उत्तर प्रदेश Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/उत्तर-प्रदेश/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 05 Jun 2024 16:18:44 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 नव गौरी यात्रा – वाराणसी की नवरात्री https://inditales.com/hindi/kashi-ki-nava-gauri-yatra/ https://inditales.com/hindi/kashi-ki-nava-gauri-yatra/#respond Wed, 25 Sep 2024 02:30:41 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3688

काशी मंदिरों की नगरी है। यहाँ अनेक धार्मिक यात्राएँ की जाती हैं। मैंने इससे पूर्व काशी की नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा , इस विषय पर अपनी यात्रा संस्मरण प्रकाशित की थी। काशी में यह देवी यात्रा नवरात्रि के अवसर पर की जाती है। काशी अथवा वाराणसी में की जाने वाली ऐसी ही एक देवी यात्रा है, […]

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काशी मंदिरों की नगरी है। यहाँ अनेक धार्मिक यात्राएँ की जाती हैं। मैंने इससे पूर्व काशी की नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा , इस विषय पर अपनी यात्रा संस्मरण प्रकाशित की थी। काशी में यह देवी यात्रा नवरात्रि के अवसर पर की जाती है। काशी अथवा वाराणसी में की जाने वाली ऐसी ही एक देवी यात्रा है, नव गौरी यात्रा। यह देवी यात्रा हमें वाराणसी के नौ गौरी मंदिरों के दर्शन कराती है।

इस यात्रा का उल्लेख स्कन्द पुराण के काशी खंड के सौवें अध्याय में भी किया गया है। अन्य अध्यायों में भी कुछ देवियों के विषय में विस्तार से उल्लेख किया गया है।

नव गौरी यात्रा

नवगौरी यात्रा वाराणसी के नौ गौरी मंदिरों की यात्रा कराती है। ये गौरी रूपी शक्ति के नौ अवतारों के मंदिर हैं।

ये सभी मंदिर आकार में लघु हैं। इनमें से कुछ मंदिर अन्य विशाल मंदिर संकुलों के भाग हैं। यद्यपि ये सभी मंदिर तत्वतः प्राचीन हैं, तथापि इनमें से कुछ अपने मूल स्थान पर स्थित नहीं हैं। आप देखेंगे कि कुछ स्थानों  में देवी का मूल स्थान ही देवी के गर्भ गृह या विग्रह का प्रतिनिधित्व कर रहा है।

नव गौरी यात्रा वाराणसी
नव गौरी यात्रा वाराणसी

प्रथम गौरी मंदिर पर लगे सूचना पटल पर सभी मंदिरों के नाम एवं स्थान अंकित हैं। उस पर मंदिर के दर्शन का अनुक्रम भी अंकित है।

काशी की नवगौरी यात्रा कब की जाती है?

प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन यह यात्रा करने की परंपरा है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठतम लाभ के लिए वर्ष भर में १२ यात्राएँ की जा सकती हैं।

यह यात्रा वसंत अथवा चैत्र नवरात्रि के नौ दिवसों में भी की जाती है जो सामान्यतः मार्च-अप्रैल मास में पड़ता है।

वाराणसी के नौ गौरी मंदिर

मुखनिर्मालिका अथवा सुखनिर्वाणिका गौरी

गाय घाट पर स्थित हनुमान मंदिर परिसर

नव गौरी यात्रा में सर्वप्रथम इस गौरी मंदिर का दर्शन किया जाता है। स्कन्द पुराण में इस मंदिर की देवी का नाम सुखनिर्वाणिका देवी लिखा हुआ है किन्तु वर्तमान में काशी में यह गौरी मुख निर्मालिका के नाम से जानी जाती है।

मुखनिर्मालिका देवी काशी
मुखनिर्मालिका देवी काशी

मुख निर्मालिका गौरी के दर्शन से पूर्व गोप्रेक्ष तीर्थ में स्नान करने की अनुशंसा की जाती है। यह तीर्थ गाय घाट में गंगाजी के पात्र में स्थित मानी जाती है। इसका अर्थ है कि गौरी के दर्शन से पूर्व हमें गाय घाट पर गंगाजी में स्नान करना चाहिए।

अंग्रेजी पंचांग के मार्च-अप्रैल मास में आने वाली चैत्र पूर्णिमा के दिवस देवी का वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है। चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिवस भी मुख निर्मालिका गौरी के दर्शन का विधान है।

यह एक लघु मंदिर है। गाय घाट से आप इस मंदिर में आसानी से पहुँच सकते हैं। इस मंदिर संकुल में कई मंदिर हैं। यह मंदिर परिसर दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर के नाम से अधिक लोकप्रिय है। इस परिसर में स्थित कुछ अन्य मंदिर हैं, सप्तमातृका मंदिर तथा शीतलामाता मंदिर।

मुख निर्मालिका मंदिर में गौरी के दर्शन के लिए मैं प्रातः शीघ्र आ गई थी। प्रातःकालीन आरती की जा रही थी। उस समय मंदिर में मेरे अतिरिक्त कोई अन्य दर्शनार्थी उपस्थित नहीं था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मेरी माँ का सम्पूर्ण ध्यान केवल मेरी ओर केंद्रित था।

ज्येष्ठा गौरी

काशी देवी मंदिर के निकट, मैदागिन

विशेष दिवस – ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी अथवा ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी। यह साधारणतः मई-जून में पड़ता है। वसंत नवरात्रि अथवा चैत्र नवरात्रि में भी देवी का दर्शन विशेष माना जाता है।

ज्येष्ठा गौरी
ज्येष्ठा गौरी

ज्येष्ठा देवी लक्ष्मीजी  की ज्येष्ठ भगिनी मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि दोनों देवियाँ साथ में पधारती हैं। किन्तु कुछ मान्यताओं के अनुसार ज्येष्ठा को लक्ष्मी की विपरीत-लक्षणा माना जाता है। कुछ कारणों से उन्हे अलक्ष्मी भी कहा जाता है। इसलिए वे लक्ष्मी को आते तथा ज्येष्ठा को जाते हुए देखना चाहते हैं।

काशी में प्रचलित किवदंतियों के अनुसार जो भक्त स्वयं को अभागा मानता है, देवी के दर्शनोपरांत उसके भाग्य का उदय हो जाता है।

सौभाग्य गौरी

आदि विश्वनाथ गली, बाँस फाटक

सौभाग्य गौरी के दर्शन से पूर्व ज्ञान वापी में स्नान को अनुशंसनीय माना जाता था। किन्तु वर्तमान परिस्थिति में यह संभव नहीं है। विकल्प के रूप में आप देवी दर्शन से पूर्व गंगा में अवश्य डुबकी लगा सकते हैं।

जैसे कि नाम से ही विदित है, सौभाग्य देवी के दर्शन से भक्तगणों को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिवस देवी का दर्शन अत्यंत फलदायी माना जाता है।

शृंगार गौरी

काशी विश्वनाथ मंदिर

शृंगार देवी के दर्शन से पूर्व भी ज्ञान वापी में स्नान करना शुभ माना जाता है। शृंगार देवी का मंदिर ज्ञान वापी मस्जिद के पृष्ठभाग में स्थित था। वर्तमान में यह मंदिर लगभग अस्तित्वहीन हो चुका है किन्तु जहाँ यह  मंदिर स्थित था, उस स्थान को अब भी शृंगार देवी का स्थान माना जाता है।

चैत्र नवरात्रि के चौथे दिवस शृंगार देवी के दर्शन की परंपरा है।

विशालाक्षी गौरी

मीरघाट

गंगा में स्नान करिए, तत्पश्चात काशी के विशालाक्षी शक्तिपीठ के दर्शन करिए। स्कन्द पुराण में विशाल घाट तथा विशाल तीर्थ का उल्लेख किया गया है जो गंगा में ही स्थित है। यह मीर घाट के निकट स्थित है।

शक्ति पीठ विशालाक्षी गौरी
शक्ति पीठ विशालाक्षी गौरी

विशालाक्षी देवी का मंदिर एक लघु मंदिर है। इस मंदिर में देवी के दर्शन के लिए आए भक्तगण अधिकांशतः दक्षिण भारतीय होते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार काशी विशालाक्षी उस मंदिर त्रय का एक भाग हैं जिसके अन्य दो भाग हैं, मदुरई रामेश्वरम तथा कांची कामाक्षी। निकट ही विश्व भुजा देवी का मंदिर है जो अनेक अन्य लघु मंदिरों में से एक है।

मैं जब भी इस मंदिर में जाती हूँ, कुछ मंत्र जाप अवश्य करती हूँ। मंदिर में स्थापित गौरी की प्रतिमा को ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि वहाँ वास्तव में दो विग्रह हैं। प्राचीन विग्रह को आदि विशालाक्षी कहा जाता है जो समक्ष स्थित नवीन विग्रह के पृष्ठ भाग में है।

विशालाक्षी मंदिर के समीप एक विशाल कक्ष के भीतर शिव मंदिर है। आप यहाँ अनेक भक्तों को साधना में लीन पाएंगे। इस साधना में भाग लेना समष्टि एवं व्यष्टि, दोनों रूपों में एक अद्वितीय अनुभव होता है।

नवरात्रि के पांचवें दिवस इस मंदिर में देवी के दर्शन को शुभ माना जाता है। शुक्ल तृतीया यात्रा में अन्य आठ देवियों संग इस मंदिर के दर्शन एक ही दिवस पूर्ण किये जाते हैं।

ललिता गौरी

  ललिता घाट

ललिता घाट पर ललिता तीर्थ में स्नान के पश्चात माँ ललिता गौरी का दर्शन किया जाता है। यह मंदिर वाराणसी के प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट के निकट स्थित है। नेपाल के लोकप्रिय पशुपतिनाथजी के मंदिर का प्रतिरूप भी निकट ही स्थित है।

ललिता गौरी - ललिता घाट काशी
ललिता गौरी – ललिता घाट काशी

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया इस मंदिर की विशेष तिथि है। नवरात्रि में इस मंदिर में ललिता देवी का दर्शन अत्यंत फलदायी माना जाता है।

इस छोटे से मंदिर में बैठकर गंगाजी  का दर्शन करते हुए आनंदमय हो जाईए। शांत चित्त से ध्यान लगाने पर आप यहाँ की ऊर्जा का अनुभव अवश्य कर सकते हैं। देवी की इस दैवी ऊर्जा में स्वयं को ओतप्रोत कीजिए।

भवानी गौरी

अन्नपूर्णा मंदिर

स्कन्द पुराण में किये गए उल्लेख के अनुसार भवानी तीर्थ में स्नान के पश्चात माँ भवानी के दर्शन किये जाते हैं। मेरे अनुमान से यह तीर्थ भी गंगा का ही भाग है।

यह मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर परिसर के भीतर स्थित है। मंदिर परिसर में पहुंचकर आप किसी भी संबंधित व्यक्ति से भवानी मूर्ति के विषय में जानकारी ले सकते हैं। यहाँ छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है।

मंगला गौरी

पंचगंगा घाट

ऐसी मान्यता है कि यहाँ मंगला गौरी की मूर्ती की स्थापना स्वयं सूर्य देव ने की थी। नाम के अनुरूप मंगला गौरी देवी मंगल दायिनी हैं। विवाह इच्छुक अनेक कन्याएँ इस मंदिर में मंगला गौरी के दर्शन करती हैं तथा अपने लिए उचित वर की कामना करती हैं। इसके लिए मंगलवार का दिवस अत्यंत शुभ माना जाता है।

मंगला गौरी
मंगला गौरी

मंगला गौरी के दर्शन से पूर्व बिंदु तीर्थ में स्नान करने का विधान है। मेरे अनुमान से यह तीर्थ निकट स्थित बिंदु माधव मंदिर से संबंधित है।

महालक्ष्मी गौरी

 लक्ष्मी कुंड

काशी नवगौरी यात्रा के अंत में जीवन में स्थायी उपलब्धियों के लिए महालक्ष्मी गौरी की आराधना कीजिए। वाराणसी के लक्ष्मी कुंड क्षेत्र के केंद्र में महालक्ष्मी मंदिर स्थित है। इस लघु मंदिर के चारों ओर अनेक अन्य मंदिर स्थित हैं, जैसे जीवित्पुत्रिका अथवा संतान लक्ष्मी, वैष्णव देवी, शारदा देवी, मयूरी देवी। चंडी मंदिर भी निकट ही स्थित है।

लक्ष्मी कुंड
लक्ष्मी कुंड

सम्पूर्ण लक्ष्मी कुंड क्षेत्र को एक शक्ति पीठ माना जाता है।

मंदिर के निकट एक जलकुंड है जिसे लक्ष्मी कुंड कहा जाता है। यह एक सुंदर स्थल है जहाँ बैठकर ध्यान किया जा सकता है। किन्तु इसकी स्वच्छता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। मुझे बताया गया कि राम कुंड तथा सीता कुंड भी समीप ही स्थित हैं किन्तु उनके दर्शन अभी शेष हैं।

महालक्ष्मी गौरी
महालक्ष्मी गौरी

इस मंदिर में सोलह दिवसीय सोरहिया मेला आयोजित किया जाता है जिसका आरंभ भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को होता है।

महालक्ष्मी आदि शक्ति हैं जिनके भीतर तीनों गुण समाहित हैं। देवी के त्रिगुणात्मक स्वरूप को मूर्ती के तीन मुखों द्वारा दर्शाया गया है।

यात्रा सुझाव

काशी के नौ गौरी देवियों के दर्शन का सर्वोत्तम काल है, चैत्र नवरात्रि।

यदि आप सभी नवगौरियों के दर्शन एक ही दिवस करना चाहते हैं तो इसके लिए सभी मास के शुक्ल पक्षों की तृतीया तिथियाँ सर्वोत्तम दिवस मानी जाती हैं।

विशेषतः मंगलवार एवं शुक्रवार के दिन मंदिर भक्तगणों से भरा रहता है।

अधिकांश मंदिर प्रातः काल खुलते हैं, दोपहर के समय बंद होते हैं तथा संध्याकाल पुनः खुल जाते हैं।

ये सभी नौ मंदिर आकार में लघु हैं। अधिकांशतः ये अन्य मंदिर संकुल के एक भाग के रूप में स्थित हैं। इसलिए इन्हे ढूंढने में किंचित कठिनाई हो सकती है। इसके लिए आप किसी स्थानीय जानकार अथवा परिदर्शक की सहायता ले सकते हैं।

अधिक जानकारी के लिए आप काशी प्रदक्षिणा दर्शन समिति से संपर्क साध सकते हैं जो नियमित रूप से ऐसी दर्शन यात्राएं आयोजित करते हैं। उनका कार्यालय असि घाट पर मुमुक्षु भवन में स्थित है।

यदि आप सभी नौ मंदिरों के दर्शन एक ही दिवस पूर्ण करना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है कि आप प्रातः अति शीघ्र यह यात्रा आरंभ करें।

जो मंदिर घाट के निकट स्थित हैं, घाट के मध्यम से उन तक पहुँचना अधिक सुगम्य है। अन्य मंदिरों के लिए आप रिक्शा ले सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चम्बल नदी – भारत की स्वच्छतम नदी एवं उसका बीहड़ https://inditales.com/hindi/chambal-nadi-aur-beehad/ https://inditales.com/hindi/chambal-nadi-aur-beehad/#respond Wed, 17 Jul 2024 02:30:11 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3646

चम्बल की घाटी! जैसे कि इसके नाम से ही विदित है, चम्बल घाटी चम्बल नदी के तट पर स्थित है। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश को प्राकृतिक रूप से विभक्त करती चम्बल नदी ऐसी प्रतीत होती है मानो यह सम्पूर्ण उत्तर भारत को मध्य भारत से पृथक करती है। चम्बल घाटी एवं उसके बीहड़ बीहड़! […]

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चम्बल की घाटी! जैसे कि इसके नाम से ही विदित है, चम्बल घाटी चम्बल नदी के तट पर स्थित है। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश को प्राकृतिक रूप से विभक्त करती चम्बल नदी ऐसी प्रतीत होती है मानो यह सम्पूर्ण उत्तर भारत को मध्य भारत से पृथक करती है।

चम्बल नदी पर सूर्यास्त
चम्बल नदी पर सूर्यास्त

चम्बल घाटी एवं उसके बीहड़

बीहड़! यूँ तो इस शब्द का शाब्दिक अभिप्राय किसी भी प्रकार की उबड़-खाबड़ तथा विषम भूमि होता है, किन्तु बीहड़ शब्द सुनते ही अनायास चम्बल घाटी का ही स्मरण हो आता है जो डाकुओं की उपस्थिति के लिए कुप्रसिद्ध है। हमने प्रसार माध्यमों में तथा चित्रपटों में भी इस सन्दर्भ में वास्तविक/काल्पनिक विवरण देखे हैं। जैसे, चम्बल के डाकू। इस सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रचलित नाम है, फूलन देवी। स्त्रियाँ यहाँ भी पीछे नहीं हैं! चम्बल के बीहड़ों में एक समय सर्वाधिक प्रचलित डाकू एक स्त्री ही थी।

चम्बल घाटी का बीहड़
चम्बल घाटी का बीहड़

बीहड़ उबड़-खाबड़ विषम भूमि होती है जिनमें डाकू आसानी से छुप सकते हैं। वे इन बीहड़ों में आसानी से अपना जीवन व्यतीत कर लेते हैं। चम्बल के डाकुओं का एक लंबा इतिहास रहा है। प्राचीन काल से लेकर मध्ययुगीन एवं आधुनिक काल तक उन्होंने अनेक सरकारों को परिवर्तित होते देखा है। जब मेरे पिता भरतपुर में कार्यरत थे, तब मेरे नव-विवाहित माता-पिता बहुधा चित्रपट देखने के लिए आगरा जाते थे। तब उनको यह  क्षेत्र पार करना पड़ता था। उन्होंने मुझे उन यात्राओं से सम्बंधित अनेक रोचक घटनाओं के विषय में बताया था।

मुझे चम्बल के इन बीहड़ों को निकट से देखने का अवसर तब प्राप्त हुआ था जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार के संरक्षण में इस क्षेत्र का भ्रमण कर रहे यात्रा-संस्मरण लेखकों के एक विशाल समूह का भाग थी। इस बीहड़ की उबड़-खाबड़ भूमि में समूह में विचरण करते हुए मैं कल्पना करने लगी कि इन निर्जन बीहड़ों में अकेले विचरण करना कैसा प्रतीत होता होगा! क्या मुझे उन प्रचलित डाकुओं के प्रेत दिखाई देंगे जो स्वयं को डाकू नहीं, अपितु विद्रोही कहते थे? क्या वहाँ के गांववासी मुझे उन डाकुओं के चरम काल की रोमांचक कथाएं सुनायेंगे? मेरे ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए।

नदी का पाट और नाव
नदी का पाट और नाव

इन उबड़-खाबड़ बीहड़ों में विचरण करना तथा उन्हें पार कर चम्बल नदी के दर्शन करना स्वयं में एक रोमांचक अनुभव था। नदी के तट पर पहुंचकर हमने अनुभव किया कि चम्बल नदी अपनी शान्त गति से बह रही थी। मिट्टी के ऊँचे-नीचे टीलों के मध्य एक नीली रेखा सी प्रतीत हो रही थी। नदी के दोनों तटों को जोड़ता हुआ ना तो कोई मार्ग था, ना ही कोई सेतु। अतः नदी पार करने के लिए नौकायन ही एकमात्र साधन है। गाँववासियों को एक तट से दूसरे तट पर ले जाने के लिए एक नाव थी जो दोनों तटों के मध्य चक्कर लगा रही थी।

चम्बल नदी से सम्बंधित लोककथाएँ

चम्बल नदी का प्राचीन नाम चर्मण्वती अथवा चर्मनवती था। महाभारत एवं विभिन्न पुराणों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि राजा रन्तिदेव द्वारा यहाँ अतिथि यज्ञ किया गया था। देवी भागवत पुराण में कहा गया है कि विभिन्न यज्ञों में बलि चढ़ाए गए पशुओं के चर्म से बहते रक्त से इस नदी का उद्गम हुआ था। इसी कारण इसका नाम चर्मण्वती पड़ा। ऐसा भी माना जाता है कि यह उक्ति सांकेतिक है। राजा रन्तिदेव द्वारा आयोजित अतिथि यज्ञ में बलि का संकेत केले अथवा कदली के स्तंभों को काटना है। राजा रन्तिदेव ने फलों से होम एवं अतिथि सत्कार किया था। केले के पत्तों एवं छिलकों को भी चर्म कहा जता है। ऐसे कदलीवन से चर्मण्वती नदी का उद्गम हुआ था।

ऐसा माना जाता है कि महाभारत काल में चम्बल नदी के आसपास के क्षेत्रों पर कौरवों के मामा शकुनी का अधिपत्य था। यहीं किसी स्थान पर आयोजित चौसर के खेल में मामा शकुनी की धूर्तता के कारण पांडव सर्वप्रथम कौरवों से पराजित हुए थे। उनके द्वारा महारानी द्रौपदी के चीरहरण का भी प्रयास किया गया था। ऐसा भी माना जाता है कि रानी द्रौपदी ने श्राप दिया था कि जो भी इस चर्मण्वती अथवा चम्बल नदी का जल ग्रहण करेगा, उसका विनाश हो जाएगा। उस काल से चम्बल नदी को श्रापित माना जाता है।

चम्बल नदी उन क्वचित नदियों में से एक है जिसकी आराधना नहीं की जाती है।

नदी को देख ऐसा प्रतीत होता है कि द्रौपदी का वही श्राप उसके लिए वरदान सिद्ध हो गया है। चम्बल नदी को भारत की निर्मलतम नदियों में से एक माना जाता है। यदि आपको प्रदूषणरहित चम्बल नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का अनुभव करना हो तो नदी में नोकायन करना आवश्यक है।

चम्बल नदी एक बारहमासी नदी है। भौगोलिक दृष्टि से चम्बल नदी का उद्गम स्थान मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित जानापाव की पहाड़ी है। यह नदी महू नगर तथा इंदौर नगर के निकट विन्ध्य श्रंखला की ढलान से निकलती है। मध्यप्रदेश-राजस्थान तथा मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश सीमा रेखाओं को अंकित करती हुई ये लगभग १००० किलोमीटर की दूरी तय करती है। तत्पश्चात यमुना नदी में समा जाती है।

चम्बल नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

नदी में नौकायन का आनंद उठाते हुए आपको इसके दोनों तटों पर विविध पक्षियों के भी दर्शन होंगे। हमने सारस, बाज, कचपचिया (Babbler) आदि पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ देखीं। उनसे भी अधिक संख्या में उपस्थित हैं, घड़ियाल, जो आपको नदी में तैरते अथवा तटों पर विश्राम करते दिखाई देंगे।

यदि भाग्य साथ दे तो आपको मीठे जल के कछुए भी दिखाई देंगे। इस क्षेत्र में इन कछुओं की लगभग आठ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। लगभग ४५ मिनटों के सम्पूर्ण नौकायन काल में हमने अनेक प्रकार के पक्षियों को आकाश में चारों ओर उड़ते देखा।

चम्बल नदी के घड़ीयाल
चम्बल नदी के घड़ीयाल

सम्पूर्ण नौकायन काल में घड़ियाल जल से बाहर आकर हमें तो दर्शन दे रहे थे किन्तु हमारे कैमरों के संग लुकाछिपी की क्रीड़ा में वे विजयी भी हो रहे थे। नदी के तट पर स्थित दलदल पर उनकी विषम त्वचा अपने चिन्ह अंकित करती ही है, साथ ही निर्मल जल सतह के नीचे भी अपनी उपस्थिति त्वरित दर्शा देती है। मुझे बताया गया कि चम्बल नदी में बड़ी संख्या में मीठे जल के डॉलफिन भी हैं जो गंगा नदी में लुप्तप्राय हो रहे हैं।

