकि उडुपी नगर अनेक वर्षों से तीर्थयात्रा का केंद्र रहा है, आवास हेतु यहाँ अनेक सुविधाजनक विश्राम गृह उपलब्ध हैं। आपकी व्यय क्षमता के अनुसार यहाँ अनेक अतिथिगृह, धर्मशालाएं, होटल एवं होमस्टे आदि की उत्तम सुविधाएं हैं। आपको भिन्न भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन का आनंद प्रदान करने के लिए अनेक भोजनालय आपकी सेवा के लिए तत्पर हैं।

यह संस्करण इंडीटेल्स प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत अक्षया विजय द्वारा लिखित एवं प्रदत्त है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन https://inditales.com/hindi/prachin-chennai-ke-mandir/ https://inditales.com/hindi/prachin-chennai-ke-mandir/#respond Wed, 24 Apr 2024 02:30:49 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3577

मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन करा रहे हैं श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी, जोThanjavur: A Cultural History नामक पुस्तक के लेखक हैं। श्री प्रदीप चक्रवर्ती द्वारा लिखित अनेक ऐसी पुस्तकें हैं जिनके द्वारा पाठकों को भारतीय इतिहास एवं दर्शन जैसे विषयों पर जीवन का पाठ प्रदान करने का उत्तम प्रयास किया गया है। […]

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मंदिरों के माध्यम से प्राचीन चेन्नई का पुनरावलोकन करा रहे हैं श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी, जोThanjavur: A Cultural History नामक पुस्तक के लेखक हैं। श्री प्रदीप चक्रवर्ती द्वारा लिखित अनेक ऐसी पुस्तकें हैं जिनके द्वारा पाठकों को भारतीय इतिहास एवं दर्शन जैसे विषयों पर जीवन का पाठ प्रदान करने का उत्तम प्रयास किया गया है। आज के पॉडकास्ट में प्रदीपजी हमारे समक्ष प्राचीन चेन्नई के इतिहास का पुनरावलोकन कर रहे हैं जिसके माध्यम से वे चेन्नई के मंदिर, किवदंतियाँ एवं लोककथाएं से हमारा परिचय करा रहे हैं जो अद्भुत एवं अविस्मरणीय हैं।

चेन्नई शब्द की व्युत्पत्ति

प्राचीन काल में चेन्नई क्षेत्र चेन्नापटना कहलाता था। तेलुगु भाषा में चेन्नापटना का अर्थ होता है, सुंदर। चेन्नापटना व्यापारियों की भूमि थी। यहाँ स्थित पल्लव कालीन प्राचीन बंदरगाह बड़ी संख्या में तेलुगु भाषी कपास व्यापारियों को अपनी ओर आकर्षित करता था। चेन्नापटना नाम किस प्रकार मद्रास में परिवर्तित हो गया, इसके विषय में यद्यपि अनेक कथाएं प्रचलित हैं, तथापि उनके कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

ऐसा कहा जाता है कि एक काल में आर्कोट के नवाब को अपने राज्य के वित्तीय भार का निर्वाह करने के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यता पड़ी। धन जुटाने के लिए उसने अपनी भूमि के छोटे छोटे भूखंडों को अंग्रेजों को विक्री करना आरंभ कर दिया। शनैः शनैः अंग्रेजों ने सभी गांवों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया तथा बंदरगाह नगरी चेन्नई अथवा मद्रास का निर्माण किया।

चेन्नई का प्राचीन इतिहास

मानवीय वसाहत के आरंभिक चिन्ह चेन्नई के पल्लावरम क्षेत्र में प्राप्त हुए थे। प्राचीन इतिहास शोधकर्ता रॉबर्ट ब्रूस फूट को २० वीं सदी के आरंभ में इस क्षेत्र में पुरापाषाण युगीन शैल औजार प्राप्त हुए थे। ये औजार लगभग ४००० वर्ष अथवा उससे भी अधिक प्राचीन माने जाते हैं। इसका यह निष्कर्ष निकलता है कि चेन्नई अनवरत रूप से वसाहती क्षेत्र रहा है।

दक्षिण भारत का एक अन्य पुरातात्विक स्थल है, प्राचीन ताम्रपर्णी नदी। पुराणों  तथा रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार दक्षिण भारत में किसी देवी की प्राचीनतम कांस्य प्रतिमा इसी नदी के तल से प्राप्त हुई थी।

मध्यकालीन युग

पल्लव एवं चोल वंश के शासन काल में मंदिर राज्य के विविध पारंपरिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र होते थे। मंदिर के अधिष्ठात्र देव को राज्य का सम्राट तथा मंदिर को राजभवन माना जाता था। यह प्रथा गाँव के निवासियों में एक सामुदायिक भावना उत्पन्न करती थी। उदाहरण के लिए, चोल वंश के काल में कोडंबक्कम शिव मंदिर राज्य का जिला मुख्यालय था।

चेन्नई का प्राचीनतम जीवंत मंदिर वेलाचेरी का सप्तमातृका मंदिर है जिसका काल-निर्धारण पाँचवीं सदी माना जाता है।

दुर्भाग्य से मंदिरों के अतिरिक्त ऐसी कोई भी संरचना अब शेष नहीं है जिसका निर्माण पल्लव, चोल अथवा पंड्या वंश के राजाओं ने करवाया था। उस काल के राजा अस्थायी काष्ठ भवनों में निवास करते थे। इसके लिखित प्रमाण के रूप में अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं, जैसे मायलापुर मंदिर की भित्तियों पर उपस्थित शिलालेख जिन्हे १००० वर्ष प्राचीन माना जाता है। एक शिलालेख के अनुसार चोल वंश के काल में चेन्नई में व्यापारी समितियाँ एवं सभाएं आयोजित की जाती थीं।

औपनिवेशिक काल

चेन्नई में तीन उपनिवेशवादियों का नियंत्रण रहा है, पुर्तगाली, फ्रांसीसी एवं अंग्रेज।

पुर्तगाली प्रथम उपनिवेशवादी थे जिन्होंने चेन्नई के निकट बंदरगाह का निर्माण किया था। उन्होंने १५ वीं शताब्दी के अंतिम खंड में यह निर्माण कराया था। कालांतर में इस बंदरगाह क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए फ्रांसीसी एवं अंग्रेजों के मध्य संघर्ष हुआ। सन् १७४४-१७६३ में हुए इस संघर्ष में पराजित होने के पश्चात फ्रांसीसी चेन्नई को अंग्रेजों को सुपुर्द करने के लिए बाध्य हो गये।

जब अंग्रेजों ने सर्वप्रथम भारत में उपनिवेश स्थापित किया, तब विश्व के अन्य देशों के संग स्थापित वस्त्र व्यापार पर अपना सर्वस्व नियंत्रण पाने के लिए भारत के पूर्वी तट पर उन्हे एक बंदरगाह की आवश्यकता प्रतीत हुई। वे मुख्यतः कपास एवं नील का व्यापार कर रहे थे। इस व्यापार के लिए चेन्नई सर्वोत्तम क्षेत्र था।

चंद्रगिरी के विजयनगर राजवंश के राजा ने उन्हे इस व्यापार को आरंभ करने के लिए ३०० वर्ग किलोमीटर का छोटा सा भूखंड प्रदान किया। अंग्रेजों ने इस भूखंड पर अपने दुर्ग का निर्माण किया तथा यहाँ से अपना व्यापार आरंभ किया। यह क्षेत्र अब लोकप्रिय मरीना समुद्रतट है।

तमिल साहित्य एवं संगीत

तमिल साहित्यों एवं संगीत में उन सभी गाँवों का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है जिनसे चेन्नई का सृजन हुआ था। मायलापुर कपालीश्वर स्वामी मंदिर लगभग १००० वर्ष प्राचीन है। इस मंदिर के अप्पर स्वामी ने पुम्बाबाई, समथर के प्रति उनके प्रेम तथा कालांतर में उनकी मृत्यु पर आधारित अनेक कविताओं की रचना की है। तत्पश्चात इन कविताओं के माध्यम से वे पुम्बाबाई को मृत्यु की गोद से उठने का आव्हान करते हैं तथा उन्हे नश्वर प्रेम का त्याग कर शिव के अमर प्रेम में लीन होने के लिए प्रेरित करते हैं। वे उनसे शैव धर्म के आदर्शों को दूर-सुदूर तक पहुँचाने का निवेदन करते हैं।

कपालीश्वर मंदिर - चेन्नई
कपालीश्वर मंदिर – चेन्नई

एक रोचक कविता में मायलापुर क्षेत्र की समृद्ध वनस्पतियों, उत्सवों तथा विविध अवसरों पर बने भिन्न भिन्न व्यंजनों का विवरण है। आज भी ये सभी उत्सव उतने ही उत्साह से मनाए जाते हैं। इससे संबंधित एक रोचक तथ्य यह है कि पुम्बाबाई पार्वती का ही प्राचीन नाम है जिनकी मूर्ति की मंदिर में प्रतिष्ठापना की गयी है।

यात्रा साहित्य

चेन्नई के इतिहास का एक अन्य साहित्यिक स्रोत है, वेंकटाध्वरी कवि की रचना, विश्वगुणादर्शचंपू। १७ वीं सदी में रचित यह रचना चंपू छंद से संबंधित है। चम्पू एक भारतीय साहित्यिक शैली है जिसमें गद्य एवं कविताओं का संगम होता है। चंपू छंद का प्रयोग कर लिखे गये लेख संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु तथा अनेक अन्य भारतीय भाषाओं में प्राप्त होते हैं।

इन साहित्यों में क्रिशानु एवं विश्ववासु नामक दो गन्धर्वों की दृष्टि से चेन्नई एवं अन्य भारतीय नगरों का वर्णन किया गया है। इन दोनों गन्धर्वों में एक आशावादी तथा दूसरा निराशावादी है। ये दोनों गंधर्व भारत वर्ष की यात्रा करते हुए दक्षिण क्षेत्र से उत्तर क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं। वे भारत पर अंग्रेजों के प्रभाव के विषय में चर्चा कर रहे हैं। वे राजनीति, संस्कृति, इतिहास, आधारभूत संरचनाओं के विकास एवं संभावित भविष्य की भी चर्चा कर रहे हैं। आशावादी क्रिसानु नगर का वर्णन करते हुए सदैव अपनी चर्चा को सकारात्मक आशाजनक अंत प्रदान करता है। इन रचनाओं के माध्यम से हमें १७ वीं शताब्दी तक चेन्नई पर अंग्रेजों के प्रभाव की जानकारी प्राप्त होती है।

चेन्नई एक प्राचीन नगरी है जो अब तक जीवंत है। इसके प्रत्येक कोने में प्राचीन काल के चिन्ह हैं जो प्राचीन विश्व को वर्तमान से जोड़ते हैं। चेन्नई एवं उसके इतिहास के विषय में अधिक शोध अब भी शेष है। प्राचीन चेन्नई के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए Podcast by Pradeep Chakravarthy अवश्य सुनें। इस लिखित संस्करण में श्री प्रदीप चक्रवर्ती जी से प्राचीन चेन्नई के विषय में की गयी विस्तृत चर्चा का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बिसरख – रावण का जन्मस्थान ग्रेटर नोएडा का प्राचीन गाँव https://inditales.com/hindi/ravan-janamsthan-bisrakh-gaon-noida/ https://inditales.com/hindi/ravan-janamsthan-bisrakh-gaon-noida/#respond Wed, 10 Apr 2024 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3429

बिसरख, यह नाम ऋषि विश्रवा के नाम से व्युत्पत्त है। काल के साथ अपभ्रंशित होते हुए यह नाम बिसरख में परिवर्तित हो गया। ऋषि विश्रवा दशमुख रावण के पिता थे। कुछ सूत्रों के अनुसार रावण का जन्म बिसरख हुआ था, वहीं कुछ का मानना है कि रावण ने अपने बाल्यावस्था का कुछ काल यहाँ व्यतीत […]

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बिसरख, यह नाम ऋषि विश्रवा के नाम से व्युत्पत्त है। काल के साथ अपभ्रंशित होते हुए यह नाम बिसरख में परिवर्तित हो गया। ऋषि विश्रवा दशमुख रावण के पिता थे। कुछ सूत्रों के अनुसार रावण का जन्म बिसरख हुआ था, वहीं कुछ का मानना है कि रावण ने अपने बाल्यावस्था का कुछ काल यहाँ व्यतीत किया था।

बिसरख एक प्राचीन गाँव है जो नोएडा महानगरी में स्थित है। वस्तुतः यह ग्रेटर नोएडा का सेक्टर १ है। दिल्ली में आप कहाँ से जा रहे हैं, उसके आधार पर यह गाँव दिल्ली से लगभग २० से ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

बिसरख भ्रमण

नोएडा एवं ग्रेटर नोएडा के चौड़े द्रुतगामी महामार्गों के माध्यम से वाहन द्वारा बिसरख पहुँचने में हमें १५-२० मिनट का समय लगा।

