वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत चार मुख्य जयंती व्रत एवं उत्सवों को अत्यधिक मान्यता दी गई है। यह चार जयंती व्रत क्रमशः है जन्माष्टमी, वामन जयंती, राम नवमी और नृसिंह जयंती। वैष्णव संप्रदाय के सिद्धांत अनुसार जगत का कल्याण करने के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं और अवतार लेकर ही वह अपने भक्तों के अभीष्ट को सिद्ध करते हैं। श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार बाल भक्त प्रहलाद की भक्ति को सिद्ध करने एवं हिरण्यकश्यपु का वध करने के लिए ही श्री विष्णु नृसिंह रूप में प्रगट हुए। वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को अवतार लेकर प्रभु ने इस लीला को सम्पादित किया इसलिए इस तिथि को नृसिंह चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है। इस लीला को ब्रज में त्योहार के रूप में बड़ी ही धूम धाम से मनाया।
सत्यं विधातुं निज-भृत्य भाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः |
अदृश्यतात्यद्भुत रूपं उद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषं ||
अपने भक्तो की वाणी को सत्य करने के लिए भगवन सदैव तत्पर रहते है इसीलिए भक्त प्रह्लाद की बात को सत्य करने के लिए भगवान नृसिंह खम्बा फाड़कर प्रकट हुए जो न तो पूरे सिंह थे और न ही पूरे मनुष्य।
ब्रज की नृसिंह जयंती
ब्रज में विशेषतः मथुरा एवं वृंदावन में यह उत्सव अत्यंत ही उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। देवालयों से पृथक लोक संस्कृति में नृसिंह उत्सव की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। वृंदावन में स्थित नृसिंह मंदिरों में यह उत्सव विधि विधान के साथ मनाया जाता है। कथा अनुसार हिरण्यकशिपु को दिए हुए वर के कारण भगवान नृसिंह संध्या समय प्रगट हुए थे क्योंकि वर अनुसार न उसको दिन में मारा जा सकता था न ही रात में। इसी परंपरा के कारण श्री नृसिंह जी का अभिषेक मंदिरों में सांय काल विभिन्न अनुष्ठान के अंतर्गत संपादित किया जाते हैं। इस उत्सव में किन्ही किन्ही मंदिरों में भगवान को नृसिंह वेश भी धारण कराया जाता है। श्री राधादामोदार मंदिर एवं श्री राधा श्यामसुंदर मंदिर में इस दिन विशेष नृसिंह झांकी में भगवान दर्शन देते है।
भगवान का नृसिंह स्वरूप चूंकि उग्र था इसलिए भगवान को शीतलता देने के लिए विभन्न प्रकार के पेय पदार्थ भोग रूप में दिए जाते है। आमरस और सत्तू इसमें अत्यंत विशेष माना जाता है। ठाकुर जी को खीरा, ककड़ी, खरबूजा, मिष्ठान आदि का भोग अर्पित कर प्रसाद भक्तजनों में वितरित किया जाता है। परंतु इस उत्सव का सबसे मुख्य आकर्षण है इस कथा पर की जाने वाली नृसिंह लीला।
नृसिंह जयंती पर नृसिंह लीला
नृसिंह लीला में वास्तव में नृसिंह कथा का मुखौटा पहन कर नृत्यात्मक मंचन होता है जिसमे भागवत पुराण में वर्णित हिरण्यकश्यप वध को दिखाया जाता है। नृसिंह लीला में नृसिंह बनने वाले प्रमुख पात्र ब्राह्मण होते है, क्योंकि यह देव लीला है और भावुक जनता अपने आप को लीला के साथ आत्मसात कर नृसिंह बने पात्र को साक्षात भगवान का स्वरूप मानकर उसका पूजन व चरण स्पर्श करती है। प्रातः काल नृसिंह मंदिरों में नृसिंह, वराह, हनुमान, मकरध्वज, गणेश आदि मुखोटों की भाव वत पूजा अर्चना की जाती है।