मेरे अनुमान से पक्षियों एवं नदी के घड़ियालों के दर्शन के लिए यह सम्पूर्ण भारत का सर्वोत्तम स्थान है।

सूर्यास्त काल में नदी का परिदृश्य अद्वितीय प्रतीत हो रहा था। वह दृश्य अविस्मरणीय था। मुझे अरब महासागर में सूर्यास्त के दृश्य का स्मरण हो आया। हमने चम्बल नदी से विदाई ली तथा वापिसी की यात्रा आरम्भ की।

मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था मानो मैंने देश के एक ऐसे दुर्लभ व रोमांचकारी भाग का दर्शन किया है जिसकी मुझे जानकारी तो थी लेकिन कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिवस मुझे उसके दर्शन प्राप्त होंगे। चित्रपटों के काल्पनिक कथानकों के पृष्ठभूमि में दर्शाए गए दृश्यों से अत्यंत विपरीत हमें इसके यथार्थ रूप का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।

चम्बल एक दुर्लभ नदी है। एक ओर जहाँ भारत में नदियों को देवी स्वरूप पूजा जाता है, वहीं पारंपरिक मान्यताओं के कारण चम्बल नदी को श्रापित मानकर उसे पूजनीय नहीं माना जाता है। यह वही नदी है जिसके तटों पर चम्बल के डाकुओं ने सर्वाधिक काल के लिए अपना वर्चस्व स्थापित कर रखा था।

विश्रामगृह – चम्बल सफारी लॉज

हम चम्बल सफारी लॉज में ठहरे थे जो नदी से कुछ ही दूरी पर स्थित है। यह ऐसा स्थान है जहाँ आप अनेक प्रकार के पक्षियों के दर्शन कर सकते हैं। मैं प्रातः शीघ्र ही उठ गयी थी। मैंने देखा कि मेरे कक्ष के समक्ष एक वृक्ष की शाखाओं से सैकड़ों की संख्या में चमगादड़ (Flying Fox) लटके हुए थे। चम्बल सफारी लॉज के विषय में अधिक जानकारी के लिए उनके अधिकारिक वेबस्थल पर देखें।  यहाँ से आपको इस लॉज के इतिहास की जानकारी प्राप्त होगी जो इस क्षेत्र के वन्य प्राणियों के ताने-बाने से पूर्णतः संलग्न है। उस समय यह लॉज मेला कोठी के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में यह पर्यावरण को बढ़ावा देता एक इको लॉज है जो आपको इस क्षेत्र की अनछुई सुन्दरता का आनंद उठाने का अवसर प्रदान करता है। उनकी पूर्ण प्रशिक्षित टोली आपकी सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहती है।

मेला कोठी चम्बल सफारी लॉज
मेला कोठी चम्बल सफारी लॉज

प्रातः काल मैं लॉज के आसपास के खेतों में पदभ्रमण कर रही थी। तभी मेरे साथ अनेक मोर भी पदभ्रमण करने के लिए आ गए थे।

चम्बल नदी एवं उसके पारिस्थितिक तंत्र का दर्शन कर मैं भावविभोर हो गयी थी। एक स्वच्छ निर्मल जीवंत नदी तथा उस पर आधारित मानव, पक्षी एवं जलीय प्राणी, ये सर्व स्वयं में एक सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। ऐसा दृश्य अत्यंत दुर्लभ है। आशा है यह नदी सदा इसी प्रकार स्वच्छ व निर्मल बनी रहे। इसे किसी भी प्रकार का प्रदूषण स्पर्श भी नहीं कर पाए।

यात्रा सुझाव

आगरा से चम्बल घाटी पहुँचने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। अतः, आप ताज महल भ्रमण एवं चम्बल नदी भ्रमण एक ही यात्रा कार्यक्रम के अंतर्गत कर सकते हैं।

दिल्ली अथवा जयपुर से भी चम्बल घाटी तक सुगमता से पहुंचा जा सकता है। दिल्ली एवं जयपुर भारत के स्वर्णिम त्रिभुज (Golden Triangle) के भाग भी हैं।

चम्बल से आप द्रौपदी की जन्मस्थली काम्पिल्य का भ्रमण भी कर सकते हैं।

चम्बल घाटी एवं इसके पारिस्थितिकी तंत्र का अवलोकन करने एवं उसे समझने के लिए प्रशिक्षित परिदर्शक की सहायता अवश्य लें। उनकी सहायता से आप घाटी के सौंदर्य का आनंद उठाने के साथ साथ यहाँ के वन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों से भी परिचित हो सकते हैं।

चम्बल नदी में नौकायन अवश्य करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बिसरख – रावण का जन्मस्थान ग्रेटर नोएडा का प्राचीन गाँव https://inditales.com/hindi/ravan-janamsthan-bisrakh-gaon-noida/ https://inditales.com/hindi/ravan-janamsthan-bisrakh-gaon-noida/#respond Wed, 10 Apr 2024 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3429

बिसरख, यह नाम ऋषि विश्रवा के नाम से व्युत्पत्त है। काल के साथ अपभ्रंशित होते हुए यह नाम बिसरख में परिवर्तित हो गया। ऋषि विश्रवा दशमुख रावण के पिता थे। कुछ सूत्रों के अनुसार रावण का जन्म बिसरख हुआ था, वहीं कुछ का मानना है कि रावण ने अपने बाल्यावस्था का कुछ काल यहाँ व्यतीत […]

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बिसरख, यह नाम ऋषि विश्रवा के नाम से व्युत्पत्त है। काल के साथ अपभ्रंशित होते हुए यह नाम बिसरख में परिवर्तित हो गया। ऋषि विश्रवा दशमुख रावण के पिता थे। कुछ सूत्रों के अनुसार रावण का जन्म बिसरख हुआ था, वहीं कुछ का मानना है कि रावण ने अपने बाल्यावस्था का कुछ काल यहाँ व्यतीत किया था।

बिसरख एक प्राचीन गाँव है जो नोएडा महानगरी में स्थित है। वस्तुतः यह ग्रेटर नोएडा का सेक्टर १ है। दिल्ली में आप कहाँ से जा रहे हैं, उसके आधार पर यह गाँव दिल्ली से लगभग २० से ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

बिसरख भ्रमण

नोएडा एवं ग्रेटर नोएडा के चौड़े द्रुतगामी महामार्गों के माध्यम से वाहन द्वारा बिसरख पहुँचने में हमें १५-२० मिनट का समय लगा।

यहाँ पहुँचकर हमारी दृष्टि सर्वप्रथम किराने की एक दुकान पर पड़ी जिसका नाम रावण किराना स्टोर था। इसके पार्श्व में एक गैरेज के भीतर रावण डीजे अपनी उपस्थिति दर्शा रहा था। यह बिसरख गाँव में रावण से संबंधित जीवंत दंतकथा से मेरा प्रथम परिचय था। इस दुकान के समक्ष अनामी धाम नामक एक बड़ा आश्रम है।

रावण के नाम पे दुकानें
रावण के नाम पे दुकानें

हमने किराने की दुकान के स्वामी से कुछ संवाद साधे तथा उनसे रावण के मंदिर का मार्ग पूछा। हमें गाँव के भीतर से जाते एक मार्ग पर चलने का परामर्श दिया गया। वह एक संकरा मार्ग था किन्तु उसके दोनों ओर कई सुंदर व विशाल भवन थे।

सँकरे मार्ग पर चलते हुए हम एक निर्जन स्थान पर जा पहुँचे। यहीं पर हमें एक मंदिर दृष्टिगोचर हुआ जिस पर एक ऊंचा शिखर था। हमें ज्ञात हुआ कि यह वो मंदिर नहीं था जिसके शोध में हम यहाँ तक पहुँचे थे। हमारा उद्देशित मंदिर बाईं दिशा में कुछ आगे जाकर था।

बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर

एक तोरण के मध्य से हम मंदिर परिसर में पहुँचे। मंदिर के अलंकृत प्रवेशद्वार एवं हमारे मध्य एक इकलौता वृक्ष था। मंदिर के चारों ओर नवीन प्राकार का निर्माण किया जा रहा था। उस पर रावण के जीवनकाल से संबंधित कथाओं एवं घटनाओं के दृश्यों को अप्रतिम शिल्पकला द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा था।

बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर
बिसरख का प्राचीन शिव मंदिर

इन अप्रतिम शिल्पावलियों का अवलोकन करते हुए हमने परिसर में भ्रमण किया। कुछ शिल्पकारों से चर्चा भी की जो पार्श्व भाग में स्थित एक भित्ति पर रावण के अनुज भ्राता विभीषण का एक चित्र गढ़ रहे थे। इन शिल्पकार्यों को करने के लिए वे ओडिशा से विशेषरूप से यहाँ पधारे थे। इससे पूर्व मैंने जाजपुर में भी ओडिशा के शैल शिल्पकारों से भेंट की थी। इन शिल्पकारों से चर्चा करते हुए मुझे उनका स्मरण हो आया।

बिसरख मंदिर में रावण
बिसरख मंदिर में रावण

द्वार के दाहिने ओर आप दशमुख रावण का शिल्प स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। बायीं ओर ब्रह्मा की आराधना करते विश्रवा ऋषि का शिल्प है। एक दृश्य में ऋषि विश्रवा एवं उनकी धर्मपत्नी साथ में पूजा कर रहे हैं। एक अन्य दृश्य में भगवान शिव को अपना शीष अर्पण करते रावण को दर्शाया गया है। हमारे समक्ष शिल्पकार रावण के दो भ्राताओं, विभीषण एवं कुंभकर्ण से संबंधित दृश्यों पर शिल्पकारी कर रहे थे।

मुख्य प्रवेशद्वार के ऊपर गणेश की आसनस्थ मुद्रा में विशाल प्रतिमा है। उनके एक ओर वाहन उल्लू पर आरूढ़ देवी लक्ष्मी हैं तो दूसरी ओर हंस पर विराजमान देवी सरस्वती हैं। शंखनाद करते ऋषियों के शिल्प हैं। यहाँ कुछ नाग शिल्प भी हैं।

शिव मंदिर
शिव मंदिर

हमने मंदिर के विस्तृत परिसर में प्रवेश किया। परिसर के आकार की तुलना में मंदिर अत्यंत लघु प्रतीत होता है। मंदिर के रूप में एक छोटा सा कक्ष है जिसके भीतर एक शिवलिंग है। शिवलिंग के समक्ष मुक्ताकाश प्रांगण में नंदी की एक छोटी प्रतिमा है। इस मुख्य लिंग के ऊपर गुलाबी रंग में रंगी बाह्य संरचना है।

देवी मूर्ति
देवी मूर्ति

ऐसी मान्यता है कि यहाँ के वनीय प्रदेश में ऋषि विश्रवा को यह शिवलिंग प्राप्त हुआ था। उन्होंने ही यहाँ इस शिवलिंग की स्थापना की तथा उसकी आराधना की। इसीलिए इस शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग कहा जाता है।

श्रावण

श्रावण मास चल रहा था। यह मास शिव भक्तों के लिए अत्यंत विशेष माना जाता है। हमने देखा कि अनेक भक्तगण मंदिर में दर्शन कर रहे थे तथा शिवलिंग का जलाभिषेक कर रहे थे। शिवलिंग के समीप एक स्त्री अपने मुख को दुपट्टे से ढँककर बैठी थी तथा ध्यान कर रही थी। उसकी उपस्थिति मंदिर की दिव्यता को एक नवीन आयाम प्रदान कर रही थी।

मंदिर में स्थापित लिंग प्राचीन प्रतीत होता है। धातु में निर्मित नाग शिवलिंग का अलंकरण करता हुआ विराजमान है। हमने शिवलिंग का अष्टभुजाकार आधार तत्व भी देखा। शिवलिंग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि किसी काल में यह योनि पर स्थापित रहा होगा किन्तु अब ग्रेनाइट के टाइल पर स्वतंत्र रूप से विराजमान है।

भित्ति के आले पर देवी पार्वती की लघु किन्तु अप्रतिम विग्रह स्थापित है। उनके साथ उनके दोनों पुत्र गणेश एवं कार्तिकेय भी विराजमान हैं।

नवग्रह मंदिर

शिव मंदिर के निकट एक लघु मुक्ताकाश मंदिर है जो नवग्रह को समर्पित है। सूर्य का विग्रह अत्यंत विशेष है। यहाँ सूर्य को एक विलक्षण एक-चक्री रथ पर विराजमान दर्शाया गया है। इस रथ को दो अश्व हाँक रहे हैं। रथ पर आरूढ़ सूर्य का विग्रह नवग्रह मंडल के मध्य में स्थापित है।

यम की प्रतिमा इस प्रकार स्थापित है कि उनकी दृष्टि नवग्रह विग्रहों पर स्थिर है। ये विग्रह प्राचीन प्रतीत होते हैं। उनमें से एक विग्रह भंगित है।

विश्रवा मंदिर

नवग्रह मंदिर के समीप एक विशाल कक्ष है जिसके भीतर सभी देवी-देवताओं की पूर्णकाय मूर्तियाँ हैं। उन सभी मूर्तियों में ऋषि विश्रवा की प्रतिमा विशेष है। यह मूर्ति एक शिवलिंग के समक्ष स्थित है।

ऋषि विश्रवा की प्रतिमा के निकट मुझे सूर्य देव की एक सुंदर प्रतिमा दिखी जिसमें वे अपने सात अश्वों के साथ विराजमान हैं। यह शिल्प काली शिला पर उकेरी हुई है। सूर्य देव के इस विग्रह ने मुझे सूरजकुंड का स्मरण करा दिया जो यहाँ से निकट ही स्थित है।

इस कक्ष के कुछ अन्य विग्रहों में निम्न विग्रह भी अनूठे हैं-

  • गणेश एवं कार्तिकेय संग गौरी शंकर
  • श्वेत अश्व पर आरूढ़ कलकी देव
  • लक्ष्मी नारायण
  • रावण का चचेरा भ्राता कुबेर
  • राधा कृष्ण
  • अपने अश्व को हाँकते बाबा मोहन राम जी
  • हनुमान जी
  • माँ काली

उपरोक्त विग्रहों के नामों को पढ़ते हुए आप बाबा मोहन राम जी के विषय में जानने के लिए अवश्य उत्सुक हुए होंगे। बाबा मोहन राम जी एक संत हैं जिन्होंने इस मंदिर एवं बिसरख धाम के नवीनीकरण का बीड़ा उठाया है। मंदिर एवं गाँव में उपस्थित निवासियों से वार्तालाप करते हुए मुझे ज्ञात हुआ कि गाँव में बाबा मोहन राम जी के अनेक भक्त हैं।

शिव पार्वती मंदिर

मुख्य मंदिर के दर्शन के उपरांत हम उजले गुलाबी रंग में रंगे एक ऊँचे शिखर से अलंकृत मंदिर पहुँचे। यह भी एक लघु मंदिर है जिसके भीतर देवी की प्रतिमा है।

इस मंदिर के चारों ओर बैठकर कुछ भक्तगण मंत्रों का जप कर रहे थे।

इसके पार्श्व भाग पर कुछ मूर्तियाँ थीं जिनके समक्ष उन्हे समर्पित प्रसाद के ढेर थे।

मंदिर के उत्सव

उत्तर भरत में दशहरा के पावन पर्व पर चहुँ ओर रावण, भ्राता कुंभकर्ण एवं रावण-पुत्र मेघनाथ के पुतलों को जलाने की प्रथा है। रामलीला के विविध प्रदर्शन किये जाते हैं। किन्तु बिसरख में प्रथा विपरीत है।

चूंकि बिसरख गाँव रावण का जन्मस्थान  है, यहाँ रावण की आराधना करते हुए दशहरा पर्व मनाया जाता है। यहाँ रामलीला का प्रदर्शन भी नहीं किया जाता। दीवाली का उत्सव भी न्यूनतम एवं मंद स्तर पर किया जाता है।

एक ओर जहाँ भारतीय उपमहाद्वीप को रामायण की भूमि माना जाता है, वहीं रावण को पूजते इस छोटे से गाँव को एक अनूठा द्वीप कहा जा सकता है।

यात्रा सुझाव

  • बिसरख गाँव राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र NCR का एक भाग है। अतः यहाँ तक पहुँचना अत्यंत सुलभ है।
  • यह मंदिर सम्पूर्ण दिवस खुला रहता है।
  • यह मंदिर मूलतः स्थानीय लोगों में लोकप्रिय है। सामान्यतः सभी अनुष्ठान स्थानीय निवासी ही आयोजित करते हैं। कदाचित इसलिए ही मुझे यहाँ पर्यटकों से संबंधित सुविधाओं का नितांत अभाव प्रतीत हुआ।
  • मंदिर के दर्शन करने के साथ साथ आप बिसरख गाँव में भी पद-भ्रमण करें। आधुनिक प्रतीत होते हुए भी इस गाँव में आपका अनुभव सामान्य नहीं होगा, अपितु आपका अनुभव अवश्य अनूठा होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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शिल्प संग्रहालय – ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर (पंडित दीनदयाल हस्तकला संकुल) https://inditales.com/hindi/pandit-deendayal-hastkala-sankul-varanasi/ https://inditales.com/hindi/pandit-deendayal-hastkala-sankul-varanasi/#respond Wed, 15 Nov 2023 02:30:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3322

विश्व की प्राचीनतम जीवंत नगरी वाराणसी में जब से नवनिर्मित ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर का क्रियान्वय हुआ है, तब से वह प्रशंसा का विषय बना हुआ है। यहाँ तक कि हमने भी अपनी ‘यात्रा सम्मलेन’ के संभावित आयोजन स्थल के लिए इसी केंद्र का चुनाव किया था किन्तु कुछ कारणों से हमें उसे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय […]

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विश्व की प्राचीनतम जीवंत नगरी वाराणसी में जब से नवनिर्मित ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर का क्रियान्वय हुआ है, तब से वह प्रशंसा का विषय बना हुआ है। यहाँ तक कि हमने भी अपनी ‘यात्रा सम्मलेन’ के संभावित आयोजन स्थल के लिए इसी केंद्र का चुनाव किया था किन्तु कुछ कारणों से हमें उसे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आयोजित करना पड़ा था। अब इस केंद्र का नामकरण पंडित दीनदयाल हस्तकला संकुल किया गया है। अपनी इस यात्रा में मैं बनारसी रेशमी साड़ियों पर शोध कार्य कर रही थी। इसी विषय पर मेरा अन्वेषण मुझे वाराणसी नगरी के इस नवीन गंतव्य तक खींच लाया था।

हमारी गाड़ी मुंशी प्रेमचंद के पैतृक गाँव लमही में बने उनके स्मारक के सामने से आगे गयी। उनके निवास को अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। आप यहाँ लोगों से वार्तालाप करें तो वे आपको मुंशी प्रेमचंद की कथाओं के पात्रों की गाथाएं अवश्य सुनायेंगे जिनका जीवन मुंशीजी ने इस निवास के चारों ओर ही बुना था। समय की कमी के कारण हम यहाँ अधिक समय व्यतीत नहीं कर पाए। किन्तु मेरा निश्चित सुझाव रहेगा कि आप मुंशी प्रेमचंद के निवास में, जो कि अब एक संग्रहालय है, कुछ समय अवश्य व्यतीत करें।

ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर (पंडित दीनदयाल हस्तकला संकुल)
ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर (पंडित दीनदयाल हस्तकला संकुल)

वाराणसी में नवनिर्मित ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर का उद्देश्य है, वाराणसी में व्यापार को बढ़ावा देना। हमने वाराणसी या काशी की सदा एक तीर्थस्थल के रूप में ही कल्पना की है तथा उसे एक धार्मिक स्थल ही माना है जहां मुख्यतः तीर्थयात्री ही आते हैं। किन्तु, इसके ठीक विपरीत वाराणसी सदा से एक व्यापारिक केंद्र रहा है। वास्तव में वाराणसी उस चौराहे पर स्थित है जहां दो प्रमुख व्यापार मार्ग एक दूसरे से मिलते थे। जी हाँ! मैं उत्तरपथ एवं दक्षिणपथ के विषय में कह कर रही हूँ। उत्तरपथ पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर जाते हुए काबुल से ढाका जाता है। दक्षिणपथ उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा की ओर आते हुए पटना से पैठन तक जाता है।

हमारे धर्म ग्रंथों में काशी के एक व्यापारिक केंद्र के रूप में अनेक उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं। आपको राजा हरीश्चंद्र की कथा का स्मरण तो अवश्य ही होगा। जब वे अयोध्या के सम्राट थे तब किसी विवशतावश उन्हें स्वयं की बोली लगानी पड़ी थे। यह बोली काशी के हाट में ही हुई थी। समय-चक्र में आगे चलें तो संत-कवि कबीर काशी में ही एक जुलाहे थे। वे अपनी कविताओं में काशी की मंडियों का उल्लेख यदा कदा करते थे।

काशी की गलियां
काशी की गलियां

बनारसी साड़ियों एवं बनारसी पान के विषय में तो हम सब जानते ही हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त भी वाराणसी में अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जिन्हें भौगोलिक संकेत या जी आइ टैग प्राप्त हैं। वाराणसी की इन्ही विशेषताओं का गुणगान करता है, ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर का यह संग्रहालय।

यह एक प्रकार से काशी नगरी या वाराणसी या बनारस का उत्सव मनाता है। इस प्रकार का संग्रहालय, जो किसी नगरी का उत्सव मानता हो, इससे पूर्व मैंने एक ही देखा था, मुंबई का भाऊ दाजी लाड संग्रहालय। किन्तु काशी का यह संग्रहालय असंख्य कलाशैलियों को पोषित करते हुए इतना अनुनादी है, इतना जीवंत है कि इसकी श्रेणी में इसका कोई सानी नहीं है।

वाराणसी का ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर

प्रथमदर्शनी लाल बलुआ पत्थर में निर्मित यह केंद्र दिल्ली के लुटियंस क्षेत्र में स्थित किसी भी अन्य संरचना जैसा प्रतीत होता है। समीप आते ही उसकी बाह्य भित्तियों पर सुनहरे रंग में मंदिर के शिखरों की उभरी आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं। यह आपको स्मरण करता है कि आप दिल्ली में नहीं अपितु वाराणसी में हैं। यह एक विशाल सार्वजनिक स्थल है जिसके भीतर एवं बाहर बड़ी संख्या में लोगों को समाने की क्षमता है।

काशी के पांच भारत रत्न
काशी के पांच भारत रत्न

बाह्यदर्शनी मुझे इस संरचना की सर्वाधिक प्रशंसनीय जो विशेषता लगी, वह है इसकी वास्तुकला। इसकी स्थापत्यशैली में वाराणसी के तत्व समाये हुए हैं। वह चाहे बुद्ध हो, या कबीर, भारत रत्न द्वारा सम्मानित वाराणसी नगरी के पाँच महानुभाव हों या वाराणसी की कलाशैली। वाराणसी के सुप्रसिद्ध गंगा घाट को कभी नेत्रों से ओझल ही नहीं होने दिया है। मैं सदा इस अंतरद्वन्द में रहती थी कि जीवंत परंपराओं एवं जीवंत संस्कृतियों के लिए संग्रहालयों की क्या आवश्यकता है? किन्तु इस संग्रहालय को देखते ही मेरा वह अंतरद्वन्द पूर्णतया लुप्त हो गया।

इस संग्रहालय में वाराणसी की सभी परम्पराओं, सभी संस्कृतियों को एक ही स्थान में इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि सभी दर्शनार्थियों एवं हितधारकों को ये सरलता से उपलब्ध हो जाएँ। एक ही स्थान पर कलाकृतियों का भी प्रदर्शन है तथा कलाकारों को अपनी कलाकृतियाँ प्रदर्शित करने का मंच भी उपलब्ध है। ठप्पा निर्मातक, लकड़ी के खिलौने बनाने वाले कारीगर, चित्रकार, शिल्पकार जैसे अनेक दक्ष कारीगरों को यहाँ आमंत्रित किया जाता है ताकि वे अपनी कला का प्रदर्शन कर सकें, कलाकृतियाँ गढ़ सकें तथा दर्शनार्थियों एवं हितधारकों से कला संबंधी संवाद भी कर सकें। यह सब मुझे अत्यंत प्रशंसनीय प्रतीत हुआ।

काशी के कबीर
काशी के कबीर

क्रय-विक्रय क्षेत्र भी अत्यंत विलक्षण है। उनमें क्रय के लिए रखी वस्तुओं के विषय में तथा उनके मूल्य के विषय में मैं अधिक जानकारी नहीं दे सकती क्योंकि जब मैं वहां गयी थी, अधिकतर दुकानें बंद थीं। कदाचित महामारी का प्रभाव रहा होगा। आशा है कि अब महामारी के सभी दुष्प्रभावों को पीछे छोड़कर हम आगे बढ़ चुके हैं तथा अब वे दुकानें ग्राहकों से सुशोभित हो रही हों।

यहाँ अनेक भित्तिचित्र एवं प्रतिमाएं हैं जो वाराणसी नगरी के मूल तत्व को दर्शाते हैं। प्रवेश करते ही हमारी दृष्टि भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा पर आकृष्ट हुई जो उनके तत्वज्ञान का स्मरण कराती है। मध्य में लोकप्रिय संत-कवि कबीर की प्रतिमा है जो काशी नगरी में एक जुलाहा भी थे। एक भित्तिचित्र में भारत रत्न से सम्मानित वाराणसी के पाँचों महानुभावों को दर्शाया है। वे हैं, पंडित मदन मोहन मालवीय, पंडित रवि शंकर, उस्ताद बिस्मिल्ला खान, लाल बहादुर शास्त्री एवं भगवान दास जी। आपने ऐसे कितने नगर देखे हैं जिन्होंने उनके क्षेत्र के राष्ट्र-विभूषित व्यक्तित्व को इस प्रमुखता से सम्मानित किया हो?

ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर का शिल्प संग्रहालय

शिल्प संग्रहालय के भवन के तीन तलों में वाराणसी की शिल्प शैलियों को प्रदर्शित किया है। संग्रहालय की प्रदर्शनी दीर्घा को अप्रतिम रूप से सुसज्जित किया है।

काशी की बुनाई
काशी की बुनाई

प्रवेश करने से पूर्व ही आप स्वयं को रंगबिरंगे एवं उजले सुन्दर पटलों से घिरा पायेंगे जो बनारसी रेशम की विविधता एवं सुन्दरता को प्रस्तुत करते हैं। एक प्रकार से आप स्वयं को उस उत्कृष्ट सम्पन्नता से घिरा पायेंगे जो इस नगरी की अतिविशिष्ट बुनाई तकनीक की परिभाषा है।

वाराणसी पर चलचित्र

वाराणसी के वैशिष्ट्य को प्रदर्शित करता एक लघु चित्रपट आप एक विशेष प्रेक्षागार में देखेंगे जो आपको वाराणसी नगरी के विभिन्न आयामों को ३६०अंश में प्रदर्शित करते हैं। एक प्रकार से ये सम्पूर्ण नगरी को आपके समक्ष प्रदर्शित कर देते हैं। आप अपनी इच्छा के अनुसार उसके विभिन्न तत्वों पर लक्ष्य केन्द्रित कर सकते हैं तथा काशी की गलियों में भ्रमण करते समय सीधे अपने गंतव्य की ओर जा सकते हैं।

आप मध्य में खड़े होकर अपने चारों ओर प्रदर्शित चलचित्र में काशी को परिभाषित करते उसके सर्वोत्कृष्ट तत्वों का आनंद ले सकते हैं जैसे उसका संगीत, वहाँ के संगीतज्ञ, उसके घाट एवं वहाँ का जीवन, उसके लोकप्रिय पानवाले, मिठाई की दुकानें, बुनकर, लकड़ी के खिलौने बनाने वाले, मीनाकारी के आभूषण बनाने वाले, शैल शिल्पकार आदि। इन सभी आयामों में सर्वप्रसिद्ध तत्व तो सदा काशी की लोकप्रिय गलियाँ ही होती हैं जो स्वयं में किसी संग्रहालय से कम नहीं हैं। काशी की गलियों में भ्रमण करना एक मुक्तांगन संग्रहालय में भ्रमण करने जैसा होता है।

मध्य में खड़े होकर ऐसा प्रतीत होता है मानो आप चारों ओर से काशी से घिरे हुए हैं।

वस्त्र दीर्घा

संग्रहालय का यह क्षेत्र आपको उत्कृष्ट रेशमी वस्त्रों के स्वप्निल विश्व में ले जाता है। इस क्षेत्र को सुरुचिपूर्ण रीति से सज्जित किया है। विभिन्न प्रकार के रेशम, विभिन्न प्रकार की रेशमी बुनाई तकनीक आदि की जानकारी हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में दी गयी हैं। रेशमी वस्त्रों की सम्पूर्ण बुनाई तकनीक को दृश्यों एवं शब्दों द्वारा समझाया गया है।

आड़े जाल की बनारसी साड़ी
आड़े जाल की बनारसी साड़ी

यहाँ की एक अन्य विशेषता है, वाराणसी की उत्कृष्ट धरोहर, बनारसी साड़ियों के अद्भुत संग्रह का प्रदर्शन। आप उनमें जामुनी, रानी, लाल आदि चटक रंगों में काशी की पारंपरिक आकृतियाँ देख सकते हैं। आप उन्हें ध्यान से देखें तो आपको विभिन्न बुनाई तकनीक की सूक्ष्मताएँ एवं उनमें अंतर स्पष्ट दृष्टिगोचर होगा। विभिन्न प्रकार की बुनाई, आकृतियाँ एवं रूपरेखाओं में विविधताओं को पहचान सकते हैं।

गेयसर - बौद्ध अनुष्ठानों का वस्त्र
गेयसर – बौद्ध अनुष्ठानों का वस्त्र

एक प्रदर्शनी का उल्लेख करना चाहूंगी जिसमें मोर के पंखों को रेशम के साथ बुनकर आकृतियाँ बनाई गयी हैं। एक अन्य वस्त्र है गयसर, जिसे ब्रोकेड में बनाया जाता है। बौद्ध लामा प्रार्थना के लिए इसका प्रयोग करते हैं।

गालीचा दीर्घा

इस दीर्घा में गालीचों के कुछ उत्कृष्ट नमूने प्रदर्शित हैं।

गलीचे पे बुना चाँद और उसकी परछाई
गलीचे पे बुना चाँद और उसकी परछाई

एक गालीचे में चन्द्रमा एवं उसका प्रतिबिम्ब दर्शाया गया है जो अत्यंत सुन्दर है। कुछ गालीचों में राजाओं की कथाएं बुनी गयी हैं। गालीचा बुनाई में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के बुनाई तकनीक एवं आकृतियाँ प्रदर्शित की गयी हैं।

वाराणसी कला दीर्घा

इस दीर्घा में वाराणसी में उपलब्ध विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की प्रदर्शनी है। मैं काशी के विभिन्न कला शैलियों पर जानकारी एकत्र कर उन पर एक संस्करण लिख चुकी थी। इसके पश्चात भी मुझे यहाँ नवीन जानकारियाँ प्राप्त हो रही थीं। वाराणसी की टेराकोटा कलाशैली मैंने सर्वप्रथम यहीं देखी। उनमें काली चिकनी मिट्टी (टेराकोटा) में बने पात्र भी सम्मिलित हैं। इससे पूर्व मेरा अनुमान था कि कुम्हारी के लिए काले टेराकोटा का प्रयोग केवल मणिपुर में किया जाता है। अब मैं जब भी वाराणसी के हाट में जाऊँगी तब इन काले टेराकोटा के पात्रों को अवश्य ढूंडूंगी।

काष्ठ में गढ़ी हनुमान मूर्ति
काष्ठ में गढ़ी हनुमान मूर्ति

यहाँ प्रसिद्ध रामनगर रामलीला में प्रयुक्त होने वाले मुखौटे हैं।

आपका ध्यानाकर्षित करने वाली गुलाबी मीनाकारी की गयी अनेक उत्कृष्ट वस्तुएं हैं।

वाराणसी के काली मिटटी के बर्तन
वाराणसी के काली मिटटी के बर्तन

पीतल एवं अन्य धातुशैलियों में निर्मित मूर्तियाँ है जिनमें पुरातन एवं आधुनिक, दोनों कलाशैलियों को देखा जा सकता है।

दीर्घा के अंतिम भाग में एक विस्तृत चित्ताकर्षक राम दरबार है।

पत्थर में गढ़े हाथी
पत्थर में गढ़े हाथी

वाराणसी की वे सभी वस्तुएं जिन्हें भौगोलिक संकेत प्राप्त है, यहाँ प्रदर्शित की गयी हैं। यह संग्रहालय एक प्रकार से उन उत्कृष्ट वस्तुओं का उत्सव मनाता है।

ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर के परिसर में आप कारीगरों से भेंट भी कर सकते हैं तथा उन्हें अपनी रचनाओं को गढ़ते प्रत्यक्ष देख सकते हैं। मैं ठप्पा छपाई के लिए ठप्पा बनाने वाले एक कारीगर से मिली। वह ठप्पा यंत्रों के लिए आवश्यकतानुसार ठप्पे बना रहा था। एक अन्य शिल्पकार छोटी छोटी काष्ट कलाकृतियाँ बना रहा था। कुछ आभूषण भी बना रहा था। उनसे चर्चा करना तथा उनकी कलाओं के विषय में जानना अत्यंत आनंददायी होता है। साथ ही सीखने को भी मिलता है।

यदि किसी का इन कलाओं की ओर झुकाव हो तो उस के लिए यह स्वर्ग प्राप्त करने के समान है। बच्चों के लिए यह उत्तम स्थान है। आशा है यह संग्रहालय बच्चों एवं बड़ों के लिए कार्यशालाएँ भी आयोजित करे ताकि अधिक से अधिक लोग इन कलाओं से जुड़ सकें, उन्हें सीख सकें।

वाराणसी के ट्रैड फैसिलिटेशन सेंटर से संबंधित कुछ सूचनाएं

यह संग्रहालय प्रातः ११:३० बजे खुलता है तथा संध्या ०७:३० बजे बंद होता है। सोमवार को संग्रहालय बंद रहता है।

प्रवेश शुल्क नाममात्र है।

संग्रहालय के भीतर कैमरे ले जाने की अनुमति नहीं है।

संग्रहालय में सभी प्रदर्शित कलाकृतियों की जानकारी के लिए आप गाइड की सहायता ले सकते हैं। अभी तक तो गाइड सेवा निशुल्क उपलब्ध है।

सम्पूर्ण संग्रहालय के अवलोकन के लिए तथा दुकानों में उपलब्ध वस्तुओं को देखने के लिए कुछ घंटों का समय आवश्यक है।

यदि कोई विशेष प्रदर्शनी लगी हुई हो तो उसके लिए कुछ समय अधिक लग सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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वाराणसी के गंगा घाट भक्ति से ओतप्रोत https://inditales.com/hindi/varanasi-ke-ganga-ghat-kashi/ https://inditales.com/hindi/varanasi-ke-ganga-ghat-kashi/#respond Wed, 23 Aug 2023 02:30:20 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3155

वाराणसी, गंगा नदी के तट पर बसा विश्व का प्राचीनतम नगर! वाराणसी का नाम लेते ही नेत्रों के समक्ष मनमोहक गंगा घाट एवं मंदिरों से अलंकृत एक अद्भुत आध्यात्मिक नगर का दृश्य प्रकट हो जाता है। एक ओर जहाँ गंगा नदी ने वाराणसी नगर के सम्पूर्ण तट को अनेक घाटों से संवारा है तो इसके […]

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वाराणसी, गंगा नदी के तट पर बसा विश्व का प्राचीनतम नगर! वाराणसी का नाम लेते ही नेत्रों के समक्ष मनमोहक गंगा घाट एवं मंदिरों से अलंकृत एक अद्भुत आध्यात्मिक नगर का दृश्य प्रकट हो जाता है। एक ओर जहाँ गंगा नदी ने वाराणसी नगर के सम्पूर्ण तट को अनेक घाटों से संवारा है तो इसके दोनों छोरों पर दूसरी नदियों संग हुए संगमों से इसे सजाया है। वाराणसी के उत्तरी छोर पर वरुणा नदी का गंगाजी से संगम होता है तो दक्षिणी छोर पर असि नदी गंगाजी में समाहित होती है। इन्ही दो नदियों के नाम पर इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा.

इन दोनों पवित्र संगमों के मध्य गंगा के अर्धचन्द्राकार तट पर अनेक घाट हैं जहाँ से वाराणसी नगर गंगा नदी के दर्शन करता है तथा असंख्य तीर्थयात्रियों को गंगा माँ के दर्शन-पूजन का अवसर प्राप्त होता है। वाराणसी में लगभग ८४ घाट हैं जिनकी कुल लम्बाई लगभग ६.२ किलोमीटर (लगभग २ कोस) है। उत्तर से दक्षिण की ओर अथवा दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हुए आप इन सभी ८४ घाटों पर पदभ्रमण कर सकते हैं। सभी घाटों का भ्रमण करते समय आपको कुछ स्थानों पर घाटों की ऊँची ऊँची सीढ़ियाँ चढ़नी-उतरनी पड़ सकती हैं। वाराणसी के गंगा घाट अपनी ढलान की तीव्रता के लिए भी जाने जाते हैं।

गंगा घाट वाराणसी
काशी के गंगा घाट

काशी के घाट

वाराणसी के प्रत्येक गंगा घाट की अपनी एक रोचक कथा है। इनके नामों से इनके संबंधों व कथाओं की झलक अवश्य प्राप्त होती है किन्तु वे सभी सतही स्तर के तथ्य हैं। वाराणसी में अनेक शासकों का साम्राज्य रहा है। यहाँ अनेक संतों एवं ऋषि-मुनियों ने भी तपस्या की है। उन सब से गंगाजी के इन घाटों का प्रगाढ़ संबंध रहा है। इसलिए घाटों के नाम केवल नाम नहीं है अपितु स्वयं में अनेक गूढ़ रहस्यों के भण्डार को समेटे हुए हैं। जिस प्रकार किसी भी जीवंत स्थल का स्वरूप निरंतर परिवर्तित होता रहता है, उसी प्रकार वाराणसी के घाटों के नाम, आकार व रूप में भी सतत परिवर्तन होता रहा है।

गंगा घाट से सम्बंधित मेरी प्रथम स्मृति मुझे मेरे बालपन में ले जाती है जब हम यहीं वाराणसी में निवास करते थे। हम घाट की सीढ़ियाँ उतरते थे, नौका में बैठकर नदी में भ्रमण करते थे, मछलियों को दाना खिलाते थे तथा नदी को पार कर रामनगर दुर्ग के दर्शन के लिए जाते थे। इतने वर्षों पश्चात आज भी मैं जब काशी दर्शन के लिए यहाँ आती हूँ, मैं इन घाटों पर चलती हूँ। इन नौकाओं एवं मल्लाहों से ऐसे बतियाती हूँ जैसे बालपन के सखा आपस में बतियाते हैं।

घाट किसे कहते हैं?

घाट नदी के वे सुन्दर तट होते हैं जहाँ कुछ सीढ़ियाँ होती हैं जो नदी को नगर से जोड़ती हैं। घाट पर इतनी सीढ़ियाँ होती हैं कि भले ही वर्षा के कारण नदी का जल सतह कितना भी ऊपर-नीचे हो जाए, ये सीढ़ियाँ हमें जल तक ले जाती हैं। वाराणसी के घाट भक्तों को गंगाजी के पवित्र जल तक ले जाने का पावन दायित्व निभाते हैं।

भारत की लगभग सभी पावन नदियों के तट पर घाट बने हुए हैं जिसके द्वारा भक्तगण नदियों के जल तक आसानी से पहुँच सकते हैं। इसी प्रकार के सुन्दर घाट नर्मदा नदी के तट पर भी बने हुए हैं। इसका एक उदहारण है, महेश्वर के मनमोहक घाट। यमुना नदी के तट पर मथुरा में भी सुन्दर घाट हैं।

प्रातः काल काशी में गंगा घाट
प्रातः काल काशी में गंगा घाट

वाराणसी में गंगा की एक विशेषता है कि वह यहाँ उत्तर दिशा की ओर बहती है जबकि उसका प्राकृतिक बहाव दक्षिण दिशा की ओर है। इसी सम्बन्ध में एक लोकप्रिय कहावत है, ‘काशी में तो गंगा भी उल्टी बहती है’। संस्कृत में इसे उत्तरवाहिनी कहते हैं, अर्थात् जो उत्तर दिशा की ओर बहती है, मानो समुद्र में विलीन होने से पूर्व वह अपने उद्गम स्थल का, हिमालय का एक अंतिम दर्शन कर रही हो।

काशी के अर्धचन्द्राकार घाट एवं उस पर स्थित अनेक मंदिर ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वहाँ गंगा को घेरती हुई एक विशाल अर्धचन्द्राकार मुक्ताकाश रंगभूमि हो। इनके एक ओर जल है तथा दूसरी ओर बड़ी संख्या में मंदिर के शिखर, आश्रम एवं महल हैं। इनके मध्य है, दोनों ओर के जीवन को जोड़ती कुछ सीढ़ियाँ।

वाराणसी के घाटों पर धार्मिक एवं पर्यटन आकर्षण

वाराणसी के घाटों पर कौन कौन सी भक्ति व पर्यटन संबंधी गतिविधियाँ आयोजित की जाती है? यह जानने के लिए यह समझना आवश्यक है कि वाराणसी का गंगा घाट वास्तव में वाराणसी के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक तंत्र का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक एवं पर्यटन संबंधी आकर्षण उपलब्ध हैं।

गंगा जल पर नौका सवारी

वाराणसी में गंगा जल पर नौका की सवारी करना एक अत्यंत लोकप्रिय गतिविधि है। मुझे नौका सवारी के लिए सूर्योदय का समय अत्यंत प्रिय है जब सूर्य की प्रथम किरणें घाटों एवं वहाँ स्थित अनेक मंदिरों के शीर्ष पर पड़ना आरम्भ होती हैं। एक ओर जहाँ सूर्य की प्रथम किरणें गंगा के जल को स्वर्णिम आभा प्रदान करती हैं, वहीं दूसरी ओर मंदिरों से आती घंटियों एवं मंत्रोच्चारणों के मधुर स्वर सम्पूर्ण वातावरण को पावन कर देते हैं। यह अनुभव इतना अविस्मरणीय होता है कि इसे प्राप्त करने के लिए प्रातः शीघ्र उठना तनिक भी कष्टकारक प्रतीत नहीं होता है।

नौका विहार करते हुए आप खरीददारी भी कर सकते हैं।

गंगा घाटों पर पैदल सैर

घाटों पर पैदल विचरण करना ऐसा अद्भुत अनुभव है मानो हम गंगा माँ, काशी तथा यहाँ उपस्थित ब्रह्मांडीय उर्जा से एकाकार हो रहे हों। उनके अस्तित्व को अंतर्मन में अनुभव कर रहे हों।

यहाँ आप सम्पूर्ण विश्व से आये भक्तों एवं तीर्थयात्रियों से भेंट कर सकते हैं। दूर-सुदूर से आये साधू गण एवं यहाँ साधना रत अनेक साधू-सन्यासियों से चर्चा कर सकते हैं। कौन जाने किस विद्वत व्यक्तित्व से आपकी भेंट हो जाए। मेरे लिए यहाँ आना सदा ही नित-नवीन ज्ञान का स्त्रोत रहा है।

सुन्दर भित्ति चित्रों को निहारें

घाट की भित्तियों पर धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखित कथा, दृश्य, व्यंग-चित्र, दोहे, चौपाइयाँ एवं आधुनिक कहावतें चित्रित हैं। ये चित्र आध्यात्म एवं रुढ़िमुक्त मानसिकता का रोचक सम्मिश्रण प्रस्तुत करते हैं। वाराणसी एक ऐसा नगर है जिसके घाट विपरीत मानसिकता को भी पूर्ण सहजता से स्वयं में आत्मसात कर लेते हैं।

वाराणसी के प्रातःकालीन आकर्षण

वाराणसी के घाटों पर प्रातःकाल के समय आप पैदल विचरण कर सकते हैं, योग, ध्यान आदि कर सकते हैं, स्नानादि कर यज्ञ-अनुष्ठान कर सकते हैं तथा कई सांस्कृतिक आयोजनों में भाग भी ले सकते हैं। इसके लिये आपको प्रातः शीघ्र उठकर घाट पर पहुँचना होगा।

गंगा आरती

वाराणसी के घाटों का सर्वाधिक लोकप्रिय आकर्षण यही है, गंगा मैय्या की आरती। पूर्व में यह आरती केवल दशाश्वमेध घाट पर ही की जाती थी किन्तु अब गंगा की आरती वाराणसी के अनेक घाटों पर की जाती है। दशाश्वमेध घाट पर देखें तो इस एक घाट पर भी कई स्थानों पर यह आरती की जाती है।

दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती
दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती

यह नयन सुख प्रदान करने वाला दृश्य तो होता ही है, साथ ही एक अद्भुत व सम्मोहित कर देने वाला अनुभव होता है। इसे जानने के लिए इसे देखना व इसका अनुभव करना ही एकमात्र पर्याय है।

पुरोहित के सहयोग से पूजा आराधना संपन्न करना

काशी में अनेक भक्तगण इसलिए भी आते हैं कि वे गंगा घाट पर अपने पूर्वजों के लिए तर्पण कर सकें व पूजा-अर्चना कर सकें। अपने कष्ट के निवारण हेतु भी यहाँ पूजा-अर्चना की जाती है।

आईये, अब वाराणसी के कुछ लोकप्रिय घाटों से आपका परिचय कराती हूँ।

वाराणसी के सर्वाधिक लोकप्रिय गंगा घाट

दशाश्वमेध घाट

वाराणसी के अर्धचन्द्राकार तट के मध्य में जो घाट है, उसका नाम दशाश्वमेध घाट है। वाराणसी का मुख्य मार्ग इसी घाट तक आता है। यह वाराणसी का सर्वाधिक लोकप्रिय गंगा घाट है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस घाट पर काशी के राजा दिवोदास के लिए ब्रह्माजी ने १० अश्मेध यज्ञ किये थे। इसीलिए इसका नाम दशाश्वमेध घाट पड़ा। इस घटना के सम्मान में यहाँ ब्रह्मेश्वर नामक एक मंदिर भी है। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार पुरातन काल में यहाँ घोड़ों का व्यापार किया जाता था। कहा जाता है कि यहाँ घोड़े की एक मूर्ति भी थी जो अब खो चुकी है।