यहाँ पहुँचकर हमारी दृष्टि सर्वप्रथम किराने की एक दुकान पर पड़ी जिसका नाम रावण किराना स्टोर था। इसके पार्श्व में एक गैरेज के भीतर रावण डीजे अपनी उपस्थिति दर्शा रहा था। यह बिसरख गाँव में रावण से संबंधित जीवंत दंतकथा से मेरा प्रथम परिचय था। इस दुकान के समक्ष अनामी धाम नामक एक बड़ा आश्रम है।

रावण के नाम पे दुकानें
रावण के नाम पे दुकानें

हमने किराने की दुकान के स्वामी से कुछ संवाद साधे तथा उनसे रावण के मंदिर का मार्ग पूछा। हमें गाँव के भीतर से जाते एक मार्ग पर चलने का परामर्श दिया गया। वह एक संकरा मार्ग था किन्तु उसके दोनों ओर कई सुंदर व विशाल भवन थे।

सँकरे मार्ग पर चलते हुए हम एक निर्जन स्थान पर जा पहुँचे। यहीं पर हमें एक मंदिर दृष्टिगोचर हुआ जिस पर एक ऊंचा शिखर था। हमें ज्ञात हुआ कि यह वो मंदिर नहीं था जिसके शोध में हम यहाँ तक पहुँचे थे। हमारा उद्देशित मंदिर बाईं दिशा में कुछ आगे जाकर था।

बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर

एक तोरण के मध्य से हम मंदिर परिसर में पहुँचे। मंदिर के अलंकृत प्रवेशद्वार एवं हमारे मध्य एक इकलौता वृक्ष था। मंदिर के चारों ओर नवीन प्राकार का निर्माण किया जा रहा था। उस पर रावण के जीवनकाल से संबंधित कथाओं एवं घटनाओं के दृश्यों को अप्रतिम शिल्पकला द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा था।

बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर
बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर

इन अप्रतिम शिल्पावलियों का अवलोकन करते हुए हमने परिसर में भ्रमण किया। कुछ शिल्पकारों से चर्चा भी की जो पार्श्व भाग में स्थित एक भित्ति पर रावण के अनुज भ्राता विभीषण का एक चित्र गढ़ रहे थे। इन शिल्पकार्यों को करने के लिए वे ओडिशा से विशेषरूप से यहाँ पधारे थे। इससे पूर्व मैंने जाजपुर में भी ओडिशा के शैल शिल्पकारों से भेंट की थी। इन शिल्पकारों से चर्चा करते हुए मुझे उनका स्मरण हो आया।

बिसरख मंदिर में रावण
बिसरख मंदिर में रावण

द्वार के दाहिने ओर आप दशमुख रावण का शिल्प स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। बायीं ओर ब्रह्मा की आराधना करते विश्रवा ऋषि का शिल्प है। एक दृश्य में ऋषि विश्रवा एवं उनकी धर्मपत्नी साथ में पूजा कर रहे हैं। एक अन्य दृश्य में भगवान शिव को अपना शीष अर्पण करते रावण को दर्शाया गया है। हमारे समक्ष शिल्पकार रावण के दो भ्राताओं, विभीषण एवं कुंभकर्ण से संबंधित दृश्यों पर शिल्पकारी कर रहे थे।

मुख्य प्रवेशद्वार के ऊपर गणेश की आसनस्थ मुद्रा में विशाल प्रतिमा है। उनके एक ओर वाहन उल्लू पर आरूढ़ देवी लक्ष्मी हैं तो दूसरी ओर हंस पर विराजमान देवी सरस्वती हैं। शंखनाद करते ऋषियों के शिल्प हैं। यहाँ कुछ नाग शिल्प भी हैं।

शिव मंदिर
शिव मंदिर

हमने मंदिर के विस्तृत परिसर में प्रवेश किया। परिसर के आकार की तुलना में मंदिर अत्यंत लघु प्रतीत होता है। मंदिर के रूप में एक छोटा सा कक्ष है जिसके भीतर एक शिवलिंग है। शिवलिंग के समक्ष मुक्ताकाश प्रांगण में नंदी की एक छोटी प्रतिमा है। इस मुख्य लिंग के ऊपर गुलाबी रंग में रंगी बाह्य संरचना है।

देवी मूर्ति
देवी मूर्ति

ऐसी मान्यता है कि यहाँ के वनीय प्रदेश में ऋषि विश्रवा को यह शिवलिंग प्राप्त हुआ था। उन्होंने ही यहाँ इस शिवलिंग की स्थापना की तथा उसकी आराधना की। इसीलिए इस शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग कहा जाता है।

श्रावण

श्रावण मास चल रहा था। यह मास शिव भक्तों के लिए अत्यंत विशेष माना जाता है। हमने देखा कि अनेक भक्तगण मंदिर में दर्शन कर रहे थे तथा शिवलिंग का जलाभिषेक कर रहे थे। शिवलिंग के समीप एक स्त्री अपने मुख को दुपट्टे से ढँककर बैठी थी तथा ध्यान कर रही थी। उसकी उपस्थिति मंदिर की दिव्यता को एक नवीन आयाम प्रदान कर रही थी।

मंदिर में स्थापित लिंग प्राचीन प्रतीत होता है। धातु में निर्मित नाग शिवलिंग का अलंकरण करता हुआ विराजमान है। हमने शिवलिंग का अष्टभुजाकार आधार तत्व भी देखा। शिवलिंग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी काल में यह योनि पर स्थापित रहा होगा किन्तु अब ग्रेनाइट के टाइल पर स्वतंत्र रूप से विराजमान है।

भित्ति के आले पर देवी पार्वती की लघु किन्तु अप्रतिम विग्रह स्थापित है। उनके साथ उनके दोनों पुत्र गणेश एवं कार्तिकेय भी विराजमान हैं।

नवग्रह मंदिर

शिव मंदिर के निकट एक लघु मुक्ताकाश मंदिर है जो नवग्रह को समर्पित है। सूर्य का विग्रह अत्यंत विशेष है। यहाँ सूर्य को एक विलक्षण एक-चक्री रथ पर विराजमान दर्शाया गया है। इस रथ को दो अश्व हाँक रहे हैं। रथ पर आरूढ़ सूर्य का विग्रह नवग्रह मंडल के मध्य में स्थापित है।

यम की प्रतिमा इस प्रकार स्थापित है कि उनकी दृष्टि नवग्रह विग्रहों पर स्थिर है। ये विग्रह प्राचीन प्रतीत होते हैं। उनमें से एक विग्रह भंगित है।

विश्रवा मंदिर

नवग्रह मंदिर के समीप एक विशाल कक्ष है जिसके भीतर सभी देवी-देवताओं की पूर्णकाय मूर्तियाँ हैं। उन सभी मूर्तियों में ऋषि विश्रवा की प्रतिमा विशेष है। यह मूर्ति एक शिवलिंग के समक्ष स्थित है।

ऋषि विश्रवा की प्रतिमा के निकट मुझे सूर्य देव की एक सुंदर प्रतिमा दिखी जिसमें वे अपने सात अश्वों के साथ विराजमान हैं। यह शिल्प काली शिला पर उकेरी हुई है। सूर्य देव के इस विग्रह ने मुझे सूरजकुंड का स्मरण करा दिया जो यहाँ से निकट ही स्थित है।

इस कक्ष के कुछ अन्य विग्रहों में निम्न विग्रह भी अनूठे हैं-

  • गणेश एवं कार्तिकेय संग गौरी शंकर
  • श्वेत अश्व पर आरूढ़ कलकी देव
  • लक्ष्मी नारायण
  • रावण का चचेरा भ्राता कुबेर
  • राधा कृष्ण
  • अपने अश्व को हाँकते बाबा मोहन राम जी
  • हनुमान जी
  • माँ काली

उपरोक्त विग्रहों के नामों को पढ़ते हुए आप बाबा मोहन राम जी के विषय में जानने के लिए अवश्य उत्सुक हुए होंगे। बाबा मोहन राम जी एक संत हैं जिन्होंने इस मंदिर एवं बिसरख धाम के नवीनीकरण का बीड़ा उठाया है। मंदिर एवं गाँव में उपस्थित निवासियों से वार्तालाप करते हुए मुझे ज्ञात हुआ कि गाँव में बाबा मोहन राम जी के अनेक भक्त हैं।

शिव पार्वती मंदिर

मुख्य मंदिर के दर्शन के उपरांत हम उजले गुलाबी रंग में रंगे एक ऊँचे शिखर से अलंकृत मंदिर पहुँचे। यह भी एक लघु मंदिर है जिसके भीतर देवी की प्रतिमा है।

इस मंदिर के चारों ओर बैठकर कुछ भक्तगण मंत्रों का जप कर रहे थे।

इसके पार्श्व भाग पर कुछ मूर्तियाँ थीं जिनके समक्ष उन्हे समर्पित प्रसाद के ढेर थे।

मंदिर के उत्सव

उत्तर भरत में दशहरा के पावन पर्व पर चहुँ ओर रावण, भ्राता कुंभकर्ण एवं रावण-पुत्र मेघनाथ के पुतलों को जलाने की प्रथा है। रामलीला के विविध प्रदर्शन किये जाते हैं। किन्तु बिसरख में प्रथा विपरीत है।

चूंकि बिसरख गाँव रावण का जन्मस्थान  है, यहाँ रावण की आराधना करते हुए दशहरा पर्व मनाया जाता है। यहाँ रामलीला का प्रदर्शन भी नहीं किया जाता। दीवाली का उत्सव भी न्यूनतम एवं मंद स्तर पर किया जाता है।

एक ओर जहाँ भारतीय उपमहाद्वीप को रामायण की भूमि माना जाता है, वहीं रावण को पूजते इस छोटे से गाँव को एक अनूठा द्वीप कहा जा सकता है।

यात्रा सुझाव

  • बिसरख गाँव राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र NCR का एक भाग है। अतः यहाँ तक पहुँचना अत्यंत सुलभ है।
  • यह मंदिर सम्पूर्ण दिवस खुला रहता है।
  • यह मंदिर मूलतः स्थानीय लोगों में लोकप्रिय है। सामान्यतः सभी अनुष्ठान स्थानीय निवासी ही आयोजित करते हैं। कदाचित इसलिए ही मुझे यहाँ पर्यटकों से संबंधित सुविधाओं का नितांत अभाव प्रतीत हुआ।
  • मंदिर के दर्शन करने के साथ साथ आप बिसरख गाँव में भी पद-भ्रमण करें। आधुनिक प्रतीत होते हुए भी इस गाँव में आपका अनुभव सामान्य नहीं होगा, अपितु आपका अनुभव अवश्य अनूठा होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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छतिया बट मंदिर सत्य युग का अग्रदूत https://inditales.com/hindi/chhatia-bata-mandir-odisha/ https://inditales.com/hindi/chhatia-bata-mandir-odisha/#respond Wed, 27 Mar 2024 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3418

छतिया बट मंदिर स्वयं में एक अनूठा मंदिर है जो उत्कल (ओडिशा) प्रदेश के जाजपुर एवं कटक के मध्य स्थित छतिया ग्राम में स्थित है। सतही रूप से देखा जाए तो यह जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित एक सामान्य मंदिर है। हमें ज्ञात है कि ऐसे मंदिर ओडिशा में चहुँ ओर स्थित हैं। जगन्नाथ, […]

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छतिया बट मंदिर स्वयं में एक अनूठा मंदिर है जो उत्कल (ओडिशा) प्रदेश के जाजपुर एवं कटक के मध्य स्थित छतिया ग्राम में स्थित है।

सतही रूप से देखा जाए तो यह जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित एक सामान्य मंदिर है। हमें ज्ञात है कि ऐसे मंदिर ओडिशा में चहुँ ओर स्थित हैं। जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित ऐसे मंदिर देश के अन्य स्थानों पर भी देखे जाते हैं जहाँ ओड़िया भाषी नागरिकों की बहुलता हो।

छतिया बट मंदिर
छतिया बट मंदिर

इस मंदिर में अनूठा क्या है? जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा के विग्रहों को स्थापित करने का क्रम। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में देवी सुभद्रा को उनके दोनों भ्राताओं, जगन्नाथ एवं बलभद्र के मध्य स्थापित किया है। इनके लगभग सभी मंदिरों में इसी क्रम का पालन किया जाता है। किन्तु छतिया बट मंदिर में इन तीनों विग्रहों को स्थापित करने का क्रम है, बाएं से दाहिनी ओर जाते हुए जगन्नाथ, बलभद्र, तत्पश्चात सुभद्रा। क्या आपने कभी ध्यान दिया कि जब हम इन तीनों के नाम लेते हैं तो किस क्रम में लेते हैं? जी हाँ, इसी क्रम में लेते हैं। तो यह कहा जा सकता है कि यह मंदिर श्रुति परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। अर्थात् हम जैसे इन तीनों भाई-भगिनी को संबोधित करते हैं, यह मंदिर शब्दशः उसी संबोधन को आकार प्रदान करता है। आधुनिक बोलचाल पद्धति के अनुसार कह सकते हैं, जो आप कहते हैं, वही आप देखते हैं!

