खाटू श्याम – यह मेरी इस जयपुर यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण एवं रोचक खोज थी। खाटू श्याम मंदिर, यह नाम मैंने सुना अवश्य था पर इस पर कभी अधिक ध्यान नहीं दिया। अधिकतर लोगों की तरह मैंने भी इसे श्याम अर्थात् भगवान् कृष्ण को समर्पित मंदिर समझ लिया था। मैंने सोचा खाटू नामक किसी स्थानीय चरित्र के नाम पर इस मंदिर का नामकरण खाटू श्याम मंदिर किया गया हो। किन्तु इस मंदिर की पृष्ठभागीय किवदंती सुनने के उपरांत मेरी आँखें खुली रह गयी। भगवान् कृष्ण इस किवदंती का एक भाग अवश्य हैं, किन्तु वे खाटू श्याम नहीं हैं।
यदि आप हिन्दू धर्म के विषय में थोडा भी जानते हैं तो आप अवश्य मुझसे सहमत होंगे कि प्रत्येक छोटे बड़े तथ्य को हम किसी ना किसी देवी देवता से जोड़ ही देते हैं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक प्राकृतिक देन, संयोग एवं प्रयोजन से सम्बंधित देवी देवताओं के अनेक नामों की जानकारी मुझे भी थी, किन्तु, खाटू श्याम, यह शब्द मैंने पहले कभी नहीं सुना था। पराजितों के आश्रयदाता देव माने जाने वाले खाटू श्याम के विषय में जानकारी मुझे यहीं आकर प्राप्त हुई। प्राप्त जानकारी के अनुसार बर्बरीक नाम से भी पुकारे जाने वाले खाटू श्याम सदैव पराजितों की सहायता करते हैं। अतः उन्हें ‘हारे का सहारा’ भी कहा जाता है।
बर्बरीक अथवा खाटू श्याम कौन है?
बर्बरीक, महाभारत काल के द्वितीय पांडवपुत्र, अतिबलशाली भीम के पौत्र थे। वे हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच तथा नागकन्या मौरवी के पुत्र थे। आपको याद होगा की महाबली भीम ने अपने वनवास काल में भील राजकुमारी हिडिम्बा से विवाह किया था। घटोत्कच उन्ही का पुत्र था।
किवदंतियों के अनुसार बर्बरीक बाल्यकाल से ही वीर एवं महान योद्धा थे। उन्होंने भगवान् शिव की घोर तपस्या कर उनसे तीन अमोघ बाण वरदान स्वरुप प्राप्त किये थे। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया था जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था। ऐसा मानना है कि एक बाण निस्सहाय एवं निर्बलों की रक्षा करता है, दूसरा शत्रु पक्ष को घेरता है तो तीसरा उनका विनाश करता है।
बर्बरीक ने युद्ध कला अपनी माँ से प्राप्त की थी। चूंकि बर्बरीक का पालन पोषण उनकी माता ने किया था, वे सदैव उनके द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलते थे। बर्बरीक की माँ ने उन्हें सदैव पराजितों तथा बेसहारों की सहायता करने की प्रेरणा दी थी।
महाभारत में बर्बरीक का योगदान
कौरवों एवं पांडवों के मध्य घोषित महाभारत युद्ध का समाचार प्राप्त होते ही बर्बरीक की भी युद्ध में भाग लेने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। माँ से आशीर्वाद प्राप्त कर उन्हें पराजितों का साथ देने का वचन दिया तथा कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े। राह में ब्राम्हण वेष धर कर श्रीकृष्ण ने उनके बाणों के विषय में जानकारी प्राप्त करनी चाही। उत्तर में बर्बरीक ने कहा कि मात्र एक बाण सम्पूर्ण शत्रु सेना को परास्त कर उनके तक्षक में लौटने में समर्थ है। श्रीकृष्ण द्वारा ली गयी परीक्षा में खरा उतरने के पश्चात बर्बरीक ने माँ को दिया वचन भी दोहराया।