इस घाट की लोकप्रियता के मुख्य कारण हैं, सुगम मार्ग, काशी विश्वनाथ मंदिर व अन्नपूर्ण मंदिर से निकटता तथा अत्याकर्षक गंगा आरती। यहाँ का एक अन्य रोचक दृश्य है, भक्तों को विभिन्न अनुष्ठानों में सहायता करते बेंत की छतरियां हाथ में लिए काशी के पंडित। आरती के समय वे निकट के मंदिरों में आरती में भाग लेने में भी आपकी सहायता करते हैं।

असि घाट

यह वाराणसी का दक्षिणतम घाट है जो असि नदी एवं गंगा नदी के संगम पर स्थित है। यहाँ की विशेषता है, संगमेश्वर महादेव मंदिर। पूर्व में यह एक कच्चा घाट था। हाल ही में यहाँ का घाट पक्का किया गया है। प्रत्येक प्रातःकाल यहाँ सुबह-ए-बनारस कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। यज्ञशाला में विभिन्न यज्ञ किये जाते हैं। संध्या के समय गंगा की आरती की जाती है।

असि घाट पुस्तकों की दुकानों तथा भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजनों की दुकानों के लिए भी लोकप्रिय है। मुझे यहाँ का भुना हुआ दाना अत्यन्य प्रिय है जो संध्या के समय मिलता है। इमारतों की छतों पर स्थित आधुनिक जलपानगृहों में उपलब्ध पिज्जा भी मुझे प्रिय है। यहाँ स्थित Pilgrim Book House पुस्तक प्रेमियों को आनंदित कर देता है। यहाँ वाराणसी नगर से सम्बंधित भी अनेक पुस्तकें हैं।

इस घाट से लगा हुआ गंगा महल घाट है जो काशी के राजपरिवार का घाट है।

पंच गंगा घाट

ऐसी मान्यता है कि पंचगंगा घाट पर पांच नदियों का संगम होता है, गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण एवं धूतपापा। इसमें से केवल गंगा नदी दृश्यमान है। अन्य नदियों के विषय में मान्यता है कि वे अस्तित्व में होते हुए भी मानवी नेत्रों द्वारा दृश्यमान नहीं हैं।

यह एक प्राचीन घाट है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में इसके विषय में उल्लेख किया गया है। यह घाट मुझे संत कबीर की जीवनी का स्मरण करता है। संत कबीर की उनके गुरु रामानंद से प्रथम भेंट इसी घाट की सीढ़ियों पर एक प्रातः हुई थी।

संत तुलसीदास ने भी उनकी प्रसिद्ध कृति विनय पत्रिका की रचना इसी घाट पर बैठकर की थी। इस घाट के दीर्घकालीन इतिहास की झलक आप यहाँ बने भित्तिचित्रों पर देख सकते हैं।

तुलसी घाट

इस घाट का नामकरण संत तुलसी दासजी पर किया गया है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस एवं हनुमान चालीसा जैसी महान कृतियाँ हमें प्रदान की हैं जिनके कुछ भाग उन्होंने इसी घाट पर बैठकर रचे हैं। गंगा नदी के समक्ष स्थित उनका निवास स्थान आप देख सकते हैं। यह एक शांति प्रदायक स्थान है जो ध्यान लगाने व शांत चित्त होकर कुछ लिखने की प्रेरणा देते हैं।

तुलसी घाट के निकट तुलसी अखाड़ा भी है जहाँ आप पहलवानी एवं कुश्ती करते खिलाड़ियों को अभ्यास करते देख सकते हैं।

सांस्कृतिक रूप से भी यह घाट अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ रामलीला का आयोजन किया जाता है। निकट ही संकट मोचन मंदिर है। यहाँ ध्रुपद मेला नामक एक पांच-दिवसीय संगीत उत्सव भी आयोजित किया जाता है।

तुलसी घाट के निकट भदैनी घाट है जहाँ धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण लोलार्क कुण्ड स्थित है। यहाँ चामुंडा देवी एवं महिषासुरमर्दिनी के मंदिर भी हैं।

केदार घाट

ऐसी मान्यता है कि काशी नगर भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। त्रिशूल के तीन शीर्ष को दर्शाते तीन मंदिर हैं, केदारेश्वर, विश्वेश्वर अथवा काशी विश्वनाथ एवं ओंकारेश्वर। इनमें से केदारेश्वर मंदिर गंगा नदी के तट पर स्थित होते हुए गंगा से निकटतम दूरी पर स्थित है। इसी कारण इस घाट का नाम भी केदार घाट पड़ा। केदारेश्वर मंदिर काशी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।

विजयनगर, तुलसी, केदार एवं प्रयाग घाट
विजयनगर, तुलसी, केदार एवं प्रयाग घाट

स्कन्द पुराण के काशी खंड में इसका उल्लेख भी किया गया है।

राज घाट

पुरातात्विक एवं साहित्यिक सूत्र इस ओर संकेत करते हैं कि आरंभिक काल में वाराणसी नगर इसी घाट के आसपास बसा हुआ था। नगर के दक्षिणी भाग पर आनंद कानन स्थित था जो भगवान शिव का प्रिय वन था। कालांतर में वाराणसी नगर इन घाटों के निकट विकसित होते होते असि घाट तक पहुँच गया तथा उसके भी पार पहुँच गया। वर्तमान में राज घाट इन घाटों की उत्तरी सीमा को दर्शाता है जहाँ गंगा के ऊपर मालवीय सेतु बनाया गया है।

गायघाट

किसी समय इस घाट पर गायें जल पीने के लिए आती थीं। मैं यहाँ मुखनिर्मालिका गौरी के दर्शन करने आती थी जिनका मंदिर इस घाट पर हनुमान मंदिर में स्थित है। चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिवस इनकी पूजा का विशेष महत्त्व है। वाराणसी की सुप्रसिद्ध गुलाबी मीनाकारी की वस्तुएं भी यहाँ उपलब्ध हैं।

वाराणसी के अग्नि घाट

मणिकर्णिका घाट

मणिकर्णिका घाट वाराणसी के इन दो घाटों में से एक है जहाँ चौबीसों घंटे चिताएं जलती रहती हैं। इस घाट को यह नाम यहाँ स्थित मणिकर्णिका कुण्ड से प्राप्त हुआ है जिसके विषय में मान्यता है कि यह कुण्ड वाराणसी में गंगा के आने के पूर्व से स्थित है।

काशी के घाटों से माँ गंगा
काशी के घाटों से माँ गंगा

इस कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने यहाँ भगवान शिव एवं देवी पार्वती के स्नान के लिए एक कुण्ड की रचना की थी। एक बार स्नान करते समय माता पार्वती के कान का एक मणि जड़ित कुंडल इस कुण्ड में गिर गया। इसी कारण इस कुण्ड का नाम पड़ा, मणिकर्णिका।

इस घाट पर विष्णु भगवान ने भी तप किया था। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव उन मानवों को तारक मंत्र प्रदान करते हैं जिनकी मृत्यु वाराणसी के पावन धरती पर होती है। यह मंत्र उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करता है। वाराणसी के सम्पूर्ण घाट के लगभग मध्य में स्थित इस घाट को बिना देखे आप यहाँ से जा नहीं सकते।

हरिश्चंद्र घाट

मैसूर घाट एवं गंगा घाट के मध्य स्थित यह हरिश्चंद्र घाट भी दिवस-रात्रि प्रज्वलित होता रहता है। यह काशी के दो अग्नि घाटों में से अपेक्षाकृत पुरातन है।

इस घाट का नामकरण अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया है जो सदा सत्यवादी होने एवं किसी भी मूल्य पर अपने वचन का पालन करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी कथा के अनुसार राजा हरिश्चंद्र ने ऋषि विश्वामित्र को दिए गए अपने वचन का पालन करने के लिए अपनी पत्नी एवं पुत्र की नीलामी कर दी तथा स्वयं इस स्मशान घाट पर चिता जलाने का कार्य करने लगे। यह कथा प्रभु श्री राम के काल से पूर्व, कदाचित त्रेता युग की है। इसका अर्थ है कि यह घाट अत्यंत प्राचीन है।

मणिकर्णिका घाट के समान यहाँ भी दिवस-रात्रि चिताएं जलती रहती हैं। नौका सवारी के समय आप इस घाट को स्पष्ट देख सकते हैं। वृद्ध केदार का मंदिर भी इसी घाट पर स्थित है।

काशी के राजसी गंगा घाट

सम्पूर्ण भारत के अनेक राज परिवारों के सदस्य काशी यात्रा पर आते रहे हैं। काशी में उन सभी राज परिवारों के निजी स्वामित्व के भूभाग हैं जो अधिकांशतः गंगा के सानिध्य की अभिलाषा में इन घाटों के निकट स्थित हैं। आईये वाराणसी के ऐसे ही कुछ राजसी घाटों का भ्रमण करते हैं।

चेत सिंग घाट

इस घाट का निर्माण १८वीं सदी में काशी नरेश चेत सिंग ने करवाया था। उनका गढ़ अथवा महल इसी घाट पर स्थित है। देव दीपावली के दिवस इस घाट पर वाराणसी के पौराणिक व ऐतिहासिक महत्त्व पर लेजर प्रदर्शन किया जाता है।

यह घाट १८वीं सदी में काशी नरेश चेत सिंग एवं अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग के मध्य हुए युद्ध का साक्षी भी रहा है। यह घाट एवं समीप स्थित प्रभु घाट, ये दोनों अब काशी राज परिवार के निजी घाट हैं।

मान मंदिर घाट

यह वाराणसी के सर्वाधिक सुन्दर घाटों में से एक है जिसका निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंग जी ने सन् १७७० में करवाया था। महाराजा मान सिंग द्वारा निर्मित ५ खगोलशास्त्रीय वेधशालाओं में से पांचवीं वेधशाला यहाँ स्थित है। इन पाँचों वेधशालाओं को जंतर-मंतर कहा जाता है। मुझे बताया गया कि यहाँ स्थित संग्रहालय शाश्वत नगर काशी के विषय में अविस्मरनीय अनुभव प्रदान करता है।

नेपाली घाट

नेपाली घाट का निर्माण नेपाल के राजाओं ने करवाया था। इसी कारण यहाँ काठमांडू घाटी की शैली में निर्मित भगवान पशुपतिनाथ जी का एक अप्रतिम काष्ठ मंदिर है। इसे नेपाली मंदिर भी कहते हैं। मंदिर के संरक्षण का कार्य भी नेपाल सरकार करती है।

ग्वालियर घाट

पूर्व में यह घाट पंचगंगा का एक भाग रहे जटार घाट का एक अंग था। १९वीं सदी में ग्वालियर के महाराज जीवाजी राव सिंधियाजी ने इस घाट का जीर्णोद्धार कराया था जिसके पश्चात इस पक्के घाट को ग्वालियर घराने की पहचान प्राप्त हुई।

बाजीराव घाट

इस घाट का निर्माण महाराष्ट्र के बिठुर के बाजीराव पेशवाजी ने सन् १८२९ में करवाया था। इस घाट पर भगवान शंकर का एक प्राचीन मंदिर भी है।

पंचकोट घाट

प्रभु घाट के उत्तरी छोर पर स्थित इस घाट का एवं इस घाट पर स्थित एक लघु राज महल का निर्माण १९वीं सदी में बंगाल के पंचकोट रियासत के राजा ने करवाया था। यहाँ शिव एवं काली के मंदिर भी हैं किन्तु धार्मिक अनुष्ठानों की दृष्टि से यह घाट अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।

कर्णाटक घाट

यह घाट मैसूर रियासत के स्वामित्व के अंतर्गत आता है। इस घाट पर सति को समर्पित एक मंदिर भी है।

विजयनगरम घाट

दक्षिण भारत के विजयनगरम राजाओं द्वारा इस घाट का जीर्णोद्धार किया गया था। इस घाट पर करपात्री जी महाराज ने अपने करपात्री आश्रम में निवास किया है।

राणा महल घाट

इस घाट का निर्माण उदयपुर के राणा ने करवाया था। उदयपुर के राणाओं का ठेठ राजस्थानी शैली में निर्मित एक महल भी यहाँ स्थित है।

दरभंगा घाट

दशाश्वमेध घाट एवं राणा महल घाट के मध्य स्थित इस घाट का नाम दरभंगा के राजपरिवार के नाम पर रखा गया है जिन्होंने इस घाट का निर्माण करवाया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने यहाँ गंगा के तट पर एक भव्य महल का भी निर्माण करवाया था जिसे अब एक लोकप्रिय अतिविलासी होटल में परिवर्तित किया गया है। मैंने इस महल रूपी होटल को भीतर से भी देखा है। यह भीतर से अत्यंत आकर्षक है तथा यहाँ से गंगा एवं उसके घाटों का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है।

अहिल्याबाई घाट

मालवा की रानी अहिल्याबाई होलकर ने १८वीं सदी में वाराणसी के अनेक घाटों का जीर्णोद्धार करवाया है। यह घाट उन्ही में से एक है। पूर्व में इसे केवलागिरी के नाम से जाना जाता था। अब इसका नामकरण अहिल्याबाई घाट किया गया है।

बद्री शीतला माता, केदार एवं मुंशी घाट
बद्री शीतला माता, केदार एवं मुंशी घाट

रानी अहिल्याबाई ने काशी विश्वनाथ मंदिर एवं मणिकर्णिका घाट का भी पुनरुद्धार किया था। इस घाट पर भी एक महल है। मेरा अनुमान है कि मालवा के राज परिवार के सदस्य जब भी काशी यात्रा पर आते थे, तब वे इसी महल में निवास करते थे।

देवी-देवताओं से सम्बन्धित गंगा घाट

ललिता घाट / राजराजेश्वरी घाट

इस घाट का नामकरण काशी नगर में स्थित नौ गौरी मंदिरों में से एक, ललिता गौरी के नाम पर किया गया है।

चौसट्टी घाट

यह घाट ६४ योगिनियों को समर्पित है। समीप ही ६४ योगिनी मंदिर स्थित है। चौसट्टी देवी को जागृत पीठों में से एक माना जाता है।

त्रिपुरा भैरवी घाट

इस घाट को वाराही घाट भी कहते हैं। घाट की ओर आते मार्ग पर त्रिपुरा भैरवी का एक प्राचीन मंदिर है। इस घाट के समीप ही आदि वाराही मंदिर स्थित है। घाट पर दयानंद गिरिजी का मठ भी है। चैत्र एवं शारदीय नवरात्रि में अनेक भक्तगण इस घाट पर आते हैं।

संकटा घाट

संकटा देवी के प्रसिद्ध मंदिर के नाम पर इस घाट का नाम संकटा घाट पड़ा है। इसके आसपास सिद्धिदात्री, यमेश्वर एवं यमादित्य के भी मंदिर हैं।

मंगला गौरी घाट

मंगला गौरी मंदिर एवं मंगल विनायक मंदिर के कारण इस घाट का नाम मंगला गौरी घाट रखा गया।

जानकी घाट

इस घाट का निर्माण सुरसंड (सीतामढ़ी) ने करवाया था। यहाँ सीताजी को समर्पित एक मंदिर है। इसीलिए इस घाट को जानकी घाट कहते हैं।

हनुमान घाट

इस घाट पर हनुमानजी एवं नवग्रह के मंदिर हैं। इसके समीप स्थित घाट को पुराना हनुमान घाट कहते हैं जहाँ मान्यताओं के अनुसार, भगवान श्री राम, उनके तीन भ्राताओं, सीताजी एवं हनुमानजी द्वारा निर्मित शिवलिंग स्थापित हैं।

नारद घाट

ऐसी मान्यता है कि इस घाट पर नारदजी ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इसीलिए इस घाट को नारद घाट कहते हैं। कालांतर में यहाँ दत्तात्रय मठ की भी स्थापना की गयी थी।

शीतला घाट

इस घाट पर शीतला माता का मंदिर है। यह घाट प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट के निकट स्थित है।

गणेश घाट

पूर्व में यह घाट विघ्नेश्वर घाट के नाम से जाना जाता था। कालांतर में पेशवाओं ने यहाँ गणेश मंदिर का निर्माण करवाया था जिसके पश्चात् इसे गणेश घाट कहा जाता है।

राम घाट

इस घाट पर स्थित राम पंचायतन मंदिर के कारण इस घाट को राम घाट कहते हैं।

वेणीमाधव घाट / बिंदुमाधव घाट

प्राचीन काल से इस घाट को बिंदुमाधव घाट के नाम से जानते हैं। इस घाट पर बिंदुमाधव भगवान विष्णु का मंदिर स्थापित था जो यहाँ का विशालतम विष्णु मंदिर था। औरंगजेब ने इस मंदिर को नष्ट कर यहाँ एक मस्जिद का निर्माण कर दिया था। अब यह मंदिर समीप ही एक गली में स्थित है।

दुर्गा घाट

यह घाट ब्रह्मचारिणी मंदिर के निकट स्थित है। यह घाट काशी की नवदुर्गा यात्रा का एक भाग है।

ब्रह्मा घाट

इस घाट का नाम ब्रह्मेश्वर मंदिर के नाम पर रखा गया है। यह ब्रह्माजी से संबंधित दूसरा घाट है। यहाँ गौड़ सारस्वत ब्राह्मण कुल का काशी मठ भी स्थापित है।

बद्रीनारायण घाट

इस घाट पर बद्रीनारायण मंदिर है जो गढ़वाल पहाड़ियों पर स्थित बद्रीनाथ मंदिर के समान है। पूर्व में यह महता घाट के नाम से जाना जाता था। इस घाट के समक्ष गंगा को नर-नारायण तीर्थ सदृश माना जाता है।

नंदी घाट

इस घाट का नाम भगवान शिव के वाहन नंदी पर रखा गया है।

शिवाला घाट

इस घाट पर भगवान शिव का एक मंदिर है। यह घाट पूर्व काशी नरेश की निजी संपत्ति है।

प्रह्लाद घाट

इस घाट का नाम भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद पर रखा गया है। ऐसी मान्यता है कि इस घाट के समीप ही भगवान विष्णु ने दैत्य हिरण्यकश्यप से प्रह्लाद के प्राणों की रक्षा की थी। इस घाट पर प्रह्लादेश्वर शिव, प्रह्लाद केशव, विष्णु, शीतला, नृसिंह आदि देवताओं के मंदिर हैं। इस घाट के समक्ष गंगा को बाण तीर्थ माना जाता है।

आदिकेशव घाट

आदि केशव घाट काशी का प्राचीन विष्णु तीर्थ माना जाता है। गंगा- वरुणा संगम स्थल पर स्थित इस उत्तरतम घाट का उल्लेख स्कन्द पुराण में भी किया गया है। यहाँ आदिकेशव मंदिर समूह है जिनमें आदिकेशव, ज्ञानकेशव, पंचदेवता एवं संगमेश्वर मंदिर हैं।

मन मंदिर घाट और घाटों का परिदृश्य
मन मंदिर घाट और घाटों का परिदृश्य

काशी में संतों के गंगा घाट

आनंदमयी घाट

पूर्व में यह घाट इमलिया घाट के नाम से जाना जाता था। सन् १९४४ में प्रसिद्ध साध्वी माता आनंदमयी ने इस स्थान को अंग्रेजों से क्रय किया तथा यहाँ एक विशाल आश्रम की स्थापना की।

निरंजनी घाट

इस घाट पर नागा साधुओं का निरंजनी अखाड़ा है। यहाँ चार मंदिर हैं। एक मंदिर में निरंजनी महाराज की पादुकाएं हैं। अन्य मंदिर दुर्गा, गौरी-शंकर, कार्तिकेय एवं गंगा माता को समर्पित हैं।

महानिर्वाणी घाट

यह घाट निरंजनी घाट के पूर्व में स्थित है। इसका संबंध नागा साधुओं के महानिर्वाणी सम्प्रदाय से है। यहाँ उनका प्रसिद्ध अखाड़ा भी है। इसके भीतर चार शिव मंदिर हैं जिनका निर्माण नेपाल नरेश ने करवाया था। ऐसी मान्यता है कि ७वीं सदी में सांख्य दर्शन के आचार्य कपिल मुनि ने यहाँ निवास किया था। ऐसी भी मान्यता है कि इस घाट पर भगवान बुद्ध ने स्नान किया था।

लाली घाट

चंपारण के लाली बाबा के नाम पर इस घाट को लल्ली अथवा लाली घाट कहते हैं। यहाँ उनका गुदरदास अखाड़ा भी है।

वाराणसी के सम्प्रदाय विशेष गंगा घाट

जैन घाट

७वें जैन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथजी का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनका जन्मस्थान वाराणसी के इस घाट के समीप था। इस घाट पर एक श्वेताम्बर जैन मंदिर है जिसके कारण इस घाट का नाम जैन घाट पड़ा है।

निषादराज घाट

घाट क्षेत्र में निषाद मल्लाह जाति के लोगों की बहुलता है। निषाद समाज से ही परिचय प्राप्त इस घाट को निषाद घाट कहा जाता है। रामायण में निषादराज का चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे एक मल्लाह थे, मल्लाहों के राजा थे तथा श्री राम के परम भक्त व मित्र थे। उन्ही की स्मृति में इस घाट पर निषादराज का मंदिर भी स्थित है।

काशी के अन्य गंगा घाट

प्रयाग घाट

वाराणसी में प्रयाग घाट की अनुपम धार्मिक महत्ता है। इस घाट को तीर्थराज प्रयाग के रूप में मान्यता प्राप्त है। हिन्दू धर्म में ऐसी परंपरा रही है कि सभी प्रमुख तीर्थों की अन्य तीर्थों में भी उपस्थिति मानी जाती है।

काशी में प्रयाग तीर्थ की उपस्थिति इस घाट में मानी जाती है। इस घाट पर शूलटंकेश्वर, प्रयागेश्वर, ब्रह्मेश्वर, लक्ष्मी-नारायण आदि मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि दस अश्वमेध यज्ञ की समाप्ति पर ब्रह्मा ने इस घाट पर ब्रह्मेश्वर लिंग की स्थापना की थी।

राजेंद्र प्रसाद घाट – यह घाट भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को समर्पित है।

लाल घाट

इस घाट को सन् १९३५ में राजा बलदेव दास बिड़ला ने क्रय किया था। इस घाट पर गोप्रेक्षेश्वर शिव एवं गोपीगोविन्द मंदिर हैं। इस घाट पर बलदेव दास बिड़ला संस्कृत विद्यालय, छात्रावास एवं बिड़ला धर्मशाला भी स्थित हैं।

वाराणसी के घाटों एवं उनकी महत्ता को जानने में पूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सकता है। यह अनुभव ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म जगत का अनुभव लेने जैसा है।