दार्शनिक रूप से कहें तो यह नई विश्व व्यवस्था को दर्शाता है।

कल्कि अवतार

छतिया बट मंदिर को एक भविष्यवादी मंदिर भी कह सकते हैं  क्योंकि यह मंदिर भगवान विष्णु के कल्कि अवतार को समर्पित है। हमें ज्ञात है कि भगवान विष्णु के दसवें अवतार, कल्कि का अवतरित होना अभी शेष है। भारत में जहाँ कालचक्र को आधार माना जाता है, ऐसे मंदिर उसी मान्यता के द्योतक हैं।

छतिया बट मंदिर से जुड़ी दंतकथाएं

संत अच्युतानंद जी ने लिखा, जीबा जगता होइबा लीना – बैसी पहाचे खेलिबा मीना। कुछ का मानना है कि ये संत हाड़ीदास जी ने लिखा है। इसका अर्थ है, एक दिवस पुरी के जगन्नाथ मंदिर की २२ सीढ़ियों पर जगत के सभी जीव समाप्त हो जायेंगे, केवल जल में मीन तैरेगी

यह प्रलय की स्थिति की ओर संकेत करता है जो सृष्टि के प्रत्येक चक्र के अंत में उपस्थित होता है तथा सभी जीवित एवं निर्जीव तत्वों को निगल जाता है। यह पंक्ति आगे कहती है कि केवल छतिया ही वह स्थान है जो जल में समाहित नहीं होगा, अपितु जल के ऊपर रहेगा।

जब संसार में अन्याय असहनीय स्तर को पार कर जायेगा तब भगवान विष्णु कल्कि अवतार ग्रहण कर धरती पर अवतरित होंगे। अश्वारूढ़ कल्कि अवतार के हाथों में नंदक या नंदकी नामक एक लम्बी तलवार होगी। वे इस विश्व में न्याय व्यवस्था लायेंगे तथा सत्य युग को पुनः स्थापित करेंगे।

मान्यता यह है कि इस सत्य युग का आरंभ छतिया बट मंदिर से ही होगा।

बट एवं संत हाड़ीदास

बट या वट बरगद अथवा बड़ के वृक्ष को कहते हैं। भारत में बड़ के वृक्ष को पवित्र माना जाता है। जी हाँ, इस मंदिर को छतिया बट मंदिर इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके परिसर में एक प्राचीन वट वृक्ष है। यह वृक्ष इस मंदिर का अभिन्न अंग है।

इस मंदिर को महापुरुष हाड़ीदास का सिद्ध पीठ भी कहा जाता है। संत हाड़ीदास का जीवनकाल सन् १७७२ से सन् १८३० तक का माना जाता है। वे इसी मंदिर में अपनी साधना करते थे। यहीं उनकी समाधि पीठ भी स्थित है। ऐसी मान्यता है कि अपनी नश्वर देह का त्याग करने के पश्चात भी वे यहीं निवास करते हैं। उन्हें संत अच्युतानंद का बारहवाँ अवतार माना जाता है।

उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक भजन, कई मालिकायें एवं अनेक धर्म ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें शंखनावी, अनंत गुप्त गीता, हनुमान गीता, नील महादेव गीता, भाबाननबाड़ा, अनंतगोई आदि रचनाएँ सम्मिलित हैं। एक स्थानिक शिक्षा शास्त्री, प्रा. आर. साहू ने अपने शोध ग्रन्थ ‘हाड़ीदास रचनावली’ में संत हाड़ीदस की साहित्यिक उपलब्धियों एवं धार्मिक व साहित्यिक ग्रंथों के प्रति उनके योगदान का सविस्तार वर्णन किया है।

मंदिर दर्शन

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं। ऊँची अभेद्य भित्तियों से घिरा हुआ मंदिर का सम्पूर्ण परिसर किसी विशाल दुर्ग का स्मरण कराता है। परिसर के बाहर से मंदिर का लगभग लेश मात्र ही दिखाई देता है। अश्व पर आरूढ़ कल्कि अवतार का विग्रह ही भित्तियों के ऊपर दृष्टिगोचर होता है। प्रवेश द्वार के ऊपर देवी की एक विशाल प्रतिमा है। उनके दोनों ओर अनेक देवी-देवताओं एवं असुरों के विग्रह हैं।

छतिया बट मंदिर का प्रवेश द्वार
छतिया बट मंदिर का प्रवेश द्वार

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण १२वीं सदी में अनंतवर्मन देव के शासनकाल में किया गया था।

परिसर के भीतर अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं। उनमें कुछ हैं, माँ काली का मंदिर, यम का एक मंदिर जो सामान्यतः दृष्टिगोचर नहीं होते, गणेश का मंदिर आदि। मंदिर की भित्तियों पर रंगबिरंगी चित्रकारी की गयी थी।

जगन्नाथ मंदिर

परिसर में स्थित मुख्य मंदिर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा का है। इसे ओडिशा का द्वितीय श्री क्षेत्र भी कहते हैं। इस मंदिर में वे सभी दैनिक पूजा-अनुष्ठान किया जाते हैं जो पुरी के जगन्नाथ मंदिर में किये जाते हैं। जी हाँ, उसका अर्थ है कि इस मंदिर में भी आपको महाप्रसाद प्राप्त हो सकता है।

इस मंदिर के अतिरिक्त इन तीनों के भिन्न भिन्न एकल मंदिर भी हैं। उनके भीतर उनकी विशाल प्रतिमाएं हैं। इन मंदिरों की एक विशेषता यह है कि इन तीनों मंदिरों में विग्रहों के मुख द्वारों के सम्मुख नहीं हैं अपितु एक ओर हैं। उनके सम्मुख दर्शन मंदिर के एक बाजू से ही होते हैं। बलभद्र की मूर्ति के सामने एक दर्पण रखा गया है जिससे आप उनके पीछे खड़े होकर भी उनके मुख का दर्शन कर सकते हैं।

बलभद्र एक श्वेत अश्व पर आरूढ़ हैं तो जगन्नाथ एक श्याम वर्ण अश्व पर सवार हैं। उनके हाथों में तलवारें हैं जो भविष्य में प्रकट होने वाले कल्कि अवतार की ओर संकेत करते हैं। ऐसी मान्यता है कि काल के साथ उनकी तलवारों की लम्बाई भी बढ़ रही है।

इस मंदिर में वार्षिक रथ यात्रा निकाली जाती है जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से भक्तगण यहाँ आते हैं।

छतिया का  पेडा

भारत देश में पेडा लगभग सर्वसामान्य राष्ट्रीय मिष्टान्न माने जाते हैं। मंदिर के प्रसाद के रूप में उनका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। धारवाड़ पेडा , मथुरा पेडा आदि के समान ओडिशा के छतिया पेडा अत्यंत लोकप्रिय हैं।

छतिया पेडा
छतिया पेडा

छतिया पेडा खाना चाहें तो छतिया बट मंदिर के बाहर स्थित दुकानों से उत्तम स्थान अन्य नहीं है। मंदिर के बाहर विक्रेता अपनी दुकानों, गुमटियों यहाँ तक कि दुपहिया सायकलों पर भी पेडा विक्री करते हैं। उन स्वादिष्ट पेडा पर विक्रेताओं की मुद्राएँ भी अंकित रहती हैं।

छतिया बट मंदिर के दर्शन के लिए कुछ यात्रा सुझाव:

छतिया बट मंदिर जाजपुर एवं भुवनेश्वर दोनों से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आप दोनों ओर से यहाँ पहुँच सकते हैं।

आप अपने ठहरने की व्यवस्था जाजपुर, चंडीखोल, कटक अथवा भुवनेश्वर में कर सकते हैं।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण करना निषिद्ध है तथा इस नियम का कठोरता से पालन किया जाता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बनशंकरी अम्मा मंदिर – बादामी उत्तर कर्णाटक का एक शक्तिपीठ https://inditales.com/hindi/banashankari-amma-mandir-badami-karnataka/ https://inditales.com/hindi/banashankari-amma-mandir-badami-karnataka/#respond Wed, 13 Mar 2024 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3408

श्री बादामी बनशंकरी देवी की पूजा-आराधना स्वर्णिम कर्नाटक के चालुक्य काल से चली आ रही है। कर्णाटक के बागलकोट जिले में बादामी तालुका में स्थित बनशंकरी मंदिर उत्तर कर्णाटक का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा बनशंकरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। राजा जगदेकमल्ल प्रथम […]

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श्री बादामी बनशंकरी देवी की पूजा-आराधना स्वर्णिम कर्नाटक के चालुक्य काल से चली आ रही है। कर्णाटक के बागलकोट जिले में बादामी तालुका में स्थित बनशंकरी मंदिर उत्तर कर्णाटक का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा बनशंकरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।

राजा जगदेकमल्ल प्रथम ने ६०३ ई. में इस मंदिर का निर्माण कराया तथा मंदिर के भीतर बनशंकरी देवी की मूर्ति की स्थापना करवाई थी। बनशंकरी देवी कल्याणी के चालुक्य वंश की कुलदेवी मानी जाती है।

मरारी दंडनायक परुषाराम अगले ने सन् १७५० में इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। नवरात्रि के उत्सव में विशेष आभूषणों एवं वस्त्रों से देवी बनशंकरी का अलंकरण किया जाता है। नवरात्रि में देवी के नौ अद्भुत रूपों का दर्शन करने के लिए लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं।

बादामी बनशंकरी का ऐतिहासिक महत्त्व

बादामी बनशंकरी मंदिर के स्वयं के ऐतिहासिक पदचिन्ह हैं।

स्कन्द पुराण में चालुक्य एवं पड़ोसी राज्यों के राजाओं की संरक्षक देवी के रूप में बादामी बनशंकरी की कथाओं का उल्लेख मिलता है।

बनशंकरी अम्मा मंदिर  बादामी में
बनशंकरी अम्मा मंदिर बादामी में

प्राचीन काल में तिलकारण्य नामक वन में दुर्गमासुर नाम का एक क्रूर राक्षस निवास करता था। वह वन में ध्यानरत साधुओं तथा आसपास के ग्रामीणों को अविरत कष्ट देता था। दुर्गमासुर के अत्याचारों से त्रस्त होकर सभी साधूगण सहायता माँगने देवताओं के पास पहुँचे। उनके अत्याचारों के निदान हेतु आदिशक्ति, जो  देवी पार्वती का रूप है, यज्ञ कुण्ड से अवतरित हुईं तथा उन्होंने दुर्गमासुर का वध किया।

बन का अर्थ है, वन अथवा जंगल। शंकरी का अभिप्राय है, पार्वतीस्वरूपा अथवा भगवान शिव की शक्ति। इसी कारण उनका नाम पड़ा, बनशंकरी।

बनशंकरी अम्मा का एक अन्य नाम शाकम्भरी भी है। इसके पृष्ठभाग में भी एक रोचक कथा है।

एक काल में एक नगर सूखे की चपेट में था। वहाँ के निवासियों के पास उदरनिर्वाह हेतु कुछ भी शेष नहीं था। फलस्वरूप नागरिकों ने देवी माँ से गुहार लगाई। देवी बनशंकरी ने अपने अश्रुओं से धरती माता की तृष्णा शांत की तथा अपने भक्तों को जीवनदान दिया। भक्तों की क्षुधा शांत करने के लिए देवी ने शाक भाजियों की रचना की। मंदिर के आसपास के वनों में नारियल, केला आदि के वृक्षों की उपस्थिति इस ओर संकेत भी करती है। इसी किवदंती के कारण देवी को देवी शाकंभरी भी कहते हैं। शाक का अर्थ है भाजी तथा भृ धातु पोषण करने से संबंधित है।

देवी शाकंभरी का उल्लेख दुर्गा सप्तशती में भी किया गया है जहाँ उन्हें देवी का एक अवतार कहा गया है।

अम्मा के भिन्न भिन्न नाम

भक्तगण देवी बनशंकरी को अनेक नामों से पूजते हैं, जैसे बलव्वा, बनदव्वा, शिरावंती, चौदम्मा, चूडेश्वरी, संकव्वा, वनदुर्गे तथा वनशंकरी। देवी सिंहारूढ़ हैं अर्थात सिंह वाहन पर आरूढ़ रहती हैं।

शाकम्बरी देवी
शाकम्बरी देवी

मंदिर के भीतर काली शिला में गढ़ी उनकी प्रतिमा अत्यंत आकर्षक है। लक्ष्मी एवं सरस्वती के संयुक्त रूप में बनशंकरी देवी को मुख्यतः कर्णाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा तमिल नाडु में पूजा जाता है।

मंदिर की स्थापत्य शैली एवं बनशंकरी अम्मा का विग्रह

बनशंकरी देवी के मंदिर का वर्तमान में जो प्रारूप है, वह विजयनगर स्थापत्य शैली में निर्मित है। मूल मंदिर द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित था। मंदिर के चारों ओर ऊँचा प्राकर है।

मंदिर में एक चौकोर मंडप है। मंदिर के समक्ष प्रवेश द्वार के ऊपर उंचा गोपुरम है जिस पर अनेक देवी-देवताओं के शिल्प हैं। साथ ही अनेक पौराणिक पात्र भी उत्कीर्णित हैं। यह मुख्य मंदिर का प्रवेश द्वार है।