लीला के मंचन के पहले इन मुखौटो के बनने की विधा भी अत्यंत रोचक है। मुखौटों का निर्माण कागज की लुगदी और चिकनी मुलतानी मिट्टी के मिश्रण से किया जाता है। सब से पहले पुराने अखबार या साफ सुथरे कागजों को पानी में एक बड़ी मिट्टी की नांद में डालकर तीन चार दिनों के लिए भिगोने के लिए छोड़ दिया जाता है। वृन्दावन के शुकदेव शर्मा जो काफी लंबे अर्से से इन मुखौटों का निर्माण करते आ रहे है उन्होंने हमे बताय कि पहले हम लुगदी को बनाने के लिए कागज को भिगोते थे कई बार एक एक सप्ताह तक कागज भिगोने के बाद भी कागज की आवश्यकतानुसार ‘मुलायम ‘ लुगदी नहीं बन पाती थी इसलिए एक बार हमारे घर की ही एक छोटी बिटिया ने जादुई परामर्श दिया कि क्यों न कागज को पानी में उबाल लिया जाए। हमने प्रयोग किया तो पाया की परिणाम अच्छा है और समय बीच बचा।
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कागज की लुगदी और उसमें सही अनुपात में मुलतानी मिट्टी का मिश्रण मिलाने से पहले ‘सांचा ‘ बनाना पड़ता है और यह भी मिट्टी से ही बनता है। इसमें मुखौटे के सारे अवयवों के उभार उठान,गहराई आदि का ध्यान रखकर चाकू, कील और अन्य लकड़ी-लोहे की नुकीली चपटी चीजों से ‘सांचा ‘ बनाना पड़ता है। सांचा बनाने में भी काफी समय लगता है और फिर इसे कड़ी धूप में सुखाना पड़ता है। सूख जाने के बाद रेगमाल आदि से रगड़ कर उसे चिकना किया जाता है ताकि मुखौटा ठीक से आकार ले सकें। इसके बाद मुखौटा बनाने से पहले एक साफ स्वच्छ और पतले कागज से सांचे को अच्छी तरह मढ़ दिया जाता है जिससे लुगदी और मिट्टी के मिश्रण का लेप चढ़ाने के बाद सूखने पर वह सांचे से चिपक न जाए और आसानी से सूख जाने पर निकल आए।
इसके बाद अत्यंत कौशल से साथ मुखौटे के ‘आकार’ को ध्यान में रखकर आधा इंच से एक इंच मोटी तक लुगदी तथा मुल्तानी मिट्टी के मिश्रण का लेप पूरे सांचे पर इस तरह चढ़ाया जाता है कि सारे अंग प्रत्यंग के अवयव स्पष्ट उभर आएं । इस लेपन में भी खासी मेहनत और कौशल की जरूरत रहती है तथा इसके बाद मुखौटे को पुनः सुखाया जाता है। अच्छी तरह सूख जाने पर इस सांचे से पुनः बड़ी बारीकी और कुशलता से अलग किया जाता है और एक बार पुनः संपूर्ण मुखौटे की रेगमाल आदि से घिसाई करके उसे ‘चिकना’ किया जाता है। मुखौटे को सांचे से अलग करते समय कई बार कुछ चीजें टूट या चटक भी जाती है ऐसे में उनकी तत्काल रिपेयरिंग भी करनी पड़ती है, जैसे खास तौर पर नृसिंह और वराह के दांतों पर तो दोबारा मेहनत करना ही पड़ती है।