वाराणसी के गंगा घाटों के दर्शन के लिए कुछ यात्रा सुझाव

  • वाराणसी के सभी घाट एक भूतल स्तर पर स्थित नहीं हैं। सभी घाटों के भ्रमण के लिए आपको ऊँची चढ़ाई युक्त सीढ़ियाँ चढ़नी-उतरनी पड़ेगी। इसलिए सुविधाजनक जूते धारण करें। ऊपर-नीचे पैदल चलने की मानसिक तैयारी भी आवश्यक है।
  • सम्पूर्ण घाट भ्रमण को आप भागों में बाँट सकते हैं। जैसे, एक भ्रमण असि घाट की ओर, दूसरा भ्रमण दशाश्वमेध घाट के आसपास तथा तीसरा उत्तरी घाटों की ओर।
  • घाटों के भ्रमण के लिए प्रातःकाल एवं संध्या का समय सर्वोत्तम होता है।
  • वर्षा काल में वाराणसी के घाटों का अधिकांश भाग जलमग्न हो जाता है। उस समय घाटों पर भ्रमण सुगम नहीं होता। अतः अपनी वाराणसी यात्रा नियोजित करने से पूर्व इन तथ्यों को ध्यान में रखें।
  • घाटों पर भिन्न भिन्न प्रकार के श्रद्धालु विभिन्न पूजा-अनुष्ठान व साधना करते रहते हैं। हो सकता है कि आपको उनकी साधना अथवा अनुष्ठान समझने में कठिनाई हो, फिर भी उनके प्रयासों एवं भावनाओं का आदर करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गंगा तट पर रामनगर दुर्ग वाराणसी का एक दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/ramnagar-durg-ganga-varanasi/ https://inditales.com/hindi/ramnagar-durg-ganga-varanasi/#respond Wed, 21 Jun 2023 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3089

काशी अथवा वाराणसी, बाबा विश्वनाथ की पवित्र नगरी, भगवान शिव जिसके राजा माने जाते हैं। काशी या वाराणसी की पावन नगरी में प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में पर्यटक, दर्शनार्थी, तीर्थयात्री एवं भक्तगण आते हैं। बहुधा इन सभी यात्रियों का प्रमुख ध्येय काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा विश्वनाथ के दर्शन, उनकी पूजा-अर्चना एवं अनुष्ठान आदि होता […]

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काशी अथवा वाराणसी, बाबा विश्वनाथ की पवित्र नगरी, भगवान शिव जिसके राजा माने जाते हैं। काशी या वाराणसी की पावन नगरी में प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में पर्यटक, दर्शनार्थी, तीर्थयात्री एवं भक्तगण आते हैं। बहुधा इन सभी यात्रियों का प्रमुख ध्येय काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा विश्वनाथ के दर्शन, उनकी पूजा-अर्चना एवं अनुष्ठान आदि होता है। इन सब अनुष्ठानों के पश्चात यदि उनके पास कुछ समय हो तो उनके लिए मेरा एक रोचक सुझाव है। रामनगर दुर्ग एवं राजवाड़ा, जो वाराणसी में गंगा नदी के पार स्थित एक रोचक व दर्शनीय स्थल है।

गंगा के पार रामनगर

गंगा के दूसरी ओर, पूर्वी तट पर रामनगर नाम का एक छोटा सा नगर है। यह गंगा नदी के तुलसी घाट के ठीक समक्ष, नदी के उस पार स्थित है। रामनगर में इसी नाम का एक दुर्ग है जो काशी नरेश का अधिकारिक निवास स्थान है। मैंने अपने बालपन में इस दुर्ग का भ्रमण किया था। मेरी इस दुर्ग की अत्यंत मधुर स्मृतियाँ हैं। एक घाट से दूसरे घाट तक नौका की सवारी करना, मछलियों को दाना देते हुए गंगा नदी पार करना, रामनगर में एक पूर्ण दिवस आनंद से व्यतीत करना आदि।

रामनगर दुर्ग - वाराणसी
गंगा किनारे रामनगर दुर्ग

दुर्ग के भीतर स्थित संग्रहालय की मेरी जो सर्वाधित जीवंत स्मृति है, वह है रानी का एक भारी लहंगा। यह लहंगा भव्यता व अलंकरण में तो भारी था ही, शाब्दिक अर्थ में भी वह एक भारी लहंगा था। उसका भार लगभग २० किलोग्राम था। उस समय मेरी तीव्र अभिलाषा हुई थी कि किसी दिन मुझे यह लहंगा धारण करने का अवसर प्राप्त हो। अब मुझे समझ में आता है कि मेरी अभिलाषा कितनी असंभव अभिलाषा थी। इसके पश्चात भी, इस बार जब मैं इस दुर्ग के दर्शन करने यहाँ आयी, मुझमें उस लहंगे को देखने की इच्छा पुनः उत्पन्न हुई। अब मैं उसे परिपक्व मनःस्थिति एवं  प्रशिक्षित नेत्रों से देखना चाहती थी। किन्तु मुझे बड़ी निराशा हुई क्योंकि इस समय वह लहंगा सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए उपलब्ध नहीं था।

रामनगर दुर्ग

इस दुर्ग का निर्माण महाराजा बलवंत सिंह ने सन् १७५० में मुगल शैली में करवाया था। चुनार के बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित यह दुर्ग गंगा के बाढ़स्तर से ऊपर की धरती पर एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है। चुनार के बलुआ पत्थर वास्तव में लाल रंग के बलुआ पत्थर हैं जिन्हें सन् २०१९ से भौगोलिक संकेतक(Geographical Indicator Tag) प्राप्त है। वाराणसी के प्रसिद्ध घाटों के साथ साथ, भारत के अनेक राष्ट्रीय स्मारकों के निर्माण में इनका प्रयोग किया गया है।

रामनगर दुर्ग की बलुआ पत्थर से बनी भित्तियां
रामनगर दुर्ग की बलुआ पत्थर से बनी भित्तियां

चुनार उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले में स्थित एक नगर है जो वाराणसी से लगभग ३० किलोमीटर दूर स्थित है। १८वीं सदी में निर्मित रामनगर का यह दुर्ग गंगा के दूसरे तट पर स्थित है। इसकी संरचना में प्रयुक्त जालियां एवं छज्जे मुगल काल की वास्तु शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।

रामनगर दुर्ग के भीतर
रामनगर दुर्ग के भीतर

दुर्ग का प्रवेश द्वार यद्यपि अतिविशाल नहीं है, तथापि दुर्ग के चारों ओर, उसकी भित्तियों से लगे लस्सी एवं गन्ने के रस के ठेलों एवं आसपास के सादगीपूर्ण परिवेश की तुलना में विशेष प्रतीत होते हैं। प्रवेश द्वार के उपरी भाग को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो हाल ही में उस पर चटक नवीन बहुरंगी रंगरोगन किया गया है। वहीं, दुर्ग के अन्य भाग पीले रंग में रंगे हैं जिनके द्वार एवं झरोखे हरे रंग के हैं।

महल के भीतर एक प्रवेशद्वार राजसी ठाटबाट से ओतप्रोत है। उससे भव्यता झलकती है। महल के शेष भाग आरंभिक ब्रिटिश काल के बड़े बड़े सैनिक निवास प्रतीत होते हैं। महल के भीतर स्थित संग्रहालय, साथ ही बाहर स्थित उद्यान का रखरखाव अधिक उत्तम रीति से किया जा सकता है।

रामनगर दुर्ग व महल के दर्शनीय आकर्षण

सूर्यास्त बिंदु

दुर्ग का जो भाग गंगा तट की ओर है, वहाँ पर स्थित सीढ़ियों से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य प्राप्त होता है। अतः आप दिवस भर के पर्यटन क्रियाकलापों को सूर्यास्त से पूर्व समाप्त कर लीजिये ताकि आप यहाँ से अप्रतिम सूर्यास्त का अविस्मरणीय आनंद ले सकें।

दुर्ग का दरबार कक्ष

एक काल में जो दुर्ग का आम सभा क्षेत्र था, दरबार कक्ष था, उसे अब एक संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है। इस संग्रहालय का नाम सरस्वती भवन रखा गया है। दुर्ग भ्रमण के समय आप दुर्ग के इस क्षेत्र में कुछ समय अवश्य व्यतीत करें। यहाँ की धरोहर एवं दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह के अवलोकन का आनंद उठायें। उनमें कुछ वस्तुएं अत्यंत विशेष हैं, जैसे चित्र, प्राचीन काल की कारें जिन पर बनारस राज्य की अंक पट्टिका(number plates) लगी हुई हैं, चाँदी में उत्कीर्णित कमल की आकृति की राजसी पालकी, रत्नजड़ित आसन, उस काल के राजसी परिधान, हस्तिदंत कलाकृतियाँ, आभूषण, घरेलु साज-सज्जा की वस्तुएं, वाराणसी के महीन किम्ख्वा रेशम के परिधान, राज्य के शासकों के व्यक्तिचित्र, पुरातन चित्र, हाथियों के भव्य अलंकरण, हुक्का, संगीत वाद्य, कई अभिलेख जिनमें गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हस्तलिखित एक दुर्लभ अभिलेख भी है, अनेक दुर्लभ पुस्तकें एवं रेखांकित दृश्य।

संग्रहालय की प्रदर्शित वस्तुओं का एक बड़ा भाग सैन्य अस्त्र-शस्त्र से संबंधित है जिन्हें मैं बहुधा अपने संग्रहालय दर्शन के समय छोड़ देती हूँ। इनमें प्रमुखता से उस काल में प्रयुक्त तलवारें, भाले, बंदूकें, तोपें आदि हैं।

कुछ प्रदर्शित वस्तुओं पर काल एवं रखरखाव के अभाव का प्रभाव दिखाई देता है।

घड़ी

इस संग्रहालय का प्रमुख आकर्षण है, एक ज्योतिषीय घड़ी जिसमें हिन्दू पंचांग एवं अंग्रेजी तिथिपत्र(lunar and solar calendars) दोनों प्रदर्शित हैं। समय के अतिरिक्त उसमें सूर्य एवं चन्द्रमा की स्थितियाँ भी प्रदर्शित हैं। दोनों पंचांगों के अनुसार तिथियाँ, जन्म राशियाँ तथा नवांश भी प्रदर्शित होते हैं। इसकी स्थिति प्रतिसेकेंड बदलती है। प्रत्येक घंटे, प्रति आधे घंटे तथा प्रत्येक पंद्रह मिनट में इसमें घंटा बजता है। यह एक विशाल घड़ी है जिसे सटीक अक्षांश व देशांतर तथा समुद्र स्तर से नगर की ऊँचाई के अनुसार नियत किया गया है। एक यांत्रिक घड़ी होने के कारण, नियमित रूप से, प्रति ८ दिवसों के पश्चात इसमें कुंजी भरी जाती है।

हमने अनायास ही कल्पित कर लिया कि यह घड़ी यूरोप में कहीं निर्मित की गयी होगी। किन्तु हमें यह जानकार अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि इस घड़ी का निर्माण सन् १८७२ में वाराणसी में ही मूलचंद नाम के एक महानुभाव ने करवाया था। निर्माण के पश्चात से अब तक केवल एक अवसर पर इसे सुधारणा की आवश्यकता पड़ी थी जिसे सन् १९२३ में मुन्नीलाल नामक एक व्यक्ति ने किया था। आप सोचिये क्या वर्तमान में निर्मित कोई भी वस्तु ऐसी गारंटी देती है? मुझे अत्यंत खेद है कि मुझे उस घड़ी का छायाचित्र नहीं लेने दिया गया।

व्यास मंदिर

दुर्ग के पृष्ठभाग की भित्ति एवं गंगा नदी के मध्य दो मंदिर स्थित हैं। दोनों मंदिर महर्षी वेदव्यास जी को समर्पित हैं। व्यास मुनि की कथा कुछ इस प्रकार है। ऐसा कहा जाता है कि जब महर्षी वेदव्यासजी अपने शिष्यों सहित तीर्थयात्रा पर काशी आये थे तब कुछ दिनों तक उन्हें कहीं भी भिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी। शिष्यों को भूख से व्यथित देख वे अत्यंत क्रोधित हो गए तथा काशी को तीन पीढ़ियों तक विद्या संपत्ति एवं मुक्ति से वंचित होने का श्राप दे दिया।

व्यास मंदिर की भित्तियां
व्यास मंदिर की भित्तियां

उसी समय एक गृहिणी ने उन्हें अपने घर में भोजन के लिए आमंत्रित किया। व्यासजी के आग्रह के अनुसार उसने उनके दस सहस्त्र शिष्यों सहित उनको भोजन कराया। वस्त्र प्रदान किये। तत्पश्चात उस गृहिणी ने उनसे एक प्रश्न पूछा, तीर्थयात्रियों का धर्म क्या है? व्यासजी ने उत्तर दिया, उनका चित्त शांत एवं हृदय निर्मल होना चाहिए। गृहिणी ने पूछा कि क्या उन्होंने इस धर्म का पालन किया है। महर्षी वेदव्यास निरुत्तर हो गए। तब गृहस्थ ने उनसे कहा कि उन्होंने तीर्थयात्रियों के धर्म का अतिक्रमण किया है। अतः काशी में उनके लिए कोई स्थान नहीं है।

अपराधबोध से ग्रस्त महर्षि को ज्ञात हो गया कि गृहस्थ एवं गृहिणी कोई अन्य नहीं अपितु स्वयं भगवान शिव व देवी पार्वती हैं। वे काशी क्षेत्र को छोड़कर गंगा के उस पार चले गए तथा वहाँ अपना आश्रम बनाया। वहाँ तपस्या व ध्यान के पश्चात उन्हें ज्ञानोदय हुआ। इसलिए यह क्षेत्र अब व्यास काशी कहलाता है। कुछ लोगों की मान्यता है कि व्यास मंदिर के दर्शनों के बिना काशी यात्रा पूर्ण नहीं होती। किन्तु व्यास मंदिर में उपस्थित कुछ गिने-चुने दर्शनार्थियों को देश इस मान्यता की सत्यता पर शंका होती है।

मंदिर में तीन लिंग हैं जो काशी विश्वनाथ, व्यास मुनि एवं उनके पुत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक मंदिर की छत पर हरे-नीले रंग के पुरातन चित्र अब भी है। यहाँ से काशी के घाटों का एवं नदी के ऊपर निर्मित सेतुओं का विहंगम किन्तु धुंधला दृश्य दिखाई देता है।

अन्य मंदिर

दुर्ग परिसर के भीतर दुर्गा, दक्षिण मुखी हनुमान एवं छिन्नमस्तिका या प्रचंड चंडिका के भी मंदिर हैं।

श्वेत अटारी

दुर्ग के भीतर श्वेत रंग की दो अटारियां हैं जहाँ तक पर्यटक जा सकते हैं। अटारियों के उस पार महाराजा एवं उनके परिवार का व्यक्तिगत निवास स्थान है। वे अब भी इस दुर्ग व महल में निवास करते हैं।

दुर्ग की वास्तुशैली एवं धरोहर

दुर्ग की मिली जुली वास्तु शैली
दुर्ग की मिली जुली वास्तु शैली

इस पुरातन कालीन महल के झरोखे, उनके तोरण, छज्जे, मंडप आदि वास्तुकला में रूचि रखने वालों एवं ऐतिहासिक धरोहरों का अध्ययन करने वालों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

रामनगर दुर्ग में आयोजित विभिन्न उत्सव

रामनगर रामलीला

रामनगर दुर्ग में वाराणसी के सुप्रसिद्ध रामलीला का प्रदर्शन किया जाता है। इस प्रदर्शन की अवधि एक मास की होती है। यह आयोजन काशी नरेश की देखरेख एवं संरक्षण में किया जाता रहा है तथा अब भी किया जाता है। मुझे बताया गया कि कोई भी इस रामलीला में भाग ले सकता है।

मेरी अभिलाषा है कि मैं भी अपने जीवनकाल में इस रामलीला प्रदर्शन को देख सकूँ। इस रामलीला में प्रयोग में लाये गए परिधान एवं अन्य सामग्रियां वाराणसी के भारत कला भवन संग्रहालय में प्रदर्शित किये जाते हैं। इस महल में भी एक रामलीला संग्रहालय है। किन्तु वह उस समय बंद था। रामलीला उत्सव, दशहरा आदि के समय दुर्ग को भव्यता से प्रकाशित किया जाता है। गंगा के इस पार से तथा नौकाओं में बैठकर प्रकाशित दुर्ग का दृश्य अत्यंत आकर्षक होता है।

दुर्ग में आयोजित अन्य उत्सव हैं, माघ मास में वेद व्यास मंदिर में आयोजित उत्सव तथा फाल्गुन मास में आयोजित राज मंगल जिसमें संगीत व नृत्य प्रदर्शनों के साथ अस्सी घाट से नौकाओं की शोभायात्रा निकाली जाती है। यह शोभा यात्रा दुर्ग के सामने से होकर जाती है।

रामनगर के अन्य आकर्षण

रामनगर भारत के पूर्व प्रधान मंत्री तथा सबके प्रिय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का गृहनगर है।

दुर्ग तक कैसे पहुंचें?

वाराणसी के दशाश्वमेध घाट से नौका द्वारा नदी पार कर दुर्ग तक पहुँचने में हमें लगभग एक घंटे का समय लगा। यह वाराणसी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित है। वहाँ तक पहुँचने के अन्य साधन भी हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप स्थित पीपों के सेतु द्वारा पैदल चलकर भी दुर्ग तक पहुँच सकते हैं। इसमें आपको २ किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा, वह भी जब मानसून ना हो तथा नदी का जल स्तर अधिक ना हो। सड़क मार्ग से भी आप दुर्ग तक जा सकते हैं जिसके लिए आपको लगभग ४५ मिनट का समय लगेगा।

पर्यटन समयावधि एवं प्रवेश शुल्क

रामनगर प्रासाद
रामनगर प्रासाद

यह दुर्ग पर्यटकों के लिए प्रातः १० बजे से संध्या ५ बजे तक सम्पूर्ण सप्ताह खुला रहता है। दुर्ग में प्रवेश निशुल्क है। संग्रहालय में नाममात्र का प्रवेश शुल्क है। किन्तु नौका द्वारा पहुँचने के लिए नौका शुल्क अवश्य अधिक है। होली के दिन यह दुर्ग पर्यटकों के लिए बंद रहता है।

रामनगर दुर्ग क्यों प्रसिद्ध है?

  • रामनगर दुर्ग में एक मास के लिए रामलीला का प्रदर्शन किया जाता है जिसका समापन दशहरा उत्सव के साथ होता है।
  • यह एक ऐसा धरोहर दुर्ग तथा महल है जिसमें महाराजा एवं उनका परिवार अनवरत निवास करते आ रहे हैं।
  • दुर्ग तक पहुँचने के लिए गंगा नदी में नौका विहार स्वयं अपने आप में एक अनोखा अनुभव है।
  • वाराणसी का विहंगम दृश्य
  • गंगा नदी पर सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य
  • संग्रहालय में प्रदर्शित विभिन्न प्रकार के धरोहर संग्रह
  • रामनगर भारत के पूर्व प्रधान मंत्री तथा सबके प्रिय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का गृहनगर है। आप उनके पुश्तैनी घर के दर्शन भी कर सकते हैं।

दुर्ग भ्रमण कब करें?

दुर्ग भ्रमण के लिए शीत ऋतुकाल सर्वोत्तम है। किन्तु इस समय यहाँ पर्यटकों की भारी भीड़ होती है, विशेषतः दशहरा उत्सव के समय। ग्रीष्म काल भी दुर्ग दर्शन के लिए उत्तम है। उस समय गर्मी से बचाव के उपाय अवश्य करें। संभव हो तो मानसून या वर्षा ऋतु में यहाँ ना आयें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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काशी की नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा https://inditales.com/hindi/kashi-navaratri-navadurga-yatra/ https://inditales.com/hindi/kashi-navaratri-navadurga-yatra/#respond Wed, 22 Mar 2023 02:30:03 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3028

नवदुर्गा यात्रा! स्कन्द पुराण के काशी खंड में लिखा है कि हमें नवरात्रि में नवदुर्गा यात्रा करनी चाहिए, विशेषतः शरद नवरात्रि में जो आश्विन मास में आती है। अतः, इस समय जब मैं काशी में थी, मैंने काशी की सम्पूर्ण पावन नगरी में जितने भी प्रमुख देवी मंदिर हैं, उनके दर्शन करने का निश्चय किया। […]

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नवदुर्गा यात्रा! स्कन्द पुराण के काशी खंड में लिखा है कि हमें नवरात्रि में नवदुर्गा यात्रा करनी चाहिए, विशेषतः शरद नवरात्रि में जो आश्विन मास में आती है। अतः, इस समय जब मैं काशी में थी, मैंने काशी की सम्पूर्ण पावन नगरी में जितने भी प्रमुख देवी मंदिर हैं, उनके दर्शन करने का निश्चय किया। ये सभी देवी मंदिर वस्तुतः, एक तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित हैं जिसके द्वारा अनेक तीर्थयात्री इन देवी मंदिरों के दर्शन करते हैं, विशेषतः नवरात्रि के अवसर पर।

काशी नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा
काशी नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा

शक्ति पर लिखे अनेक ग्रंथों में देवी के नौ रूपों का उल्लेख किया गया है जिनकी आराधना नवरात्रि के नौ दिवसों में की जाती है। देवी के नौ रूप वास्तव में एक विकास चक्र है, विशेषतः प्रकृति का जीवन चक्र है, जिसकी अभिव्यक्ति शक्ति के रूप में की जाती है। देवी के सभी नौ रूपों को समर्पित एक एक मंदिर है जो वाराणसी या काशी की गलियों में स्थित हैं। ये मंदिर घाट से अधिक दूर नहीं हैं। आप इन मंदिरों तक घाट से भी जा सकते हैं तथा नगर की ओर से भी जा सकते हैं।

काशी के नवदुर्गा मंदिर
काशी के नवदुर्गा मंदिर

आईये देवी के इन नौ रूपों के दर्शन करते हैं तथा इन अभिव्यक्तियों को समझने का प्रयास करते हैं।

शैलपुत्री – हिमालय की पुत्री

माँ दुर्गा का प्रथम रूप है, शैलपुत्री, जो हिमवान की पुत्री है। शैल का अर्थ पत्थर होता है जिसका अभिप्राय यह है कि देवी अब तक सक्रिय रूप में नहीं हैं। अभी ही उनका जन्म हुआ है। उनकी जीवन यात्रा अब से आरम्भ होती है। मूर्ति शास्त्र के अनुसार उन्हें एक हाथ में त्रिशूल एवं दूसरे हाथ में कमल लिए, वृषभ पर आरूढ़ दर्शाया जाता है।

वाराणसी का शैलपुत्री मंदिर
वाराणसी का शैलपुत्री मंदिर

वाराणसी में शैलपुत्री का मंदिर उत्तर दिशा में, मढ़िया घाट के निकट स्थित है। एक संकरी गली में स्थित इस मंदिर तक आपको कोई भी रिक्शावाला ले जा सकता है। मंदिर परिसर अपेक्षाकृत छोटा है। इसके भीतर अनेक मंदिर स्थित हैं। मैं इस मंदिर में प्रातः ५ बजे ही पहुँच गयी थी। तब तक पुजारीजी भी नहीं आये थे। कुछ समय पश्चात पुजारीजी आये तथा उन्होंने मंदिर के पट खोले। इस संकुल में अनेक छोटे छोटे प्राचीन शिव मंदिर हैं। साथ ही एक हनुमान मंदिर भी है।

मुख्य मंदिर के भीतर एक शिवलिंग है जिसके समक्ष, एक मंडप के नीचे, उन्हें निहारते नंदी विराजमान हैं। शिवलिंग के एक ओर माँ शैलपुत्री की प्रतिमा है। शैलपुत्री के रूप को अबाधित रूप से निहारने के लिए आपको दूसरे द्वार पर जाना होगा।

प्रातःकाल के समय माँ शैलपुत्री के मुख को छोड़कर उनके सम्पूर्ण शरीर को एक पीले वस्त्र से ढंका हुआ था। मंदिर में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई भी दर्शनार्थी उपस्थित नहीं था। मैंने शान्ति से देवी के साथ कुछ अनमोल क्षण व्यतीत किये। ठण्ड के मौसम में प्रातः काल के समय पाए ये क्षण मेरे लिए वरदान तुल्य थे।