मुख्य संरचना के अंतर्गत एक मुख मंडप एवं एक अर्ध मंडप है जो गर्भगृह के समक्ष स्थित है। गर्भगृह के ऊपर शिखर अथवा विमान है। मंदिर परिसर के मध्य में मुक्तांगन है जिसके चारों ओर अनेक स्तंभ युक्त कक्ष हैं। इन कक्षों का प्रयोग विविध अनुष्ठानों एवं उत्सवों में किया जाता है।

गर्भगृह के भीतर बनशंकरी अम्मा का पावन विग्रह है जिसे काली शिला में गढ़ा गया है। देवी अपने वाहन सिंह पर विराजमान हैं तथा अपने चरणों के नीचे राक्षस के शीष रहित धड़ को दबाये हुए हैं। अष्टभुजाधारी बनशंकरी अम्मा के हाथों में त्रिशूल, घंटा, डमरू, तलवार, ढाल तथा असुर का शीष है।

बनशंकरी मंदिर के उत्सव

मंदिर के समक्ष एक चौकोर जलकुंड अथवा कल्याणी है जिसका नाम हरिद्रतीर्थ है।

हरिद्रा तीर्थ
हरिद्रा तीर्थ

इस कल्याणी से सम्बंधित एक अनुपम अनुष्ठान है। नवजात शिशुओं को केले की पत्तियों द्वारा निर्मित पालने में लिटाकर कल्याणी के जल पर स्थित नौका पर रखते हैं। लोगों की मान्यता है कि यह अनुष्ठान शिशुओं के भविष्य के लिए अत्यंत शुभ एवं कल्याणकारी होता है।

शाकम्भरी राहु की प्रिय देवी हैं। इसीलिए भक्तगण राहुकाल में यहाँ नींबू का दीपक जलाते हैं। उनका मानना है कि इस अनुष्ठान के द्वारा राहु दोष से मुक्ति प्राप्त होती है।

इस मंदिर का एक अद्वितीय उत्सव है, पल्लेदा हब्बा अथवा शाकभाजी का उत्सव जिसमें भक्तगण देवी को विविध शाकभाजियों से अलंकृत करते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर बनशंकरी देवी को अर्पित किये जाते हैं। इस अनुष्ठान का अनेक दशकों से अनवरत पालन किया जा रहा है। इस उत्सव में विविध शाकभाजियों का प्रयोग कर कुल १०८ प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं तथा देवी को अर्पित किये जाते हैं।

उत्तर कर्णाटक में एक अन्य लोकप्रिय सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है, बनशंकरी जत्रा। यह एक वार्षिक मेला जो ३ सप्ताहों तक चलता है। यह जत्रा हिन्दू पंचांग के पौष मास की अष्टमी से आरम्भ होता है तथा  माघ मास की पूर्णिमा के दिन उत्सव मनाया जाता है जो साधारणतः जनवरी/फरवरी में आता है। इस दिन देवी पार्वती की रथयात्रा का शुभारम्भ होता है। ऐसी मान्यता है कि यह काल देवी लक्ष्मी एवं उनके विभिन्न रूपों की आराधना के लिए परम पावन होता है।

दीपस्तंभ - बादामी बनशंकरी
दीपस्तंभ – बादामी बनशंकरी

कर्णाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा आँध्रप्रदेश से असंख्य भक्तगण उत्सव में भाग लेने के लिए बनशंकरी मंदिर आते हैं। वे देवी की पूजा-आराधना करते हैं तथा उनसे आशीष माँगते हैं। उत्सव काल में सम्पूर्ण वातावरण उल्हासपूर्ण, जीवंत तथा रंगों से परिपूर्ण हो जाता है। मंदिर के आसपास भक्तों का ताँता लग जाता है। विक्रेता उन्हें भिन्न भिन्न वस्तुएं, जैसे खाद्य प्रदार्थ, परिधान, खिलौने, मिष्टान, देवी को अर्पण करने की वस्तुएं आदि विक्री करने में व्यस्त हो जाते हैं।

बनशंकरी अम्मा मंदिर में नवरात्रि का पर्व

हिन्दू पंचांग के अनुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवरात्रि पर्व अश्विन मास में आता है जो साधारणतः सितम्बर-अक्टूबर मास में पड़ता है। किन्तु कर्णाटक के बादामी में स्थित इस मंदिर में नवरात्रि का उत्सव पौष मास में मनाया जाता है। नौ दिवसों का यह उत्सव देवी बनशंकरी को समर्पित किया जाता है।

बाणदाष्टमी एक अत्यंत पवित्र दिवस माना जाता है। सम्पूर्ण उत्तर कर्णाटक, विशेषतः बनशंकरी मंदिर में विविध उत्सव एवं जत्रायें आयोजित किये जाते हैं।

मंदिर में विशेष उत्तर कर्णाटक भोजन अवश्य ग्रहण करें

स्थानीय स्त्रियाँ अपने घरों में अनेक प्रकार के उत्तर कर्नाटकी व्यंजन बनाते हैं, जैसे मक्के/जवार की रोटियाँ, करगडुबू (पूरण कडबू), कलुपल्ले (अंकुरित दालों का रस), लाल मिर्च की चटनी, पुंडी पल्ले (गोंगुरा भाजी) आदि। वे ये सभी व्यंजन मंदिर में लाते हैं तथा भक्तगणों को देते हैं।

वे एक थाली का मूल्य ३०-५० रुपये तक लेते हैं। आप भी न्यूनतम मूल्य में उपलब्ध इस स्वादिष्ट भोजन का आस्वाद लेकर प्रसन्न हो जायेंगे। इसका स्वाद आपके दैनिन्दिनी स्वाद से अवश्य भिन्न एवं विशेष होगा।

यदि आप बनशंकरी मंदिर में दर्शन के लिए आयें तथा मंदिर के बाहर उपलब्ध इस भोजन का आस्वाद ना लें तो आपकी यात्रा अपूर्ण है!

बनशंकरी मंदिर तक पदयात्रा

भक्तों द्वारा पदयात्रा कर बनशंकरी मंदिर तक पहुँचना, विशेषतः पूर्णिमा के दिवस, यह एक सर्वसामान्य दृश्य होता है। यह परंपरा जनवरी-फरवरी में आयोजित वार्षिक बनशंकरी उत्सव/जत्रा में विशेष रूप से लोकप्रिय है।

भक्तगण अपनी पदयात्रा सामान्यतः अपने निवासों से अथवा निकट के गाँवों एवं नगरों से आरंभ करते हैं। वे लम्बी दूरी की पदयात्रा कर बादामी के बनशंकरी मंदिर पहुँचते हैं। कुछ भक्तगण नंगे पैरों से ही पदयात्रा करते देखे जा सकते हैं। कदाचित भक्ति, कोई विशेष कार्यसिद्धि का हेतु अथवा पश्चाताप की भावना उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती होगी।

बनशंकरी अम्मा का आशीष प्राप्त करने के लिए पदयात्रा करते हुए उन तक पहुँचना, यह एक अत्यंत पावन एवं सुखद अनुभव होता होगा। अनेक भक्तगण अपने परिवारजनों एवं मित्रों के संग यह यात्रा प्रत्येक वर्ष करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह अम्मा के प्रति उनके समर्पण एवं भक्ति में उनका विश्वास दृढ़ करता है।

बादामी के बनशंकरी मंदिर कैसे पहुँचे?

बनशंकरी मंदिर बादामी नगर की बाहरी सीमा में अवश्य स्थित है लेकिन वहाँ पहुँचना कठिन नहीं है। आप सड़क मार्ग से इस मंदिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं। आप किसी भी परिवहन सेवा द्वारा बादामी पहुँचें तथा वहाँ से सड़क मार्ग द्वारा बनशंकरी मंदिर पहुँचें जो नगर के केंद्र से लगभग ४ किलोमीटर दूर स्थित है।

यदि आप वायुमार्ग द्वारा पहुँचना चाहते हैं तो बादामी से निकटतम विमानतल हैं, ११० किलोमीटर दूर स्थित हुबली विमानतल तथा १३० किलोमीटर दूर स्थित बेलगावी। यदि आपकी प्राथमिकता रेल मार्ग है तो बनशंकरी मंदिर पहुँचना अधिक सुगम है। बादामी रेल मार्ग द्वारा देश के सभी मुख्य नगरों से जुड़ा हुआ है। बादामी रेल स्थानक बनशंकरी मंदिर से लगभग ९ किलोमीटर दूर है।

बादामी नगर में किसी भी स्थान से बनशंकरी मंदिर पहुँचने के लिए कर्णाटक राज्य परिवहन निगम की सुविधाजनक बस सेवायें नियमित रूप से उपलब्ध रहती हैं। आप बस से ना जाना चाहें तो ऑटो अथवा ताँगे से भी जा सकते हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होती हैं।

बादामी एवं आसपास के अन्य अद्भुत दर्शनीय स्थल

बादामी चालुक्य वंश से संबंधित एक ऐतिहासिक नगर है। बादामी अनेक प्राचीन मंदिरों तथा शैल-कृत गुफाओं व शिल्पों के लिए प्रसिद्ध है। बादामी में बनशंकरी मंदिर में दर्शन के पश्चात आप आसपास के अनेक दर्शनीय स्थलों का आनंद ले सकते हैं। उनमें कुछ हैं,

बादामी गुफाएं – बादामी गुफाएँ वास्तव में गुफा मंदिर हैं। यहाँ कोमल बलुआ शिलाओं को काटकर चार गुफा मंदिर निर्मित किये गए हैं।

ऐहोले –  ऐहोले भी एक ऐतिहासिक नगरी है। बादामी से लगभग ३५ किलोमीटर दूर स्थित ऐहोले चालुक्य वंश की प्रथम राजधानी थी। यहाँ १२० से अधिक शिला एवं गुफा मंदिरों का समूह है।

पत्तदकल/पट्टदकल्लु – बादामी से लगभग २३ किलोमीटर दूर स्थित, यूनेस्को द्वारा घोषित इस विश्व धरोहर स्थल में ९ प्रसिद्ध हिन्दू एवं एक प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं।

महाकुटा – बादामी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित महाकुटा एक लघु नगरी है जो अनेक प्राचीन मंदिरों एवं उष्ण जल के प्राकृतिक सोते के लिए प्रसिद्ध है। इसे दक्षिण की काशी भी कहा जाता है।

बादामी-ऐहोले-पत्तदकल कर्णाटक का लोकप्रिय पर्यटन परिपथ है।

बादामी के आसपास स्थित ये ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल कर्णाटक के संपन्न इतिहास एवं संस्कृति की एक झलक प्रदान करते हैं।

यह एक अतिथि यात्रा संस्करण है जिसे गायत्री आरी ने प्रदान किया है। वे बागलकोट जिले में स्थित इल्कल नगर की स्थानिक हैं जो प्रसिद्ध इल्कल साड़ियों के लिए जग प्रसिद्ध हैं। वे व्यवसाय से गुणवत्ता विशेषज्ञ हैं। उनके जीवन का सर्वाधिक उत्साहवर्धक क्रियाकलाप है, विश्वभर में यात्राएं करना एवं नित-नवीन संस्कृतियों पर शोध करना। एक प्रकृति प्रेमी तथा आध्यात्मिक यात्री के रूप में उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य एवं भिन्न भिन्न स्थलों के आध्यात्मिक सार में शान्ति का अनुभव होता है।      

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कंदरिया महादेव मंदिर- खजुराहो का विश्व धरोहर स्थल https://inditales.com/hindi/kandariya-mahadev-mandir-khajuraho-vishwa-dharohar/ https://inditales.com/hindi/kandariya-mahadev-mandir-khajuraho-vishwa-dharohar/#respond Wed, 07 Feb 2024 02:30:01 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3380

खजुराहो स्थित कंदरिया महादेव मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली का एक उत्कृष्ट प्रतीक है। १०-११वीं सदी में निर्मित यह मणि चंदेल वंश के राजाओं की देन है। चंदेल साम्राज्य को जेजाकभुक्ति कहा जाता था तथा खजुराहो अथवा खर्जुरवाहक उसकी राजधानी थी। १०- ११वीं सदी में सम्पूर्ण भारत ने उस काल में प्रचलित भारतीय मंदिर […]

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खजुराहो स्थित कंदरिया महादेव मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली का एक उत्कृष्ट प्रतीक है। १०-११वीं सदी में निर्मित यह मणि चंदेल वंश के राजाओं की देन है। चंदेल साम्राज्य को जेजाकभुक्ति कहा जाता था तथा खजुराहो अथवा खर्जुरवाहक उसकी राजधानी थी।

कंदरिया महादेव और जगदम्बी मंदिर - खजुराहो
कंदरिया महादेव और जगदम्बी मंदिर – खजुराहो

१०- ११वीं सदी में सम्पूर्ण भारत ने उस काल में प्रचलित भारतीय मंदिर स्थापत्य की सभी शैलियों के कुछ सर्वोत्कृष्ट रचनाओं के दर्शन किये हैं। उनके कुछ सर्वोत्तम उदहारण हैं, तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर, कर्नाटक के होयसल मंदिर, मोढेरा का सूर्य मंदिर, भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर आदि।