श्रीकृष्ण जानते थे कि यदि बर्बरीक ने तीनों बाणों का प्रयोग किया तो उनके अलावा सम्पूर्ण ब्रम्हांड का सर्वनाश हो जाएगा। उन्हें यह भी ज्ञात हो गया था कि पराजितों का साथ देने का अर्थ है वे प्रत्येक दिवस विपरीत सेना का चुनाव करेंगे जिससे युद्ध अनंत काल तक चलेगा। अतः बर्बरीक का इस युद्ध में सम्मिलित होना नियती के विपरीत सिद्ध होता। नियती के अनुसार युद्ध में कौरवों का विनाश तथा पांडवों की सजीव विजय निश्चित थी।
अतः ब्राम्हण रुपी श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से दान में उनके शीश की अभिलाषा की और कहा कि युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन हेतु तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति आवश्यक है। बर्बरीक ब्राम्हण को शीशदान देने पर विवश थे। श्रीकृष्ण के वास्तविक रूप को पहचान कर, अंतिम इच्छा स्वरुप उन्होंने अंत तक महाभारत युद्ध देखने की इच्छा व्यक्त की। बर्बरीक के बलिदान से प्रसन्न होकर कृष्ण ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया तथा उनके शीश को युद्धभूमि के समीप एक पहाडी की चोटी पर सुशोभित किया। यहीं से बर्बरीक के शीश ने सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध को देखा।
युद्ध के अंत में बर्बरीक के शीश से पूछा गया कि विजय का श्रेय किसे जाता है। उनका उत्तर था, श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण की युद्धनीति ही निर्णायक थी। अन्य सर्व योद्धा केवल उनकी आज्ञा का पालन कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के महान बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वे कलियुग में उनके, अर्थात् श्याम नाम से जाने जायेंगे।
खाटू श्याम की खोज
कहा जाता है कि स्वयं भगवान् कृष्ण ने बर्बरीक के शीश को रूपवती नदी को अर्पित किया था। कालान्तर में उनका शीश राजस्थान के सीकर जिले में स्थित खाटू गाँव की धरती में दबा पाया गया। इसीलिए उनका नाम खाटू श्याम पड़ा।
कहा जाता है कि एक गाय एक नियत स्थल पर स्वयं अपने दुग्ध की धारा बहाने लगी। उस स्थान पर खुदाई के पश्चात बर्बरीक का शीश प्रकट हुआ जिसे एक ब्राम्हण को सौंपा गया। ब्राम्हण ने इस शीश की पूजा अर्चना की तथा इसके इतिहास को जानने के लिए ध्यान एवं चिंतन किया।
खाटू गाँव के तात्कालीन राजा रूपसिंह चौहान को स्वप्न में मंदिर निर्माण तथा बर्बरीक के शीश को मंदिर में सुशोभित करने की आज्ञा प्राप्त हुई थी। तत्पश्चात राजा रूपसिंह चौहान एवं उनकी पत्नी नर्मदा कंवर ने १०२७ ई. में मंदिर का निर्माण कराया तथा कार्तिक मॉस की एकादशी को मंदिर में शीश सुशोभित किया। यह दिवस खाटू श्याम के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।
कुछ किवदंतियों के अनुसार रानी नर्मदा कंवर ने खाटू श्याम को स्वप्न में देखा था। तत्पश्चात निर्धारित स्थल पर काले पत्थर में उनकी प्रतिमा प्राप्त हुई थी। वर्तमान में मूल मंदिर के भीतर इसी प्रतिमा की पूजा की जाती है।
मंदिर में खाटू श्याम की प्रतिमा एक क्षत्रीय योद्धा के रूप में है। उनकी बड़ी बड़ी मूंछें हैं तथा मुख पर वीर रस के भाव हैं। उनके चक्षु खुले हुए तथा चौकस प्रतीत होते हैं। उनके कानों में मछली के आकार की बालियाँ हैं। खाटू श्याम खाटू गाँव के ग्रामदेवता ही नहीं अपितु सीकर एवं आसपास के कई राजपूत चौहान कुटुम्बों के कुलदेवता भी हैं।
खाटू श्यामजी के दर्शन