माँ शैलपुत्री का दर्शन नवरात्रि के प्रथम दिवस किया जाता है। मुझे बताया गया कि उस दिन मंदिर की ओर आती सभी गलियाँ भक्तों एवं दर्शनार्थियों से भर जाती हैं।

ब्रह्मचारिणी – देवी का तपस्विनी रूप

नवरात्रि के दूसरे दिवस देवी के दूसरे रूप की आराधना की जाती है जिसे ब्रह्मचारिणी कहते हैं। यह माँ पार्वती का तपस्विनी रूप है। पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोरतम तपस्या की थी। एक तपस्विनी के रूप में वे सादे वस्त्र धारण करती हैं तथा उनके एक हाथ में रुद्राक्ष की माला व दूसरे हाथ में जल से भरा कमण्डलु होता है।

काशी का ब्रह्मचारिणी मंदिर
काशी का ब्रह्मचारिणी मंदिर

काशी में माँ ब्रह्मचारिणी का मंदिर दुर्गा घाट अथवा ब्रह्म घाट के समीप स्थित है। आप इस मंदिर में घाट की ओर से आ सकते हैं अथवा नगरी की ओर से भी आ सकते हैं। इस मंदिर का परिसर भी अपेक्षाकृत छोटा है। इसकी ओर आती सभी गलियों को काशी के दृश्यों से चित्रित किया है।

मंदिर के बाहर संगमरमर के एक पटल पर ब्रह्मचारिणी मंत्र अभिलिखित है। माँ ब्रह्मचारिणी की मूर्ति भी अन्यंत मोहक है। उन्हें सुन्दर वस्त्रों, पुष्पों एवं आभूषणों से अलंकृत किया गया है। सभी देवी मंदिरों के समान इस मंदिर में भी देवी की प्रतिमा के समक्ष शिवलिंग स्थापित है।

प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिवस ब्रह्मचारिणी देवी का उत्सव, अन्नकूट महोत्सव आयोजित किया जाता है। यदि आप देवी की पूजा-अर्चना-अनुष्ठान करवाना चाहते हैं अथवा देवी का श्रृंगार करना चाहते हैं तो आप पुजारी जी से संपर्क कर सकते हैं।

चंद्रघंटा देवी – मस्तक पर घंटी के आकार का चन्द्र

चंद्रघंटा देवी का तीसरा रूप है जिसकी आराधना नवरात्रि के तीसरे दिवस की जाती है। देवी के इस रूप की विशेषता है, उनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचन्द्र। सिंह उनका वाहन है। वे अपनी दस भुजाओं में विभिन्न आयुध धारण करती हैं। साथ ही अपने भक्तों को अभय भी प्रदान करती हैं। देवी की इस मुद्रा में वे दुर्गा हैं जो अपने भक्तों की सुरक्षा एवं दुष्टों का नाश करने हेतु युद्ध के लिए उद्धत है।

देवी चंद्रघंटा मंदिर
देवी चंद्रघंटा मंदिर

काशी में माँ चंद्रघंटा का मंदिर चंदू नाई की गली में चौक के समीप स्थित है। यह गली के एक छोर पर स्थित एक छोटा मंदिर है। आप लोहे की एक जाली के मध्य से देवी के दर्शन कर सकते हैं।

मैंने मंदिर में माँ चंद्रघंटा की मुख्य मूर्ति के साथ उनके अन्य आठ रूपों की छोटी मूर्तियों के भी दर्शन किये। मंदिर के बाहर लगे सूचना पटल पर चंद्रघंटा मंदिर लिखा हुआ है। यह आपके द्वारा देखे जा रहे मंदिरों में सबसे छोटे मंदिरों में से एक है।

कूष्मांडा – ब्रह्माण्ड की रचयिता

नवरात्रि के चौथे दिवस दुर्गा के चौथे रूप की आराधना की जाती है। वे कूष्मांडा हैं जिसका अभिप्राय यह है कि उनसे ही सृष्टि उत्पन्न हुई है। उनकी आठ भुजाएं हैं जिनमें उन्होंने अनेक आयुध एवं पवित्र चिन्ह धारण किये हुए हैं। सिंह उनका वाहन है। वे अपनी स्वर्णिम आभा से दैदीप्यमान हैं। वे हिरण्यगर्भ का प्रतिनिधित्व करती हैं।

वाराणसी का सुप्रसिद्ध दुर्गा कुंड मंदिर
वाराणसी का सुप्रसिद्ध दुर्गा कुंड मंदिर

वाराणसी में उनका एक विशाल मंदिर है जो अत्यंत प्रसिद्ध है। यह मंदिर असी घाट के दक्षिणी ओर स्थित है। मंदिर के जल कुण्ड को दुर्गा कुण्ड कहते हैं। लाल रंग में रंगा यह मंदिर एक अत्यंत लोकप्रिय मंदिर है जहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है।

देवी भागवत पुराण में इस मंदिर की कथा है। उसमें अयोध्या के एक निर्वासित राजकुमार का उल्लेख किया गया है जिसने काशी की राजकुमारी से विवाह किया था। यही कथा मंदिर के बाहर स्थित सूचना पटल पर भी लिखी हुई है। एक अन्य कथा के अनुसार इसी स्थान पर देवी ने दुर्गासुर का वध किया था जिसके पश्चात उनका नाम दुर्गा पड़ा।

और पढ़ें: ५० भारतीय नगरों के नाम – देवी के नामों पर आधारित

यद्यपि नवरात्रि के चौथे दिवस इस मंदिर के दर्शन का प्रावधान किया गया है, तथापि यह मंदिर वर्ष भर भक्तों से भरा रहता है। नवरात्रि के नौ दिवस तो इस मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है। लम्बी पंक्ति में भक्तगण देवी के दर्शन के लिए आतुरता से प्रतीक्षा करते रहते हैं। नवरात्रि में ही चंडी होम का आयोजन किया जाता है। यह एक अत्यंत उर्जावान मंदिर है।

स्कंदमाता – कार्तिकेय की माता

माँ दुर्गा का पाँचवाँ रूप है, स्कंदमाता। वे भगवान स्कंद की माता हैं। भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय के नाम से भी जाने जाते हैं। छः शीषों से युक्त भगवान स्कन्द देवताओं की सेना के सेनापति हैं। पोषणकर्ता माता के इस रूप में देवी की गोद में उनका पुत्र विराजमान है जिसे उन्होंने अपने एक हाथ से पकड़ा हुआ है। वे अपने वाहन सिंह पर आरूढ़ हैं। उनके दो हाथों में कमल के पुष्प हैं। चौथे हाथ में भक्तों की रक्षा करने के लिए आयुध पकड़ा हुआ है। उन्हें पद्मासना भी कहते हैं जो उनका ही एक अन्य रूप है। इसमें उन्हें कमल पर आसीन दिखाया जाता है।

काशी का स्कन्दमाता मंदिर - नवरात्रि नवदुर्गा का पांचवां स्वरुप
काशी का स्कन्दमाता मंदिर – नवरात्रि नवदुर्गा का पांचवां स्वरुप

वाराणसी में स्कंदमाता का मंदिर जैतपुरा क्षेत्र में जैतपुरा पोलिस स्टेशन के समीप स्थित है। यह जिस मंदिर परिसर के भीतर स्थित है, वह परिसर बागेश्वरी देवी मंदिर के नाम से अधिक लोकप्रिय है। इसे एक शक्ति से परिपूर्ण उर्जावान मंदिर माना जाता है। मुझे यहाँ अनेक शालेय विद्यार्थी दिखे जो शाला जाने से पूर्व मंदिर आकर देवी से आशीष ले रहे थे।

यह दो तल का मंदिर है। निचले तल पर बागेश्वरी देवी का मंदिर है जिसमें देवी अश्वारूढ़ हैं अर्थात घोड़े पर सवार हैं। इस मंदिर के पट वर्ष में केवल दो दिवस ही खुलते हैं। अन्य दिनों में भक्तगण बंद पट में ही प्रार्थना करते हैं।

स्कंदमाता का मंदिर दूसरे तल पर स्थित है। इस मंदिर में भक्तगण नियमित रूप से आते हैं तथा देवी की आराधना करते हैं। नवरात्रि के पांचवें दिवस स्कंदमाता का दर्शन महत्वपूर्ण माना जाता है। इस मंदिर में पुरोहित एक स्त्री है।

कात्यायनी – शक्ति की आदिरूपा

कात्यायनी देवी का योद्धा रूप है जिसने महिषासुर का वध किया था। देवी के इस रूप की आराधना ऋषि कात्यायन ने की थी इसलिए उन्हें देवी कात्यायनी कहते हैं। काशी में उनसे सम्बंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है जिसमें विकट देवी के रूप में उनका चित्रण है। देवी ने अपने इस रूप में काशी के एक राजकुमार की सहायता की थी कि वह स्वर्ग का दर्शन कर वापिस आ जाए। नवरात्रि के छठें दिवस देवी के इस रूप की आराधना की जाती है।

कात्यायनी सिंह पर आरूढ़ एक चतुर्भुज देवी हैं जिन्होंने अपने दो हाथों में कमल एवं तलवार पकड़ी हुई है तथा अन्य दो हाथ भक्तों को आशीष एवं उनके संरक्षण की मुद्रा में हैं। देवी का यह रूप भक्तों के सभी प्रकार के कष्टों का निवारक माना जाता है।

काशी में उनका मंदिर सिंधिया घाट के समीप स्थित आत्मवीरेश्वर मंदिर परिसर के भीतर है। आप यहाँ चौक की ओर से आ सकते हैं अथवा घाट की ओर से भी आ सकते हैं। इस क्षेत्र को मंच मुद्रा महापीठ भी कहते हैं। यह एक ऐसा पावन क्षेत्र है जिसकी मान्यता है कि यहाँ आकर भक्तों के पुण्य कई गुना हो जाते हैं। नवरात्रि की नवदुर्गा यात्रा में छठें दिवस इस मंदिर की यात्रा करना बताया गया है।

कालरात्रि – महाकाली

कालरात्रि के कई अर्थ हो सकते हैं। इसका एक अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह है चक्रीय रात्रि जो दिन के पश्चात आती है। इसका अभिप्राय एक युग के अंत से है जब सम्पूर्ण सृष्टि लय होकर ब्रह्म में विलीन हो जाती है। इस रात्रि के पश्चात ही सृष्टि का नवीन चक्र आरंभ होता है। यह देवी का वह रूप है जिसके मुख से असुरों से युद्ध के समय श्वास छोड़ने मात्र से ही अग्नि का भभका उमड़ पड़ता था। अन्य देवियों के साथ कालरात्रि भी काशी का संरक्षण करती हैं।

काशी की कलिका देवी
काशी की कलिका देवी

रात्रि का प्रतिनिधित्व करती देवी कालरात्रि का रूप सांवला है। उनकी लाल लाल आँखें अंगारे उगलती हैं। चारों ओर बिखरे उनके खुले केश उनके रौद्र रूप को अधिक प्रभावशाली बनाते हैं। गले में वज्र की माला है। मुझ से ज्वाला उमड़ रही है। इस चतुर्भुज देवी के एक हाथ में चंद्रहास तलवार है तो दूसरे हाथ में वज्र है। उनका वाहन गधा है। यद्यपि यह उनका रौद्र रूप है, तथापि वे पावित्र्य का प्रसार करती हैं। इसीलिए उन्हें शुभकारी भी कहा जाता है। वे आपके सभी प्रकार के भय हर लेती हैं।

वाराणसी में कालरात्रि मंदिर कालिका घाट पर स्थित है जो विश्वनाथ गली के समान्तर है। घाट का नाम देवी के इसी स्वरूप पर पड़ा है। यह स्थान दशाश्वमेध घाट के समीप है जहाँ तक आप चलकर जा सकते हैं। कालरात्रि देवी की काली के रूप में भी आराधना की जाती है। उनके मंदिर को शक्तिपीठ का मान दिया जाता है। नवरात्रि की नवदुर्गा यात्रा में सातवें दिवस इस मंदिर का दर्शन किया जाता है।

महागौरी – गौरवर्णा महादेवी

महागौरी देवी पार्वती का सर्वाधिक कृपालु व दयालु रूप है। उनका वाहन, श्वेत वृषभ भी इसका द्योतक है। इस चतुर्भुजा रूप के तीन हाथों में वे त्रिशूल, डमरू एवं कमल धारण करती हैं।

काशी की अधिष्ठात्री देवी माँ अन्नपूर्णा हैं जो महागौरी का ही एक स्वरूप है। दुर्गा के इस आठवें रूप की आराधना नवरात्रि के आठवें दिवस की जाती है। काशी में उनका मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के एक ओर स्थित है। यह मंदिर काशी के सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिरों में से एक है।

आदि अन्नपूर्णा मंदिर
आदि अन्नपूर्णा मंदिर

आप चाहे नवदुर्गा यात्रा कर रहे हों या अन्यथा काशी आये हों, इस अन्नपूर्णा मंदिर के दर्शन अवश्य करें। यह मंदिर सदा भक्तों से भरा रहता है। इस मंदिर के अन्य विशेष दिवस हैं, धनतेरस से दीपावली अमावस्या तक, जब उनकी स्वर्ण प्रतिमा दर्शनार्थियों द्वारा दर्शन के लिए मंदिर के उपरी तल में रखी जाती है।

चैत्र मास की शुक्ल अष्टमी के दिन अर्थात् वसंत नवरात्रि के आठवें दिवस माँ अन्नपूर्ण की १०८ परिक्रमा करने की प्रथा है।

इस मंदिर के समीप एक छोटा आदि अन्नपूर्णा मंदिर है। यहाँ अधिक दर्शनार्थी नहीं आते हैं। इस मंदिर में देवी की मूर्ति अत्यंत विशेष है। उसे देखने के लिए आपको पुजारीजी से निवेदन करना पड़ेगा।

सिद्धिदात्री – आध्यात्मिक शक्तियों की प्रदाता

नवरात्रि के अंतिम दिवस अर्थात् नौवें दिवस देवी के नवें रूप सिद्धिदात्री की आराधना की जाती है। अपने इस रूप में देवी साधक को अनेक सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। पौराणिक ग्रंथों में आठ सिद्धियों का उल्लेख है जिन्हें अष्टसिद्धि कहा जाता है। देवी का यह रूप हमें यह स्मरण करता है कि जब हम किसी भी प्राप्ति की चरमसीमा पर पहुँचते है तब यह हमारा कर्त्तव्य होता है कि हम दूसरो को अपनी शक्तियों द्वारा सशक्त करें।

माँ सिद्धिदात्री
माँ सिद्धिदात्री

देवी अपने इस रूप में कमल पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में त्रिशूल, सुदर्शन चक्र, शंख व कमल हैं।

नवरात्रि की नवदुर्गा यात्रा के नवें दिवस सिद्धिदात्री देवी का दर्शन किया जाता है। काशी में उनका मंदिर सिद्धेश्वरी मोहल्ले की सिद्धमाता गली में स्थित है। इन सभी के नाम देवी के इस रूप से ही प्रेरित हैं। सिद्धिदात्री देवी के मंदिर परिसर में चंद्रेश्वर महादेव मंदिर भी है। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर की स्थापना स्वयं चन्द्र ने की थी। इसका अर्थ है कि यह मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर से भी अधिक पुरातन है। परिसर में एक प्राचीन कुआँ है जिसे चन्द्र कूप कहते हैं। इस कुँए का जल अब भी मंदिर में अभिषेक के लिए प्रयोग में लिया जाता है।

मंदिर के पुरोहित जी ने मुझे बताया कि यह एक सिद्धपीठ है। अनेक ऋषि अपने सूक्ष्म रूप में अब भी यहाँ ध्यानरत हैं। इतने प्रचीक काल से होते आ रहे अनुष्ठान, आराधना के कारण आप स्वयं भी यहाँ एक अनोखी उर्जा का अनुभव करेंगे।

सम्पूर्ण संस्करण पढ़ने के पश्चात एक तथ्य पर आपका ध्यान अवश्य गया होगा कि देवी का प्रत्येक स्वरूप किसी ना किसी रूप में कमल से संबंधित है। देवी या तो कमल पर आसीन है अथवा उनके हाथ में कमल है। कमल शुद्धता व पवित्रता का चिन्ह है। कीचड़ में खिलकर भी इसकी पवित्रता पर किंचित भी आंच नहीं आती है। उसके ऊपर किसी भी प्रकार की अशुद्धता ठहर नहीं पाती है।

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काशी में नवरात्रि नवदुर्गा यात्रा के लिए कुछ व्यवहारिक सुझाव:

  • काशी स्थित देवी के इन नौ रूपों के नौ मंदिरों के दर्शन आप एक ही दिन में पूर्ण कर सकते हैं यदि आपके साथ कोई स्थानिक गाइड हो।
  • इनमें से अनेक मंदिर संकरी गलियों में स्थित हैं। यदि आप बिना गाइड के भ्रमण कर रहे हैं तो इन्हें ढूंडने में किंचित समय लग सकता है। कुछ गाइड अपनी दुपहिया वाहन पर आपको मंदिर तक ले जाने के लिए भी उपलब्ध रहते हैं। आप सायकल रिक्शा से भी जा सकते हैं।
  • अधिकतर मंदिर प्रातः एवं सायं के समय खुलते हैं।
  • मंदिर के पुजारी जिज्ञासाओं को शांत करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आप उनसे अपने प्रश्न पूछ सकते हैं।
  • मंदिर में किसी भी प्रकार की दान-दक्षिणा की आस नहीं रहती है। आप अपनी स्वेच्छा से दान कर सकते हैं।

मैंने इन मंदिरों में प्रातःकाल के समय दर्शन किये थे। उस समय स्थानिक काशीवासियों को मंदिर में पूजा-अर्चना करते देखना मुझे अत्यंत आनंददायी प्रतीत हुआ।

इनमें से अधिकाँश मंदिरों में आप अनेक साधकों को ध्यान-साधना करते हुए पायेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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काशी विश्वनाथ मंदिर काशी यात्रा का केंद्र बिंदु https://inditales.com/hindi/kashi-vishwanath-mandir-varanasi/ https://inditales.com/hindi/kashi-vishwanath-mandir-varanasi/#respond Wed, 08 Feb 2023 02:30:05 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2955

काशी विश्वनाथ मंदिर अनेक तीर्थ यात्राओं का केंद्र बिंदु है। हृदय है। भारत में स्थित भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग माना जाता है। वाराणसी की गलियों में स्थित यह प्रमुख मंदिर चारों ओर से अनेक छोटे-बड़े मंदिरों से घिरा हुआ है, आप उनमें खो से […]

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काशी विश्वनाथ मंदिर अनेक तीर्थ यात्राओं का केंद्र बिंदु है। हृदय है। भारत में स्थित भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग माना जाता है। वाराणसी की गलियों में स्थित यह प्रमुख मंदिर चारों ओर से अनेक छोटे-बड़े मंदिरों से घिरा हुआ है, आप उनमें खो से जाते हो। गत सहस्त्र वर्षों में इस मंदिर ने एवं इसके भक्तों ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, अनेक स्थालांतरण किये। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं यहाँ आपको अप्रत्यक्ष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर की तीर्थयात्रा करा रहा हूँ। आईये काशी विश्वनाथ मंदिर के वैभव एवं वैशिष्ट्य को जाने एवं समझें।

काशी विश्वनाथ की कथाएं

बाबा विश्वनाथ, विश्वेश्वर, काशी विश्वनाथ, ये कुछ नाम हैं भगवान शिव के, जो ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। वे काशी पुरी एवं काशी क्षेत्र के अधिष्ठात्र देव हैं।

काशी भगवान शिव की नगरी है। ऐसा माना जाता है कि यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। नगरी में स्थित तीन शिव मंदिर इस त्रिशूल के तीन नोकों के द्योतक हैं। मध्य तीर पर विश्वनाथ मंदिर है। अन्य दो मंदिर हैं, केदारेश्वर मंदिर तथा ओंकारेश्वर मंदिर।

स्कन्द पुराण

स्कन्द पुराण के काशी खंड में दिवोदास नामक एक राजा का उल्लेख है जो काशी का राजा था। वह एक सद्धर्मी व सदाचारी राजा था जो अत्यंत न्यायसंगत राजपाट संभालता था।  उसने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था कि कोई भी देवता उसकी धरती पर अपने चरण भी स्पर्श नहीं करें। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दिया किन्तु साथ ही एक प्रतिबन्ध भी लगाया कि उसके राज्य का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व आनंदी हो।

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग

इस बीच भगवान शिव ने अपनी नगरी में वापिस आना चाहा किन्तु इस प्रतिबन्ध के कारण नहीं आ पा रहे थे। उन्होंने भिन्न भिन्न देवताओं को वहाँ भेजा, जैसे ६४ योगिनियाँ, १२ आदित्य, उनके गण, यहाँ तक कि भगवान गणेश भी। किन्तु वे परिस्थिति को अपने अनुसार ढाल नहीं पाए। अंततः भगवान विष्णु राजा दिवोदास को मनाने में सफल हुए कि वह भगवान शिव को उनकी नगरी में प्रवेश कर वहाँ का अधिष्ठात्र देव बनने दे।

ज्ञानवापी कुआँ

मंदिर में स्थित ज्ञान-वापी अर्थात कुआँ, काशी में गंगा जी के अवतरण से भी पूर्व स्थित है। इस कुँए की खुदाई स्वयं भगवान शिव ने अपने त्रिशूल द्वारा की थी ताकि इसके जल से अविमुक्तेश्वर लिंग का अभिषेक किया जा सके।

ज्ञानवापी कूप के प्राचीन छवि
ज्ञानवापी कूप के प्राचीन छवि

लगभग सभी ऋषि मुनि एवं साधु काशी एवं विश्वनाथ की तीर्थयात्रा अवश्य करते हैं। अनेक ऋषि मुनियों ने यहाँ तपस्या की है तथा भगवान विश्वनाथ का गुणगान किया है। आपको सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका श्रीमती एम एस सुब्बुलक्ष्मी द्वारा गाया काशी विश्वनाथ सुप्रभातम स्मरण ही होगा। आदि शंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, गुरु नानक देव जी तथा स्वामी विवेकानंद ने अपने यात्रा संस्मरण में काशी नगरी एवं भगवान विश्वनाथ का उल्लेख किया है।

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काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास

काशी विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख स्कन्द पुराण के काशी खंड में किया गया है जिसमें काशी अथवा वाराणसी नगरी के सभी तीर्थों के विषय में लिखा गया है।

काशी विश्वनाथ मंदिर की संरचना
काशी विश्वनाथ मंदिर की संरचना

ज्ञात ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार प्राचीनकाल के लगभग सभी यात्रियों ने, जिन्होंने काशी नगरी की यात्रा की थी, इस मंदिर का उल्लेख किया है तथा इस नगरी को भगवान शिव की नगरी कहा है। भारत की पावन नगरी में स्थित, सर्वाधिक पूजनीय मंदिरों में से एक होने के कारण यह सदा आक्रमणकारियों की आँखों का काँटा था। प्रलेखित ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार इस मंदिर पर सर्वप्रथम आक्रमण सन् ११९४ में मुहम्मद घोरी ने किया था जिसने इस नगरी को बड़ी भारी क्षति पहुंचाई थी। इसके पश्चात दिल्ली की रानी रजिया सुलतान ने मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण कराया था। इसके कारण मूल मंदिर को अविमुक्तेश्वर मंदिर के समीप स्थानांतरित किया गया था।