कंदरिया महादेव मंदिर का इतिहास

मंदिर के मंडप पर लगे शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण राजा विद्याधर ने करवाया था। उन्होंने ११वीं सदी के उत्तरार्ध में इस क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित किया था। उनकी सर्वोत्तम उपलब्धियों में से एक है, महमूद गजनवी के प्रथम आक्रमण को सफलता पूर्वक कुचल देना। महमूद गजनवी कुछ वर्षों उपरांत पुनः लौटा था। उसका यह आक्रमण भी अनिर्णायक सिद्ध हुआ था। कुछ सूत्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण महमूद गजनवी की पराजय का उत्सव मनाने के लिए ही किया गया था।

इस मंदिर का निर्माण सन् १०२५-५०ई. के मध्य हुआ था।

कंदरिया महादेव के शिखर
कंदरिया महादेव के शिखर

संभव है कि इस मंदिर की संकल्पना विश्वनाथ द्वारा की गयी थी जो विद्याधर के पूर्वज थे। यह चंदेल वंश के कुलदेव भगवान शिव का मंदिर है। जिस कालावधि में इस मंदिर का निर्माण हुआ था, वह कालावधि निसंदेह भारतीय मंदिर स्थापत्य कला शैली का स्वर्णिम युग था।

सन् १९८६ से खजुराहो के इस कंदरिया महादेव मंदिर को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का मान प्राप्त हुआ है।

कंदरिया शब्द की व्युत्पत्ति

कंदरिया शब्द की व्युत्पत्ति कन्दरा शब्द से हुई है। कन्दरा का अर्थ है, पर्वत अथवा धरती पर स्थित मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक गुफा। अतः कंदरिया महादेव का सरल अर्थ है, कन्दराओं के महादेव।

ऐसा कहा जाता है कि मातंगेश्वर मंदिर एवं विश्वनाथ मंदिर के संग कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो के तीन प्रमुख शिव मंदिरों के त्रयी की रचना करता है। इनके अतिरक्त तीन देवी मंदिर भी हैं जो चौसठ योगिनियाँ, छत्री देवी एवं जगदम्बी के लिए हैं। ये तीन मंदिर भी एक अन्य प्रतिच्छेदन त्रिभुज की रचना करते हैं। ये छः मंदिर एकत्र रूप में एक यंत्र की रचना करते हैं। यह यंत्र एक पावन आकृति है जिसका विस्तृत विवरण यहाँ इस शोध पत्र में किया गया है।

कंदरिया महादेव मंदिर का दर्शन

शीत ऋतु की वह शीतल प्रभात मुझे अब भी स्मरण है। मैं मंदिर के समक्ष खड़ी मंदिर को निहार रही थी। सूर्य की किरणें मंदिर की परिरेखा से अठखेलियाँ खेल रहीं थी। उनके प्रातःकालीन वार्तालापों को हम लगभग सुन व समझ पा रहे थे।

दमकता हुआ कंदरिया महादेव
दमकता हुआ कंदरिया महादेव

सूर्य की प्रथम किरणों के प्रकाश में मंदिर चमचमा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो यह मंदिर उत्कीर्णित शिलाखंडों द्वारा नहीं, अपितु चन्दन के उत्कीर्णित काष्ठों द्वारा निर्मित हो। उनकी सौम्य गुलाबी रंग की विविध छटाएं सूर्य की किरणों के संग लुका-छिपी का खेल खेल रहीं थी।

मंदिर के गठन में मुझे एक लय का अनुभव हो रहा था। वह लय जगती, मंडप एवं शिखर के सही अनुपात में निहित था अथवा कदाचित स्थापत्य विदों ने महादेव के कैलाश पर्वत की यहाँ पुनरावृत्ति करने के लिए सर्वोत्तम सूत्रों का प्रयोग किया है, मुझे ज्ञात नहीं। मुझे केवल इतना स्मरण है कि मेरे नेत्र अश्रु जल से भर गए थे। मुझे अपने एवं मंदिर के मध्य एक अद्भुत संस्पंदन का अनुभव हो रहा था। इस अनुभव ने मेरे एवं मंदिर के मध्य सम्बन्ध को एक नवीन परिभाषा प्रदान कर दी थी।

कंदरिया महादेव मंदिर का स्थापत्य
कंदरिया महादेव मंदिर का स्थापत्य

मैंने इस अद्वितीय अद्भुत अनुभव का उल्लेख अपनी पुस्तक, ‘Lotus In The stone – Sacred Journeys in Eternal India’ में भी किया है।

गत संध्या के समय मैंने एक दृश्य एवं श्रव्य प्रदर्शन में इस मंदिर को जीवंत होते देखा था। मैंने इसकी बाह्य सुन्दरता को नेत्र भर कर निहारा था। किन्तु प्रातः काल मंदिर एवं मेरे मध्य जिस लय की रचना हुई, उसने मेरे अंतर्मन को भेध दिया था। उसने मुझे अंतर्बाह्य मोह लिया था।

मंदिर की स्थापत्य कला

खजुराहो के अन्य मंदिरों के अनुरूप इस मंदिर की संरचना भी बलुआ शिलाओं द्वारा की गयी है। गुलाबी एवं पीतवर्ण की भिन्न भिन्न छटाओं में रंगी बलुआ शिलाएं केन नदी के तट पर स्थित पन्ना की खदानों से लायी गयी हैं।

कंदरिया मंदिर खजुराहो मंदिर संकुल के पश्चिमी भाग पर स्थित मंदिरों में से एक है। यह मंदिर एक उच्च जगती पर स्वतन्त्र रूप से स्थापित है। इसके चारों ओर किसी भी प्रकार का प्राकार उपस्थित नहीं है। इसी कारण मंदिर की परिक्रमा करते हुए आप चारों ओर से इसकी सुन्दरता का अवलोकन कर सकते हैं। दो अन्य मंदिर भी इसी जगती पर स्थापित हैं। उनमें से एक लघु मंदिर भगवान शिव का है तथा एक मंदिर देवी जगदम्बी का है।

खजुराहो का विशालतम मंदिर

कंदरिया महादेव मंदिर इस संकुल का विशालतम मंदिर होते हुए भी एक सघन व सुगठित मंदिर है। पूर्व-पश्चिम अक्षांश पर स्थित इस मंदिर की लम्बाई ३०.५ मीटर व चौड़ाई २० मीटर है। ३१ मीटर ऊँचा मंदिर ४ मीटर ऊँचे जगती पर स्थापित है। इस मंदिर में एक ठेठ हिन्दू मंदिर के सभी तत्व उपस्थित हैं।

एक अर्ध मंडप के मध्य से आप मंदिर में प्रवेश करते हैं। यह प्रवेश द्वार आपको मंदिर के मुख्य मंडप तक ले जाता है। मंडप एवं गर्भगृह के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता एक अंतराल है। गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा पथ है।

शिखर का लय

मंदिर का संग्रथित शिखर समूह एक ऐसा तत्व है जो इस मंदिर को एक लय प्रदान करता है। मंदिर का संयुक्त शिखर ८४ स्वतन्त्र शिखरों द्वारा संरचित है। प्रत्येक शिखर दूसरे की प्रतिकृति है। जैसे जैसे ऊपर जाते हैं, समरूप शिखरों के आकार में संवृद्धि होती जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो शिखरों का उंचा ढेर हो। एक प्रकार से यह कैलाश पर्वत की प्रतिकृति प्रतीत होता है जो भगवान शिव का प्रिय निवास स्थान है। इस संरचना का चुनाव कदाचित इसीलिए किया गया हो ताकि भगवान शिव को यह स्वयं का भवन प्रतीत हो।

मंडप को महामंडप कहा जाता है क्योंकि इसमें अनेक गलियारे हैं जिनके झरोखे बाहर की ओर खुलते हैं। मंदिर के दोनों पार्श्वभागों पर एवं पृष्ठभाग पर प्रलंबन हैं जिन पर ये झरोखे निर्मित हैं। इन झरोखों के आतंरिक भागों पर बैठकों की सुविधाएं प्रदान की गयी हैं। ये बैठकें इतनी विशाल हैं कि हम असमंजस में पड़ जाते हैं कि ये ध्यान साधना के लिए हैं अथवा किसी अनुष्ठान के लिए हैं।

बाह्य भित्तियाँ

बाह्य भित्तियों पर अप्रतिम आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं जिनमें प्रमुख हैं, गजाकृतियाँ, अश्वाकृतियाँ, संगीतज्ञ, नर्तक, वाद्य यंत्र, दैनन्दिनी जीवन के विभिन्न आयाम जिनमें प्रेमशास्त्र भी सम्मिलित है।

मैथुन - गर्भगृह और मंडप के मिलन बिंदु पर
मैथुन – गर्भगृह और मंडप के मिलन बिंदु पर

झरोखों के स्तर पर स्थित तीन पट्टिकाओं पर अधिक विस्तृत एवं सुस्पष्ट शिल्प हैं। इन पट्टिकाओं पर देवी-देवताओं के शिल्प हैं। एक शिव मंदिर होने के नाते उन शिल्पों में प्रमुख रूप से शिव की प्रतिमाएं हैं। कहीं कहीं वे अपनी शक्ति के संग भी विराजमान हैं। उन शिल्पों में सप्तमातृकाओं की भी प्रतिमाएं हैं। अन्य शिल्प हैं, सुर सुंदरियाँ, प्रेमशास्त्र संबंधी शिल्प जो विशेषतः गर्भगृह एवं मंडप के संगम पर प्रदर्शित हैं, नाग एवं व्याल आकृतियाँ आदि।

सुर सुंदरियाँ
सुर सुंदरियाँ

मंदिर की बाह्य भित्तियों पर रचित स्त्रियों के शिल्प सभी मापदंडों में सर्वोत्तम हैं। उनके शरीर के विभिन्न अंगों को सही अनुपात में उकेरा गया है। उनके शरीर के उभारों को विभिन्न मुद्राओं की सहायता से विशिष्टता प्रदान की गयी है। जैसे खड़े होने की त्रिभंगी मुद्रा जिसमें उनकी शारीरिक मुद्रा तीन स्थानों पर वक्र होती है। उनके आभूषणों एवं उनके उत्तम महीन वस्त्रों की परतों के शिल्प आपको मंत्रमुग्ध कर देंगे।

मंदिर के भीतर प्रवेश

मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक आकर्षक मकर तोरण है जिसके छोरों पर मगर के मुख की आकृतियाँ हैं। यह तोरण एकल शिलाखंड को उत्कीर्णित कर निर्मित किया गया है। कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो का इकलौता मंदिर है जिसमें दो मकर तोरण हैं।

मंदिर की भीतरी छत
मंदिर की भीतरी छत

मंदिर की छत शिलाखंड द्वारा निर्मित है जिस पर संकेन्द्रीय वृत्त के आकार में प्रचुर मात्रा में उत्कीर्णन किया गया है। अद्भुत, असाधारण, विलक्षण, अद्वितीय, आश्चर्य चकित कर देने वाले, सूक्षमता एवं सौंदर्य का अद्भुत सम्मिश्रण! मैं इस स्तर तक सम्मोहित हो गयी थी कि उनके लिए जितने विशेषणों का प्रयोग करूँ, मेरे लिए वे कम ही होंगे।

स्तंभों पर पुष्प की बेलें उत्कीर्णित हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार एवं भारतीय मंदिर वास्तुकला के विशेषज्ञ जॉर्ज मिचेल के अनुसार मंदिर की बाह्य भित्तियों पर ६४६ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। वहीं आतंरिक भित्तियों पर २२६ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं।

क्या कंदरिया महादेव मंदिर को अनुष्ठानिक मंदिर बनाया जा सकता है?