मेरी जयपुर यात्रा के समय एक दिन हम खाटू श्यामजी के दर्शनार्थ प्रातःकाल निकल पड़े। अगस्त का महीना था। सूर्यमुखी के लहलहाते खेत अपने यौवन की चरम सीमा पर थे। खाटू गाँव पहुंचते ही एक मुक्त तोरण-द्वार हमारे स्वागतार्थ खडा था। उस पर ‘श्री श्याम शरणम’ खुदा हुआ था। इस द्वार के भीतर प्रवेश करने के पश्चात हमने गाड़ी द्वारा कुछ और दूरी पार की। मैं एक विशाल मंदिर के प्रकट होने का तीव्र आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी। किन्तु जब हमने मंदिर परिसर के पृष्ठभागीय द्वार से भीतर प्रवेश किया, हमारे समक्ष एक छोटा सा मंदिर खड़ा था।
उपयुक्त समय पहुँचने के फलस्वरूप हमें खाटू श्यामजी की मूर्ति के दर्शन प्राप्त हुए।
मंदिर परिसर के बाहर एक और मंदिर था। सिंह पोल हनुमान के रूप में हनुमानजी का यह मंदिर था।
इस मंदिर की एक विशेषता मेरे ध्यान में आयी, वह थे लटकते श्रीफल अर्थात् नारियल। मौली अथवा पवित्र लाल धागे से बंधे नारियल चारों ओर लटके हुए थे। यह इच्छापूर्ति के नारियल थे। भगवान् द्वारा विशेष इच्छापूर्ति की आकांशा हो तो भक्तगण यहाँ ऐसे नारियल लटकाते हैं। इच्छापूर्ति के पश्चात भक्त यहाँ आकर नारियल खोलकर निकाल देते हैं।
मंदिर के बाहर लगे सूचना फलक के अनुसार इस मंदिर में कोई भी पुजारी अथवा मंदिर प्रमुख नहीं है। चौहान राजपूत घराने के वंशज ही इस मंदिर की देखरेख करते हैं।
श्याम कुण्ड
जिस स्थल से बर्बरीक का शीश प्राप्त हुआ था, उसे श्याम कुण्ड कहा जाता है। यह दो आकर्षक कुण्डों का युग्म है। ऊपर छायाचित्र में दर्शाया गया कुण्ड पुरुषों के लिए है एवं ऐसा ही एक कुण्ड स्त्रियों के लिए भी निर्मित है। इस परिसर में गायत्री देवी का मंदिर भी है। यहाँ भी चारों ओर लटकते नारियल देखे जा सकते हैं।
यहाँ कृष्ण भगवान् की एक प्रतिमा है जिसके चरणों में रखा बर्बरीक का शीश इस स्थल की गाथा बखान करता है।
इस सुन्दर परिसर का एक खटकता कांटा है इसकी अस्वच्छता। आशा करती हूँ कि परिसर की स्वच्छता की ओर भी भक्तों का ध्यान जाए तथा परिसर स्वच्छ रखा जाए। अन्यथा असीम भक्ति ही आपको परिसर के भीतर ले जा सकती है।
खाटू श्याम की जीती जागती संस्कृति
खाटू गाँव में आप कहीं भी जाएँ, आप अपने चारों ओर किसी ना किसी रूप में खाटू श्याम अर्थात् बर्बरीक का धनुष तथा त्रिबाण पायेंगे। भक्तगण इन्हें अपनी गाड़ियों में प्रमुख रूप से लटकाते हैं। उस पर लिखा होता है, ‘हारे का सहारा, खाटू श्याम हमारा’। इसका अर्थ है, हमारा श्याम पराजितों का सहारा है।
खाटू गाँव के छोटे से बाजार में भी कई प्रकार की स्मारिकाएं उपलब्ध हैं जो मुख्यतः खाटू श्याम के धनुष तथा बाण पर आधारित होते हैं।
खाटू श्यामजी – यात्रा सुझाव
यूँ तो खाटू गाँव में भी ठहराने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तथापि आप जयपुर से प्रातः आकर दर्शनोपरांत वापिस जा सकते है।
आरती समयसूची हेतु मंदिर के वेबस्थल पर संपर्क करें।
मंदिर के भीतर छायाचित्रिकरण वर्जित है।
किसी भी साधारण दिवस में, जब मंदिर के भीतर श्रद्धालुओं की संख्या कम रहती है, मंदिर दर्शन हेतु १ से २ घंटों का समय पर्याप्त होता है। इसमें आप खाटू गाँव भी भ्रमण कर सकते हैं।
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Jai Shree Shyam
Jai Shree Shyam, Jai khatu shaym baba ki