इसके पश्चात १६वीं सदी के आसपास सिकंदर लोधी ने इस पर आक्रमण किया था। जब जब आक्रमणकारियों ने मंदिर का विनाश किया, तब तब स्थानीय हिन्दू राजाओं एवं असंख्य तीर्थ यात्रियों ने इसका पुनर्निर्माण कराया। अंतिम विनाशकारी आक्रमण औरंगजेब द्वारा किया गया था जिसने मंदिर को नष्ट कर दिया तथा उसके खंडहरों पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया। आक्रमणकारियों से शिवलिंग की रक्षा करने के लिए मंदिर के पुजारी ने शिवलिंग के साथ कुँए में छलांग लगा दी थी।

रानी अहिल्या बाई होलकर द्वारा पुनर्निर्माण

वर्तमान में हम जिस विश्वनाथ मंदिर को देखते हैं, उसका निर्माण सन् १७८० में मालवा की रानी अहिल्या बाई होलकर ने करवाया था। उससे पूर्व अनेक राजपुताना एवं मराठा राजाओं ने मंदिर के पुनर्निर्माण का प्रयास किया था किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली थी। सन् १८३५ में महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर के शिखर के लिए एक टन सोना अनुदान में दिया था। अन्य अनेक राजाओं ने भी चाँदी, मूर्तियाँ एवं अन्य प्रकार से अनुदान देकर मंदिर संकुल के निर्माण में सहयोग किया था।

काशी विश्वनाथ मंदिर का स्वर्णिम शिखर
काशी विश्वनाथ मंदिर का स्वर्णिम शिखर

पंडित मदन मोहन मालवीय ने बिरला परिवार के सहयोग से बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में एक नवीन काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। इस निर्माण कार्य का आरम्भ सन् १९३० में हुआ था। इस मंदिर का शिखर विश्व भर के सभी हिन्दू मंदिरों के शिखरों से ऊँचा है।

सन् २०२१ में वर्तमान सरकार ने काशी विश्वनाथ गलियारे(Corridor) का निर्माण किया है जो मंदिर को सीधे गंगा के घाट से जोड़ता है। इससे पूर्व मंदिर से घाट तक पहुँचने के लिए संकरे घुमावदार मार्ग से जाना पड़ता था। अब हम इस चौड़े गलियारे के द्वारा सीधे ही मंदिर से घाट तक जा सकते हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर

काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँचने से पूर्व हम काशी विश्वनाथ गली से जाते हैं जो एक संकरी गली है। इसके दोनों ओर अनेक विक्रेता अपनी छोटी छोटी दुकानों में रंगबिरंगी पूजा सामग्री तथा वाराणसी के लोकप्रिय स्मारिकाओं की विक्री करते हैं। इस गली से आगे जाते हुए हम सर्वप्रथम माँ अन्नपूर्णा मंदिर पहुँचते हैं। इसके पश्चात काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँचते हैं। जैसा कि आपने कथाओं में पढ़ा है, यह मंदिर अपेक्षाकृत छोटा है। यह मंदिर अपने मूल स्थान पर अपनी पूर्ण भव्यता से पुनर्निर्मित होने की प्रतीक्षा में रत है।

प्रसिद्द विश्वनाथ गली
प्रसिद्द विश्वनाथ गली

चाँदी से अलंकृत द्वार से आप मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश करते हैं। परिसर में अनेक मंदिर हैं। भक्तों की भीड़ एवं सुनहरे शिखर से आप काशी विश्वनाथ मंदिर को आसानी से पहचान सकते हैं। मंदिर के गर्भगृह के भीतर चाँदी की योनि पर शिवलिंग विराजमान हैं। इस मंदिर की संरचना वास्तु शिल्प के उत्तर भारतीय नागर शैली में की गयी है। मंदिर का शिखर इस शैली की विशेष छाप प्रस्तुत करता है।

विश्वनाथ गली में एक दूकान
विश्वनाथ गली में एक दूकान

गर्भगृह के समक्ष एक छोटा खुला मंडप है जहाँ से आप भगवान के दर्शन करते हैं।

मुख्य मंदिर के चारों ओर अनेक छोटे मंदिर हैं। काशी विश्वनाथ गलियारे के लिए मंदिर परिसर के विस्तार कार्य के समय इनमें से अनेक मंदिरों को अन्यत्र स्थानांतरित किया गया है।

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काशी विश्वनाथ मंदिर में आरती

मंदिर में पाँच प्रमुख आरतियाँ की जाती हैं।

मंगल आरती

यह आरती प्रातः मुंह अँधेरे लगभग ३ बजे की जाती है। यह दिवस की प्रथम आरती होती है। यह बाबा विश्वनाथ को जगाने का अनुष्ठान होता है। इस आरती के पश्चात ही मंदिर के पट बाबा के दर्शनों के लिए खोले जाते हैं। इस समय बाबा विश्वनाथजी का षोडशोपचार, उनकी आरती, उनकी स्तुति तथा ब्रह्माण्ड की भलाई के लिए प्रार्थना की जाती है।

यह अनुष्ठान दर्शनार्थियों, तीर्थयात्रियों एवं काशी के स्थानिकों में अत्यंत लोकप्रिय है। अधिकाँश पर्यटन परिदर्शक भी निर्देशित पर्यटन के अंतर्गत सब को प्रातः इसी आरती के लिए लेकर आते हैं। मंदिर के अधिकारिक वेबस्थल पर आप यह आरती ऑनलाइन भी देख सकते हैं।

काशी विश्वनाथ परिसर का नया स्वरुप
काशी विश्वनाथ परिसर का नया स्वरुप

मंदिर दर्शन के लिए वैसे भी प्रातः काल का समय सर्वोत्तम माना जाता है। जब आप मुख्य मंदिर के चारों ओर भ्रमण करें तो इसके चारों ओर स्थित अनेक छोटे-बड़े मंदिरों में आपको मंत्रस्तुति दिखाई व सुनाई देगी।

भोग आरती

यह आरती लगभग दोपहर के समय की जाती है जब बाबा विश्वनाथ को भोग अथवा प्रसाद अर्पित किया जाता है। इस समय श्रृंगार, स्तुति एवं आरती के साथ रुद्राभिषेक भी किया जाता है। यह भोग सप्ताह के विभिन्न वारों अथवा तिथि के अनुसार निर्धारित किया गया है। जैसे, एकादशी के दिन बाबा को फल, दूध एवं दूध से निर्मित प्रसाद अर्पित किया जाता है। अन्य दिवसों में सूखे मेवे, पूरी, हलवा अथवा सम्पूर्ण भोजन अर्पित किया जाता है। तदनंतर यह प्रसाद आरती के लिए उपस्थित सभी भक्तगणों को दिया जाता है। भोग आरती के पश्चात दंडी स्वामियों को भोजन खिलाया जाता है।

सप्तऋषि आरती

मंदिर में सूर्यास्त के पश्चात की जाने वाली यह आरती एक अत्यंत अनूठी आरती है। यह आरती सप्तऋषियों द्वारा किये जाने का द्योतक है। ये सप्तऋषि हैं, कश्यप, अत्री, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा भारद्वाज। इस आरती का मूल सामवेद में प्राप्त होता है जिसे गाया जाता है। पुरातन काल में राजा-महाराजा इस आरती के लिए ब्राह्मणों की सेवायें लेते थे जो उनके लिए यह आरती करते थे।

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रात्रि श्रृंगार आरती

यह आरती संध्याकाल के पश्चात लगभग ९ बजे की जाती है। इस आरती के लिए भगवान शिव का काशी के राजा के रूप में अलंकरण किया जाता है। उनके इस रूप को काशीपुराधीश्वर कहा जाता है। यह आरती प्राचीन वैदिक संस्कारों द्वारा की जाती है जिनमें श्रृंगार, रुद्राभिषेक, स्तुति एवं भोग सम्मिलित हैं।

शयन आरती

यह दिवस की अंतिम आरती होती है जिसके पश्चात बाबा शयन करते हैं। इस आरती के पश्चात मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। यह आरती काशीवासी अर्थात काशी के निवासी करते हैं। रात्रि ११ बजे के पश्चात काशी नगरी के लगभग ४०-५० निवासी मंडप में एकत्र होते हैं तथा आरती गाते हैं। जब यह आरती अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब उसका अनुभव अत्यंत ही रोमांचित कर देता है। इस समय दर्शनार्थियों की संख्या अधिक नहीं होती है। इस समय भीड़ रहित मंदिर में भक्ति से सराबोर होने का आनंद प्राप्त होता है। साथ ही काशी वासियों की श्रद्धा व समर्पण के दर्शन भी होते हैं।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मदन मोहन मालवीय द्वारा निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मदन मोहन मालवीय द्वारा निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर

पद्म पुराण के पातालखंड में यह उल्लेख किया गया है कि एक भक्त को प्रातः काल में गंगा में स्नान करना चाहिए अथवा दोपहर के समय मणिकर्णिका कुण्ड में डुबकी लगानी चाहिए, तत्पश्चात, क्रम में, इन प्रमुख मंदिरों के दर्शन करना चाहिए, विश्वनाथ, भवानी या अन्नपूर्णा मंदिर, दूँडीराज मंदिर, दण्डपाणी तथा काल भैरव मंदिर।

काशी खंड में किंचित लम्बी तीर्थयात्रा का उल्लेख किया गया है जिसमें पूर्वजों के प्रति तर्पण तथा सभी मंदिरों के दर्शन सम्मिलित हैं, जैसे विष्णु, गणेश।

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बाबा विश्वनाथ मंदिर के उत्सव

महाशिवरात्रि

यूँ तो प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष के चौदहवें दिवस, अर्थात अमावस से एक दिवस पूर्व शिवरात्रि होती है। फाल्गुन मास में वही दिवस महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भक्तगण मंदिर में भगवान के दर्शन एवं अभिषेक करने के लिए आते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के द्वार महाशिवरात्रि के उत्सव के लिए सम्पूर्ण रात्रि खुले रहते हैं। इसी कारण उस रात्रि में शयन आरती नहीं की जाती। इस दिन आरती की दिनचर्या भिन्न होती है ताकि अधिक से अधिक श्रद्धालु भगवान के दर्शन कर सकें।

खौगोलिक दृष्टी से देखा जाए तो महाशिवरात्रि वसंत विषुव(spring equinox) के आसपास होती है।

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रंगभरी एकादशी

फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मनाया जाने वाला यह रंगों का उत्सव मंदिर एवं भक्तगणों को रंगों की विभिन्न छटा से सराबोर कर देता है। भगवान शिव एवं देवी पार्वती की उत्सव मूर्तियों पर उजले गुलाबी रंग का अबीर-गुलाल अर्पित किया जाता है। इसके पश्चात भक्तगण आपस में रंगों से खेलते हैं। नृत्य एवं संगीत इस उत्सव के उल्हास को चरम सीमा तक पहुंचा देते हैं।

श्रावण सोमवार

वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर
वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर

श्रावण मास को भगवान शिव की भक्ति का मास माना जाता है। सम्पूर्ण भारत में इस मास के प्रत्येक सोमवार के दिन भगवान शिव के दर्शन करना, उनकी आराधना करना अत्यंत शुभ माना जाता है। अतः भगवान शिव का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर श्रावण के उत्सवों से कैसे वंचित रह सकता है? श्रावण सोमवार के दिन यह मंदिर भक्तों से भरा रहता है जो भगवान को जल, दूध, दही, बिल्व पत्र आदि अर्पित करने आते हैं।

श्रावण मास के चारों सोमवार को भगवान शिव का भिन्न भिन्न रूप से अत्यंत भव्य श्रृंगार किया जाता है।

अक्षय तृतीया

हिन्दू पंचांग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिवस होता है, अक्षय तृतीया। इस दिन बाबा विश्वनाथ पर गंगाजल छिड़का जाता है।

अन्नकूट

यह उत्सव हिन्दू पंचांग के कार्तिक मास में, दीपावली के दूसरे दिवस मनाया जाता है। भिन्न भिन्न प्रकार के ५६ भोग बनाए जाते हैं तथा भगवान शिव एवं उनके परिवार को भोग आरती के समय अर्पित किये जाते हैं।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दीपावली का उत्सव गंगा घाट पर मनाया जाता है जहाँ लाखों की संख्या में मिट्टी के दिए जलाए जाते हैं। मंदिर को भी विशेष रूप से प्रकाशित किया जाता है।

मैंने अनेक बार इस मंदिर के दर्शन किये हैं। मेरा अनुभव कहता है कि इस मंदिर में प्रत्येक दिवस एक उत्सव होता है।

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यात्रा सुझाव

  • वाराणसी सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों से वायु मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है।
  • वाराणसी में आप किसी से भी पूछिये, वे आपको काशी विश्वनाथ मंदिर का मार्ग बता देंगे। दर्शन के लिए आवश्यक समय मंदिर में उपस्थित भक्तों की भीड़ पर निर्भर करता है।
  • मंदिर के भीतर किसी भी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ले जाने पर प्रतिबन्ध है। यहाँ तक कि आप मोबाइल फोन भी नहीं ले जा सकते।
  • मंदिर जाने के लिए अनेक मार्ग हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय मार्ग है, विश्वनाथ गली। चौक की ओर से भी मंदिर पहुँचा जा सकता है। अब तो काशी विश्वनाथ गलियारे के द्वारा गंगा घाट से भी मंदिर की ओर आ सकते हैं।
  • भगवान काशी विश्वनाथ मंदिर की यात्रा में आप कम से कम एक आरती तो अवश्य देखें व उसका आनंद लें।
  • काशी विश्वनाथ मंदिर के वेबस्थल द्वारा आप अपना दर्शन, रहने का स्थान तथा पूजा की पूर्व बुकिंग कर सकते हैं।

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यदि आपकी वाराणसी यात्रा में बाबा विश्वनाथ मंदिर के दर्शनों के पश्चात आपके पास समय हो तो आप गंगा के उस पार रामनगर दुर्ग के दर्शन कर सकते हैं। श्री लाल बहादुर शास्त्री के गृह नगर में उनका स्मारक भी देख सकते हैं।

सन्दर्भ

स्कन्द पुराण का काशी खंड

भज विश्वनाथं – नितिन रमेश गोकर्ण(लेखक) एवं मनीष खत्री(छायाचित्रकार)

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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सोना रूपा कलाबत्तू – वाराणसी की लोकप्रिय ज़री बुनाई https://inditales.com/hindi/zari-sona-rupa-kalavastra-varanasi/ https://inditales.com/hindi/zari-sona-rupa-kalavastra-varanasi/#comments Wed, 14 Dec 2022 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2890

रेशमी साड़ियाँ स्त्रियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी कोमलता, सौम्य कांति तथा विविधता सदियों से स्त्रियों को आकर्षित करती रही हैं। उन पर किया गया ज़री का काम उनकी शोभा को द्विगुणीत कर देता है और इन साड़ियों को अधिक मूल्यवान बना देती  है। सुनहरी एवं रुपहली बुनकरी साड़ियों की प्राकृतिक शोभा में भव्यता का […]

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रेशमी साड़ियाँ स्त्रियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी कोमलता, सौम्य कांति तथा विविधता सदियों से स्त्रियों को आकर्षित करती रही हैं। उन पर किया गया ज़री का काम उनकी शोभा को द्विगुणीत कर देता है और इन साड़ियों को अधिक मूल्यवान बना देती  है। सुनहरी एवं रुपहली बुनकरी साड़ियों की प्राकृतिक शोभा में भव्यता का एक नवीन आयाम जोड़ देती हैं।

ज़री से भरी बाँधनी साडी
ज़री से भरी बाँधनी साडी

प्राचीन काल में सुनहरी एवं रुपहली ज़री शुद्ध सोने एवं चाँदी धातु से निर्मित तंतुओं द्वारा तैयार की जाती थीं जिससे ज़री को सोने से सुनहरा तथा चाँदी से श्वेत सा रंग प्राप्त होता है। अतः काल के साथ साड़ियाँ जीर्ण होने के पश्चात भी उनमें उपस्थित सोने एवं चाँदी मौल्यवान रहते थे। कांचीपुरम जैसे नगरों में अनेक साड़ी भण्डार ऐसी पुरानी साड़ियाँ क्रय करते हैं ताकि उनमें से सोना अथवा चाँदी पुनः प्राप्त कर सकें।

काल के साथ सोने एवं चाँदी के मूल्यों में इतनी वृद्धि हो गयी है कि शुद्ध सोने अथवा चाँदी की ज़री अधिकतर ग्राहकों की पहुँच से बाहर हो गयी है। अतः साड़ियों की शोभा एवं अलंकरण से समझौता ना हो तथा साड़ियों की सुनहरी एवं रुपहली ज़री में उसी प्रकार की कान्ति प्राप्त हो, इस उद्देश्य से अन्य धातुओं पर अनेक शोध कार्य किये गए जिनके मूल्य अधिक नहीं हैं। इसमें ताम्बे के तंतुओं पर चाँदी का लेप लगाना अथवा सोने की परत चढ़ाना, सूती घागे पर चाँदी के महीन तंतु को लपेटना आदि सम्मिलित हैं। अब अनेक प्रकार के कृत्रिम ज़री का भी प्रयोग होने लगा है। उस प्रकार की साड़ियों का अपना भिन्न ग्राहक समूह है।

आईये मैं आपको असली ज़री की कार्यशाला में ले जाती हूँ जहां चाँदी द्वारा महीन केश-सदृश तंतु तैयार किये जाते हैं तथा उन्हें कोमल रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है।

सोना-रूपा (सुनहरी एवं रुपहली ज़री)

पारंपरिक रूप से बुनकरों की भाषा में सोने की ज़री को सोना तथा चाँदी वाली को रूपा कहते हैं। वस्तुतः, भारत के अनेक क्षेत्रीय भाषा में चाँदी को रूपा ही कहा जाता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘रौप्य’ से हुई है जिसका अर्थ चाँदी होता है। इसी से हमारी भारतीय मुद्रा को रुपैय्या या रूपया नाम प्राप्त हुआ है। दूसरी ओर, ज़री शब्द की व्युत्पत्ति पारसी शब्द ज़र से हुई है जिसका अर्थ है सोना।  भारत में पारंपरिक रूप से इसे कलाबत्तू या कलाबस्त्र कहा जाता था, किन्तु इस नाम का प्रयोग अब क्वचित ही होता है।

सोना रूपा या ज़री
सोना रूपा या ज़री

सुनहरी एवं रुपहली, दोनों प्रकार की ज़री में प्राथमिक सामग्री चाँदी ही है। सोने की ज़री बनाते समय चाँदी के तंतु पर सोने के पानी चढ़ाया जाता है।

पुरातन काल में कारीगर चाँदी की ज़री को हल्दी के गर्म जल में डुबोकर रखते थे जिससे चाँदी के तंतु हल्दी के प्राकृतिक पीले रंग को सोख लेते थे। कुछ समय पश्चात वे सोने की ज़री का आभास देते थे। इस प्रकार की ‘हल्दी’ ज़री प्राकृतिक होने के पश्चात भी स्थाई नहीं होती थी। कुछ समय पश्चात पीला रंग धूमिल होने लगता था।

शनैः शनैः आधुनिक विद्युतलेपन तकनीक (electroplating techniques) ने वाराणसी जैसे पारंपरिक रेशम समूहों की गलियों में प्रवेश करना आरम्भ किया। वर्तमान में सुनहरी ज़री बनाने के लिए इस तकनीक का विपुलता से प्रयोग किया जाता है। सोने के चढ़ते भाव के कारण शुद्ध सुनहरे रंग की ज़री का प्रयोग शीघ्रता से घट रहा है। वर्तमान में सुनहरी ज़री रोगन तकनीक द्वारा निर्मित की जा रही है। इसमें सोने की ज़री का आभास देने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह सोने जैसा प्रतीत होता है किन्तु यथार्थ में सोना नहीं होता है। वर्तमान में रसायनों का प्रयोग सुनहरे रंग की चमक में भिन्नता लाने के लिए भी किया जाता है जिसके द्वारा इसे उज्वल चमकीले रंग से मंद चमकरहित रंग तक परिवर्तित किया जा सकता है।

ज़री के विभिन्न प्रकार

वर्तमान में सर्वाधिक शुद्ध ज़री केवल चाँदी में ही बनाई जाती है। उसका मूल्य भी उसके अनुसार ही होता है।

दूसरे प्रकार की ज़री में ताम्बे के तंतु पर चाँदी की परत होती है। अतः आप जो देखते हैं तथा जो आपकी त्वचा अनुभव करती है, वह चाँदी है किन्तु उसके भीतर वास्तव में ताम्बा होता है।

तीसरे प्रकार की ज़री में रेशम अथवा सूती धागे पर चाँदी का वर्क होता है जिसे बादला कहते हैं।

अंत में, कृत्रिम ज़री होती है जिसे रसायन, राल, प्लास्टिक आदि के प्रयोग से निर्मित किया जाता है।

शुद्ध ज़री एवं अन्य प्रकार की ज़री के मूल्यों में दस से बारह गुना अंतर होता है। शुद्ध ज़री का मूल्य उस समय प्रचलित चाँदी के दर पर निर्भर करता है।

और पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

तकनीकी रूप से ज़री का स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है:

  • शुद्ध ज़री कसब – चाँदी, ताम्बा, सोना, रेशम/सूती
  • कृत्रिम ज़री कसब – तम्बा/पीतल, चाँदी( सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ), विस्कोस/ पॉलिएस्टर/ सूती/ रेशम तथा मुलम्मा चढ़ाना( सोना /रसायन)
  • धातुई ज़री कसब – सुनहरी पीली धातुई चादर से तंतु अथवा धागे खींचे जाते हैं जिनका अन्तर्भाग पॉलिएस्टर/विस्कोस/नायलॉन/सूती होता है।
  • कढ़ाई करने के लिए असली ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें सीधे चाँदी के तंतु अथवा शुद्ध सोने का मुलम्मा चढ़े चाँदी के तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्भाग में अन्य कोई धागा नहीं होता है।
  • कढ़ाई करने के लिए कृत्रिम ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें ताम्बे पर चाँदी तथा अन्य रसायन का मुलम्मा चढ़ाया जाता है।
  • कढ़ाई करने के लिए धातुई ज़री के उत्पाद – जरदोजी अथवा सुनहरी पीली धातुई चादर से खिंचे तंतु

एक साड़ी में कितना ज़री प्रयुक्त होता है?