जैसा कि नाम से विदित होता है, कंदरिया मंदिर एक शिव मंदिर है। वर्तमान में यह अनुष्ठानिक मंदिर नहीं है, अर्थात् यहाँ किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना अथवा अनुष्ठान का आयोजन नहीं किया जाता है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि इस मंदिर में भगवान की प्राण प्रतिष्ठा की जाए तथा यह मंदिर पुनः एक जीवंत अनुष्ठानिक शिव मंदिर बने।

यह मंदिर इतना मनमोहक व अप्रतिम है कि इसकी अविस्मरणीय सुन्दरता पर अनेक साहित्य लिखे जा सकते हैं। इसके चित्र एवं चलचित्र हमें मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इसके विलक्षण सौंदर्य पर यदि दिव्य उर्जा का तिलक लग जाए तो इसे आध्यात्मिक रूप से भी जीवंत किया जा सकता है। इससे सभी प्रकार के दर्शनार्थियों को लाभ प्राप्त हो सकेगा।

जैसा कि स्थापति पोन्नी सेल्वनाथ ने बताया, हमारे शास्त्रों में भी परित्यक्त मंदिरों के जीर्णोद्धार के विषय में विस्तृत रूप से उल्लेख किया गया है।

यह मंदिर हमारे लिए ना केवल वास्तुकला के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, अपितु खजुराहो के पवित्र भौगोलिक महत्ता के संरक्षण के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भारतीय मंदिर वास्तुशैली व स्थापत्यकला के स्वर्णिम युग से प्राप्त एक विलक्षण मणि है। इसे जीवंत रखना ना केवल हमारा उत्तरदायित्व है, अपितु हमारे लिए आवश्यक भी है।

यात्रा सुझाव

यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक सप्ताह के सातों दिवस खुला रहता है।

खजुराहो में स्वयं का विमानतल है। यह रेल मार्ग द्वारा भी देश के अन्य नगरों से सुगम रूप से सम्बद्ध है। झांसी से खजुराहो तक उत्तम सड़क मार्ग उपलब्ध है।

कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो के मंदिरों के पश्चिमी समूह का एक भाग है। खजुराहो पहुँचते ही, लगभग सभी मार्ग आपको इस मंदिर तक ले जायेंगे।

खजुराहो में सभी स्तर के अनेक विश्रामगृह उपलब्ध हैं। हम मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा संचालित विश्रामगृह में ठहरे थे जो इन मंदिरों के अत्यंत निकट स्थित है। यहाँ से आप पदभ्रमण करते हुए सुगमता से मंदिर तक जा सकते हैं। प्रातः शीघ्र दर्शन करना उत्तम होगा।

यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यहाँ देशी पर्यटकों के साथ साथ बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी आते हैं। अतः खजुराहो की गलियों में विविध प्रकार के स्वादिष्ट देशी एवं विदेशी व्यंजन उपलब्ध होते हैं।

खजुराहो के मंदिर समूह का दर्शन करने के लिए १-२ दिवसों का समय पर्याप्त है। मेरा सुझाव है कि इस मंदिर के दर्शन के लिए कम से कम एक घंटे का समय अवश्य रखें।

यह यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। यहाँ पर्यटन परिदर्शक या गाइड तथा श्रव्य परिदर्शन की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं। मेरा सुझाव है कि आप भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा अनुमोदित परिदर्शकों की ही सेवायें लें। आपको जिस गति से भ्रमण करना हो, उसकी सूचना देते हुए सुगमता से मंदिरों का अवलोकन करें।

अधिकाँश मंदिरों में छायाचित्रीकरण निषिद्ध नहीं है।

संध्या के समय दृश्य एवं श्रव्य प्रदर्शन किया जाता है जिसे देखना ना भूलें।

खजुराहो भ्रमण के साथ आप पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, ओरछा एवं झांसी के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण भी नियोजित कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान – दारासुरम https://inditales.com/hindi/darasuram-airateshwar-mandir-tamil-nadu/ https://inditales.com/hindi/darasuram-airateshwar-mandir-tamil-nadu/#respond Wed, 03 Jan 2024 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3355

एक गोधूलि बेला में कच्चे मार्ग से होते हुए तिपहिया वाहन द्वारा मैं दारासुरम पहुँची। गंतव्य पर अग्रसर होते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मार्ग मुझे कहीं नहीं पहुँचायेगा। अकस्मात् ही एक विशाल मंदिर मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट हो गया। वह ऐरावतेश्वर मंदिर था। इस मंदिर का एक अन्य लोक-व्यापी […]

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एक गोधूलि बेला में कच्चे मार्ग से होते हुए तिपहिया वाहन द्वारा मैं दारासुरम पहुँची। गंतव्य पर अग्रसर होते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मार्ग मुझे कहीं नहीं पहुँचायेगा। अकस्मात् ही एक विशाल मंदिर मेरे नेत्रों के समक्ष प्रकट हो गया। वह ऐरावतेश्वर मंदिर था। इस मंदिर का एक अन्य लोक-व्यापी नाम है, दारासुरम मंदिर।

मंदिर पहुँचते ही मेरी प्रथम दृष्टि मंदिर के खंडित गोपुरम एवं उसकी भंजित बाह्य भित्तियों पर पड़ी। तदनंतर मंदिर के प्रवेश द्वार पर मुझे एक छोटा जलमग्न मंदिर दृष्टिगोचर हुआ। मेरी इस यात्रा से कुछ ही दिवस पूर्व नीलम चक्रवात ने इस मंदिर में भेंट दी थी जिसके कारण मंदिर के चारों ओर जल एकत्र हो गया था।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर

कुछ क्षणों पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि सामान्यतः वर्षा के पश्चात मंदिर के चारों ओर की भूमि जलमग्न हो ही जाती है। काल के साथ मंदिर के आसपास की भूमि ऊँची हो गयी है जिसके कारण मंदिर का भूतल अपेक्षाकृत नीचे हो गया है। इसके कारण वर्षा का जल चारों ओर से मंदिर की ओर आता है तथा मंदिर को चहुँ ओर से घेर लेता है।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के आकर्षण

जल के मध्य स्थित मंदिर को देख मन में कुतूहल जन्म ले रहा था। हृदय में सम्मिश्रित भावनाएं उत्पन्न होने लगी थीं। मुझे इस तथ्य का पूर्ण रुप से भान था कि यह एकत्रित जल मंदिर की संरचना के लिए अहितकारी सिद्ध हो सकता है। इस आभास के पश्चात भी मैं जल से घिरे मंदिर की सुन्दरता को देख मंत्रमुग्ध सी हो रही थी। सूर्य की किरणें जल की सतह पर मंदिर के प्रत्येक अवयव का प्रतिबिम्ब चित्रित कर रही थीं। जैसे जैसे सूर्य अस्त की ओर उन्मुख हो रहा था, मंदिर का प्रतिबिम्ब सूर्य की किरणों के संग आँख-मिचौली खेल रहा था।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान
दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर के संगीतमय सोपान

एक गाँववासी ने मुझे कहा कि मंदिर के भीतर जाने के लिए मुझे इस जल का सामना करना पड़ेगा। मैं सोच में पड़ गयी कि किस प्रकार सामना करना पड़ेगा! मुझे विश्वास था कि ऊँची जगती अथवा चबूतरे पर निर्मित स्तंभ युक्त गलियारे से घिरे इस मंदिर तक पहुँचने का कोई मार्ग अवश्य होगा जिसके लिए मुझे जल में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। लेकिन वहाँ ऐसा कोई मार्ग नहीं था। मुझे जल में प्रवेश करना ही पड़ा। किन्तु जैसे ही मैंने जल में प्रवेश किया, मुझमें चारों ओर के जल का कोई आभास शेष नहीं रहा। मुझे जल की उपस्थिति का भी भान नहीं था। मैं व मेरा कैमरा, हम दोनों प्रसन्नता से मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हुए अपने अपने कार्य में मग्न हो गए थे।

चोल मंदिर की स्थापत्य शैली

ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण सन् ११६६ में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था।

यह एक वर्गाकार संरचना है। अन्य चोल मंदिरों के विपरीत इस मंदिर का परिक्रमा पथ मुख्य मंदिर के भीतर ना होकर मंदिर के बाह्य क्षेत्र में है।

मुख मंडप एवं अर्ध मंडप पार कर हम गर्भगृह पहुँचते हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो विशालकाय द्वारपालों के शिल्प हैं। महामंडप स्तंभों से भरा हुआ है। मंदिर के लिंग की स्थापना महाराज राजराजा ने स्वयं करवाई थी। इसलिए इस लिंग को राज-राजेश्वर उदयनार भी कहते हैं।

मुख्य मंदिर के पार्श्वभाग में स्थित मंडप को अग्र-मंडप कहते हैं। इस मंडप का नामकरण चोल राजा के नाम पर किया गया है। इस मंडप की संरचना एक विशाल रथ के समान है। इसके प्रवेश पर स्थित सोपानों की यह विशेषता बताई जाती है कि ये संगीतमय सोपान हैं। इन पर चढ़ते ही भिन्न भिन्न सोपानों से संगीत के भिन्न भिन्न सुर निकलते हैं। यह जानकारी मुझे हमारे परिदर्शक ने प्रदान की थी। किन्तु मैं इसका अनुभव नहीं ले पायी क्योंकि वह स्थल जलमग्न था।

मंदिर की भित्तियों पर कई शिल्प पट्टिकाएं एवं शिलालेख हैं जिन पर शैव नयनार संतों की कथाएं प्रदर्शित हैं। अनेक पौराणिक गाथाओं का भी चित्रण है।

मंदिर परिसर में कुछ छोटे देवालय भी है। जैसे गणेश मंदिर, यम मंदिर, सप्तमातृका मंदिर आदि।

मंदिर परिसर अत्यंत विस्तृत है। इसे सप्त-वीथी भी कहते हैं। इसका अर्थ है, मंदिर जिसमें सात वीथिकाएँ अथवा गलियारे एवं सात मार्ग हैं। ठीक उसी प्रकार जैसा तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम मंदिर में है। वर्तमान में उन सातों में से केवल एक ही शेष है। मंदिर के गोपुरम एवं स्वयं मंदिर के भंगित अवशेष परिसर में चारों ओर बिखरे हुए हैं।  मेरे अनुमान से १४वीं शताब्दी में इस मंदिर पर आततायियों ने आक्रमण किया था एवं मंदिर को इस स्थिति में पहुँचाया था।

मंदिर से सम्बंधित लोककथा

किवदंतियों एवं मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण उस चरवाहिन की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए किया गया था जिसने तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के शिखर के लिए शिला का दान किया था। उसकी अभिलाषा थी कि ऐसा ही एक विशाल मंदिर का निर्माण उसके ग्राम में भी किया जाए।

मुझे इस विनिमय ने अचंभित कर दिया। एक सामान्य स्त्री राजा के प्रिय मंदिर के निर्माण के लिए शिला का दान कर रही है। इसके प्रतिफल के रूप में वह स्वयं के लिए किसी भी वस्तु की माँग रख सकती थी। लेकिन उसने क्या माँगा! उसने माँग रखी कि ऐसा ही एक मंदिर उसके ग्राम में भी हो। क्या इससे प्राचीन काल के भारतीयों के नैतिक मूल्यों एवं उनकी प्राथमिकताओं की छवि नहीं प्राप्त होती? उस काल में कला एवं संस्कृति का महत्त्व सर्वोपरि था।

ऐरावतेश्वर मंदिर के गज शिल्प

ऐरावतेश्वर मंदिर का नामकरण इंद्र के गज ऐरावत के नाम पर किया गया है। ऐसी मान्यता है कि इंद्र के गज ऐरावत ने पवित्र कावेरी नदी से पोषित इस मंदिर के जलकुण्ड में स्नान किया था। इसके पश्चात उसकी त्वचा दैदीप्यमान हो गयी थी। यह दंतकथा मंदिर की शिला पर भी उत्कीर्णित है।

सोपानों के दोनों ओर गज प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो ये गज मंदिर को अपनी पीठ पर उठाये हुए हैं। समीप ही जगती की भित्ति पर दो पैरों पर खड़े दौड़ती हुई मुद्रा में अश्व उत्कीर्णित हैं। उनके पृष्ठ भाग में रथ के चक्र उत्कीर्णित हैं। भित्तियों पर भी रथ के चक्र इस प्रकार उत्कीर्णित हैं कि वे इस मंदिर को एक रथ की छवि प्रदान करते हैं।

ऐसी मान्यता है कि रथ के ये चक्र वास्तव में सौर घड़ियाँ हैं। इनका प्रयोग प्रातःकाल एवं संध्याकाल में समय आंकने के लिए किया जाता है। रथ के आकार के ऐसे मंदिरों को करक्कोइल कहा जाता है। इनकी प्रेरणा मंदिर में देवों की शोभायात्रा में प्रयुक्त विशाल रथों से प्राप्त की गयी है। एक तत्व जो मुझे भ्रामक प्रतीत हुई वह यह कि गज एवं अश्व एक दिशा में ना जाते हुए एक दूसरे से लम्बवत दिशा में जाते दर्शाए गए हैं।

अन्य दो मंदिर जो चक्र युक्त रथ के आकार के प्रतीत होते हैं, वे हैं, ओडिशा का कोणार्क सूर्य मंदिर एवं हम्पी का विट्ठल मंदिर

मुख्य मंदिर के चारों ओर नंदी की अनेक लघु प्रतिमाएं हैं। दो प्रतिमाओं के मध्य कमल पुष्प उत्कीर्णित है। साहित्यों के अनुसार कदाचित ये कम ऊँचाई की भित्तियाँ थीं जिनका उद्देश्य मंदिर के चारों ओर कुण्ड का आभास प्रदान करना था। उसके अनुसार कदाचित यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने मंदिर को उसी रूप में देखा जैसा की यह पूर्व में नियोजित था।

भगवान शिव एवं चोल मंदिर

सभी चोल मंदिरों की विशेषता है कि उनके पृष्ठ भाग की बाह्य भित्ति पर शिवलिंग होता है जिसके मध्य से भगवान शिव प्रकट होते दर्शाए जाते हैं। इस मंदिर में भी ऐसा ही एक लिंग है। इसे लिंगोद्भव कहते हैं। इसका अर्थ है, लिंग से शिव का उद्भव। मंदिर के स्तंभों पर विस्तृत उत्कीर्णन हैं। उन पर इतिहास पुराण की कथाएं एवं विभिन्न नृत्य मुद्राएँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर स्थापत्य शैली एवं वास्तुकला के विद्यार्थियों के लिए यह मंदिर ज्ञान अर्जन का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है।