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नेत्र खोखले बनाए जाते हैं और उन्हें भी ठीक करना होता है । घिसाई के बाद असली काम होता है और वह है मुखौटे का श्रृंगार यानी उसको ‘रंग प्रदान करना । यह श्रम साध्य तो है ही साथ ही बेहद कलात्मक कार्य भी है जिसमे चित्रकला का ज्ञान होना भी बहुत जरूरी है। पहली बार सफेद रंग से पहली परत प्रदान की जाती है। किसी जमाने में मिट्टी के रंगों को घोलकर चेहरे को चित्रित किया जाता था परन्तु अब तो ‘ ऑयल पेंट का ही प्रयोग होता है और मुखौटों की भाव भंगिमा आदि पर रंग भरा जाता है। रंग को सूखने 3-4 दिन लग जाते हैं और सूख जाने के बाद भी आवश्यकतानुसार दोबारा रंग करना पड़ जाता है । भौहें तथा आंखें सबसे बाद में रंग भरा जाता है और इस तरह मुखौटा बन कर तैयार हो जाता है।
नृसिंह लीला का मंचन
नृसिंह का स्वरूप धारण करने वाला व्यक्ति उस दिन व्रत रखता है तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों को संपादित करता है। नृसिंह लीला का कथानक उनके बाल भक्त प्रह्लाद एवं उसके पिता हिरण्यकशिपु के साथ संबंध रखता है। प्रह्लाद को उसकी भक्ति निष्ठा का वरदान देने तथा हिरण्यकश्यपु के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु का आविर्भाव नृसिंह के रूप में खम्भ फाड़कर हुआ था सो ठीक उसी प्रकार से लीला को संपादित किया जाता है।
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सांय काल गोधूलि बेला के समय नृसिंह लीला का आयोजन होता है। इससे पूर्व नृसिंह भगवान के आगमन से पहले वराह, हनुमान, मकरध्वज, गणेश आदि के स्वरूप नगर में भ्रमण कर भगवान के आगमन की शुभ सूचना देते हैं। नगर के प्रमुख स्थलों पर नृसिंह लीला का भावपूर्ण नृत्य करके मंचन किया जाता है। इस मंचन में अलग अलग पात्र अलग अलग मुद्रा व नृत्य करके इस लीला में आनंद लेते है।अंत में घंटों की घनघोर विशिष्ट ध्वनि के मध्य भगवान नृसिंह आवेश रूप में खम्भ फाड़ कर अवतरित होते हैं। कुछ देर हिरण्यकश्यपु से युद्ध करने के बाद उसे अपनी जँघाओं पर लिटा कर नाखूनों से उसका सीना चीर कर वध करते हैं।
प्रह्लाद की स्तुति से उनका क्रोध शांत होता है तथा वह प्रह्लाद को गोद में बिठाकर उस पर अपना वात्सल्य लुटाते हैं। लीला का मंचन देख कर धर्म प्राण जनता प्रभु की जय जय कार करती है। इसके उपरांत नृसिंह भगवान की आरती की जाती है फिर विजय घंटे की ध्वनि के मध्य नृसिंह भगवान नगर में भ्रमण करने जाते हैं, जगह जगह उनका पूजन किया जाता है।
लोक में मान्यता है कि भगवान नृसिंह का गृहस्थों के घर में आगमन कल्याणकारी होता है, इसलिए गृहस्थ लोग नृसिंह भगवान को अपने घर में बुलाते हैं एवं यथाशक्ति उनका पूजन कर अपने को धन्य मानते हैं। नृसिंह नृत्य परंपरा युद्धक नृत्य से अभिप्रेत है। नृसिंह भगवान का मुखौटा बहुत भारी होता है, अतः नृसिंह बनने वाले व्यक्ति का शरीर शारीरिक रूप से सुडौल होना चाहिए। श्रीधाम वृंदावन में यह उत्सव ठखम्भा, केशी घाट, शाह जी मंदिर, बनखंडी, अनाज मंडी आदि क्षेत्रों में मनाया जाता है। नगर के सभी विद्वत जन, वृद्ध, नर एवं नारी इस उत्सव का भरपूर उत्साह पूर्वक आनंद लेते हैं।
अतिथि संस्करण
नृसिंह जयंती उत्सव सुशांत भारती द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।
जय गिरिराज
बहुत ही दिव्य, व्यास – समास पद्धति से यथार्थ वर्णन।।
नृसिंह देव परम मंगल करें।।