एक रेशमी साड़ी में कुछ ग्राम से ले कर एक किलोग्राम से भी अधिक ज़री का प्रयोग किया जा सकता है। सुनहरी अथवा रुपहली बूटियों से भरी तथा भारी जालीदार जरी वाली साड़ियों में १२०० ग्राम ज़री तक का प्रयोग होता है। इसमें कदापि आश्चर्य नहीं है कि ऐसी साड़ियों को ‘भारी साड़ियाँ’ कहते हैं।

शुद्ध ज़री का प्रयोग अधिकांशतः हथकरघे में बुनी साड़ियों में होता है। बिजली चालित करघे अधिकतर ‘फेकुआ’ तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसमें ताने से लगे बाने के धागों का बड़ी मात्रा में अपव्यय होता है। अतः शुद्ध ज़री का प्रयोग बिजली चालित करघों में नहीं किया जाता है।

प्लास्टिक द्वारा निर्मित सस्ते कृत्रिम ज़री के विभिन्न प्रकारों के अविष्कारों के पश्चात वाराणसी जैसे ज़री निर्माताओं के समूहों में भरी कटौती हुई है। वर्तमान में कुछ गिने-चुने जरी निर्माता बच गए हैं जो काशी एवं कांचीपुरम जैसे रेशम समूहों में अब भी ज़री का उत्पादन करते हैं। वर्तमान में अधिकाँश ज़री ज्ञ्जारत के सूरत नगर से आती है।

शुद्ध एवं कृत्रिम ज़री के मूल्यों में निहित विशाल भिन्नता के कारण इन दोनों के विभिन्न ग्राहक समूह हैं। इसके कारण ज़री के दोनों प्रकारों का सह-अस्तित्व बना रहेगा। शुद्ध जरी युक्त रेशम की साड़ियों को क्रय कर पाना सभी स्तर के लोगों के लिए संभव नहीं है। कम से कम सभी साड़ियाँ शुद्ध ज़री की रखना तो अधिकाँश के लिए कदापि संभव नहीं है। साथ ही ऐसे भी पारखी ग्राहक अवश्य हैं जिन्हें शुद्ध जरी की जानकारी भी है तथा वे शुद्ध ज़री द्वारा निर्मित वस्त्र क्रय करने की अभिलाषा भी रखते हैं। अतः शुद्ध ज़री की मांग बनी रहती है। ऐसे पारखी शुद्ध ज़री के उद्योग को सदा संरक्षण देते रहेंगे।

और पढ़ें: भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार – एक परिचय

चाँदी पर विभिन्न प्रक्रियाएं

यदि ज़री उत्पादन प्रक्रिया पर दृष्टि डाली जाए तो इसका आरम्भ शुद्ध चाँदी के ठोस पिंड से होता है जिसे निर्माता धातु बाजार से क्रय करते हैं। इस ठोस पिंड को व्यापारी ‘चाँदी की बटिया’ कहते हैं। इस ठोस पिंड पर अनेक प्रक्रियाएं की जाती हैं तथा उसे ०.३ मिलीमीटर व्यास के तंतु तक बेला जाता है। यद्यपि ये प्रक्रियाएं सरल है, तथापि इन्हें अनेक चरणों में किया जाता है।

चाँदी की बटिया, पासा और तार
चाँदी की बटिया, पासा और तार

प्रथम चरण में चाँदी की बटिया को पिघला कर उसमें किंचित मात्रा में ताम्बा मिलाया जाता है, ताकि उसका लचीलापन कम हो जाए, क्योंकि चाँदी स्वभाव से अत्यंत लचीली होती है। तत्पश्चात उसे लम्बी छड़ के रूप में ढाला जाता है जिसका अनुप्रस्थ काट आयताकार होता है। चाँदी की इस लम्बी छड़ को अग्नि की भट्टियों के ऊपर से ले जाते हुए खींच कर पतला किया जाता है। यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराते हुए अंततः उसे ३० मिलीमीटर मोटाई तक लाया जाता है। इस अवस्था में यह ‘पासा’ कहलाता है। जैसे ही इसकी मोटाई कम होती है, उसे अटेरन पर लपेटा जाता है। उस अटेरन को गुछली कहते हैं जो ठीक वैसी ही होती है जैसी कच्चे धागे अथवा ऊन की अटेरन होती है।

भिन्न भिन्न मोटाई का बारा चाँदी की महीन तार खींचने के लिए
भिन्न भिन्न मोटाई का बारा चाँदी की महीन तार खींचने के लिए

एक धातुई सांचे के गोलाकार छिद्र में पासा को पिरोया जाता है। इस सांचे को ‘बारा’ कहते हैं। इस सांचे से पासा को खींचा जाता है। शनैः शनैः कम व्यास के छिद्रों से युक्त सांचों का प्रयोग किया जाता है। कम से कम २० बार इस प्रक्रिया को दोहराते हुए इसे तब तक पतला किया जाता है जब तक आवश्यकतानुसार आकार ना प्राप्त हो जाए। इस अवस्था में चाँदी के तंतु की मोटाई एक रेशम के धागे अथवा मानवी केश की मोटाई के समान हो जाती है। अब यह रेशम के साथ बुनकर विभिन्न आकृतियाँ बनाने के लिए सज्ज हो गयी है। इस तंतु को ‘तारकशी’, यह नाम दिया गया है क्योंकि यह एक अत्यंत महीन तार के समान प्रतीत होती है।

बादला

चाँदी के इस महीन तार को चपटा किया जाता है जिसे ‘बादला’ कहते हैं। इसे मूल धागे पर लपेटा जाता है जो रेशम, सूत या पॉलिएस्टर अथवा ताम्बे का तंतु हो सकता है। इसका सीधा प्रयोग अलंकरण अथवा कढ़ाई करने के धागे के रूप में भी किया जाता है। इस चाँदी का ज़री के रूप में प्रयोग करने से पूर्व इस पर कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं भी की जाती हैं।

बादला या चपटा चाँदी का तार
बादला या चपटा चाँदी का तार

मैंने स्वयं अपने आँखों से ३२ मिलीमीटर के चाँदी की छड़ को विभिन्न सांचों को पार करते हुए ०.३ मिलीमीटर के महीन ज़री में परिवर्तित होते देखा। इन दिनों यह लगभग पूर्ण रूप से यंत्रों द्वारा की जाती है। केवल मूलभूत मानवी निरिक्षण की आवश्यकता होती है।

वाराणसी के जरी उद्योजक

वाराणसी में मैंने विमलेश मौर्याजी की कार्यशाला का अवलोकन किया था। उन्होंने मुझे बताया कि प्राचीन काल में यह सम्पूर्ण प्रक्रियाएं हाथों द्वारा की जाती थीं। कारीगर हाथों द्वारा चाँदी को पीट पीटकर पतला करते थे तथा उसे पतली पट्टियों में काटते थे। शनैः शनैः यंत्रीकरण ने पदार्पण किया। किन्तु इन यंत्रों को हाथों द्वारा ही चलाया जाता था। अब अधिकतर यन्त्र विद्युत् संचालित हो गए हैं।

चांदी के सूक्ष्म तार
चांदी के सूक्ष्म तार

ज़री उत्पादन अब भी एक कुटीर उद्योग के ही स्तर पर है जिसका संचालन ऐसे परिवार करते हैं जो पारंपरिक रूप से इसी व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। उनकी बहुतलीय हवेली एक साथ निवासस्थान, कार्यालय तथा कार्यशाला, तीनों रूपों में प्रयोग में लाई जाती है। बुनकरों के घरों से करघों की ध्सुवनि सुनाई पड़ती रहती है। किन्तु ज़री उद्योजक पीछे ही रह जाते हैं। यह तो उनके उत्पाद हैं जो साड़ियों में गर्व से अपना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते हैं।

उनकी आपूर्ति श्रंखला घड़ी के समान कार्य करती है। यह व्यवसाय से व्यवसाय (B2B – business to business enterprise) प्रकार का उद्यम है। वाराणसी एक रेशम बुनाई समूह है। अतः यह प्राकृतिक रूप से ज़री निर्माताओं का केंद्र बन गया है। प्राचीन काल में उन्होंने भारत के अन्य रेशम समूहों को भी माल की आपूर्ति की थी, जैसे कांचीपुरम एवं धर्मावरम आदि। यह दर्शाता है कि उस समय व्यापार मार्ग सम्पूर्ण भारत में कितने सुव्यवस्थित रूप से स्थापित थे तथा व्यापार समुदाय कितने उत्तम रीति से एक दूसरे से सम्बद्ध थे। वस्तुतः, वर्तमान में सूरत नगरी ज़री उत्पादन का विशालतम केंद्र है।

अपनी ज़री को परखिये

अपनी ज़री को परखने का सर्वोत्तम उपाय है, इसके एक टुकड़े को अग्नि में जलाना। यदि इस ज्वलन के अवशेष श्वेत भस्म हो तो ज़री शुद्ध है, अन्यथा नहीं। कृत्रिम ज़री का भस्मावशेष काले रंग का होगा। यदि यह प्लास्टिक से निर्मित हो तो वह प्लास्टिक के समान जलेगी जिसकी ज्वाला पीछे की दिशा में जाती है।

सोना रूपा को जांचने का एक अन्य मार्ग है, जैसे एक टुकड़ा लेकर उसे पत्थर पर रगड़ना। पत्थर पर उत्पन्न चमक का रंग आपको यह जानकारी प्रदान करेगा कि यह किस धातु से निर्मित है। यदि चमक कुछ लाल रंग लिए हुए हो तो  ताम्बा धातु सन्निहित है। यदि चमक श्वेत रंग की हो तो चाँदी है। कृत्रिम ज़री पत्थर पर किसी भी रंग की छाप नहीं छोड़ती है। किन्तु जांचने के ये उपाय वास्तव में पूर्णतः विश्वसनीय नहीं हैं। नकली धातु भी इसी प्रकार के परिणाम दे सकते हैं। अतः शुद्धता को जांचने के लिए सर्वोत्तम उपाय है, प्रयोगशाला परिक्षण।

ज़री उत्पादन को अब मानकीकृत कर दिया गया है। आगे आने वाले संस्करणों में हम इस विषय पर विस्तार में चर्चा करेंगे।

और पढ़ें: बेंगलुरु का रेशम मार्ग

कलाबत्तू – हमारी धरोहर

सांस्कृतिक रूप से भारत में शुद्धता का सम्बन्ध सोना एवं चाँदी से लगाया जाता है। अतः, जब उसी सोना तथा चाँदी का प्रयोग हमारे परिधानों में किया जाता है तो वह उन परिधानों पर शुद्धता की एक परत चढ़ा देता है। विशेष रूप से जब ऐसे परिधान किसी महत्वपूर्ण संस्कार अथवा जीवन के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर प्रयोग में लाये जाने वाले हों। झिलमिलाते रेशम पर शुद्ध चाँदी की चमचमाती ज़री सम्पन्नता की झलक बन कर उभरती है।

यदि कलाबत्तू एवं रेशम विश्वसनीय हों तो शुद्ध रेशमी साड़ियों का क्रय करते समय उनका मूल्य चुकाते हुए झिझकिये नहीं। ऐसी साड़ियों पर धन व्यय करना पूर्णतः योग्य है।

जरी अथवा कलाबत्तू की निर्मिती एवं बुनाई भारत की जीवंत धरोहर है। आइये उसे इसी प्रकार संरक्षित करने का लक्ष्य रखते हैं।

यह संस्करण Silk Mark Organization of India के सहचर्य से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नृसिंह जयंती कैसे मनाई जाती हैं ब्रज भूमि में https://inditales.com/hindi/narsimha-jayanti-leela-utsav-braj/ https://inditales.com/hindi/narsimha-jayanti-leela-utsav-braj/#comments Wed, 19 Oct 2022 02:30:33 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2827

वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत चार मुख्य जयंती व्रत एवं उत्सवों को अत्यधिक मान्यता दी गई है। यह चार जयंती व्रत क्रमशः है जन्माष्टमी, वामन जयंती, राम नवमी और नृसिंह जयंती। वैष्णव संप्रदाय के सिद्धांत अनुसार जगत का कल्याण करने के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं और अवतार लेकर ही वह अपने भक्तों के अभीष्ट […]

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वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत चार मुख्य जयंती व्रत एवं उत्सवों को अत्यधिक मान्यता दी गई है। यह चार जयंती व्रत क्रमशः है जन्माष्टमी, वामन जयंती, राम नवमी और नृसिंह जयंती। वैष्णव संप्रदाय के सिद्धांत अनुसार जगत का कल्याण करने के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं और अवतार लेकर ही वह अपने भक्तों के अभीष्ट को सिद्ध करते हैं। श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार बाल भक्त प्रहलाद की भक्ति को सिद्ध करने एवं हिरण्यकश्यपु का वध करने के लिए ही श्री विष्णु नृसिंह रूप में प्रगट हुए। वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को अवतार लेकर प्रभु ने इस लीला को सम्पादित किया इसलिए इस तिथि को नृसिंह चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है। इस लीला को ब्रज में त्योहार के रूप में बड़ी ही धूम धाम से मनाया।

सत्यं विधातुं निज-भृत्य भाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः |
अदृश्यतात्यद्भुत रूपं उद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषं ||

अपने भक्तो की वाणी को सत्य करने के लिए भगवन सदैव तत्पर रहते है इसीलिए भक्त प्रह्लाद की बात को सत्य करने के लिए भगवान नृसिंह खम्बा फाड़कर प्रकट हुए जो न तो पूरे सिंह थे और न ही पूरे मनुष्य।

प्राचीन नृसिंह मंदिर, केशी घाट, वृन्दावन
प्राचीन नृसिंह मंदिर, केशी घाट, वृन्दावन (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

ब्रज की नृसिंह जयंती

ब्रज में विशेषतः मथुरा एवं वृंदावन में यह उत्सव अत्यंत ही उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। देवालयों से पृथक लोक संस्कृति में नृसिंह उत्सव की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। वृंदावन में स्थित नृसिंह मंदिरों में यह उत्सव विधि विधान के साथ मनाया जाता है। कथा अनुसार हिरण्यकशिपु को दिए हुए वर के कारण भगवान नृसिंह संध्या समय प्रगट हुए थे क्योंकि वर अनुसार न उसको दिन में मारा जा सकता था न ही रात में। इसी परंपरा के कारण श्री नृसिंह जी का अभिषेक मंदिरों में सांय काल विभिन्न अनुष्ठान के अंतर्गत संपादित किया जाते हैं। इस उत्सव में किन्ही किन्ही मंदिरों में भगवान को नृसिंह वेश भी धारण कराया जाता है। श्री राधादामोदार मंदिर एवं श्री राधा श्यामसुंदर मंदिर में इस दिन विशेष नृसिंह झांकी में भगवान दर्शन देते है।

राधा श्यामसुंदर नृसिंह वेश में
राधा श्यामसुंदर नृसिंह वेश में (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

भगवान का नृसिंह स्वरूप चूंकि उग्र था इसलिए भगवान को शीतलता देने के लिए विभन्न प्रकार के पेय पदार्थ भोग रूप में दिए जाते है। आमरस और सत्तू इसमें अत्यंत विशेष माना जाता है। ठाकुर जी को खीरा, ककड़ी, खरबूजा, मिष्ठान आदि का भोग अर्पित कर प्रसाद भक्तजनों में वितरित किया जाता है। परंतु इस उत्सव का सबसे मुख्य आकर्षण है इस कथा पर की जाने वाली नृसिंह लीला।

नृसिंह लील के मुखौटे
नृसिंह लील के मुखौटे (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

नृसिंह जयंती पर नृसिंह लीला

नृसिंह लीला में वास्तव में नृसिंह कथा का मुखौटा पहन कर नृत्यात्मक मंचन होता है जिसमे भागवत पुराण में वर्णित हिरण्यकश्यप वध को दिखाया जाता है। नृसिंह लीला में नृसिंह बनने वाले प्रमुख पात्र ब्राह्मण होते है, क्योंकि यह देव लीला है और भावुक जनता अपने आप को लीला के साथ आत्मसात कर नृसिंह बने पात्र को साक्षात भगवान का स्वरूप मानकर उसका पूजन व चरण स्पर्श करती है। प्रातः काल नृसिंह मंदिरों में नृसिंह, वराह, हनुमान, मकरध्वज, गणेश आदि मुखोटों की भाव वत पूजा अर्चना की जाती है।

नृसिंह लील के मुखौटो को धारण करते हुए
नृसिंह लील के मुखौटो को धारण करते हुए  (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

लीला के मंचन के पहले इन मुखौटो के बनने की विधा भी अत्यंत रोचक है। मुखौटों का निर्माण कागज की लुगदी और चिकनी मुलतानी मिट्टी के मिश्रण से किया जाता है। सब से पहले पुराने अखबार या साफ सुथरे कागजों को पानी में एक बड़ी मिट्टी की नांद में डालकर तीन चार दिनों के लिए भिगोने के लिए छोड़ दिया जाता है। वृन्दावन के शुकदेव शर्मा जो काफी लंबे अर्से से इन मुखौटों का निर्माण करते आ रहे है उन्होंने हमे बताय कि पहले हम लुगदी को बनाने के लिए कागज को भिगोते थे कई बार एक एक सप्ताह तक कागज भिगोने के बाद भी कागज की आवश्यकतानुसार ‘मुलायम ‘ लुगदी नहीं बन पाती थी इसलिए एक बार हमारे घर की ही एक छोटी बिटिया ने जादुई परामर्श दिया कि क्यों न कागज को पानी में उबाल लिया जाए। हमने प्रयोग किया तो पाया की परिणाम अच्छा है और समय बीच बचा।

और पढ़ें – फूल बंगला प्रथा ब्रज के मंदिरों का ग्रीष्मकालीन उत्सव

कागज की लुगदी और उसमें सही अनुपात में मुलतानी मिट्टी का मिश्रण मिलाने से पहले ‘सांचा ‘ बनाना पड़ता है और यह भी मिट्टी से ही बनता है। इसमें मुखौटे के सारे अवयवों के उभार उठान,गहराई आदि का ध्यान रखकर चाकू, कील और अन्य लकड़ी-लोहे की नुकीली चपटी चीजों से ‘सांचा ‘ बनाना पड़ता है। सांचा बनाने में भी काफी समय लगता है और फिर इसे कड़ी धूप में सुखाना पड़ता है।  सूख जाने के बाद रेगमाल आदि से रगड़ कर उसे चिकना किया जाता है ताकि मुखौटा ठीक से आकार ले सकें। इसके बाद मुखौटा बनाने से पहले एक साफ स्वच्छ और पतले कागज से सांचे को अच्छी तरह मढ़ दिया जाता है जिससे लुगदी और मिट्टी के मिश्रण का लेप चढ़ाने के बाद सूखने पर वह सांचे से चिपक न जाए और आसानी से सूख जाने पर निकल आए।

इसके बाद अत्यंत कौशल से साथ मुखौटे के ‘आकार’ को ध्यान में रखकर आधा इंच से एक इंच मोटी तक लुगदी तथा मुल्तानी मिट्टी के मिश्रण का लेप पूरे सांचे पर इस तरह चढ़ाया जाता है कि सारे अंग प्रत्यंग के अवयव स्पष्ट उभर आएं । इस लेपन में भी खासी मेहनत और कौशल की जरूरत रहती है तथा इसके बाद मुखौटे को पुनः सुखाया जाता है। अच्छी तरह सूख जाने पर इस सांचे से पुनः बड़ी बारीकी और कुशलता से अलग किया जाता है और एक बार पुनः संपूर्ण मुखौटे की रेगमाल आदि से घिसाई करके उसे ‘चिकना’ किया जाता है। मुखौटे को सांचे से अलग करते समय कई बार कुछ चीजें टूट या चटक भी  जाती है ऐसे में उनकी तत्काल रिपेयरिंग भी करनी पड़ती है, जैसे खास तौर पर नृसिंह और वराह के दांतों पर तो दोबारा मेहनत करना ही पड़ती है।

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नेत्र खोखले बनाए जाते हैं और उन्हें भी ठीक करना होता है । घिसाई के बाद असली काम होता है  और वह है मुखौटे का श्रृंगार यानी उसको ‘रंग प्रदान करना । यह श्रम साध्य तो है ही साथ ही बेहद कलात्मक कार्य भी है जिसमे चित्रकला का ज्ञान होना भी बहुत जरूरी है। पहली बार सफेद रंग से पहली परत प्रदान की जाती है। किसी जमाने में मिट्टी के रंगों को घोलकर चेहरे को चित्रित किया जाता था परन्तु अब तो ‘ ऑयल पेंट का ही प्रयोग  होता है और मुखौटों की भाव भंगिमा आदि पर रंग भरा जाता है। रंग को सूखने 3-4 दिन लग जाते हैं और सूख जाने के बाद भी आवश्यकतानुसार दोबारा रंग करना पड़ जाता है । भौहें तथा आंखें सबसे बाद में रंग भरा जाता है और इस तरह मुखौटा बन कर तैयार हो जाता है।

नृसिंह लीला का मंचन

नृसिंह का स्वरूप धारण करने वाला व्यक्ति उस दिन व्रत रखता है तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों को संपादित करता है। नृसिंह लीला का कथानक उनके बाल भक्त प्रह्लाद एवं उसके पिता हिरण्यकशिपु के साथ संबंध रखता है। प्रह्लाद को उसकी भक्ति निष्ठा का वरदान देने तथा हिरण्यकश्यपु के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु का आविर्भाव नृसिंह के रूप में खम्भ फाड़कर हुआ था सो ठीक उसी प्रकार से लीला को संपादित किया जाता है।

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सांय काल गोधूलि बेला के समय नृसिंह लीला का आयोजन होता है। इससे पूर्व नृसिंह भगवान के आगमन से पहले वराह, हनुमान, मकरध्वज, गणेश आदि के स्वरूप नगर में भ्रमण कर भगवान के आगमन की शुभ सूचना देते हैं। नगर के प्रमुख स्थलों पर नृसिंह लीला का भावपूर्ण नृत्य करके मंचन किया जाता है। इस मंचन में अलग अलग पात्र अलग अलग मुद्रा व नृत्य करके इस लीला में आनंद लेते है।अंत में घंटों की घनघोर विशिष्ट ध्वनि के मध्य भगवान नृसिंह आवेश रूप में खम्भ फाड़ कर अवतरित होते हैं। कुछ देर हिरण्यकश्यपु से युद्ध करने के बाद उसे अपनी जँघाओं पर लिटा कर नाखूनों से उसका सीना चीर कर वध करते हैं।

नृसिंह लील के पात्र नृसिंह आगमन की सूचना करते हुए 
नृसिंह लील के पात्र नृसिंह आगमन की सूचना करते हुए  (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

प्रह्लाद की स्तुति से उनका क्रोध शांत होता है तथा वह प्रह्लाद को गोद में बिठाकर उस पर अपना वात्सल्य लुटाते हैं। लीला का मंचन देख कर धर्म प्राण जनता प्रभु की जय जय कार करती है। इसके उपरांत नृसिंह भगवान की आरती की जाती है फिर विजय घंटे की ध्वनि के मध्य नृसिंह भगवान नगर में भ्रमण करने जाते हैं, जगह जगह उनका पूजन किया जाता है।

नृसिंह लील का मंचन
नृसिंह लील का मंचन (आभार- लक्ष्मी नारायण तिवारी जी)

लोक में मान्यता है कि भगवान नृसिंह का गृहस्थों के घर में आगमन कल्याणकारी होता है, इसलिए गृहस्थ लोग नृसिंह भगवान को अपने घर में बुलाते हैं एवं यथाशक्ति उनका पूजन कर अपने को धन्य मानते हैं। नृसिंह नृत्य परंपरा युद्धक नृत्य से अभिप्रेत है। नृसिंह भगवान का मुखौटा बहुत भारी होता है, अतः नृसिंह बनने वाले व्यक्ति का शरीर शारीरिक रूप से सुडौल होना चाहिए। श्रीधाम वृंदावन में यह उत्सव ठखम्भा, केशी घाट, शाह जी मंदिर, बनखंडी, अनाज मंडी आदि क्षेत्रों में मनाया जाता है। नगर के सभी विद्वत जन, वृद्ध, नर एवं नारी इस उत्सव का भरपूर उत्साह पूर्वक आनंद लेते हैं।

अतिथि संस्करण

नृसिंह जयंती उत्सव सुशांत भारती द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।

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