लिंगोद्भव मूर्ति
लिंगोद्भव मूर्ति

मुख्य मंदिर से अभिषेक के जल को बाह्य दिशा की ओर संचालित करते व्याल मुखों पर भी विस्तृत उत्कीर्णन है। उन पर सिंह मुख की आकृति बनाई गयी है।

मेरी इस यात्रा में अवलोकित मंदिरों में से यह इकलौता ऐसा मंदिर है जिनके जाली युक्त झरोखों पर विलोम स्वस्तिक आकृतियाँ एवं वर्गाकार आकृतियाँ क्रम से उकेरी गयी हैं। कुछ स्थानों पर लाल एवं हरित रंग पुते हुए हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित अनुत्कीर्णित भागों पर रंगाई की गयी थी। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि ऐसे मंदिरों को इनके पूर्ववत भव्य अवस्था में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। मंदिरों का नवीनीकरण इसी दिशा में होना चाहिए।

नंदी मंडप

इस मंदिर का नंदी मंडप मुख्य गोपुरम के बाह्य भाग में है। यह एक लघु मंडप है। जिस जगती पर शिवलिंग स्थापित है, उस जगती के तल से यह मंडप कहीं अधिक निचले तल पर है। मुझे बताया गया कि पूर्वकाल में वर्तमान गोपुरम के स्थान पर यहाँ उससे अधिक विशाल गोपुरम था। अब उनके केवल अवशेष ही शेष रह गए हैं।

इस मंदिर का एक अन्य विशेष तत्व है, स्तंभों के आधार याली के आकार में उत्कीर्णित हैं। इस प्रकार के स्तम्भ हमें महाबलीपुरम एवं कांचीपुरम के मंदिरों में भी दृष्टिगोचर होते हैं। याली एक पौराणिक पशु है जिसका शरीर विभिन्न पशुओं का सम्मिश्रित रूप होता है। उसका मुख गज का, धड़ सिंह का, कर्ण सूकर का, सींग बकरी के एवं पूँछ गौमाता का होता है।

देवी मंदिर

मुख्य मंदिर के एक ओर देवी मंदिर है जो ऐरावतेश्वर मंदिर के समकालीन है। यह पेरिया नायकी अम्मा का मंदिर है। दुर्भाग्य से यहाँ जल संचयन मुख्य मंदिर से भी अधिक था जिसके कारण मैं मंदिर के भीतर नहीं जा सकी।

दारासुरम मंदिर के स्तम्भ
दारासुरम मंदिर के स्तम्भ

हो सकता है कि किसी काल में यह मुख्य मंदिर संकुल का अभिन्न अंग रहा होगा किन्तु अब यह मुख्य मंदिर से असंलग्न है।

दारासुरम

दरासुरम, यह नाम कदाचित दारुका-वन, इस शब्द से व्युत्पन्न है। कनकल एवं ऋषि पत्नी के अनेक चित्र हैं जो इस ओर संकेत करते हैं।

यह कोल्लीडम नदी के निकट स्थित है जो कावेरी नदी के मुहाने का भाग है।

उत्सव

यह एक शिव मंदिर होने के नाते यहाँ का प्रमुख उत्सव शिवरात्रि है।

मंदिर का वार्षिक उत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार यह काल लगभग जनवरी मास में पड़ता है।

दारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर – यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल

यह मंदिर भारत के दक्षिणी राज्य तमिल नाडु में स्थित है। कुम्भकोणम के निकट दारासुरम नामक नगर में स्थित होने के कारण इस मंदिर को दारासुरम मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माण लगभग १२वीं सदी में चोल वंश के राजा राजराजा चोल द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान शिव के ऐरावतेश्वर रूप की आराधना की जाती है।

ऐरावतेश्वर मंदिर यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। सन् २००४ में इस मंदिर को यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थलों की सूची में सम्मिलित किया गया था। उस सूची में इस मंदिर को महान जीवंत चोल मंदिरों के उप-वर्ग के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।

दारासुरम यात्रा से सम्बंधित कुछ सुझाव

दारासुरम तंजावुर से लगभग ४० किलोमीटर दूर है। आप तंजावुर में अपना पड़ाव रखते हुए बृहदीश्वर का बड़ा मंदिर, गंगईकोंडा चोलपुरम तथा आसपास के अन्य आकर्षणों का अवलोकन कर सकते हैं।

मंदिर नगरी चिदंबरम से तंजावुर की मंदिर नगरी जाते हुए भी आप मध्य में विमार्ग लेते हुए ऐरावतेश्वर मंदिर जा सकते हैं।

सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं।

ऐरावतेश्वर मंदिर पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल तिरुचिरापल्ली है जो लगभग ९० किलोमीटर दूर स्थित है। यदि आप तिरुचिरापल्ली की ओर से यहाँ आ रहे हैं तो आप श्रीरंगम के भी दर्शन कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ताला का देवरानी-जेठानी का मंदिर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़  https://inditales.com/hindi/tala-bilaspur-devrani-jethani-mandir/ https://inditales.com/hindi/tala-bilaspur-devrani-jethani-mandir/#respond Wed, 20 Dec 2023 02:30:04 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=839

ताला और मल्हार जैसे नाम सुनते ही सबसे पहले आपके दिमाग में एक ऐसी जगह आती है जो संगीत से जुड़ी हो, लेकिन वास्तव में यह जगह छत्तीसगढ़ की वास्तुकला संबंधी विरासत का प्रमुख केंद्र है। मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम बिन्दु के आस-पास बसी इस जगह पर शायद शैव पंथियों का प्रभुत्व है, […]

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ताला और मल्हार जैसे नाम सुनते ही सबसे पहले आपके दिमाग में एक ऐसी जगह आती है जो संगीत से जुड़ी हो, लेकिन वास्तव में यह जगह छत्तीसगढ़ की वास्तुकला संबंधी विरासत का प्रमुख केंद्र है। मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम बिन्दु के आस-पास बसी इस जगह पर शायद शैव पंथियों का प्रभुत्व है, हालांकि इस क्षेत्र में आपको कदम-कदम पर रामायण से जुड़े उपाख्यान सुनने को मिलते हैं।

ताला बिलासपुर का देवरानी जेठानी मंदिर परिसर
ताला बिलासपुर का देवरानी जेठानी मंदिर परिसर

हमे बताया गया कि ताला विशेष रूप से तांत्रिक विद्याओं और प्रथाओं के लिए प्रचलित है।

तो चलिये ताला में स्थित देवरानी – जेठानी के इन दो मंदिरों के बारे में जानते हैं।

बिलासपुर – छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल

देवरानी – जेठानी का मंदिर

यहाँ पर दो प्राचीन मंदिरों के अवशेष पाए जाते हैं। दोनों मंदिर एक-दूसरे से कुछ ही मीटर की दूरी पर बसे हुए हैं।  सार्वजनिक रूप से यह देवरानी – जेठानी के मंदिरों के नाम से जाने जाते हैं। उपाख्यान बताते हैं, कि ये मंदिर यहाँ के राजसी परिवार के दो भाइयों की पत्नियों के लिए बनवाए गए थे।

जेठानी मंदिर

जेठानी का मंदिर अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। एक समय में जो पत्थर मंदिर के रूप में खड़े हुआ करते थे, वे आज एक-दूसरे के ऊपर ऐसे ही पड़े हुए हैं। इन पत्थरों पर उत्कीर्णित विविध आकृतियाँ छोटे-छोटे कोनों से बाहर झाँकती हुई नज़र आती हैं।

मंदिर के अवशेष
मंदिर के अवशेष

यहाँ पर आप उत्कीर्णित हाथी भी देख सकते हैं, जो शायद मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े हुआ करते थे। यहाँ पर कुछ टूटे हुए उत्कीर्णित स्तंभ भी हैं जो कभी इस मंदिर की छत का भार संभालते थे। इसके अतिरिक्त आप मंदिर की पूरी की पूरी छत जमीन पर बिखरी पड़ी हुई देख सकते हैं।

देवरानी मंदिर

देवरानी के मंदिर का आधारभूत मंच आज भी ज्यों का त्यों हैं और इसी के साथ मुख्य मंदिर तक जाती सीढ़ियाँ भी वैसी की वैसी हैं। इस मंदिर के द्वार की चौखट पर भी गुजरते हुए काल से हुई क्षति के ज्यादा निशान नहीं मिलते। यह चौखट आज भी इस प्रकार खड़ी है, जैसे कि वह आपको इस मंदिर के गौरवपूर्ण अतीत की झलकियाँ प्रदान कर रही हो। यह पूरी चौखट जटिल और नाजुक नक्काशी काम से सजी हुई है।

मंदिर के उत्कीर्णित पाषाण द्वार
मंदिर के उत्कीर्णित पाषाण द्वार

उसकी मोटी-मोटी दीवारों पर विस्तृत रूप से सिंह की मुखाकृतियाँ और मनुष्यों की आकृतियाँ उत्कीर्णित की गयी हैं, जो शायद किसी कथा का बयान करती हैं या फिर किसी घटना को दर्शाती हैं। उसके कोने गुलाब की वेणियों के रूप में तराशे गए हैं, जो विभिन्न आकारों में बनी हुई हैं। इस चौखट की सीधी किनारी पर कमल की वेणियाँ तराशी गयी हैं।

यहाँ पर खड़े स्तंभों के ऊपर अमलका बने हुए हैं और उनके मूल में पूर्ण घटक हैं। इस चौखट के ऊपरी भाग पर दिव्य आकृतियाँ बनी हुई हैं और उसी के नीचे वाली पट्टिका पर शायद देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनी हुई हैं, जिन्हें ठीक से पहचानना थोड़ा मुश्किल है। तो कुछ पट्टिकाओं पर नृत्य करते पुरुषों के चित्र हैं, जिनके पैर असंगत रूप से छोटे हैं; जैसे कि मंदिर के बाहर पड़ी गणेश जी की मूर्ति है।

यहाँ के अधिकतर पत्थरों को जोड़ने का प्रयास किया गया है। इन पत्थरों को देखते हुए यह बता पाना थोड़ा मुश्किल है कि ये सभी पत्थर उसी मंदिर के हैं या नहीं। इस मंदिर का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि, मंदिर तक जाती सीढ़ियाँ चढ़कर जब आप ऊपर पहुँचते हैं तो उस उच्चतम स्थान बिन्दु पर आपको मंदिर का गर्भ-गृह नज़र आता है। मंदिर के अवशेषों से यह बता पाना थोड़ा कठिन है कि उसकी शिखर किस प्रकार की थी। लेकिन भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो उड़ीसा और खजुराहो के बीच बसे होने के कारण यह कहा जा सकता है कि शायद उसकी शिखर नागर शैली में बनाई गई होगी।

श्री सिद्धनाथ आश्रम

ताला के देवरानी – जेठानी के इन मंदिरों तक पहुँचने के लिए आपको अपेक्षाकृत कुछ नए मंदिरों से होकर गुजरना पड़ता है। इन मंदिरों तक जाने वाले मार्ग पर बने मेहराब पर नज़र आनेवाले बड़े-बड़े अक्षरों के अनुसार इस जगह को श्री सिद्धनाथ आश्रम के नाम से जाना जाता है। इस आश्रम का निर्माण 2008 में किया गया था।

संग्रहालय में ऋषि मूर्ति
संग्रहालय में ऋषि मूर्ति

इन प्राचीन मंदिरों के पास खड़े सफ़ेद त्रिकोणी शिखरोंवाले ये नए मंदिर काफी आकर्षक लग रहे थे। यहाँ पर एक छोटा सा अस्थायी संग्रहालय है जिसमें इस जगह से, खुदाई के दौरान प्राप्त कुछ मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इन में से कुछ टूटी हुई मूर्तियों को सीमेंट के प्रयोग से फिर से संपूर्णता प्रदान करने की कोशिश की गयी है। मेरे विचार से अगर यह कार्य संरक्षण संस्थाओं को सौपा जाता तो शायद वे इससे भी बेहतर कार्य करतीं।

इन मूर्तियों के संबंध में भी यहाँ पर कोई दस्तावेजीकरण नहीं मिलता। यहाँ तक कि इन मंदिरों से संबंधित जानकारी प्रदान करने वाले सूचना फलकों को भी थोड़ी-बहुत मरम्मत की आवश्यकता है। और अगर इन सूचना फलकों को अंग्रेज़ी में भी प्रस्तुत किया गया तो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए इन्हें समझना और भी आसान हो सकता है।

कहा जाता है कि ताला ये सभी मंदिर मनियारी नदी के किनारे बसे हुए हैं, लेकिन हो सकता है कि मैं इस वास्तुकलात्मक विरासत में इतनी खो गयी थी की नदी की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया; या फिर शायद यह नदी उतनी नजदीक नहीं थी कि हम उसे देख पाते।

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राजा भोज का भोजेश्वर मंदिर – भोजपुर का प्रसिद्ध शिवलिंग https://inditales.com/hindi/bhojeshwar-mandir-bhojpur-madhya-pradesh/ https://inditales.com/hindi/bhojeshwar-mandir-bhojpur-madhya-pradesh/#comments Wed, 08 Nov 2023 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3318

मैंने जब सर्वप्रथम भोजपुर का नाम सुना था तब मुझे इस लोकप्रिय हिन्दी मुहावरे का स्मरण हो आया था, “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली”। इस मुहावरे का प्रयोग साधारणतः दो विपरीत स्थितियों को दर्शाने के लिए किया जाता है। कदाचित यह मुहावरा राजा भोज की छवि एवं उनके राज्य की समृद्धि को दर्शाने के […]

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मैंने जब सर्वप्रथम भोजपुर का नाम सुना था तब मुझे इस लोकप्रिय हिन्दी मुहावरे का स्मरण हो आया था, “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली”। इस मुहावरे का प्रयोग साधारणतः दो विपरीत स्थितियों को दर्शाने के लिए किया जाता है। कदाचित यह मुहावरा राजा भोज की छवि एवं उनके राज्य की समृद्धि को दर्शाने के लिए भी सर्वोपयुक्त है। राजा भोज के राज्य की भव्यता एवं सम्पन्नता निसंदेह असाधारण व अतुलनीय थी।

भोजपुर का यह भोजेश्वर मंदिर उसी समृद्ध एवं भव्य राज्य का एकमात्र जीवंत प्रमाण है।

राजा भोज कौन थे?

राजा भोज परमार वंश के राजा थे। वे उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के वंशज माने जाते हैं। उन्होंने सन् १०१० से १०५५ तक मालवा क्षेत्र में राज्य किया था। उनकी राजधानी धार नगरी थी जो अब धार नाम से जानी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि यह क्षेत्र तलवारों की धार के कारण प्रसिद्ध थी। इसीलिए इसे धार नगरी कहा जाता था।

भोजेश्वर मंदिर के स्तम्भ, चौखटें और लिंग
भोजेश्वर मंदिर के स्तम्भ, चौखटें और लिंग

राजा भोज एक शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने दूर दूर के क्षेत्रों तक अपने सैन्य अभियान क्रियान्वित थे। भोज राजा ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था तथा अनेक भव्य मंदिरों के निर्माण का नियोजन भी किया था। भोपाल एवं उसके आसपास स्थित तालाबों के निर्माण का श्रेय भी उन्ही को जाता है। वास्तव में भोजेश्वर मंदिर भीमताल नामक एक विशाल सरोवर के निकट बनाया गया था। बेतवा नदी पर बाँध निर्मित कर इस विशाल सरोवर की रचना हुई थी।

राजा भोज की एक अन्य उपलब्धि भी है जिसके विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। वे शिक्षा एवं साहित्य के अनन्य उपासक थे। उन्होंने स्थापत्य कला से लेकर दर्शन शास्त्र, औषधि शास्त्र तथा संगीत जैसे विषयों पर लगभग ८४ पुस्तकें लिखी थीं। वे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न एक विद्वान राजा थे जिनके विषय में यह प्रसिद्ध धारणा बन गयी थी कि वे साक्षात् ज्ञान की देवी सरस्वती को ही धरती पर ले आये थे। धार में उनके द्वारा स्थापित महाविद्यालय, कालान्तर में जिसे भोजशाला कहा गया, उनकी इसी बहुआयामी व्यक्तित्व का साक्ष्य है। उदयपुर प्रशस्ति शिलालेख से संकेत प्राप्त होता है कि उन्होंने धार में लगभग १०४ मंदिरों का निर्माण कराया था। दुर्भाग्य से वे सभी अब अस्तित्वहीन हो चुके हैं।

भोपाल नगर का यह नामकरण राजा भोज की ही देन है। आरम्भ में इसे भोजपाल कहा जाता था जो कालांतर में अपभ्रंशित होते हुए भोपाल कहलाया।

विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराय ने भोज राजा से प्रभावित होकर स्वयं को अभिनव-भोज तथा सकल-काल-भोज की उपाधि से अलंकृत किया था।

भोजेश्वर मंदिर – भोजपुर का अभिनव शिव मंदिर

भोजपुर शिव मंदिर की विशाल योनि
भोजपुर शिव मंदिर की विशाल योनि

भोजेश्वर मंदिर, राजा भोज के भव्य भोजपुर नगर से सम्बंधित केवल यही रचना शेष है। काली शिला में निर्मित एक विशाल शिव मंदिर, जो अपूर्ण होते हुए भी जीवंत है। यहाँ भगवान शिव की नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। ११वीं सदी के मध्यकाल में निर्मित इस मंदिर की संरचना कभी पूर्ण नहीं हुई। अपने इस अपूर्ण रूप में यह मंदिर अपनी निर्माण प्रक्रिया के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।

विशाल शिवलिंग

भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर विशेषतः अपने विशाल शिवलिंग के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। जैसा कि हम जानते हैं, शिवलिंग के दो भाग होते हैं, लिंग एवं योनि। शिवलिंग की निचली पीठिका भाग योनि कहलाता है। इस मंदिर के शिवलिंग की योनि अतिविशाल एवं सुन्दर है। कदाचित, इससे अधिक विशाल योनि आपने कहीं नहीं देखी होगी। जहाँ तक लिंग का प्रश्न है, वह भी विशाल है किन्तु मैं उसे विशालतम नहीं कहूंगी। खजुराहो के मतंगेश्वर मंदिर का लिंग इससे भी अधिक विशाल है।

भोजपुर शिव मंदिर की छत
भोजपुर शिव मंदिर की छत

यह शिवलिंग चूना पत्थर के अनेक आवरणों द्वारा निर्मित है। सम्पूर्ण शिवलिंग की ऊँचाई लगभग ४० फीट है।

मंदिर की भीतरी छत संकेंद्रित वृत्तों की आकृति से उत्कीर्णित है जिसे देख खजुराहो के मंदिरों का स्मरण हो आता है।

मंदिर में चार अष्टकोणीय स्तम्भ हैं। भित्तियों को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्हें कालांतर में निर्मित किया गया है। अथवा कालांतर में उनका नवीनीकरण किया गया होगा क्योंकि शेष मंदिर के अलंकरण की तुलना में भित्तियाँ साधारण प्रतीत होती हैं। स्तम्भों के ऊपरी कोष्ठकों पर शिव-पार्वती, ब्रह्म-ब्रह्मणी, लक्ष्मी-नारायण एवं राम-सीता की छवियाँ उत्कीर्णित हैं।

मेरे अनुमान से आरम्भ में यह मंदिर चार स्तम्भों पर आधारित एक खुला मंदिर रहा होगा, जैसे कि बहुधा शिव मंदिरों की संरचना होती है। किन्तु मेरे इस प्रस्थापित सिद्धांत का कोई प्रमाण नहीं है।

भोजेश्वर मंदिर की स्थापत्य शैली

यह मंदिर एक विशाल चबूतरे पर निर्मित है जिसे जगती कहते हैं। यह उस काल की प्रचलित शैली थी।

अपूर्ण भोजेश्वर महादेव मंदिर
अपूर्ण भोजेश्वर महादेव मंदिर

मंदिर में सभा मंडप नहीं है। जगती पर स्थापित यह एक स्वतन्त्र मंदिर है।

गर्भगृह का शिखर, मंदिर निर्माण की नागर शैली में प्रचलित वक्रीय आकार में ना होकर सरलरेखीय है। मंदिर के केवल अग्र भाग में अप्सराओं, गणों तथा अन्य देवी-देवताओं के शिल्प उत्कीर्णित हैं। मंदिर की अन्य भित्तियों पर शिल्पकारी नहीं है, मानो वे शिव की कथाओं पर आधारित शिल्पों के उत्कीर्णन की प्रतीक्षा कर रही हों।

मकरनाल
मकरनाल

शिखर के आकार के कारण कुछ विद्वानों का मानना है कि यह एक स्वर्गारोहण प्रासाद है। अर्थात् वह मंदिर जिसे स्वर्गवासी पूर्वजों की स्मृति में निर्मित किया जाता है।

शिला ढोने के लिए ढालू मार्ग

मंदिर के दाहिनी ओर एक विशाल ढालू मार्ग है। मेरा अनुमान है कि इसकी रचना मंदिर के निर्माण के लिए विशाल शिलाओं को जगती तक ले जाने के लिए की गयी होगी। यदि हम इस ढालू मार्ग का दर्शन नहीं करते तो हमारी यह मनन श्रंखला अखंड जारी रहती कि विशाल शिलाओं एवं शैलशिल्पों को इस विशालकाय जगती के ऊपर किस प्रकार ले जाया गया होगा! अथवा इस जगती के निर्माण के लिए भी विशालकाय शिलाओं को यहाँ तक कैसे लाया होगा!

आपको स्मरण होगा कि तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के विशाल शिलाखंड को ले जाने के लिए भी ढालू मार्ग का प्रयोग किया गया था।

मंदिर की अवधारणा शिला पर
मंदिर की अवधारणा शिला पर

मंदिर के समीप एक खदान है जहाँ भिन्न भिन्न चरणों में अनेक उत्कीर्णित शैलशिल्प रखे हुए हैं। अब ये भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा अधिगृहीत हैं। मंदिर के चारों ओर चट्टानों पर मंदिर के वास्तु चित्र रेखांकित हैं। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि प्रारंभ में एक विशाल मंदिर परिसर की संरचना नियोजित थी। इस प्रकल्प के चरणागत निर्माणकार्य के प्रबंधन के लिए किये गए चिन्ह भी इन चट्टानों पर दृष्टिगोचर होते हैं।

मुख्य मंदिर के बाह्य भाग में दो लघु मंदिर हैं। यहाँ भी नियमित पूजा-अर्चना होती है। दाहिनी ओर स्थित लघु मंदिर की बाह्य भित्तियों पर कुछ अपूर्ण कलाकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इन कलाकृतियों से मंदिर निर्माण अवधि में निर्माण कार्य की प्रगति का प्रत्यक्षीकरण होता है।

उत्खनन

इस स्थान पर किये गए उत्खनन से यह जानकारी प्राप्त होती है कि यहाँ इससे अधिक मंदिरों के निर्माण की योजना बनाई गयी थी। कदाचित खजुराहो के पदचिन्हों पर विस्तृत मंदिर संकुल के निर्माण की योजना थी। किन्ही अप्रत्याशित कारणों से उस योजना को बीच में ही स्थगित कर देना पड़ा होगा।

भोजपुर में एक और शिवलिंग
भोजपुर में एक और शिवलिंग

भोजेश्वर मंदिर का पर्याप्त निर्माण कार्य पूर्ण किया गया ताकि शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा-अर्चना आरम्भ हो सके। आज भी पूजा-अर्चना की प्रथा अनवरत अखंडित है।

प्रत्येक वर्ष महाशिवरात्रि के दिवस यहाँ विशाल महाशिवरात्रि मेला लगता है।

भोजपुर के अन्य दर्शनीय स्थल

भोजेश्वर मंदिर के निकट एक भोजेश्वर मंदिर संग्रहालय है। यह संग्रहालय आपको मंदिर की दृष्टि से इस क्षेत्र के इतिहास का परिचय देता है।

यदि आप मंदिर के ऊँचे विशाल जगती पर खड़े होकर चारों ओर दृष्टि दौड़ायेंगे तो आपको इस क्षेत्र के अंधाधुंध आधुनिकरण के चिन्ह दृष्टिगोचर होंगे। हमारे समक्ष विशाल औद्योगिक इकाइयाँ थीं जो अपने भीमकाय चिमनियों से आकाश में काले घने धुंए की धार उत्सर्जित कर रही थीं। समीप स्थित मंडीदीप नामक औद्योगिक नगरी आकाश को प्रदूषित करने में अपना योगदान दे रही थी।

मंडीदीप के समीप एक अपूर्ण जैन मंदिर है जो शांतिनाथ जी को समर्पित है।

बेतवा की संकरी घाटी में पार्वती गुफा है जहाँ अनेक संतों ने साधना की है।

मंदिर के समीप राजा भोज के प्राचीन राजमहल के अवशेष देखे जा सकते हैं। राजा भोज ने भारतीय वास्तुशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी थी, समरांगणसूत्रधार। इस पुस्तक में उन्होंने इस महल के विषय में विस्तृत जानकारी दी है। इन अवशेषों में आप उस महल की कल्पना कर सकते हैं जिसका उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है।

यह सब देख मुझे तीव्र पीड़ा होती है कि मैंने भारत के उस स्वर्णिम काल में जन्म क्यों नहीं लिया! एक स्थान से दूसरे स्थान जाकर उस स्वर्णिम इतिहास के अवशेषों को ढूँढने के स्थान पर मैंने भारत की सम्पन्नता एवं सौंदर्य की चरमसीमा का अनुभव प्राप्त किया होता।

यात्रा सुझाव

भोजपुर भोपाल से लगभग ३२ किलोमीटर दूर स्थित है। आप भोपाल से एक दिवसीय यात्रा के रूप में भोजेश्वर मंदिर एवं आसपास के स्थलों का आसानी से दर्शन कर सकते हैं।

भोपाल देश के सभी भागों से वायु, रेल तथा सड़क मार्गों द्वारा सुगमता से संयुक्त है।

मंदिर दर्शन के लिए एक घंटे का समय पर्याप्त है।

भोजपुर भ्रमण को सांची भ्रमण एवं भीमबेटका भ्रमण के साथ भी किया जा सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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